अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं

अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं | शिक्षण और  शिक्षक का सम्बंध  – दोस्तों सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा में शिक्षण कौशल 10 अंक का पूछा जाता है।

शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है। यह विषय बीटीसी बीएड में भी शामिल है।

आज हम इसी विषय के समस्त टॉपिक को पढ़ेगे।  बीटीसी, बीएड,यूपीटेट, सुपरटेट की परीक्षाओं में इस टॉपिक से जरूर प्रश्न आता है। जिसमें आज हम एक टॉपिक पढ़ेगे । अतः इसकी महत्ता को देखते हुए hindiamrit.com आपके लिए यह टॉपिक  लेकर आया है।

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qualities of good teacher in hindi | अच्छे शिक्षक के गुण | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं

अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं
अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं



अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | प्रभावी शिक्षण हेतु कुशल शिक्षक की विशेषताएं

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अच्छे शिक्षक के गुण | qualities of good teacher in hindi | कुशल शिक्षक की विशेषताएं | characteristics of good teacher in hindi


(1) विषय का विस्तृत ज्ञान (Comprehensive knowledge of subject)

विषय के विस्तृत ज्ञान से हमारा आशय यह नहीं कि प्रत्येक शिक्षक ने स्नातक अथवा स्नातकोत्तर परीक्षाएँ ही पास की हों। यह न तो सम्भव ही है और न उचित ही।

शिक्षक के विस्तृत ज्ञान से हमारा आशय केवल इतना है कि उसे जिस कक्षा को और जिस विषय को पढ़ाना है,उसकी यथेष्ट जानकारी हो।

उसकी पूरी जानकारी न होने पर शिक्षक बालक के साथ न्याय नहीं कर सकता तथा उनकी विषय से सम्बन्धित समस्याओं को दूर नहीं कर सकता।

विषय के विस्तृत ज्ञान के लिये दो बातों की आवश्यकता है-

(A) विषय में रुचि

यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि जिस विषय में हमारी रुचि होती है उसे हम पूर्णतया जानने का प्रयत्न करते हैं।

अत: शिक्षक की यदि उस विषय में रुचि है तो वह उसे जानने का प्रयत्न करेगा अन्यथा नहीं।

(B) लगन

किसी विषय में हमारी रुचि तो हो लेकिन उसे लगन से पढ़ें नहीं तो भी हमें उस विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता। इसलिये जिस विषय का भी विस्तृत ज्ञान शिक्षक को प्राप्त करना हो उसे लगन से पढ़ना चाहिये।

जब हमारी विषय में रुचि भी होगी और उसे लगन से पढ़ेंगे भी तो निस्सन्देह उस विषय का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।

अत: शिक्षक को चाहिये कि बालकों को जो कुछ भी पढ़ाना है उसकी सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को समझने के लिये उसे लगन लगाकर स्वयं भी पढ़े।



(2) शिक्षार्थी की क्षमताओं और योग्यताओं का ज्ञान (Knowledge of capacities and capabilities of students)

यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि विद्यार्थी कितना ही प्रयत्न क्यों न करे वह उतना ही समझ पाता है जितनी उसकी समझने की क्षमता (Capacity) और योग्यता (Capability) है।

सभी विद्यार्थियों की किसी बात को समझने की क्षमता समान नहीं होती क्योंकि उनके शारीरिक एवं बौद्धिक स्तर तथा रुचियाँ आदि सभी समान नहीं होते।

इन विभिन्नताओं का प्रभाव बालक के सीखने पर पड़ता है। सभी बालक सभी बातों को समान रूप से नहीं सीख सकते।

इसलिये शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों की विभिन्नताओं को समझे और उसी के अनुसार उन्हें शिक्षा दे।

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जो शिक्षक बालकों को नहीं समझ सकता । वह यह नहीं समझ सकता कि किस बालक को कौन-सी बात और किस परिस्थिति में सिखानी चाहिये?

अत: शिक्षक को चाहिये कि वह यह जानने का प्रयत्न करे कि कौन-सा बालक कितना सीख सकता है और किस प्रकार सीख सकता है?



