विद्यालय प्रबंधन में प्रधानाध्यापक की भूमिका / प्रधानाध्यापक के गुण एवं विशेषताएं

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विद्यालय प्रबंधन में प्रधानाध्यापक की भूमिका / प्रधानाध्यापक के गुण एवं विशेषताएं

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विद्यालय प्रबंधन में प्रधानाध्यापक की भूमिका / प्रधानाध्यापक के गुण एवं विशेषताएं


प्रधानाध्यापक के गुण एवं विशेषताएं / विद्यालय प्रबंधन में प्रधानाध्यापक की भूमिका

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विद्यालय प्रबन्धन में प्रधानाध्यापक की भूमिका / Role of Principal in School Management

विद्यालय में प्रधानाध्यापक को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। प्रधानाध्यापक अपने सफल नेतृत्व, व्यक्तित्व, अनुभव, योग्यता एवं कार्य दक्षता के आधार पर विद्यालय को निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है। विद्यालय में प्रधानाध्यापक की ठीक उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि खेल के मैदान में कप्तान की और युद्ध क्षेत्र में सेनापति की । ई. पी. कुवरली (Cubberly, B.P) के शब्दों-“प्रधानाध्यापक केवल प्रशासक होने के कारण ही नेता नहीं है, उसके नेतृत्व के प्रधान अंग है-तक शक्ति, प्रगाह ज्ञान तथा अदम्य उत्साह।”

अत: प्रधानाध्यापक एक नेता के समान होता है जो शिक्षक, कर्मचारी तथा बालक एवं अभिभावकों का नेतृत्व करता है। वास्तव में वह समस्त विद्यालय क्रियाओं का मार्गदर्शक है। मार्गदर्शक के रूप में यह संयोजक का स्रोत होता है जो विभिन्न क्रियाओं समन्वय स्थापित करता है और साधनों का अधिकतम उपयोग करता है। प्रधानाध्यापक अध्यापकों का अध्यापक होता है। इस रूप में वह शैक्षिक कार्यों में अध्यापकों का मार्गदर्शक बनाउनके शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाता है। जैसा प्रधानाध्यापक होगा, शिक्षक वैसा ही शिक्षण करेंगे।

प्रधानाध्यापक एक नेता के रूप में
Principal as a Leader

प्रधानाध्यापक में नेतृत्व कर्ता का होना नितान्त आवश्यक है। बॉसिंग (Bossings) ने नेतृत्व की निम्नलिखित 6 विशेषताों का उल्लेख किया है जो कि प्रत्येक प्रधानाध्यापक में होनी चाहिये-

(1) प्रधानाध्यापक माल का नेतृत्व करने की क्षमता होनी चाहिये, तभी व विद्यालय का सामाजिक जीवन से स्थापित कर सकता है। (2) विद्यालय के सामने मित्य नयी समस्याएं आती रहती है। प्रभूत कल्पना शक्ति वाला प्रधानाध्यापक ही इन समस्याओं का भली-भाति निवारण कर सकता है। (3) प्रधानाध्यापक को महत्त्वाकांक्षी होना चाहिये। ऐसा प्रधानाध्यापक ही भविष्य के लिये नेताओं का निर्माण कर सकता है। (4) प्रधानाध्यापक को शिक्षा के क्षेत्र में विशेषज्ञ होना चाहिये तथा प्रशासनात्मक क्षमता भी उसमें कूट-कूट कर भरी होनी चाहिये। (5) उसमें इतनी क्षमता होनी चाहिये कि वह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क स्थापित कर सके। (6) प्रधानाध्यापक के सामने स्पष्ट रूप से एक सामाजिक तथा शैक्षिक दर्शन होना चाहिये,तभी वह विद्यालय को उन्नति की ओर उन्मुख कर सकेगा।

प्रधानाध्यापक का विद्यालय में महत्त्व एवं स्थान
The Importance and Place of Headmaster in the School

