अस्थि बाधित बालकों (विकलांग बालक) की पहचान, विशेषताएं, प्रकार, कारण / अस्थि बाधित बालकों की शिक्षा एवं शिक्षण सामग्री

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय समावेशी शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर अस्थि बाधित बालकों (विकलांग बालक) की पहचान, विशेषताएं, प्रकार, कारण / अस्थि बाधित बालकों की शिक्षा एवं शिक्षण सामग्री आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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( Handicapped child) / अस्थि बाधित बालकों की शिक्षा एवं शिक्षण सामग्री

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अस्थि बाधित बालक या विकलांग बालक या शारीरिक दक्षता से वंचित ( Physical Disability or Handicapped child)

कुछ ऐसे बालक भी होते हैं जिनके शरीर में कोई हड्डी विकृत या टूटी हुई होती है अथवा किसी अंग विशेष की हड्डी होती ही नहीं अथवा किसी दुर्घटना में भी बालक की हड्डी खराब हो जाती है। ऐसे बालकों को अस्थि बाधित बालकों की श्रेणी में रखा जाता है। इनको विकलांगता की श्रेणी में रखकर इनकी शिक्षा व्यवस्था की जाती है तथा आवश्यक साधन इन्हें प्रदान किये जाते हैं। इनके लिये सुविधायुक्त फर्नीचर, विशेष प्रकार के मोटे लेखन वाले पैन, कृत्रिम हाथ-पैर, पहिये वाली कुर्सी तथा वैशाखी आदि उपलब्ध करायी जाती हैं।

विकलांगता में मानसिक रूप से या शारीरिक रूप से अक्षम होना एक दोष होता है। फलतः बालक इस दोष के कारण सही गति से सीखने, खेलने तथा पर्याप्त सामाजिकता की उपलब्धि में कठिनाई अनुभव करते हैं।

अस्थि बाधित बालक के प्रकार

(1) जन्मजात अस्थि विकलांग
(2) आंशिक अस्थि विकलांग
(3) गंभीर अस्थि विकलांग

विकलांगता के कारण / अस्थि अक्षमता के कारण

(1) अनुवांशिक कारण ( जन्म के पहले के कारण )
(2) जन्मजात अनियमितता ( जन्म के पहले के कारण)
(3) मस्तिष्कीय आघात ( जन्म के बाद के कारण )
(4) मांसपेशी कंकाल अक्षमता ( जन्म के बाद के कारण )
(5) न्यूरोलॉजिकल अक्षमता ( जन्म के बाद के कारण )

विकलांगता की परिभाषाएं / अस्थि बाधित बालक की परिभाषाएँ

शिक्षाविदों द्वारा विकलांगता की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गयी हैं-

(1) भारतीय संविधान के अनुसार,“ अस्थि विकलांग बालक उन्हें कहा जाता है जो गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हैं और इसी अस्थि की विकलांगता से शिक्षा प्रदान करने में कठिनाई होती है।”

(2) विकलांगता अधिनियम के अनुसार,“अस्थि विकलांगता से तात्पर्य हड्डियों, मांसपेशियों और जोड़ों की कोई ऐसी क्षतिग्रस्तता से अभिप्रेत है जिससे अंगों की गति में पर्याप्त निबंधन या किसी प्रकार का प्रमस्तिष्क घात हो।

(3) श्री बी. जी. तिवारी के अनुसार-“शारीरिक विकलांगता एक ऐसी स्थिति है जो किसी भी अवस्था में सामान्य व्यवहार, कार्यशक्ति एवं नियमित कृत्य को न्यूनाधिक प्रभावित कर आंगिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावात्मक असन्तुलन उत्पन्न कर देती है।”

(4) को एवं क्रो ने स्पष्ट किया है कि-“वह बालक जिसका शारीरिक दोष उसे साधारण कहा जायेगा।” क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है अथवा सीमित रखता है।

