शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा || meaning and definition of education in hindi

शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा || meaning and definition of education in hindi – दोस्तों सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा में शिक्षण कौशल 10 अंक का पूछा जाता है। शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है। यह विषय बीटीसी बीएड में भी शामिल है। आज हम इसी विषय के समस्त टॉपिक को पढ़ेगे।  बीटीसी, बीएड,यूपीटेट, सुपरटेट की परीक्षाओं में इस टॉपिक से जरूर प्रश्न आता है। जिसमें आज हम एक टॉपिक शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा || meaning and definition of education in hindi पढ़ेगे ।

अतः इसकी महत्ता को देखते हुए hindiamrit.com आपके लिए शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा || meaning and definition of education in hindi लेकर आया है।

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meaning and definition of education in hindi | शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा

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शिक्षा का अर्थ | शिक्षा क्या है | meaning of education

तो सबसे पहले शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएं, meaning and definition of education in hindi में हम शिक्षा का अर्थ जान लेते हैं ।

प्राचीन समय में शिक्षक विद्या कहा जाता था। विद्या शब्द की उत्पत्ति ‘विद’ धातु में “अ’ प्रत्यय लगाने से हुई है। जिसका अर्थ है जानना । शिक्षा शब्द संस्कृत के शिक्ष धातु में आ प्रत्यय लगाने से हुई है जिसका तात्पर्य सीखना और सिखाना। शिक्षा शब्द अंग्रेजी भाषा के एजुकेशन(Education) शब्द का हिन्दी रूपांतरण है,जिसका अर्थ हम निम्नलिखित प्रकार से समझ सकते हैं

शब्द                                        अर्थ

Educatum                     To train, act of
  (एडुकेटम)                          teaching or
                                           training (शिक्षित करना)


(Educere)                           To lead out (विकसित करना
   (एडूसीयर)                                    अथवा  निकालना)



(Educare)                               To educate , to bring up
  (एडूकेयर)                                to raise    (आगे बढ़ना,
                                                 बाहर निकालना
                                                  अथवा विकसितकरना)





शिक्षा की परिभाषाएं | definition of education

शिक्षा क्या है ? (What is education ?) शिक्षा क्या है? शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएं, इस प्रश्न के उतने ही उत्तर मिल जायेंगे, जितने विचारक।

भिन्न-भिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है-

(1) प्लेटो (Plato) के अनुसार,

“शिक्षा वह है जो वयोवृद्ध एवं उत्तम व्यक्तियों के अनुभवों द्वारा वास्तविक अर्थ में समर्थित, नियमानुमोदित तथा उचित तर्क की ओर युवकों को प्रेरित करे।

(2) जॉन डीवी (John Dewey) के अनुसार

डीवी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Democracy and Edu- cation’ में व्यक्त किया है-

“शिक्षा जीवन के रहन-सहन या जीवन जीने की एक प्रक्रिया है।”

“Education is a process of living.”

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(3) पेस्टालॉजी (Pestalozi) के अनुसार

“शिक्षा मनुष्य की समस्त आन्तरिक शक्तियों का स्वाभाविक, सर्वांगीण एवं गतिशील विकास है।”

(4) ड्रेवर (Drever) के अनुसार,

“शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें और जिसके द्वारा बालकों का ज्ञान, चरित्र और व्यवहार टलता एवं बनता है।”

(5) सर टी. पी. नन् (T. P.Nunn) के अनुसार

“व्यक्तित्व (व्यक्ति विशेष) का पूर्ण विकास ही शिक्षा है।”

“Education is the complete development of individuality.”

(6) महात्मा गाँधी (Mahtma Gandhi) के अनुसार,

“शिक्षा बालक और व्यक्ति के शरीर, मन एवं आत्मा के उत्कृष्ट और
विकास का नाम है।”

(7) डॉ. राधाकृष्णन् (Radhakrishnan) के अनुसार,

“शिक्षा शिक्षित व्यक्तियों को जीवन मूल्यों का उचित ज्ञान प्रदान करती है।”

“Education has to give the educated a proper sense of values.”