प्रधानाध्यापक को विद्यालय में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह सम्पूर्ण विद्यालय की प्रगति का प्रेरणा स्रोत है। विद्यालय में एकता बनाये रखने, विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों में सन्तुलन बनाये रखने, विद्यालय परम्पराओं को जीवित बनाये रखने तथा विद्यालय को प्रगति के मार्ग पर ले जाने के लिये प्रधानाचार्य एक प्रमुख शक्ति के रूप में कार्य करता है।

वह विद्यालय का ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों और विद्यालय समस्त क्रियाएँ घूमती हैं। प्रधानाध्यापक के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए पी.सी. रैन (P.C.Wren) ने लिखा है-“विद्यालय स्वस्थ तथा अस्वस्थ मानसिक, नैतिक एवं भौतिक परिस्थितियों में सम्पन्न तथा पतनोन्मुख, अच्छे अथवा बुरे होते हैं जबकि प्रधानाध्यापक योग्य, उत्साही एवं उच्च आदर्शपूर्ण अथवा उसके प्रतिकूल होता है। महान् प्रधानाध्यापक महान् विद्यालयों का निर्माण करते हैं तथा विद्यालय प्रसिद्धि को प्राप्त करते हैं अथवा अन्धकार के गर्त में विलीन हो जाते हैं। जब अच्छे या बुरे प्रधानाध्यापक उनके अध्यक्ष होते हैं।”

अतः प्रधानाध्यापक विद्यालय का प्राण और स्रोत है। डॉ. एस. एन. मुखर्जी (Dr. S.N. Mukherjee) के शब्दों में, “प्रधानाध्यापक विद्यालय के आन्तरिक एवं बाहा प्रशासन के मध्य एक कड़ी है। वह विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्था का सम्बन्ध बाह्य प्रशासन से स्थापित करता है। वह प्रशासन में गुम्बद का आधाररूपी पत्थर है।” प्रधानाध्यापक की महत्त्वपूर्ण स्थिति को अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने स्वीकारा है। प्रो. रायबर्न (Prof. Rayburn) ने इस सम्बन्ध में लिखा है-“जिस प्रकार जहाज में कप्तान का प्रमुख स्थान होता है, ठीक उसी प्रकार विद्यालय में प्रधानाध्यापक का स्थान होता है। प्रधानाध्यापक समन्वय स्थापित करने का अभिकरण है, जो सन्तुलन बनाये रखता है तथा समस्त संस्था के बहुमुखी विकास के प्रयास में सलग्न रहता है। यह विद्यालय की परम्पराओं का निर्धारण करता है तथा समय के साथ इन परम्पराओं को आवश्यक गति प्रदान करता है।”

इस प्रकार प्रधानाध्यापक विद्यालय का ऐसा बीपक है, जो सम्पूर्ण विद्यालय को प्रकाश प्रदान करता है। वह विद्यालय की रीढ़ की हड्डी है जिस पर विद्यालय के सम्पूर्ण कार्य अवलम्बित है। उसे विद्यालय की धुरी भी कहा गया है, जिसके संकेतों पर समस्त कार्यक्रमों का चक्र क्रमित रूप से संचरण होता है। वह विद्यालय रूपी नौका का कर्णधार है। वह विद्यालय का ही नेता नहीं है वरन् समाज का भी नेता है। विद्यालय एक सामाजिक संस्था है। प्रधानाध्यापक वह कड़ी है, जो विद्यालय तथा समाज में मधुर सम्बन्ध स्थापित करती है। अत: उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहना अनुचित न होगा कि विद्यालय में प्रधानाध्यापक का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है।

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विद्यालय प्रबन्धन में प्रधानाध्यापक के दायित्व एवं कार्य

प्रजातन्त्र की सफलता उसके सदस्यों की क्षमताओं और शक्तियों का विकास कर, बुद्धि और मानसिक बल का आश्रय लेकर, शैक्षिक नीतियों का निर्धारण करके, कार्य की योजना बनाने और सभी के सहयोग से उस योजना को क्रियान्वित करने में निहित है। विद्यालय के प्रधानाध्यापक पर शैक्षिक प्रशासन और प्रबन्धन कादायित्व होता है। इसके लिये उसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