(3) शिक्षण विधियों का ज्ञान (Knowledge of teaching techniques)

विषय और बालकों को भली-भाँति समझने के पश्चात् तीसरी बात जो एक शिक्षक को जाननी चाहिये वह है-शिक्षण विधियों का ज्ञान।

एक समय था जब शिक्षक आँख मीचकर विद्यार्थियों से अपनी ही बात कहता जाता था।

जब विद्यार्थियों को अपनी बात कहने को कोई स्थान नहीं था तो वे शिक्षक की बात को लापरवाही से सुनते थे । और परिणाम यह होता था कि शिक्षक अपने दायित्व को पूर्ण हुआ समझ लेता था, जबकि बालक कुछ भी नहीं समझ पाते थे।

आज मनोविज्ञान यह कहता है कि ऐसे बालकों से यदि बीच में कोई प्रश्न पूछ लिया जाय तो वे ही सतर्क नहीं होते । अपितु उनके साथी भी सतर्क हो जाते हैं।

परिणामत: बात उनकी समझ में आ जाती है। ऐसे ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित शिक्षण की कई विधियाँ हैं।

इन विधियों के अनुसरण से शिक्षण को और भी अधिक प्रभावकारी बनाया जा सकता है । परन्तु इसका आशय यह कदापि नहीं कि कोई भी एक शिक्षण विधि सभी परिस्थितियों में समान रूप से प्रभावकारी सिद्ध हो।

कभी कोई शिक्षण विधि अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती है तो कभी कोई ।

अतः शिक्षक को चाहिये कि जिस परिस्थिति में जो भी प्रभावकारी सिद्ध हो उसी विधि से पढ़ाना उपयुक्त रहता है। यह तभी सम्भव है जब शिक्षक को विभिन्न शिक्षण विधियों की जानकारी हो।


(4) जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी (Knowledge of various field of life)

शिक्षा का उद्देश्य बालकों को किसी नयी बात का ज्ञान देना ही नहीं अपितु शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष की शिक्षा देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना उसका सैद्धान्तिक पक्ष ।

शिक्षण में भी शिक्षा के दोनों पहलुओं पर सम्मान बल देना है। शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष (Application) की समुचित शिक्षा देने के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक को जीवन के विभिन्न पहलुओं और क्षेत्रों का ज्ञान हो।

क्षेत्रों से हमारा तात्पर्य जीवन की उन विभिन्न परिस्थितियों से है, जिनमें होकर व्यक्तियों को गुजरना पड़ता है। एक कुशल शिक्षक को उन परिस्थितियों का समुचित ज्ञान होना चाहिये।



(5)  कुशल अभिव्यक्ति (Impressive expression)

किसी बात का ज्ञान होना एक बात है और उसे दूसरों तक पहुँचाना दूसरी बात। गूंगा व्यक्ति बहुत-सी बातें जानता है लेकिन वह उन्हें दूसरों को नहीं बता सकता।

किसी बात को दूसरों तक पहुँचाना ही अभिव्यक्ति है। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि कोई व्यक्ति अपनी बात बड़ी सरलता और प्रभावकारी ढंग से दूसरों तक पहुँचा देता है।

जबकि कुछ अन्य बार-बार प्रयत्न करने पर भी उतनी अच्छी तरह अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुँचा पाते। यही कुशल अभिव्यक्ति है।

एक शिक्षक पर्याप्त ज्ञान रखते हुए भी यदि अभिव्यक्ति में कुशल नहीं है तो वह अच्छा शिक्षक नहीं बन सकता। वह अच्छा क्लर्क हो सकता है, अच्छा प्रशासक बन सकता है लेकिन अच्छा शिक्षक नहीं।

अभिव्यक्ति भी दो रूप हैं-मौखिक और लिखित । कुशल शिक्षक को वैसे तो दोनों में ही योग्य होना चाहिये फिर भी उसके लिये मौखिक अभिव्यक्ति की सबलता बहुत ही अधिक आवश्यक है तथा मौखिक अभिव्यक्ति के लिये विषय-ज्ञान, सरल एवं सुस्पष्ट भाषा, शुद्ध उच्चारण तथा प्रभावकारी शैली आवश्यक है।