(8) बी. एन. झा (B. N.Jha) के अनुसा

“शिक्षा समाज द्वारा अपने हित के लिये की गयी एक प्रक्रिया और सामाजिक कार्य है।”

शिक्षा की आवश्यकता | शिक्षा की विशेषताएं

अब आइए सबसे महत्वपूर्ण बिंदु को समझे कि शिक्षा की विशेषताएं क्या है ,शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएं क्या है

(1) शिक्षा एक सामाजिक कार्य है

मानव हितों के लिये बनाये गये विशेष नियमों का पालन करने वाले मानव समूह का ही दूसरा नाम समाज है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि एक ही समाज के सभी लोगों में मतैक्य हो ही। मतैक्य हो या न हो; लेकिन यह निर्विवाद है कि प्रत्येक समाज अपने व्यक्तियों का उत्थान चाहता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक समाज अपने व्यक्तियों को उचित शिक्षा दे।

इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ऐसी शिक्षा ग्रहण करे जिससे उसके समाज के अधिक से अधिक व्यक्ति लाभान्वित हो सकें। अत: स्पष्ट है कि शिक्षा समाज के लिये भी है और समाज द्वारा ग्रहण भी की जाती है।

समाज द्वारा शिक्षा ग्रहण करने से हमारा तात्पर्य है कि प्रत्येक बालक अपने घर में, साथियों के साथ रहकर; अर्थात् समाज में रहकर बहुत सी बातें स्वतः ही सीख लेता है। कुछ भी सीखना शिक्षा का एक अंग है। अविधिक या अनौपचारिक रूप से बहुत सी बातों का सीख लेना प्राचीन समाज में भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। अतः समाज से या समाज के लिये जो कुछ भी सीखा जाय वह एक सामाजिक कार्य है। इस रूप में शिक्षा भी एक सामाजिक कार्य है।

जॉन डीवी का भी विचार है कि-“सामाजिक वातावरण में उसके सदस्यों की सभी क्रियाएँ समाहित रहती हैं।”

(2) शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास है

बालक के सर्वांगीण विकास का अर्थ है-उसका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक और नैतिक विकास। इन सभी प्रकार के विकासों हेतु बालक को तत्सम्बन्धित अनेक बातों के सीखने की आवश्यकता होती है अर्थात् उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। बालक का विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव है चाहे उसका स्वरूप कुछ भी हो। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी इस बात की पुष्टि की है। कि-“शिक्षा छात्र के शरीर और आत्मा में उसकी योग्यता के अनुसार सौन्दर्य और पूर्णता का विकास करती है।”

(3) शिक्षा समायोजन है

प्रत्येक मानव सुख का जीवन व्यतीत करना चाहता है।
सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये मानव का सर्वांगीण विकास तो आवश्यक है ही परन्तु सर्वांगीण विकास के साथ-साथ यदि बालक या मनुष्य स्वयं को बदलते हुए वातावरण के साथ सुसमायोजित नहीं कर सकता तो भी वह सुख से नहीं रह सकता।

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अतः सुखी जीवन व्यतीत करने के लिये बदलते हुए वातावरण के साथ समायोजन आवश्यक है तथा समायोजन के लिये शिक्षा और निर्देशन दोनों ही आवश्यक हैं। निर्देशन (Guidance) भी शिक्षा का ही एक अंग है। शिक्षा और निर्देशन द्वारा बालक अपनी योग्यताओं (Capabilities) तथा क्षमताओं (Capacities) का अधिक से अधिक सदुपयोग करता है। इस सम्बन्ध में कुछ शिक्षाशास्त्रियों के विचार निम्नलिखित हैं-

जॉन डीवी के अनुसार

“शिक्षा व्यक्ति की उन सभी शक्तियों का विकास है, जिनके
द्वारा वह अपने वातावरण पर नियन्त्रण कर सके तथा सम्भावनाओं को पूरा कर सके।”

बॉसिङ्ग के अनुसार,

“शिक्षा का कार्य मनुष्य का अपने वातावरण के साथ समायोजन माना जाता है ताकि वह मनुष्य तथा समाज के लिये सर्वाधिक सन्तुष्टि प्रदायक हो।”


(4) शिक्षा मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है

मानव के विकास और सुख से जीवन व्यतीत करने के लिये शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा के बिना मनुष्य अपने जीवन में आगे बढ़ ही नहीं सकता। यह बात दूसरी है कि उसका स्वरूप कैसा हो? मनुष्य को किसी भी दिशा में जाना हो, उसे उस दिशा की जानकारी दूसरों से लेनी पड़ती है। व्यापारी को व्यापार, किसान को खेती, नौकर को नौकरी और मजदूर को मजदूरी करना दूसरों से ही सीखना पड़ता है। अत: शिक्षा जीवन का एक आवश्यक अंग है।

