सामाजिक अध्ययन शिक्षण पाठ्यक्रम (NCF 2005 के अनुसार) | CTET SOCIAL STUDIES PEDAGOGY

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सामाजिक अध्ययन शिक्षण पाठ्यक्रम (NCF 2005 के अनुसार) | CTET SOCIAL STUDIES PEDAGOGY

सामाजिक अध्ययन शिक्षण पाठ्यक्रम (NCF 2005 के अनुसार) | CTET SOCIAL STUDIES PEDAGOGY
सामाजिक अध्ययन शिक्षण पाठ्यक्रम (NCF 2005 के अनुसार) | CTET SOCIAL STUDIES PEDAGOGY

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प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या

(i) पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा तक सामाजिक जीवन के स्थान पर इस विषय को पर्यावरण अध्ययन के रूप में पढ़ाया जाएगा।

(ii) कक्षा 1 और 2 में पर्यावरण अध्ययन का अलग से कोई पाठ्यक्रम नहीं होगा बल्कि सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण संबंधी आवश्यक ज्ञान भाषा और गणित के अविभाज्य अंग के रूप में दिया जाएगा। इस कार्य के लिए बच्चों के प्राकृतिक एवं सामाजिक (आसपास के) पर्यावरण से उदाहरण लेकर इन्हें प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण को समझने के क्रियाकलापों में संलग्न कराया जाएगा।

(iii) कक्षा तीन से पांचवीं में पर्यावरण अध्ययन (E.V.S.) विषय को लागू किया जाएगा और इसे प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण संबंधी परिचर्चा के द्वारा पढ़ाया जाएगा। जैसे प्राकृतिक एवं पर्यावरण का संरक्षण और क्षरण से इसका बचाव, सामाजिक पर्यावरण की अवधारणा और उसका संरक्षण, सामाजिक मुद्दों जैसे-गरीबी, बालश्रम, निरक्षरता, जाति और वर्ग आधारित असमानता से परिचित कराना चाहिए। इसके लिए स्थानीय परिदृश्य से उदाहरण लेकर संबंधित क्रियाकलापों के माध्यम से आवश्यक अवधारणाएं विकसित की जाएंगी।

उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या

(i) उच्च प्राथमिक स्तर (कक्षा 6 से 8 तक) पर्यावरण अध्ययन के स्थान पर सामाजिक विज्ञान का शिक्षण प्रारंभ हो जाएगा। जिसकी पाठ्य सामग्री इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र से ली जाएगी। साथ ही बालकों को समकालीन मुद्दों जैसे-गरीबी, निरक्षरता, बालश्रम और बंधुआ मजदूरी, वर्ग, जाति, लिंग भेद और पर्यावरण से विशेष रूप से परिचित कराया जाएगा।

(ii) भूगोल और अर्थशास्त्र की समन्वित विषयवस्तु की सहायता से स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक के पर्यावरण, संसाधनों तथा उनके विकास संबंधी बातों को बच्चों के सामने लाया जाएगा।

(iii) इतिहास को सबका कल्याण संबंधी अनेकत्व (Plurality) की अवधारणा पर बल देते हुए पढ़ाया जाएगा।

(iv) स्थानीय, प्रांतीय और केंद्रीय स्तर पर सरकारों का गठन और संचालन तथा सभी की लोकतांत्रिक ढंग से भागीदारी संबंधी प्रक्रिया से भी बच्चों को अवगत कराया जाएगा ।

माध्यमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या

(i) उच्च प्राथमिक स्तर (कक्षा 9 से 10) पर सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में उच्च प्राथमिक स्तर की तरह इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र संबंधी बातें शामिल होंगी। परंतु ज्यादा जोर समकालीन भारत पर होगा और उसके द्वारा विद्यार्थियों में भारत की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों की गहरी समझ विकसित की जाएगी।

(ii) समकालीन भारत की चर्चा बहु-परिप्रेक्षीय होगी जिसमें आदिवासी, दलित और मताधिकार से वंचित अन्य लोगों के परिप्रेक्ष्यों को भी ध्यान में रखा जाएगा और प्रयास किया जाएगा कि पठन सामग्री को यथासंभव बच्चों के दैनिक जीवन में जोड़ा जाए।

(iii) इतिहास में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सभी वर्गों और प्रांतों के योगदान की चर्चा की जाएगी तथा आधुनिक विश्व के विकास के संदर्भ में समकालीन इतिहास के अन्य आयामों का अध्ययन कराया जाएगा।