(1) शैक्षिक नीतियों के निर्धारण में अध्यापकों, छात्रों और अभिभावकों तथा समाज के सभी सदस्यों को भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना। (2) इन नीतियों को कार्यरूप में बदलने के लिये सभी का सहयोग प्राप्त करना। (3) अध्ययन-अध्यापन के लिये उचित वातावरण का निर्माण करना। (4) विभिन्न शैक्षिक क्रियाओं और शिक्षा के आदर्श तथा व्यवहार में समन्वय स्थापित करना । (5) उचित व्यक्ति को उचित बार्य में लगाना। (6) शिक्षा कार्य की जटिलता कोदूर कर उसे सरलबनाना । (7) कर्मचारियों में परस्पर विश्वास और आत्म-विश्वास को भावना का विकास करना तथा उन्हें आवश्यक निर्देशन एवं सहयोग प्रदान करना। (8) मूल्यांकन को निरन्तर प्रभावपूर्ण बनाना और अपनी सफलता का अनुमान लगाना। (9) अध्यापकों को प्रयोग तथा अनुसन्धान के लिये अवसर प्रदान करना, प्रशिक्षण विधियों के सुधार के लिये अध्यापकों को सदैव प्रेरित करते रहना। (10) अध्यापक वर्ग के लिये कल्याणकारी सेवाओं का आयोजन करना।

प्रबन्धन में प्रधानाध्यापक के उत्तरदायित्व निम्नलिखित है-

1.शैक्षिक नीतियों के निर्धारण में अध्यापकों, छात्रों, समाज के अन्य सदस्यों और अभिभावकों को भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना-प्रधानाध्यापक का कर्तव्य है कि वह शैक्षिक नीतियों का निर्धारण सहकारिता के सिद्धान्त पर करे जिससे छात्र, अध्यापक, समाज के सदस्य तथा अभिभावक शैक्षिक समस्याओं को समझ सकें, वह सामूहिक निर्णयनको मानने और उस पर कार्य करने के लिये प्रस्तुत रहें।

2. नीतियों के कार्यान्वयन में अध्यापकों, छात्रों और सभी लोगों के सहयोग को प्राप्त करना – प्रधानाध्यापक का उत्तरदायित्व है कि वह स्वयं निर्धारित नीतियों के अनुसार कार्य करे और अध्यापकों से कार्य कराये। अध्यापकों को सभी प्रकार की सुविधा देकर उनके वातावरण तैयार करे। जब सभी व्यक्ति अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करने में लगबकार्य को सरल बनायें जिससे वे शिक्षा क्रम को सुचारु रूप से चला सकें। इनके लिये वह उचित जाते हैं तब प्रशासक अथवा संचालक का काम उनके कार्यों को समन्वित और संगठित करना मात्र ही रह जाता है। शैक्षिक नीतियों का कार्यान्वयन सफलतापूर्वक तभी हो सकता है, जब प्रधानाध्यापक प्रशासक के रूप में पर्यवेक्षण का दायित्व अपने ऊपर लें, निर्धारित नीति के अनुसार, उचित समय पर कार्यवाही प्रारम्भ कर दें, सभी का पूरा-पूरा सहयोग लें तथा आवश्यकता पड़ने पर कार्यान्वयन में पथ-प्रदर्शन के रूप में सहायता भी करें।

3.शिक्षण विधियों में संशोधन लाना-प्रशासक के रूप में प्रधानाध्यापक अपने सहयोगी अध्यापकों के प्रयोगात्मक दृष्टिकोण को विकसित करें और विद्यालय में ऐसा वातावरण तैयार करें कि सभी अध्यापक मिलजुल कर शिक्षण विधियों में सुधार लाने की चेष्टा करें ।

4.शिक्षोपयोगी सामग्री को संगठित करना-पुस्तकालय हो या प्रयोगशाला, विद्यालय फर्नीचर हो या खेलकूद का समान, सभी शिक्षोपयोगी सामग्री के क्रय का उत्तरदायित्व होना चाहिये, सहयोगी अध्यापकों पर क्रय का ही नहीं, उसको उपयोग करने और रख-रखाव का दायित्व भी अध्यापकों को ही सौंप दिया जाना चाहिये।