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(6) सहानुभूति (Sympathy)

बालकों के प्रति शिक्षक की सहानुभूति शिक्षक को बालकों की दृष्टि से श्रद्धालु बना देती है। श्रद्धालु शिक्षक बालकों से भले ही कुछ न कहे बालक स्वत: ही अध्ययनशील बन जाते हैं।

पढ़ने में आलस करना, अनुशासन भंग करना आदि विरोधी कार्यों को वे इसलिये नहीं करते कि ऐसे कार्यों को करने से उनके शिक्षक की प्रतिष्ठा में कमी आ जायेगी।

केवल अपने श्रद्धालु शिक्षक की प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए
बालक निन्दनीय कार्यों को करने से डरते हैं। इसके विपरीत जो शिक्षक बालकों के प्रति कठोर होते हैं। उनकी कठोरता बालकों में ऐसे हीनभाव उत्पन्न कर देती है।

जो उनके द्वारा किसी बात को सीखने में बाधक होते हैं। उदाहरण के लिये, पीटने वाले शिक्षक से भय। भय खाने वाले बालक जिस शिक्षक से भयभीत होते हैं उसकी उपस्थिति में पढ़ नहीं सकते।

(7) सहयोग (Cooperation)

बालक ही नहीं अपितु किसी भी व्यक्ति के साथ सहयोग से कार्य करने पर वह कार्य अधिक सुव्यवस्थित रूप से एवं कम समय में हो जाता है।

शिक्षा में भी बालकों के सहयोग से शिक्षण सफल एवं सुचारु रूप से चलता रहता है।

सहयोग से यहाँ हमारा तात्पर्य है कि शिक्षक बालकों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को ध्यान में रखकर शिक्षण का कार्य करे। उनकी कठिनाइयों को सुने और उन्हें यथासम्भव दूर करने का प्रयत्न करे। संक्षेपत: शिक्षक विद्यार्थी के लिये सब कुछ है, वह-

(1) एक पिता है क्योंकि पिता का प्रेम उससे विद्यार्थी को मिलता है।

(2) वह उसका मित्र है क्योंकि हर विषम परिस्थिति में वह उसका सहायक है।


(3) वह उसका मार्गदर्शक है क्योंकि जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में विद्यार्थी को मार्गदर्शन शिक्षक से ही मिलता है।


(4) वह उसका अग्रगामी है क्योंकि बहुत-सी बातें विद्यार्थी उसी के पदचिह्नों पर चलकर पूरी करते हैं ।


(5) वह सुधारक है क्योंकि बालक जीवनयुक्त होते हुए भी उस मिट्टी के ढेले के समान है, जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं परन्तु कुम्भकार उसे भाँति-भाँति के सुन्दर बर्तनों का रूप दे देता है। ठीक उसी प्रकार शिक्षक भी बालक को सुधार कर वास्तविक रूप देता है।


(6) शिक्षक मानव निर्माता है क्योंकि बालकों में सच्ची सूझबूझ
शिक्षक की सीख द्वारा ही आती है। उसकी सच्ची शिक्षा द्वारा ही बालक सच्चा मानव बन पाता है।



(7) सरल एवं सुस्पष्ट भाषा

भाषा की सरलता से हमारा तात्पर्य यह कदापि नहीं शुद्ध और साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया ही नहीं जाय, अपितु सरलता से हमारा आशय केवल इतना ही है कि कक्षा के स्तर को दृष्टिगत रखते हुए ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाय, जिससे सुनने वाला सरलता से उसका अर्थ ग्रहण कर सके।

इसी प्रकार भाषा की सुस्पष्टता का आशय लिंग, वचन आदि का ध्यान रखते हुए ऐसी भाषा के प्रयोग से है जिसे सुनने वाला समझ सके। एक कुशल शिक्षक को सफल अभिव्यक्ति के लिये सदैव सरल एवं सुस्पष्ट भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये।

(8) उच्चारण की शुद्धता

सभी भाषाओं में कुछ न कुछ शब्द ऐसे अवश्य होते हैं जिनका उच्चारण बहुत कुछ मिलता-जुलता है। ऐसे शब्दों में परस्पर भेद स्थापित करना उच्चारण की शुद्धता पर आधारित है।

