रुपये की आत्मकथा पर निबंध | essay on autobiography of money in hindi

समय समय पर हमें छोटी कक्षाओं में या बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं में निबंध लिखने को दिए जाते हैं। निबंध हमारे जीवन के विचारों एवं क्रियाकलापों से जुड़े होते है। आज hindiamrit.com  आपको निबंध की श्रृंखला में  रुपये की आत्मकथा पर निबंध | essay on autobiography of money in hindi प्रस्तुत करता है।

Contents

रुपये की आत्मकथा पर निबंध | essay on autobiography of money in hindi

इस निबंध के अन्य शीर्षक / नाम

(1) रुपये की आत्मकहानी पर निबंध
(2) रुपये पर निबंध
(3) धन पर निबंध
(4) जीवन की महत्वपूर्ण उपयोगिता रुपया पर निबंध

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रुपये की आत्मकथा पर निबंध | essay on autobiography of money in hindi

पहले जान लेते है रुपये की आत्मकथा पर निबंध | essay on autobiography of money in hindi की रूपरेखा ।

निबंध की रूपरेखा

(1) प्रस्तावना
(2) रुपये का इतिहास
(3) आधुनिक रूप एवं सुगमता
(4) दशमलव प्रणाली से रुपये का संबंध
(5) उपसंहार


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प्रस्तावना

सिक्का भारत देश का, रुपया मेरा नाम।
मुद्रा पैसों में चलूँ, विनिमय से ही काम॥
आकर्षक मम रूप, युगों से रहा लुभाता ।।
सन्त नकद नारायण, जमा जमाकर सिक्का।
प्रभुता वैभव पदभरा, टनकारूँ मैं सिक्का ॥

सोने, चाँदी, ताँबे अदि धातुओं से निर्मित मैं युगों से अपनी राष्ट्र की सेवा कर रहा हूँ, मुझे भारतीय राजा और बादशाओं ने विदेशियों की नकल करते हुए अपने-अपने मन के मुताबिक ढलवाने की चेष्टा की  चोर-डाकू मुझे देखकर ललचाते रहते हैं।

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अंग्रेजों ने मेरा रूप ही बिगाड़ दिया। हाय, दहेज और रिश्वत देकर भी लोग आज मुझे ही कलंकित करने में लगे हैं। मैं अपनी क्रय-शक्ति, विनिमय शक्ति के कारण जगत प्रसिद्ध है।




रुपये का इतिहास

रुपया 1 अप्रैल, 1957 के दिन से प्रारम्भ हुआ है, इसके
पूर्व में तीन रूप थे-रुपया-आना-पैसा। ‘सोलह आने सत्य का मुहावरा मेरे जीवन की सच्चाई और यथार्थता को प्रकट करता है।

मेरा रूप सोलह आने अथवा चौंसठ पैसे का था। मेरी यह जीवन पद्धति चौका प्रणाली कहलाती थी। मेरे नये रूप में ‘आना’ समाप्त हो गये नये रूप में मैं रुपया और पैसा दो ही रूपों में सिमट कर रह गया हूँ।

अब मैं 100 पैसों का खरा सिक्का बन गया हूँ। 50, 25, 20, 10, 05 पैसों के छोटे सिक्के भी मेरे नन्हें रूप हैं। मेरी नई जीवन पद्धति दशमलव प्रणाली है।

मेरी पुरानी जीवन पद्धति लगभग 5 हजार बर्षों से चली आ रही थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मेरे रूप में परिवर्तन करके 48 पैसों का रुपया चलाया था।

मुगलकाल में 40 दाम का रुपया था। उससे पूर्व सुल्तानों के समय में उत्तर भारत में मेरा रूप 48 जीतल तथा दक्षिण भारत में 50 जीतल का था। उस समय मुझे रुपये के स्थान पर टॅक बोलते थे। अकबर महान् के समय में भी मैं 50 जीतल का टंक था।