शारीरिक अक्षमता से युक्त बालक विकलांग की पहचान

विकलांग बालकों की पहचान उनके व्यवहार, चलने-फिरने, बैठने-उठने तथा उनकी शारीरिक प्रकृति से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त उनके कार्य करने की विधि, कार्यक्षमता तथा कार्य के परिणाम आदि से भी उनकी पहचान की जा सकती है।

विकलांगों के लिये राष्ट्रीय स्तर पर कार्य

विकलांगों के लिये राष्ट्रीय स्तर पर भी कार्य हो रहे हैं। यह निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है-

(1) प्रति वर्ष मार्च का तृतीय रविवार विश्व विकलांग दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह निर्णय सैन् 1959 में 20 सितम्बर को ज्यूरिक सम्मेलन में लिया गया। (2) यूनेस्को ने वर्ष 1981 को विकलांगों का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया था। (3) विकलांगों के लिये विकलांगो की अन्तर्राष्ट्रीय चिह्न भी दर्शाया गया है।

भारतवर्ष में भी विकलांगों हेतु अनेक कार्यक्रम बनाये गये हैं। विभिन्न सेवाओं में उन्हें 3% आरक्षण प्रदान किया गया है। वर्ष 1982 को राष्ट्रीय विकलांग वर्ष घोषित किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी समुचित शिक्षा के लिये अनेक नये प्रावधान किये गये हैं। चिरकालिक रोगी बालकों के लिये इस प्रकार के प्रयास न केवल राष्ट्रीय बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अति वांछनीय हैं जिससे वे अपनी-अपनी योग्यतानुसार व्यवसाय पाकर अपना जीवन सफल बना
सकें और किसी पर आश्रित न रहकर सन्तुष्ट जीवन व्यतीत कर सकें।

विकलांगता तथा शारीरिक अक्षमता की विशेषताएँ

शारीरिक रूप से निर्बल एवं अस्वस्थ बालकों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं – (1) विकलांग बालक सामान्य बालकों की अपेक्षा शारीरिक रूप से अक्षम तथा निर्बल होते हैं। (2) विकलांग बालकों की मानसिक योग्यता एवं बुद्धिलब्धि सामान्य बालकों जैसी अथवा उनसे अधिक होती है। (3) विकलांगता का दोष बालकों को शिक्षा प्राप्त करने में बाधक होता है। (4) विकलांग बालक सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग नहीं ले पाते। इनमें एकाकीपन की भावना विद्यमान रहती है। (5) सामाजिक दृष्टि से भली-भाँति समायोजन नहीं कर पाते फलत: अपने साथियों तथा समाज के अन्य लोगों द्वारा उपहास के पात्र बनते हैं।

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(6) विकलांग बालक अपनी विकलांगता की कमी किसी न किसी दूसरे क्षेत्र में पूर्ण कर लेते हैं; जैसे-किसी कलात्मक कार्य में प्रवीणता, संगीत में रुचि, वाद-विवाद तथा अध्ययन में बहुत आगे होते हैं। (7) ऐसे बालक अपने स्वास्थ्य के प्रति चिन्ताग्रस्त होते हैं । (8) निर्धन परिवारों में निर्बल बालक-बालिकाओं की संख्या अधिक पायी जाती है। (9) शारीरिक रूप से कमजोर बालक अधिक बुद्धिलब्धि होते हुए भी शारीरिक दुर्बलता के कारण अधिक शैक्षिक कार्य नहीं कर पाते। (10) ऐसे बालक अधिक परिश्रम भी नहीं कर पाते क्योंकि इनको शीघ्र थकान हो जाती है। (11) निर्बल बालक कक्षा में सामान्य बालकों से बहुत पीछे रह जाते हैं क्योंकि वे पढ़ायी की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाते। (12) ऐसे बालकों का शारीरिक विकास बहुत धीमी गति से होता है अथवा अवरुद्ध रहता है।