शिक्षा क्या है? विस्तृत अर्थ में बालक घर से, बाहर से, स्कूल से तथा साथियों से पढ़कर या सुनकर भी ग्रहण करता है वही उसकी शिक्षा है। कहने का तात्पर्य है कि बालक कहीं से भी, किसी भी प्रकार जो कुछ भी सीखता है वही उसकी शिक्षा है। यह शिक्षा का विस्तृत अर्थ है। इसके विपरीत कुछ व्यक्ति शिक्षा को एक संकुचित सीमा से बाँध देते हैं।उनकी दृष्टि में पाठशाला में दी जाने वाली शिक्षा ही शिक्षा है।

वस्तुतः ऐसा नहीं है, क्योंकि शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयी शिक्षा की संकुचित सीमा तक नहीं, अपितु उससे बहुत आगे है। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि “क्या उस शिक्षा को शिक्षा का नाम देना उचित है जो जन साधारण की जीवनगत उलझनों को सुलझाने हेतु उनमें सिंह जैसा साहस उत्पन्न कर उन्हें स्वयं सक्षम बनाने में सहायता नहीं कर सकती।”



शिक्षा का क्षेत्र (Scope of education )

शिक्षा के संकुचित और विस्तृत अर्थ को समझने के पश्चात् यह स्पष्ट रूप से विदित हो जाता है । कि शिक्षा का क्षेत्र संकुचित न होकर विस्तृत है। शिक्षा देश से, विदेश से, घर से, बाहर से, पढ़कर तथा सुनकर किसी भी प्रकार से ग्रहण की जा सकती है। मानव जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र शेष ही नहीं है जहाँ शिक्षा की आवश्यकता न पड़ती हो। भाषा, विज्ञान तथा तकनीकी आदि सभी शिक्षा के क्षेत्र में आ जाते हैं। बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी व्यक्तियों को किसी न किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता पड़ती ही रहती है।

सारांशतः, मानव जीवन का, संसार का और प्रकृति का कोई भी भाग ऐसा नहीं जहाँ शिक्षा की आवश्यकता न हो। शिक्षा का क्षेत्र उतना ही विशाल एवं विस्तृत है जितना संसार और मानव जीवन । अतः जीवन और जगत् का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ शिक्षा की आवश्यकता न हो, चाहे वह शिक्षण का क्षेत्र हो अथवा प्रौद्योगिकी (Technology) का, चाहे वह व्यक्ति से सम्बन्धित हो अथवा समाज और राष्ट्र का।

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यहाँ यह स्पष्ट करना अधिक युक्तिसंगत रहेगा कि सभी क्षेत्रों में सभी लोग कुशलता अर्जित कर सकें, यह कभी भी सम्भव नहीं क्योंकि दक्षता अर्जित करने की दृष्टि से किसी क्षेत्र विशेष में दक्षता प्राप्त करने वाले व्यक्ति या बालक की बौद्धिक क्षमता (Intellectual capacity) रुझान (Aptitude) तथा साधन सुविधाओं आदि बातों की आवश्यकता होती है।

इस दृष्टि से स्वामी विवेकानन्द जी ने स्पष्ट शब्दों से लिखा है कि-

“तुम्हें शिक्षा के कार्य क्षेत्रों के सम्बन्ध में बड़ा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होना। सभी के लिये शिक्षा’ के विचार ने पूरे देश को
बर्बाद कर दिया है।”


शिक्षा का उद्देश्य (Aim of education)

शिक्षा एक सामाजिक कार्य है और उसका विधान जीवन के उद्देश्यों प्राप्ति के लिये किया जाता है, किन्तु जीवन के उद्देश्य मानव की आवश्यकताओं के साथ-साथ सतत् बदलते रहते हैं।परिणामत: शिक्षा के उद्देश्य सभी कालों और परिस्थितियों में समान रहें, यह सम्भव नहीं। फिर भी शिक्षा का एक बहुत बड़ा उद्देश्य मनुष्य या बालकों का सर्वांगीण विकास करना है। बालकों का सर्वांगीण विकास उसी समय सम्भव है जब वे स्वयं को और अपनी परिस्थितियों को समझें।

परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ बालक स्वयं को भी उसी दिशा में इस प्रकार बदल लें कि वे बदलती हुई परिस्थितियों में भी समायोजित रूप से रह सकें। यही उनकी सच्ची शिक्षा होगी। मनुष्य की आवश्यकताएँ उसके शरीर, बुद्धि, समाज,नीति, व्यवसाय आदि से सम्बन्धित हो सकती हैं।

इन सभी प्रकार की आवश्यकताओं के साथ समायोजन के द्वारा ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास सम्भव है। यह समायोजन शिक्षा द्वारा सरलता एवं सहजता से किया जा सकता है। यही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालकों को वह ज्ञान देना है, जिसे प्रयोग करके वे अपने जीवन काल में सन्तोष से रह सकें।



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