5. परीक्षा तथा मूल्यांकन का कार्य-छात्रों की शैक्षणिक प्रगति का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रधानाध्यापक द्वारा एक ऐसी व्यवस्था की जाये कि सभी सहयोगी अध्यापकों को उसकोनपूरा सहयोग मिल सके। परीक्षण परिणामों का विश्लेषण कर उसको यह जानने का प्रयत्नबकरना चाहिये कि उसके छात्रों की क्या-क्या कमजोरियाँ हैं, उनको पाठ्य-वस्तु को सीखने मेंबकिस सीमा तक कठिनाइयाँ हो रही हैं तथा उन कठिनाइयों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?

6.अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के लिए कल्याण कार्य-प्रधानाध्यापक अपने साथियों, सहयोगियों और अनुगामियों का नेता होता है, सफल नेतृत्व इस बात पर निर्भर करतानहै कि ये लोग किस सीमा तक सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं ? इसलिये प्रधानाध्यापक को उनके हितों की चिन्ता करनी चाहिये।

प्रधानाध्यापक के गुण
Qualities of a Headmaster

एक सफल प्रधानाध्यापक में कौन-कौन से गुण होने चाहिये? इसकी विभिन्न विद्वानों ने व्यापक चर्चा की है।  इस दृष्टि से उसके व्यक्तित्व में अनलिखित गुणों का होना आवश्यक समझा गया है-

1. एक नेता के रूप में (As a leader)-विद्यालय प्रशासन एक संगठन है और इस संगठन का नेता प्रधानाध्यापक होता है। एक योग्य एवं कुशल प्रधानाध्यापक में नेतृत्व करने की क्षमता होनी चाहिये। नेता वह है जो अपने सहयोगियों एवं अनुगामियों का त्वरित सहयोग (Willing co-operation) प्राप्त करता है। प्रधानाध्यापक को त्वरित सहयोग प्राप्त करने के लिये अपने सहयोगियों एवं अनुगामियों की योग्यता में निष्ठा रखनी चाहिये। उसका नेतृत्व विनाशात्मक न होकर रचनात्मक होना चाहिये। उसमें नेतृत्व की इतनी योग्यता हो कि वह छात्रों तथा अध्यापकों को शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति के लिये संलग्न कर सके। अतः प्रधानाचार्य का व्यक्तित्व नेतृत्व के गुणों से विभूषित होना चाहिये।

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2. समाज के नेता के रूप में (As a leader of society)-विद्यालय एक सामाजिक संस्था है। उसका निर्माण समाज के साध्यों की प्राप्ति एवं उसकी प्रगति हेतु किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विद्यालय समाज का एक लघु रूप है। प्रधानाध्यापक इस लघु समाज का नेता होता है। इसलिये प्रधानाध्यापक में सामाजिकता का होना परम आवश्यक है। उसे समाज के परिवर्तनों की ओर सदैव सक्रिय रहना चाहिये एवं उनकी जानकारी प्राप्त करके अपने विद्यालय को उसके सुधार के लिये अग्रसर करने का प्रयत्न करना चाहिये।

3. कुशल संगठनकर्ता (Efficient organizer)-प्रधानाध्यापक में संगठन करने की योग्यता को होना आवश्यक है, जिससे वह अपने सहयोगियों, अध्यापकों तथा क्लर्कों आदि की सेवाओं का सफलतापूर्वक उपयोग कर सके। अत: उसको विद्यालय संगठन के मूल सिद्धान्तों, समाज की आवश्यकताओं एवं आदर्शों का ज्ञान होना आवश्यक है। विद्यालय के समस्त कार्य का वर्गीकरण करके उसको योग्यतानुसार विभाजित करना, नूतन योजनाएँ निर्मित करना तथा उन्हें कार्य रूप में परिणित करना प्रधानाध्यापक के प्रमुख कार्य हैं। अतः उसमें कार्य के नियोजन, क्रियान्वयन एवं परीक्षण की योग्यता होनी चाहिये।