अस्थि बाधित बालकों की समस्याएं

शारीरिक रूप से विकलांग बालक मानसिक रूप से पूर्णतया विकसित एवं सक्षम होते हैं परन्तु इन बालकों में आत्महीनता की भावना का विकास हो जाता है। इसका कारण यह है कि अपनी शारीरिक विकृति के कारण ये अपने समूह में उपहास के पात्र बन जाते हैं। ऐसे बालक अनेक सामाजिक एवं सामुदायिक कार्यों में भाग नहीं ले पाते। ये सामान्य बालकों की तरह खेलों में न तो भाग लेते हैं न ही रुचि।

अस्थि बाधित बालकों के लिये शैक्षिक व्यवस्था

अस्थिबाधित या विकलांग बालकों के शिक्षण सम्बन्धित क्रियाकलापों में सामान्य बालकों की अपेक्षा विशेष सावधानी रखना तथा प्रारम्भिक हस्तक्षेप अति आवश्यक है क्योंकि इनकी विकलांगता इनके विकास एवं सामान्य शिक्षा में बाधक बनती है। यदि विशेष सावधानी नहीं बरती गयीं तो विकलांग बालक समाज के लिये एक बहुत बड़ी समस्या बन जायेंगे। ये समाज में भली-भाँति समायोजित नहीं हो सकेंगे और समाज पर इनकी- आश्रितता बहुत अधिक बढ़ जायेगी। इसका परिणाम यह भी हो सकता है कि इनमें हीनता की भावना, आत्म-विश्वास का अभाव तथा अपराधी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले और ये समाज में स्वयं को व्यर्थ एवं अनुपयोगी समझें।

इन बालकों के लिये उपर्युक्त कारणों से शिक्षण में विशेष सावधानियाँ निम्नलिखित रूप में बरती जानी अपेक्षित हैं-
(1) ऐसे बालकों को विशेष सुविधाएँ, विशेष दया तथा विशेष डाँट-फटकार भी नहीं देनी चाहिये क्योंकि यह विशेष व्यवहार इनमें दोष उत्पन्न कर सकता है। (2) सबसे बड़ी सावधानी यह रखना आवश्यक है कि माता-पिता,समाज एवं अध्यापक को यह स्वीकार करना चाहिये कि हमें इनके साथ रहना है और इनके विकास में अपना अधिकाधिक सहयोग देना है। ऐसे बालकों को अभिभावक तथा शिक्षक दोनों को ही भार (बोझ) स्वरूप न समझा जाय। अभिभावक एवं शिक्षक को कभी भी ऐसी बात या क्रिया नहीं करनी चाहिये जिससे कि इन बालकों के मन में यह भावना आये कि समाज, विद्यालय एवं परिवार हमें बोझ स्वरूप मान रहे हैं। (3) इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से इन्हें व्यावसायिक शिक्षा से जोड़ा जाये। इससे वे इस शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् अपनी आजीविका चला सकेंगे।

(4) ऐसे बालकों में कभी भी अपराधी प्रवृत्ति एवं कुसमायोजन का विकास हो सकता है, इसलिये इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये। (5) ऐसे बालकों के शिक्षण में विद्यालय एवं परिवार में परस्पर सहयोग होनाचाहिये। माता-पिता एवं शिक्षक ऐसे बालकों की शैक्षिक, सामाजिक तथा शारीरिक दुर्बलता की समस्या को मिल बैठकर समझें तथा उनको दूर करने का प्रयास करें और यदि चिकित्सा परीक्षण की आवश्यकता पड़े तो चिकित्सक से परीक्षण कराकर चिकित्सा करायें। (6) शिक्षण में इन बालकों के लिये समान समूह विधि (Homogenious grouping) का प्रयोग करना चाहिये। इसमें आयु, यौन, मानसिक विकास एवं माता-पिता की आयु के आधार पर इन्हें समूह में विभक्त कर देते हैं और इनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। इसके लिये योग्यता समूह एवं श्रेणीहीन कक्षा बनाना आवश्यक है।

