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सुलेख, अनुलेख एवं श्रुतलेख

लेखन कौशल के विकास में सुलेख,अनुलेख एवं श्रुतलेखन के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

सुलेख का महत्व

लिखना सिखाने का अर्थ केवल उतना ही नहीं है कि बच्चे अक्षरों,शब्दो अथवा वाक्यों को लिखने लगें, अपितु यह भी आवश्यक होता है कि वे सुन्दर और सुडौल अक्षरों की रचना करें और उचित गति से लिखें। सुलेख के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं और उन्होंने इसके महत्त्व को स्वयं स्वीकार किया है-“मैं नहीं जानता हूँ कि कब मुझमें यह विचार आया कि सुलेख शिक्षा का कोई आवश्यक अंग नहीं है। लेकिन यह विचार विलायत जाने तक मुझमें विद्यमान था। पीछे जब दक्षिणी अफ्रीका में मैंने दक्षिणी अफ्रीका में ही जन्मे और शिक्षित वकीलों और नवयुवकों की सुन्दर लिखावट को देखा तो मुझे अपने आप पर लज्जा आयी और अपनी भूल पर मैं बहुत पछताया।

मैंने देखा और बुरी लिखावट को सुधारना चाहा लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। मैं युवावस्था की अपनी भूल को कभी भी ठीक नहीं कर पाया। मेरे उदाहरण से सभी नवयुवकों और नवयुवतियों को चेतावनी मिल जानी चाहिये और उन्हें समझ लेना चाहिये कि सुलेख व्यक्ति की शिक्षा का एक आवश्यक पहलू है।”
अध्यापक का उद्देश्य अपने छात्रों को शुद्ध, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा लिखना सिखाना है। सुलेख के समुचित अभ्यास के बिना अध्ययन का एक पक्ष अधूरा छूट जाता है। पी. डी. पटनायक के शब्दों में, “निःसन्देह ही लेखन में सुलेख का उतना महत्त्व है जितना भाषण में सुउच्चारण का।” सुलेख यदि शुद्ध नहीं होता तो भाषा ज्ञान की स्थिति फिर भी अधूरी कही जायेगी। लिखित कार्य में शुद्ध लेखन का इसीलिये महत्त्व है। सुलेख के लिये अनुलेख, श्रुतलेख एवं प्रतिलेख की सहायता अपेक्षित है, किन्तु हम यहाँ पर केवल अनुलेख और श्रुतलेख पर ही विचार करेंगे।

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अनुलेख का महत्त्व

किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना अनुलेखन माना जाता है। जब अध्यापक बोल-बोलकर श्यामपट्ट पर लिखता जाता है और बालक गति से उसे सुनते हुए लिखता जाता है तब उसके द्वारा लिखित सामग्री सुन्दर और शुद्ध लेखन की दृष्टि से उसके समुचित अभ्यास का परिचय देती है। गति के साथ-साथ लिखना ही अनुलेखन है। अनुलेखन के लिये कुछ कॉपियाँ भी होती हैं। इन कॉपियों में प्रत्येक पृष्ठ के ऊपर प्रत्येक पंक्ति में मोटे और सुन्दर रंग से अक्षर, शब्द या वाक्य लिखे होते हैं और उसके नीचे की पंक्तियाँ रिक्त रहती हैं।

छात्र ऊपर लिखे हुए अक्षरों, शब्दों और वाक्यों को देख-देखकर लिखते जाते हैं। प्रारम्भ में नीचे की पंक्तियों में भी बिन्दुओं के माध्यम से अक्षरों की रूपरेखा बनी रहती है और छात्र उन पर स्याही फेरता है। बाद के पृष्ठों में नीचे की पंक्तियाँ बिल्कुल खाली रहती हैं और छात्र स्वयं ऊपर से मुद्रित अक्षर के अनुसार लिखता है। प्राथमिक कक्षाओं तक अनुलेख का अभ्यास कराया जा सकता है। अनुलेख का लक्ष्य भी सुलेख है।
अनुलेख का पर्याप्त अभ्यास कराना चाहिये। अच्छे अनुलेख पर छात्रों को पुरस्कार देकर प्रोत्साहन देना चाहिये। अनुलेख का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिये। अनुलेख का कुछ अभ्यास हो जाने पर प्रतिलेख की ओर छात्रों को मोड़ना चाहिये। प्रतिलेख में छात्र स्वतन्त्र रूप से किसी पुस्तक या पत्रिका के किसी अनुलेख का अनुकरण करके अपनी कॉपी पर लिखता है।