आज कुछ लोग भ्रमवश मेरे इस रूप को फ्रांस, यूरोप तथा अमेरिका की नकल मानते हैं लेकिन ईसवी  से लगभग 2700 वर्ष पूर्व 100 मानों अथवा इकाइयों के शतमान नामक मेरे रूप का उल्लेख वैदिक साहित्य में प्राप्त है।

आज इस पद्धति में मेरा रूप अन्तरष्ट्रीय हो चुका है। इस पद्धति में वैज्ञानिकता है। जिससे  देन में काफी गुणा-भाग से बचा जा सकता है। आज भी दशमलब-पद्धति ने मेरे जीवन में व्यावहारिकता सा दी है, सरलता ला दी है।

हिसाब-किताब की जटिलता लगभग आज समाप्त सी हो गयी है। सैकड़ों की सीमा के पूर्व दो अंकों को छोड़कर कोई भी मेरे रूप को ऑक सकता है। विद्यालय के छात्र-छात्राओं को भी सवा डयौढ़ा, पौना तथा ढम्मा आदि के बबाल से मुक्ति मिल गयी है।





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आधुनिक रूप एवं सुगमता

आज धातु चलन के स्थान पर कागजी मुद्रा आ गयी है, मेरा कागजी रूप भी वैसे आकर्षक है लेकिन छोटे-छोटे बच्चे तक मुझे फाड़ने, बिगाड़ने, गलाने और जलाने में लगे रहते हैं ।

मेरा दिनों दिन प्रसार हो रहा है। मेरा मूल्य गिर रहा है, आज के अनैतिक इंसान की तरह फिर भी मैं खुश हूँ। माल मस्त लोग मुझे बोरों में भरकर दबा रहे हैं।

गरीबों का गला काट रहे हैं । सेवा मेरा धर्म है, पर लुटेरे करोड़ों की संख्या में लूटकर मेरा दुरुपयोग कर रहें हैं। पहले मानव हित में मेरा अधिक प्रयोग था लेकिन आज संसार हथियार खरीदने की होड़ में मुझे पानी की तरह बहा रहा है।

मनुष्य का मस्तिष्क मुझे देखकर कब बंदल जाता है।
यह कहा नहीं जा सकता लेकिन सच्ची मानवता के हित में मेरा खर्च करना ही मनुष्य का सच्चा धम है, नम है क्योकि-

“पानी बाढै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही संयानों काम ॥ “


मानव हित में मेरा प्रयोग धरती पर स्वर्ग लायेगा और मानव अहित के लिए मेरा उपयोग यहाँ नरक, अतः मेरा उपयोग सोच समझकर मानवता हित में ही होना चाहिए।

मितव्यिता पूर्वक मेरा खर्च करता समृद्धिदायक है। मानव की बुद्धिमत्ता मेरे ऊपर निर्भर रहने में नहीं, आत्म निर्भर बनने में है, मै मानवोलनति का साधन हूँ।

साध्य नहीं; अतः मानव को धैयपूर्वक सोच समझकर ही मेरा उपयोग करना चाहिए, वैसे मैं उसकी बुद्धि को प्रतिक्षण चंचल बनाये रहता हूँ।

बड़े-बड़े शक्ति वान, बलवान, बुद्धिमान शासक, प्रशासक तथा मन्त्री मेरे मुट्ठी में रहते हैं लेकिन कुछ बुद्धिमान मुझसे कम प्रेम करते हैं इसका मुझे बेहद दुःख है ।

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उपसंहार

सबकी बुद्धि को भ्रमित बनाकर अपने को पुष्टकर रहा हूँ, मैं कागजी मुद्रा के रूप में सौ से पाँच सौ तक तथा पाँच सौ से एक हजार के रूप में अवतरित हो गया हूँ, अब दस हजार का बनने वाला हूँ समझ लो, मैं सांसारिक-भगवान् हूँ वैसे मै परिश्रमी व्यक्तियों का सच्चा सेवक हैं।


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