यदि बोलने वाला शब्दों का उच्चारण ठीक-ठीक करता है तो समझने वाला भी उसका ठीक-ठीक अर्थ ग्रहण कर लेता है, अन्यथा नहीं।

तोतले बालकों की बातें देर से समझ में आने का यही कारण है कि उनके शब्दोच्चारण में नहीं होती। एक कुशल शिक्षक में इस गुण का होना भी आवश्यक है।

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(9) सद्व्यवहार (Good Behaviour)

सद्व्यवहार में वह शक्ति है कि बड़े से बड़े अभिमानी व्यक्ति भी उसके सामने झुक जाते हैं।

इन सिद्धान्तों के प्रकाश में यदि हम शिक्षण के सम्बन्ध में विचार करें तो यह मानना पड़ता है कि जो शिक्षक अपने छात्रों को जितना प्यार करता है वे उतने ही उसके निकट आकर बहुत-सी बातें स्वत: ही सीख लेते हैं।

यदि शिक्षक व्यवहार-कुशल नहीं है तो भी उसका शिक्षण प्रभावोत्पादक नहीं हो सकता क्योंकि-

(1) बालकों को चरित्र की शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप में शिक्षक के व्यवहार से ही मिलती है।

(2) शिक्षक का सद्व्यवहार उनमें कुछ ऐसे गुणों को जन्म देता है, जो बालकों की स्वतः उन्नति और चरित्र-निर्माण में सहायक है।

इसीलिये प्रत्येक शिक्षक के प्रति बालकों की श्रद्धा नहीं होती। अत: सफल शिक्षण के लिये शिक्षक का व्यवहार बालकों के प्रति अच्छा होना चाहिये।

शिक्षण और शिक्षक का संबंध

शिक्षण और शिक्षक (Teaching and Educator) शिक्षण को चाहे हम द्विअंगीय प्रक्रिया माने या त्रिआंगिक किन्तु यह निर्विवाद है कि उसमें शिक्षक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्राचीन काल में तो शिक्षक का सर्वोपरि स्थान था। वह उस कुम्भकार से किसी प्रकार भी कम नहीं था जो मिट्टी को जैसा चाहे वैसा आकार प्रदान कर देता है।

प्राचीन काल में शिक्षक भी अपने शिष्यों को जीवन के जिस ढाँचे में ढालना चाहता, ढाल देता था। धीरे- गरे समय ने करवट ली और आज शिक्षक का उतना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा जितना कभी था।

आज धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि शिक्षार्थी भी शिक्षण प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। क्योंकि उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता, रुचियाँ, अभिरुचियाँ एवं मनोवृत्तियाँ उसके किसी बात को सीखने या न सीखने देने में महत्त्वपूर्ण योग देती हैं।

शिक्षार्थी के बदलते हुए विचारों और दृष्टिकोणों को जो शिक्षक भली-भाँति नहीं समझ सकता वह उसे कोई बात प्रभावकारी ढंग से नहीं समझा सकता।

यह सत्य है कि शिक्षण की प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान सर्वेसर्वा नहीं रहा, परन्तु साथ ही साथ यह भी सत्य है कि उसका स्थान इस महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया में सर्वोपरि है।

हाँ, यह दृष्टिकोण की भिन्नता अवश्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है कि पहले वह गुरु था । आज वह केवल मार्ग निर्देशक के रूप में रह गया है परन्तु यदि गहरायी से विचार किया जाय तो मार्ग-निर्देशक का कार्य भी किसी भी प्रकार से कम महत्त्वपूर्ण नहीं।

वह व्यक्ति कभी भी मार्ग-निर्देशन का कार्य नहीं कर सकता, जिसे विभिन्न मार्गों की सरलताओं और जटिलताओं का ज्ञान न हो।

इसी प्रकार वह शिक्षक भी दूसरों का पथ-प्रदर्शक नहीं बन सकता, जिसे शिक्षा के विभिन्न स्रोतों और क्षेत्रों का पूर्ण ज्ञान न हो परन्तु यह कार्य कुशल शिक्षक ही कर सकता है, सभी नहीं।

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