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(iv) भूगोल के अध्ययन में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि बच्चे पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण संबंधी बातों की आवश्यकता को गहराई से समझ सके।

(v) राजनीतिशास्त्र में उन दार्शनिक आधारों पर बल दिया जाएगा जो भारतीय संविधान की आधरशिला हैं, जैसे-समानता, स्वतंत्रता, न्याय, भाईचारा, सम्मानपूर्वक जीना, अनेकता में एकता और शोषण से मुक्ति आदि।

(vi) इस स्तर पर अर्थशास्त्र की पढ़ाई सामाजिक विज्ञान के एक अंग के रूप में प्रारंभ की जा रही है इसलिए अपनी सामान्य जनजीवन को आधार बनाकर की जाएगी। जैसे-गरीबी और बेरोजगारी को चर्चा करते हुए लंबे चौड़े, आंकड़े देने की बजाय यह समझाने का प्रयास किया जाएगा कि देश के सामने किस प्रकार की आर्थिक चुनौतियां एवं आर्थिक असमानताएं समाज में व्याप्त हैं।

सामाजिक अध्ययन विज्ञान पाठ्यपुस्तक एवं राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा गठित राष्ट्रीय फोकस समूह ने पाठ्यपुस्तकों तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 नामक दस्तावेजों में सामाजिक विज्ञान शिक्षण के संदर्भ में सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तकों की रचना हेतु जो विचार सामने रखे थे उनका ब्यौरा इस प्रकार है-

1. आज देश के अधिकतर विद्यालयों में पाठ्यपुस्तक ही सब तरह से शिक्षण अधिगम की दिशा और दशा निर्धारित करने वाली मानी जाती हैं। कक्षा-शिक्षण में इन्हीं का बोलबाला रहता है और पाठ्यचर्या तथा पाठ्यक्रम के लचीले होने की सभी संभावनाओं तथा अध्यापक की शैक्षणिक स्वतंत्रता इनकी उपस्थिति में लगभग समाप्त सी हो गयी है।

अध्यापक वही पढ़ाते हैं जो पाठ्यपुस्तकों में लिखा होता है तथा विद्यार्थी वही जानने की कोशिश करते हैं जिसकी चर्चा इनमें की गई है। इनका एक-एक पृष्ठ और वाक्य महत्वपूर्ण होता है तथा अध्यापक और विद्यार्थी दोनों ही शुरू से लेकर अंत तक इनको पढ़ाने और पढ़ने में जुटे रहते हैं क्योंकि जो इनमें लिखा होता है उसे ही परीक्षा में परीक्षकों तथा प्रश्नपत्र निर्माणकर्ताओं द्वारा पूछा जाता है। इस तरह पाठ्यपुस्तकें साधन न होकर पूरी तरह साध्य और स्वामिनी का रूप हमारी विद्यालय व्यवस्था में ले चुकी है। इन पर उचित अंकुश लगाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है।

2. पाठ्यपुस्तक को पढ़ना और पढ़ाना ही शिक्षा प्रदान करना तथा ग्रहण करना नहीं मानना चाहिये। यह तभी समाप्त हो सकता है कि जब एक ओर तो पाठ्यपुस्तकों पर अध्यापकों तथा विद्यार्थियों की अत्यधिक आश्रितता पर रोक लगाई जाये तथा दूसरी ओर उनकी रचना हेतु आवश्यक बातों पर ध्यान दिया जाए।

3. पाठ्यपुस्तकें ज्ञान का प्रमुख स्रोत हैं। यह धारणा सीखने वालों को सक्रिय भागीदारी के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने या कुछ नया सीखने या करने की संभावना के लिए द्वार बंद कर देती हैं। पाठ्यपुस्तकों को एक बंद बाक्स नहीं बल्कि एक ऐसे प्रकार के दस्तावेज के रूप में देखा जाना चाहिए जिनसे विद्यार्थियों को स्वयं जांच पड़ताल करके उचित अधिगम अनुभव अर्जित करने के अवसर मिलते हैं। यही सोच उन्हें पाठ्यपुस्तकों से परे जाकर पढ़ने और अवलोकन के लिये प्रोत्साहित करेगी।

4. पाठ्यपुस्तकों को सूचनाओं का एकमात्र स्त्रोत न समझकर उन्हें विषयगत अवधारणाओं तथा मुद्दों को समझने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले एक साधन तथा तरीके के रूप में देखा जाना चाहिये।

5. सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में अतीत से परिचित कराने हेतु भूतकाल की घटनाओं का विवरण मात्र न देकर उनसे सीख लेने की बात पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिये तथा साथ ही यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि इनसे अलगाववाद या विघटनकारी बातों को बढ़ावा न मिले। अतीत का वर्णन करने में समाज के कई वर्गों तथा भारत के क्षेत्रों की अभी तक उपेक्षा की जाती रही है। इस पर अब ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।

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(i) विभिन्न विषयों में विषयवस्तु के वितरण में पर्याप्त संतुलन हो और जहां जरूरत हो पारस्परिक संबंधों की ओर समुचित ध्यान दिया जाये।
(ii) वितरण में निरंतरता बनाये रखने हेतु विषय सामग्री को उचित तार्किक क्रम में व्यवस्थित किया जाये तथा पुस्तक के प्रत्येक खंड या भाग में अध्यायों की संख्या समान हो।
(iii) पुस्तक में प्रत्येक अध्याय के पश्चात् तकनीकी शब्दों की एक शब्दावली और पुस्तक के अंत में एक अनुक्रमणिका दी जानी चाहिए।

(iv) पाठ्यपुस्तक की विषय सामग्री की प्रकाशन से पूर्व इस बात की विशेष रूप से जांच कर लेनी चाहिए कि वह सामाजिक पूर्वाग्रह तथा लिंग भेद आदि को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा न दे।
(v) शैली की एकरूपता तथा भाषा की सरलता और शुद्धता पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। किसी विचार या भाव की पुनरावृति से भी यथासंभव बचना चाहिए तथा सभी तरह की छपाई संबंधी अशुद्धियों के प्रति भी पूरी सावधानी बरतने का प्रयत्न किया जाना चाहिये।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986″

मई 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई, जो अब तक चल रही है। लेकिन इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में प्रो. यशपाल समिति का भी गठन किया गया। शैक्षिक नीतियां एवं कार्यक्रमों को बनाने और उनके क्रियान्वयन में केन्द्र सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। 1986 में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NPE) जिसे 1992 में अद्यतन किया गया इस संशोधित नीति में एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली तैयार करने का प्रावधान है जिसके अन्तर्गत-

(i) शिक्षा में एकरूपता लाना।
(ii) प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम को जनांदोलन बनाना।
(iii) सभी को शिक्षा सुलभ कराना।
(iv) बुनियादी प्राथमिकता शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखना।
(v) बालिका शिक्षा पर विशेष जोर देना।
(vi) देश के प्रत्येक जिले में नवोदय विद्यालय जैसे आधुनिक विद्य की स्थापना करना।
(vii) माध्यमिक शिक्षा को व्यवसाय परक बनाना।
(viii) उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विविध प्रकार की जानकारी देना और अंतर अनुशासित अनुसंधान करना।
(ix) राज्यों में नए मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना।
(x) अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को सुदृढ़ करना।
(xi) खेलकूद, शारीरिक शिक्षा, योग को बढ़ावा देना।
(xii) सक्षम मूल्यांकन प्रक्रिया अपनाना।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में शिक्षा में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु विकेंद्रीकृत प्रबंधन ढांचे का भी सुझाव दिया गया है। NPE (एनपीई) द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक ऐसे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे पर आधारित है जिसमें अन्य लचीले एवं क्षेत्र विशेष के लिए तैयार घटकों के साथ एकसमान पाठ्यक्रम रखने का प्रावधान है। जहां एक ओर शिक्षा नीति लोगों के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराए जाने पर जोर देती है, वहीं वह उच्च एवं तकनीकी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली को मजबूत बनाने का आह्वान भी करती है।

यह नीति शिक्षा के क्षेत्र में कुल राष्ट्रीय आय का कम से कम 6 प्रतिशत निवेश करने पर जोर देती है। ‘शिक्षा बिना बोझ के’- 1993
शिक्षा में सुधार हेतु 1966 में कोठारी कमीशन एवं 1985 में चटोपाध्याय कमेटी बनी तथा प्रोफेसर यशपाल जैसे विद्वान “बोझ के बिना शिक्षा ‘का वृहद खाका 90 के दशक में बना चुके हैं 1993 में यशपाल कमेटी ने अपने सुझाव पेश किए, जिनके आधार पर सरकार ने नई शिक्षा नीति का गठन किया। यशपाल समिति ने अपनी रिपोर्ट “शिक्षा बिना बोझ के’ (1993) में भारत के स्कूलों में निरर्थक और नीरस शिक्षा एवं कक्षा में बच्चों की समझ या बोध के अभाव को मजबूती से उजागर किया है। N.C.E.R.T. ने सन् 2000 में नया पाठ्यक्रम बनाते समय यशपाल समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखा था और कोशिश की थी कि अनावश्यक चीजें, जो अब सारहीन हैं, पाठ्यक्रम से निकले।