4. सहानुभूति एवं मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण (Sympathetic and friendly attitude)- प्रधानाध्यापक को सदैव अपने शिक्षकों तथा विद्यार्थियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखना चाहिये। वह छात्रों की समस्त कठिनाइयों को सहृदयता के साथ सुने तथा आत्मीयता का भाव प्रकट करे एवं उनके व्यक्तित्त्व का सम्मान करे। ऐसा ही सद्व्यवहार उसे अपने अध्यापकों के साथ करना चाहिये। उनकी त्रुटियों को शुद्ध करने हेतु उसे रचनात्मक सुझाव देने चाहिये। उसे अध्यापकों को अपना सहयोगी मानकर चलना चाहिये न कि सेवक। इसके अतिरिक्त उसे छात्रों तथा शिक्षकों के साथ मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण रखना चाहिये। उसे सदैव भय तथा शक्ति के आधार पर काम नहीं लेना चाहिये। केवल दोष निकालना ही उसका कर्त्तव्य नहीं है, उसे अध्यापकों के गुणों पर भी प्रकाश डालना चाहिए । एक मित्र की तरह उसका व्यवहार परम् आवश्यक है।

5. आदर्श चरित्र (Ideal character)-प्रधानाध्यापक को एक आदर्श चरित्र का व्यक्ति होना चाहिये। उसे समाज, छात्र, अध्यापकों तथा अभिभावकों के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये, जिससे वे उसका अनुगमन कर सकें। उसे सदैव सादा जीवन तथा उच्च विचार (Simple living and high thinking) के सिद्धान्त को अपनाना चाहिये। इसी गुण से वह विद्यालय समाज को प्रभावित कर सकता है। यदि प्रधानाध्यापक में किसी भी प्रकार की चारित्रिक दुर्बलता होगी तो वहसमाज के सामनेउभर कर आजायेगी। छात्रों पर भी प्रधानाध्यापकनके चरित्र का पूर्णतया प्रभाव पड़ता है। इस कारण प्रधानाध्यापक को सुदृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति होना चाहिये क्योंकि चरित्रवान व्यक्ति सदा समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। उसकीनवाणी के अन्दर बल होता है। वह असम्भव कार्य को भी सम्भव कर सकता है।

6. ज्ञान प्राप्त करने के लिये उत्सुकता एवं विद्वता – योग्य प्रधानाध्यापक के लिये आवश्यक है कि वह सदैव ज्ञानार्जन के लिये उत्सुक रहे। इसके लिये उसे व्यावसायिक साहित्य, विभिन्न विषयों से सम्बन्धित पुस्तकों, शिक्षा-सिद्धान्त तथा सामान्य ज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों आदि का अध्ययन करना चाहिये। उसे संसार में हो रहे शिक्षा के नूतन से नूतन प्रयोगों का ज्ञान होना चाहिये। उसका अपना अलग से पुस्तकालय होना चाहिये।

उसे अपने अध्यापक मण्डल के साथ भी कभी-कभी साहित्यिक तथा शिक्षा सम्बन्धी वार्तालाप में भाग लेना चाहिये। प्रधानाध्यापक की सफलता के लिये यह आवश्यक है, कि उसका शिक्षक वर्ग उसकी विद्वता के कारण उसको आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखे। प्रधानाध्यापक के रूप में वह केवल विद्यालय को नेतृत्त्व प्रदान नहीं करता वरन् समाज को भी नेतृत्व प्रदान करता है। इस दृष्टि से उसमें विद्वता का होना आवश्यक है, जिससे उसके व्यक्तित्त्व का सम्मान केवल शिक्षक वर्ग ही न करके समाज भी कर सके।

7. कुशल वक्ता (Good speaker)-कुशल प्रधानाध्यापक में बोलने तथा लिखने की शक्ति होना आवश्यक है। विद्यालय का नेता होने के नाते उसे विद्यालय तथा समाज में अपने विचार प्रकट करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। जन-समुदाय को वह वाक्पटुता से विद्यालय के उद्देश्यों, आदर्शों एवं प्रगति आदि से परिचित करा सकता है। वस्तुत: भाषण की कुशलता उसकी सफलता की कुंजी है।