प्रतिलेख का लक्ष्य भी सुलेख ही है, इससे भाषा की शुद्धता का भी ज्ञान होता रहता है। कक्षा 4,5 और 6 में प्रतिलेख का अभ्यास कराया जा सकता है। प्रतिलेख को भी एक प्रकार से हम अनुलेख कह सकते हैं क्योंकि अनुलेख की यह दूसरी विधा है। प्रतिलिपि के माध्यम से छात्रों द्वारा लिखित लेख में निम्नलिखित बातों को देखा जाता है-
(1) अलग-अलग लिपि चिह्नों का आकार और सुडौलपन। (2) शब्द में लिपि चिन्हों का उपयोग तथा परस्पर वर्ण शब्दगत दूरी। (3) पंक्तिगत दूरी, विराम चिह्न एवं अनुच्छेद रचना।

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श्रुतलेख का महत्त्व

यह साधन प्राथमिक कक्षाओं में प्रयुक्त होता है। प्रतिलिपि के पश्चात् अनुलिपि और अनुलिपि के पश्चात् श्रुतलेख का क्रम आता है। प्राथमिक कक्षाओं में श्रुतलेख को ही शुद्ध लेख कहा जाता है। श्रुतलेख अर्थात् सुना हुआ लेख, इसमें अध्यापक बोलता है और छात्र सुनकर बोली हुई सामग्री को लिखता है। श्रुतलेख में सुन्दर लिखावट का तो महत्त्व होता ही है, किन्तु इसके साथ ही साथ भाषा की शुद्धता का भी महत्त्व होता है। श्रुतलेख का उद्देश्य छात्रों की श्रवणेन्द्रिय को प्रशिक्षित करना है ताकि वह भाषा के शुद्ध रूप को सावधानी से सुन सकें।

छात्रों की लिखावट में सुडौलता के साथ-साथ स्पष्टता का अभ्यास, लिखायी में गति लाना तथा एकाग्रचित्तता लाना श्रुतलेख का प्रमुख लक्ष्य है। इस विधि के द्वारा बच्चे के हाथ, कान और मस्तिष्क की क्रियाओं में सन्तुलन स्थापित किया जाता है। उसकी स्मरण शक्ति का विकास किया जाता है। इसके साथ ही सुनकर भाव-ग्रहण करने का भी अभ्यास कराया जाता है। वर्तनी की शिक्षा भी इसका एक उद्देश्य है। श्रुतलेख की शिक्षा के लिये अध्यापक को गद्यांश-पद्यांश चुनते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह नतो अधिक कठिन हो और न ही अधिक सरल। उस अंश को पहले अध्यापक को धीरे-धीरे पूरा पढ़ लेना चाहिये।

इसके बाद एक-एक शब्द धीरे-धीरे बोले और बालको को लिखने को कहे। सम्पूर्ण अंश को लिखा देने के पश्चात् पुन: दो छात्रों को पूर्ण अंश पढ़कर सुनाये ताकि छात्र अपनी भूलें स्वयं सुधार सकें। इसके बाद बालक की कॉपियों में सावधानी से संशोधन किया जाय। संशोधन में छात्रों की कॉपियाँ बदल कर भी छात्रों से संशोधन कराया
जा सकता है, इससे छात्रों की बुद्धि को विकसित होने का अवसर प्राप्त होता है। यदि छात्र संशोधन कर रहे हो तो लपेट श्यामपट्ट पर लिखा हुआ पूरा अंशकक्षा में टाँग देना चाहिये, जिससे छात्र उसे देखकर संशोधन कर सकें।

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छात्रों द्वारा संशोधन करने पर भी बाद में अध्यापक को उन कॉपियों कोदोबारादेखना चाहिये। इसके बाद अशुद्ध शब्दों को छात्रों से शुद्ध रूप में चार-पाँच बार लिखवाकर अभ्यास करा देना चाहिये। श्रुतलेख में अग्रलिखित बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये-
(1) शुद्ध, स्पष्ट एवं किचित जोर की आवाज में वाचन किया जाय। (2) बोलने की गति बहुत तीव्र न हो। (3) वाक्य को उपयुक्त हिस्से पर तोड़कर ही बोला जाय तथा विराम चिह्नों का ध्यान रखा जाय।(4)वाचन गति का प्रवाह परिवर्तित न किया जाय।

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