कुछ शिक्षाविदों ने मानसिक रूप से विकलांग बालकों के लिये विशिष्ट शिक्षण विधियों का प्रतिपादन किया है जिनमें से बेलजियम के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सेगविन द्वारा प्रतिपादित ‘डिकराली विधि’ तथा इटली की प्रसिद्ध महिला श्रीमती मॉण्टेसरीद्वारा प्रतिपादित मॉण्टेसरी विधि’ का नाम उल्लेखनीय है-(i) डिकराली विधि सेगविन द्वारा प्रतिपादित है। इस विधि बालक की शारीरिक क्रियाओं के परिष्कार तथा प्रगति पर विशेष बल दिया जाता हैं इसमें बात का प्रयास किया जाता है कि बालक अपनी माँसपेशियों, ज्ञानेन्द्रियों एवं सांवेदाविक तथा गत्यात्मक क्रियाओं को नियन्त्रित करना सीखें।

इसके अतिरिक्त उनकी बौद्धिक क्षमता तथा विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं; यथा-निरीक्षण, कल्पना, स्मृतिकरण, चिन्तन, तर्क तथा निर्णय आदि के विकास पर ध्यान दिया जाता है। (ii) मॉण्टेसरी विधि में विशेष रूप से बालक को ज्ञानेन्द्रियों तथा निरीक्षण की शक्ति के विकास पर बल दिया जाता है। जिस वातावरण में में बालक पढ़ता,लिखता तथा खेलता है उसको सुधारने का प्रयास किया जाता है, जिससे बालक उससे समायोजन कर सके। बालक के रहन-सहन, भोजन तथा खेल आदि की समुचित व्यवस्था ही जाती है। इसके अतिरिक्त इस विधि में बालकों की संगीत, गायन तथा कला आदि में रुचि जाग्रत की जाती है। जो बालक प्रगति करते हैं उन्हें सूचना दी जाती है ताकि उन्हें प्रगति से प्रोत्साहन मिलता रहे।

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विकलांग बालकों हेतु शैक्षिक उपकरण / Collection of Tools for Handicapped Children

विकलांग बालकों के विद्यालयों हेतु सरकार की ओर से अतिरिक्त अनुदान राशि प्राप्त होती है ताकि विभिन्न प्रकार के उपकरण खरीद सकें। कुछ व्यक्तिगत संस्थाएँ समाज के प्रयासों से विकलांग बालकों के लिये विद्यालय संचालित करते हैं। ये अपने साधनों एवं समाज का सहयोग से उपकरण खरीदते हैं। शिक्षक का यह दायित्व है कि सरकार द्वारा संचालित एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित विकलांग विद्यालयों के लिये अधिकाधिक उ करण संग्रहीत करें। सरकार से प्राप्त सहायता के अतिरिक्त यह अन्य समाज सेवी संस्थाओं को अधिकाधिक सहायता देने को प्रेरित कर सकते हैं। विकलांग बालकों की सेवा एवं सहायता करने वाले दानदाताओं की समाज में कमी नहीं है।

अतः इनके लिये आवश्यक एवं पर्याप्त उपकरणों का संग्रह करने के लिये सभी से अधिकाधिक सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करें। शिक्षकों को विकलांग बालकों के उपकरणों के संग्रह से सम्बन्धित प्राथमिकताएँ सुनिश्चित कर लेनी चाहिये। अपने पास उपलब्ध साधनों में से किन उपकरणों की खरीद को प्राथमिकता दी जायेगी? आवश्यक उपकरणों की सुविधाएँ पहले ही निर्धारित कर ली जायें। उपकरणों के संग्रह में इस बात का ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि विकलांग बालकों की संख्या को ध्यान में रखकर पर्याप्त मात्रा में उपकरण खरीदे जायें। साथ ही उपकरणों का संग्रह करते समय अच्छी गुणवत्ता का ध्यान रखा जाय। घटिया स्तर के उपकरण शीघ्र खराब हो जाते हैं और फिर उनकी मरम्मत में बहुत अधिक व्यय आता है। वे व्यर्थ ही पड़े रहते हैं । इन उपकरणे का संग्रह करने से पूर्व विकलांग विशेषज्ञों से परामर्श करके उपकरणों की खरीद की जानी चाहिये।