8. जनतन्त्रीय दृष्टिकोण (Democratic attitude)-प्रधानाध्यापक का दृष्टिकोण कुलीनतन्त्रात्मक न होकर जनतन्त्रीय होना चाहिये तभी वह अपने प्रजातन्त्रात्मक समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है। उसे विद्यालय के संगठन में जनतन्त्रीय तानाशाही या दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये तभी वह छात्रों में भी जनतन्त्रीय दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सफल होगा। छात्र-परिषद् के सभापति तथा मन्त्री आदि को भी प्रजातन्त्र की प्रणाली से चुना जाय।

9. न्यायप्रियता एवं निष्पक्षता (Love for justice and impartiality)-प्रधानाध्यापक को अपने व्यवहार में न्यायप्रिय एवं निष्पक्ष होना चाहिये। उसे सदैव निष्पक्षता से कार्य करना चाहिये। उसको अध्यापकों, छात्रों तथा अभिभावकों के प्रति प्रत्येक दशा में न्यायपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। उसे सबके न्यायोचित अधिकारों का आदर करना चाहिये।

10. आत्म-विश्वास एवं आत्म-संयम (Self-confidence and self control)- प्रधानाध्यापक को अपने अन्दर दृढ़ आत्म-विश्वास उत्पन्न करना आवश्यक है। यदि प्रधानाध्यापक विद्यालय प्रवन्ध में सफलता प्राप्त करना चाहता है तो उसे अपने अन्दर आत्म-विश्वास की भावना उत्पन्न करनी चाहिये। वहजो भी आदेशदे पूर्ण आत्म-विश्वास के साथदे।आत्म-विश्वास के अभाव में विद्यालय का प्रबन्ध अधूरा ही रह जायेगा। विश्वास की भावना उसे अपने अन्दर ही नहीं, वरन् अध्यापकों के अन्दर भी उत्पन्न करनी चाहिये। एक कुशल प्रधानाध्यापक को आत्मसंयमी भी होना चाहिये। इसलिये उसमें भावनात्मक स्थायित्व (Emotional stability) होना आवश्यक है। उसे अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है।

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11. प्रभावशाली व्यक्तित्व (Impressive personality)-प्रधानाध्यापक का प्रमुख गुण उसका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व है, जिसके ऊपर विद्यालय, समाज तथा स्वयं उसकी सफलता निर्भर है, इसलिये उसे एक प्रभावशाली व्यक्तित्त्व का व्यक्ति होना चाहिये। प्रधानाध्यापक के व्यक्तित्व के अन्तर्गत बाह्म-आकृति तथा आन्तरिक गुणों का मिश्रण होता है। दूसरे शब्दों में-व्यक्तित्व से तात्पर्य विभिन्न गुणों के समावेश से है। प्रधानाध्यापक पद पर वही व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है, जिसमें आत्मसंयम, सहनशीलता, प्रेम, दया, कुशलता, दूरदर्शिता तथा मौलिकता आदि गुर्गों का समावेश हो।

12. व्यावसायिक ज्ञान (Professional knowledge)-प्रधानाध्यापक को अपने विद्यालय के उद्देश्य एवं उनकी प्राप्ति के साधनों का निर्धारण करने के लिये माध्यमिक स्तर के विद्यालयों की आवश्यकताओं और आदशों का ज्ञान रखना चाहिये। उसे अपने व्यवसाय से सम्बन्धित नियमों तथा कानूनों का ठोस ज्ञान होना चाहिये। उसे शिक्षा-संहिता (Education cods), शिक्षा विभाग के नियों तथा अनुदेर्शो का विस्तृत ज्ञान होना चाहिये। प्रधानाध्यापक को शिक्षा की समस्याओं तथा शिक्षा की विभिन्न संस्थाओं का पूरा ज्ञान होना चाहिये। शिक्षा में क्या-क्या नये अनुसन्धान हो रहे हैं, विद्यालय और समाज में कैसे सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है-आदि बातों की उसे पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिये। प्रधानाध्यापक को व्यावसायिक साहित्य में भी रुचि रखनी चाहिये। शिक्षा के क्षेत्र में नयी-नयी पत्रिकाएँ निकलती रहती हैं। प्रधानाध्यापक को उनका पता होना चाहिये, जिससे वह शिक्षकों तथा विद्यार्थियों का समुचित रूप से मार्ग-दर्शन कर सकें।

