परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi

समय समय पर हमें छोटी कक्षाओं में या बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं में निबंध लिखने को दिए जाते हैं। निबंध हमारे जीवन के विचारों एवं क्रियाकलापों से जुड़े होते है। आज hindiamrit.com  आपको निबंध की श्रृंखला में  परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi प्रस्तुत करता है।

Contents

परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi

इस निबंध के अन्य शीर्षक / नाम

(1) वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे पर निबंध
(2) पर पीड़ा सम नहिं अधमाई पर निबंध
(3) पर उपकार सरिस न भलाई पर निबंध

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परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi

पहले जान लेते है परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi पर निबंध की रूपरेखा ।

निबंध की रूपरेखा

(1) प्रस्तावना
(2) समाज का आधार – परहित की भावना
(3) परोपकार स्वाभाविक गुण है
(4) परोपकार एक महान धर्म है
(5) उपसंहार




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परोपकार पर निबंध हिंदी में | परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर निबंध | paropkar par nibandh in hindi

प्रस्तावना

मानव जीवन एक अमूल्य निधि है। यो तो संसार में कीट-पतंगों की भांति अनेक मनुष्य नित्य जन्म लेते और मर जाते हैं लेकिन ऐसे महापुरुष कम ही होते हैं जो अपने जीवन के उद्देश्य को समझते
हैं, उनको पाने का प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं।

ऐसे लोग अमर हो जाते हैं। मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य है-मानव कल्याण । “वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।’ जो मनुष्य अपने आत्मिक विकास के साथ मानव जाति का कल्याण करने में जितना सफल हो जाता है, वह उतना ही महान् बन जाता है।

वास्तविकता यह है कि अपने संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव जाति का निःस्वार्थ उपकार करना ही मनुष्य का प्रधान कर्तव्य और सबसे बड़ा धर्म है।



समाज का आधार : परहित को भावना

मनुष्य मूलतः एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के
मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। समाज की स्थिति परहित की भावना पर आधारित है।

जिस समाज के सदस्यों में परस्पर सहयोग की भावना जितनी अधिक होती है वह समाज उतना ही सुखी और सम्पन्न होता हैं और जिस समाज के सदस्य स्वार्थी तथा “अपना कर दूसरों की चिन्ता न कर” के सिद्धान्त के अनूयायी होते हैं, वह समाज दुःखी होकर छिन्न-भिन्न हो जाता है।

इसीलिए विश्व की सभी प्राचीन एवं आधुनिक सभ्यताओं में परोपकार की भावना पायी जाती है। सभी धर्मों में परोपकार की भावना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

हिन्दू संस्कृति में तो परोपकार को सबसे बड़ा धर्म माना गया है-

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।



परोपकार स्वाभाविक गुण है

परोपकार की भावना मानव के लिए स्वाभाविक है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षियों और जड़ पदार्थों में भी यह भावना पायी जाती है।

यह हो सकता है कि प्रबल स्वार्थ के आवेग में हम इस भावना का निरादर कर दें किन्तु मूल रूप में यह दैवी भावना सब में है। जो व्यक्ति सज्जन और विवेकशील हैं वे सदा इस भावना का आदर करते हैं।

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वे स्वयं अनेक कष्ट सहकर भी दूसरों का उपकार करते हैं। हम देखते हैं कि जड़ वृक्ष दूसरों के खाने के लिए ही फल उत्पन्न करते हैं तथा उनका बोझ धारण करते है।

नदी दूसरों के हित के लिए ही जल को बहाती है। जब निर्जीव पदार्थों की यह दशा है, तब विवेकशील मानव क्यों न परोपकार के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दे? इसी भाव को कविवर कबीर ने इस प्रकार से प्रकट किया है-

“वृक्ष कवहँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ, के कारने, साधुन धरा शरीर॥

केवल अपने लिए तो पशु भी जीते हैं। मनुष्य की यही तो विशेषता है कि वह आत्मोद्भार करता हुआ भी दूसरों का उद्घार करता है।

जो मनुष्य इस परोपकार रूपी मानवीय धर्म का पालन नहीं करता, जो परहित के लिए अपना तन-मन-धन, सब कुछ अर्पित नहीं कर देता, वह मनुष्य नहीं, मानवता के लिए अभिशाप है।

महापुरुष अपना सर्वस्व देकर भी दूसरों का उपकार करते हैं। दानवीर कर्ण ने अपने अमूल्य कवच और कुण्डल परोपकार के लिए दे दिये थे, महर्षि दधीचि ने देवों के उद्धार के लिए अपनी हड्डियाँ दे दी थी और महात्मा गांधी ने परोपकार के लिए ही अपने प्राण दे दिये थे।

इस प्रकार के परोपकारी मनुष्य संसार मे अमर हो जाते हैं ।




परोपकार महान् धर्म है

वास्तव में समाज उन महापुरुषों के बल पर खड़ा है जिन्होंने परहित और मानव कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है।

नि:स्वार्थ भाव से चिन्तन करने वाले गांधी, मालवीय तथा तिलक जैसे महात्माओं द्वारा ही समाज का कल्याण होता है । यही वह धर्म है जिसके द्वारा मानव जाति का उद्भार हो सकता है, विश्व-शान्ति की स्थापना का स्वप्न पूरा हो सकता है।

जो समस्त मानव जाति का कल्याण सोचते हैं, जो दूसरों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उन्हीं का जीवन सफल होता है।

कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है-

“मरा नहीं बही कि जो जिया न आपके, लिए,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।”

परोपकारी मनुष्य अपना अनिष्ट करने वाले का भी भला ही करता है। उसके जीवन का मूल मन्त्र होता है –

“जो तोकों कॉटा बुवै, ताहि बोइ तू पफूल।
तोहि फूल फूल है, वाको है तिरसूल॥

वास्तव में परोपकाररत जीवन ही जीवन है। क्षणिक स्वार्थपूर्ति से दूर रहकर ही परोपकारी जीवन बिताना चाहिए-

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“पर उपकारी बनकर ही तो, जीना जग में जीना है।
स्वार्थलीन पशुसम जी लेना, भी ज़ग में क्या जीना है?”




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