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अभ्यास प्रश्न ( बहुविकल्पीय प्रश्न )

1. प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम को सामाजिक अध्ययन विषय के अन्तर्गत न पढ़ाकर किस विषय के अन्तर्गत पढ़ाया जाएगा?
(a) सामाजिक इतिहास
(b) पर्यावरण
(c) भूगोल
(d) नागरिक शास्त्र

2. प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और क्षरण से इसका बचाव एवं सामाजिक पर्यावरण की अवधारणा और उसका संरक्षण व सामाजिक मुद्दों को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम-2005 के अनुसार किस विषय के अन्तर्गत रखा गया है?
(a) नागरिक शास्त्र
(b) भूगोल
(c) पर्यावरण
(d) सामाजिक मुद्दे

3. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम-2005 के अनुसार उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक अध्ययन विषय का पाठ्यक्रम संबंधी सामग्री किन विषयों से सम्बन्धित है?
(a) इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र
(b) भूगोल, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र
(c) पर्यावरण, भूगोल, समाजशास्त्र, इतिहास
(d) भूगोल, पर्यावरण, राजनीतिशास्त्र

4. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम-2005 के अनुसार पाठ्यपुस्तकें
(a) साधन न होकर साध्य हैं।
(b) अवधारणाओं तथा मुद्दों को समझने के लिए साधन के रूप में हैं।
(c) पाठ्यपुस्तकें ज्ञान का प्रमुख स्त्रोत हैं।
(d) उपरोक्त सभी सत्य हैं।

5. एन.सी.एफ. आधार पत्र मूल्यांकन के सतत् आकलन पर बल देता है, सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन के किस विधि द्वारा शिक्षार्थियों में सीखने की जिज्ञासा को उत्पन्न किया जाता है?
(a) निरीक्षण
(b) प्रश्नोत्तर
(c) साक्षात्कार
(d) दत्त कार्य

6. एन.सी.एफ. 2005 के आधार पर पाठ्यपुस्तकों पर निर्भरता में कमी लाने के लिए-
(a) पाठ्य पुस्तकों में अपेक्षित बदलाव लाने की जरूरत है।
(b) बालकों को सक्रिय रूप से सिखाने के अवसर प्रदान करने चाहिए।
(c) उपरोक्त दोनों कथन सही हैं।
(d) उपरोक्त दोनों कथनों में से कोई भी कथन सही नहीं है?

7. एन.सी.एफ. 2005 के आधार पर पाठ्यपुस्तकों की रचना संबंधी कौन सा कथन गलत है?
(a) विषयवस्तु वितरण में पर्याप्त संतुलन होना चाहिए।
(b) सामाजिक पूर्वाग्रह तथा लिंगभेद को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।
(c) अध्याय के अन्त में तकनीकी शब्दों की एक शब्दावली होनी चाहिए।
(d) भाषा कठिन व प्रभावशाली होनी चाहिए।

8. प्रो. यशपाल का सम्बन्ध किस समिति से है?
(a) कोठारी आयोग-1996
(b) राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986
(c) शिक्षा बिना बोझ के – 1993
(d) राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा-2005

9. निम्न कथनों में से कौन सा कथन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में किए गए प्रावधानों से सम्बन्धित है-
(a) प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को जनांदोलन बनाना।
(b) राज्यों में नए मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना।
(c) सक्षम मूल्यांकन प्रक्रिया अपनाना।
(d) पाठ्यक्रम से अनावश्यक विषय सामग्री को निकालना।

10. एन.सी.एफ. 2005 के आधार पर भूगोल अध्ययन में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि-
(a) बच्चे समकालीन व आगामी घटनाओं पर विस्तार से चर्चा करे।
(b) सामान्य जनजीवन को अध्ययन का आधार बनाकर पढ़ाई करें।
(c) चुनौतियों एवं आर्थिक समस्याओं व वैश्विक पर्यावरण का अध्ययन करें।
(d) बच्चे पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण संबंधी बातों को गहराई से समझे।

उत्तरमाला – 1.(b)  2.(c)  3.(a)  4.(b)  5.(b)  6.(c)  7.(d)  8.(c) 9.(d) 10.(d)




                               ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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