13. विषयगत ज्ञान (Subjective knowledge)-प्रधानाध्यापक को अपने विषय में उच्च स्तरीय ज्ञान होना चाहिये। उसको अन्य विषयों का भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये। विषयगत ज्ञान के ज्ञाता के रूप में उसे अन्य शिक्षकों का मार्ग-दर्शक होना चाहिये। अत: उसमें अन्य विषयों के सम्बन्ध में अधिकाधिक जानने की उत्सुकता होनी चाहिये।

14. मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता (Capacity of establishment of hamaarelations)-एक सफल प्रधानाध्यापक मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता का होना आवश्यक है। इसी योग्यता पर उसकी सफलता एवं असफलता निर्भर है। यदि वह शिक्षक-शिक्षक के मध्य,छात्र-छात्र के मध्य, शिक्षक-छात्र के मध्य, शिक्षक एवं कर्मचारियों के मध्य, शिक्षक एवं अभिभावकों के मध्य उपयुक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता तो वह अपने विद्यालय का संचालन सुचारु रूपसे करने में असमर्थ होगा क्योंकि इन सभी के मधुर तथा सम्बन्धों पर ही विद्यालय की सफलता निर्भर है।

15. कर्त्तव्यपरायणता एवं कार्यदक्षता (Lofly sense of duty and efficiency)- यदि प्रधानाध्यापक अपने कर्तव्यों का निर्वाह निष्ठा के साथ नहीं करेगा तो विद्यालय का समस्त कार्य अस्त-व्यस्त हो जायेगा एवं वह स्वयं भी अपने सहयोगियों एवं छात्रों से कर्त्तव्य पालन की आशा नहीं कर सकता। कर्त्तव्य परायणता के गुण से प्रधानाध्यापक विद्यालय एवं समाज दोनों का पूर्ण उत्थान करने में सफल हो सकता है। उसको अपने अध्यापकों छात्रों तथा अन्य कर्मचारियों के समक्ष कर्तव्य पालन का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये। उसे विद्यालय का समस्त कार्य इस ध्येय से करना चाहिये कि यह उसका उत्तरदायित्त्व है एवं उसके निर्वाह पर ही विद्यालय की प्रगति निर्भर है तभी वह एक सफल एवं योग्य प्रधानाध्यापक बन सकता है।

16. आशावादी दृष्टिकोण (Hopefull opinion)-प्रधानाध्यापक का दृष्टिकोण आशावादी होना चाहिये। विद्यालय-जीवन में अनेक संघर्ष आते हैं। प्रधानाध्यापक को सफलता एवं असफलता दोनों ही स्थितियों में आशावादी रहना चाहिये। थोड़े-से विवाद एवं असफलता से उसे निराश नहीं होना चाहिये।

17. कथनी एवं करनी में अन्ता न होना (No Difference in Saying and Doing)-प्रधानाध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि वह जो भी कहे, उसी का अनुसरण करे। यदि उसकी कथनी करनी एक जैसी है तो सभी उसका विश्वास करेंगे एवं उचित सम्मान करेंगे।

बे(Bray,S.E) के मतानुसार प्रधानाध्यापक में निम्नलिखित विशिष्ट गुण होने चाहिये– (1) कर्त्तव्यपरायणता (Lofty sense of duty) (2) सहानुभूति (Sympathy) (3) निर्णय-शक्ति (Dicision power) (4) सूझ-शक्ति (Power of insight into character) (5) श्रम के प्रति आस्था (Love for his work) (6) मौलिकता (Originality of initiative) (7) आत्म-नियन्त्रण (Self-control) (8) संगठन-शक्ति (Efficient organizer) or (Organizing power) (9)दृढ़ता (Firmness) (10) प्रभावशाली स्वर (Effective voice) or (Persuasive powers of specch) (11) चारित्रिक परिशुद्धता (Ideal character) or (Purity of character)

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