विकलांग बालकों के लिए  सहायक प्रविधियाँ या उपकरण

सामान्य रूप से बैसाखी,व्हील चेयर, वॉकर तथा तीन पहिये वाले स्कूटर का प्रयोग किया जाता कुछ छात्रों में गत्यात्मक कौशल सम्बन्धी अक्षमताएँ पायी जाती हैं। इन अक्षमताओं के लिये है। इससे धीरे-धीरे उनको चलने से सम्बन्धित समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। इसके साथ-साथ कृत्रिम अंग लगाकर भी उनकी गत्यात्मक अक्षमता को दूर किया जाता है।
जैसे-किसी व्यक्ति का एक पैर किसी दुर्घटना में घुटने से कट गया है तो उसमें कृत्रिम पैर लगा कर उसकी समस्या का समाधान किया जाता है। कुछ प्रमुख उपकरण इस प्रकार से हैं –

(1) वैशाखी
(2) पट्टी गैलिस
(3) कैलिपस
(4) कृत्रिम अंग
(5) खपच्ची
(6) त्रिपहिया साईकल या स्कूटर

सरकार द्वारा विकलांगो के लिए नीतियां एवं व्यवस्थापन

स्वतन्त्रता के पश्चात् विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। सरकार द्वारा इसका व्यवस्थापन प्रभावी ढंग से किया गया है। सरकार की विशिष्ट शिक्षा सम्बन्धी नीतियों एवं व्यवस्थापन को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों की स्थापना –सरकार द्वारा प्रमुख रूप से शारीरिक अक्षमता निवारण के लिये देहरादून, कोलकाता, सिकन्दराबाद तथा मुम्बई में राष्ट्रीय संस्थान खोले गये। इन संस्थानों का प्रमुख कार्य अक्षमता से युक्त छात्र एवं छात्राओं के कल्याण के लिये कार्य करना है। इनके द्वारा छात्रों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सामान्य जीवन स्तर प्रदान करने की दिशा में कार्य किया जाता है। इन संस्थानों के द्वारा विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किये गये हैं।

2. व्यावसायिक आरक्षण –सरकार द्वारा विकलांग व्यक्तियों को सरकारी प्रतिष्ठानों में आरक्षण प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के लिये निर्धारित सीटों की संख्या आरक्षित कर दी जाती है। इन स्थानों पर विकलांग व्यक्तियों को ही नौकरी मिल सकती है तथा किसी सामान्य व्यक्ति को इस स्थान पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था सामान्य रूप से कार्य की प्रकृति देखकर लागू की जाती है; जैसे-विकलांग व्यक्ति को एक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जा सकता है परन्तु सेना में उसको रक्षण नहीं दिया जा सकता।

3. शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण – शिक्षण संस्थाओं में भी विकलांग छात्रों को आरक्षण प्रदान किया जाता है, जिससे उनको विद्यालय में प्रवेश में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। इसके साथ-साथ सरकार इस प्रकार के छात्रों को ये अनुभव कराना चाहती है कि वे भी सामान्य छात्रों की भाँति इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

4. शोध कार्यों को प्रोत्साहन –सरकार द्वारा शारीरिक अक्षमताओं से सम्बन्धित शोध कार्यों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। राष्ट्रीय संस्थानों में उन सभी विषयों पर शोध कार्यों के लिये सरकार आर्थिक सहायता प्रदान करती है, जो कि व्यक्तियों की अक्षमता को दूर करने में सहायता करते हैं; जैसे-श्रवण दोष को कम करने के लिये कान में लगाने वाली मशीन का अविष्कार करना तथा उन उपायों के बारे में पता लगाना, जिससे श्रवण दोषों से दूर रहा जा सकता है।

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5. जिला पुनर्वास केन्द्रों की स्थापना –सरकार द्वारा अक्षम व्यक्तियों की सहायता के लिये 10 राज्यों में जिला स्तर पर जिला पुनर्वास केन्द्रों की स्थापना की गयी है। इनका प्रमुख कार्य जिला स्तर पर अक्षम व्यक्तियों की प्रत्येक सम्भव सहायता करना है, जिससे कि वह समाज में सामान्य नागरिकों की भाँति रह सकें तथा उनको कोई भी हेय दृष्टि से न देखे। ये केन्द्र अक्षम व्यक्तियों के लिये शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करते हैं।

6.क्षेत्रीय पुनर्वास प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना –जिला पुनर्वास केन्द्रों की स्थापना के बाद सरकार के समक्ष यह समस्या उत्पन्न हुई कि इन केन्द्रों के कर्मचारियों को किस प्रकार प्रशिक्षित किया जाये जिससे ये अक्षमता से युक्त व्यक्तियों के पुनर्वास में सहार सकें। इसके लिये सरकार द्वारा पुनर्वास केन्द्रों के कर्मचारियों को प्रभावी एवं उपयोगी प्रशिक्षण प्रदान करना है, जिससे कि वे परिस्थिति विशेष में साधनों के अभाव में भी पुनर्वास कार्यक्रम का उचित संचालन कर सकें।

7.सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति – सरकार की इस विषय में विशेष रुचि उस समय दृष्टिगोचर हुई, जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुच्छेद 4.9 में विशिष्ट शिक्षा के प्रावधानों का वर्णन किया गया, जिसमें बताया गया कि सामान्य रूप से अक्षमता वाले छात्रों की शिक्षा नियमित विद्यालयों में होगी। गम्भीर रूप से शारीरिक अक्षमता वाले तथा सामान्य से भिन्न छात्रों की शिक्षा के लिये विशेष विद्यालय खोले जायेंगे। इन विद्यालयों में आवासीय सुविधा उपलब्ध होगी, जिससे उनको आवागमन की परेशानी से मुक्त रखा जा सके। यह विद्यालय प्रत्येक जिले में होगा।

8. विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में उपाधियाँ –विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में 37 डिप्लोमा तथा 3 शिक्षा स्नातक उपाधियाँ प्रदान की जा रही हैं। भारत की पुनर्वास परिषद् द्वारा इन उपाधियों के व्यवस्थापन का कार्य किया जा रहा है। यह परिषद् सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण विभाग के अन्तर्गत कार्य करती है। इसमें विशिष्ट शिक्षा की शिक्षण विधियों एवं प्रबन्ध के बारे में प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। ये सम्पूर्ण कार्य अक्षमता से युक्त छात्रों के लिये भारत की पुनर्वास परिषद् द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं।

9.जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम –जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण पर बल दिया गया है। इसके साथ-साथ विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा पर भी पूर्ण ध्यान दिया गया है। सरकार द्वारा यह निश्चित किया गया है कि अक्षमता से युक्त छात्र एवं छात्राओं को उनकी आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जायेगी। इसके लिये इस कार्यक्रम में सेवारत शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है, जिससे कि वे शारीरिक रूप से अक्षम छात्रों का शिक्षण करने में असुविधा का अनुभव न कर सकें।

10. गैर सरकारी संगठनों को प्रोत्साहन- गैर सरकारी संगठनों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित करके भी इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है। 1100 विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों के सहयोग से की गयी है। इन विद्यालयों में छात्रों को उनकी आवश्यकता एवं क्षमता के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाती है और अक्षमता से युक्त छात्र एवं छात्राओं का विशेष ध्यान रखा जाता है तथा प्रयास किया जाता है कि उनको भी सामान्य छात्र-छात्राओं की भाँति अधिगम प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाये।

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