शिक्षण के सिद्धांत | theories of teaching in hindi

शिक्षण के सिद्धांत | theories of teaching in hindi – दोस्तों सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा में शिक्षण कौशल 10 अंक का पूछा जाता है। शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है। यह विषय बीटीसी बीएड में भी शामिल है। आज हम इसी विषय के समस्त टॉपिक को पढ़ेगे।  बीटीसी, बीएड,यूपीटेट, सुपरटेट की परीक्षाओं में इस टॉपिक से जरूर प्रश्न आता है।

अतः इसकी महत्ता को देखते हुए hindiamrit.com आपके लिए शिक्षण के सिद्धांत | theories of teaching in hindi लेकर आया है।

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शिक्षण के सिद्धांत | theories of teaching in hindi

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theories of teaching in hindi | शिक्षण के सिद्धांत

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शिक्षण सिद्धान्त का स्वरूप एवं अर्थ (Nature and Meaning of Theories of Teaching)

शिक्षण सिद्धान्त से अभिप्राय है कि किसी भी विषय क्षेत्र या प्रक्रिया के विषय में सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा निश्चित क्रम में विचारों को इस प्रकार से आयोजित किया जाये कि वह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से सभी के समक्ष प्रदर्शित की जा सके।

“Theory is a formal representation of the data reduced to a minimal number of terms. –B. F. Skinner

*Theory is supposition to account for some thing system of rules and principles, rules and reasoning etc., as distinguished practice.” -कॉलिन इंगलिश जनरल डिक्शनरी शिक्षण कला ओर विज्ञान दोनों ही है । अतः शिक्षण सिद्धान्त भी दार्शनिक तथा वैज्ञानिक प्रयत्नों को लिए हुए हैं।


शिक्षण के सिद्धान्त के तत्व (Components of Theories of Teaching)

बी. ओ. स्मिथ (1963) के अनुसार, शिक्षण सिद्धान्त के चार तत्व हैं-

(i) शिक्षण-व्यवहार के चरों के लिए कथन ।
(ii) चरों के पारस्परिक सम्भव सम्बन्धों का प्रतिपादन ।
(ii) चरों तथा शिक्षण-व्यवहार के सह-सम्बन्ध की उपकल्पनाओं का प्रतिपादन ।
(iv) शिक्षण-व्यवहार के चरों का मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में व्याख्या करना ।


शिक्षण के सिद्धांत की परिभाषाएँ (Definitions)

ब्रूनर (1966) के अनुसार “शिक्षण सिद्धान्त उपचारात्मक होता है । यह ज्ञान अथवा कौशल प्राप्ति की अधिकतम प्रभावशाली विधियों से सम्बन्धित नियमों को निर्धारित करता है तथा ऐसा मानदण्ड (Criteria) प्रदान करता है, जिसकी सहायता से शिक्षण या अधिगम का मूल्यांकन किया जा सके।”

स्मिथ (1963) के अनुसार-

“किसी भी शिक्षण सिद्धान्त में तीन तत्व अवश्य होने चाहिए (1) चरों (Variables) का स्पष्टीकरण, (2) इन चरों के मध्य सम्भावित प्राकल्पना का स्पष्ट वर्णन।”

सम्बन्धों की स्थापना, तथा (3) विभिन्न चरों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में गेज (1963) के अनुसार, “(1) शिक्षक किस प्रकार व्यवहार करते हैं, (2) वे वैसा व्यवहार क्यों करते हैं, तथा (3) उस व्यवहार का क्या प्रभाव होता है।”

टैवर्स (1966) के अनुसार

“शिक्षण सिद्धान्त बहुत से ‘तर्क वाक्यों (Propositons) का एक समूह होता है, जिसमें एक ओर शिक्षा के परिणामों तथा दूसरी ओर छात्रों की विशेषताओं में पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया जाता है।”

कारलिंगर (1965) के अनुसार

“शिक्षण सिद्धान्त, शिक्षण की परिकल्पनाएँ तथा सम्बन्धित चरों की व्याख्या करते हैं, जिससे शिक्षण प्रत्यय को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है। चरों के सम्बन्ध का विशिष्टीकरण शिक्षण के उद्देश्यों की व्याख्या करने तथा उसके सम्बन्धों में पूर्व कथन के लिए किया जाता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शिक्षण-सिद्धान्त शिक्षण एवं शिक्षक व्यवहार के बारे में बताता है।

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शिक्षण-सिद्धान्त के आधार (Basis of Theory of Teaching)

शिक्षण सिद्धान्त के निम्नलिखित आधार माने जा सकते हैं-

(1) शिक्षण एक स्वतन्त्र अनुशासन है-अत: शिक्षण की पाठ्य-वस्तु
शिक्षण-सिद्धान्तों का होना आवश्यक है।

(2) शिक्षण कला और विज्ञान दोनों है-शिक्षण को कला एवं विज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी है अत: शिक्षण के अवयव एवं चरों का विश्लेषण किया जाने लगा है जिससे शिक्षण की प्रकृति को बोध होता है।

(3) शिक्षण-सिद्धान्त, शिक्षक व्यवहार पर आधारित किये जा सकते हैं। डी. जी. रायन ने शिक्षण-सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि शिक्षक व्यवहार में सुधार और परिवर्तन लाया जा सकता है । शिक्षक व्यवहार का वस्तुनिष्ठ रूप में मापन भी किया जा सकता है । इससे शिक्षक व्यवहार की प्रकृति का बोध किया जा सकता है। जो शिक्षण सिद्धान्त के एक पक्ष की व्याख्या करने में सहायक हो सकता है।

(4) शिक्षण-सिद्धान्त अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित किये जा सकते हैं।

क्रोनबेक के अनुसार, “शिक्षण के सिद्धान्त अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित किये जा सकते हैं ।

शिक्षण क्रियाएँ, अधिगम-क्रियाओं को सुविधा प्रदान करने के लिए प्रयोग की जाती हैं।
जहाँ शिक्षण क्रियाएँ सम्पादित होने पर ही अधिगम होगा। इस प्रकार शिक्षण और अधिगम में घनिष्ठ सह-सम्बन्ध है।”

(5) शिक्षण के लिए सीखने की परिस्थितियाँ एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती राबर्ट गेने का विचार है कि, शिक्षण के लिए अधिगम परिस्थितियाँ आधार होती हैं। अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए शिक्षक द्वारा विभिन्न प्रकार की युक्तियाँ तथा प्रविधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं । अर्थात् अधिगम की परिस्थितियों से शिक्षण की युक्तियों एवं प्रकृति का बोध होता है जो शिक्षण सिद्धान्त की व्याख्या के लिए आधार प्रदान करता है।

(6) शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण-सिद्धान्त के मौलिक आधार हैं-शिक्षण के प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्तों का आदि रूप (Initial stage) हैं। जिसमें शिक्षण के लक्ष्य, संरचना, सामाजिक व्यवस्था तथा मूल्यांकन की व्याख्या विशिष्ट एवं व्यावहारिक रूप में की जाती है।


शिक्षण के  सिद्धान्त के प्रकार (Types of Theories of Teaching)

रियान, 1956 (Ryan, 1956) के अनुसार-

(1) एक्जियोमेटिक (Axiomatic or Hypothetic-deductive Type)

(2) इम्पीरीकल (Empirical Inductive Type)|

न्यूसम, 1964 (Newsome, 1964) के अनुसार-

(1) वैज्ञानिक सिद्धान्त (Scientific Theory),

(2) दार्शनिक सिद्धान्त (Philosophical or Arciological Theory)।

मैकिया, 1965 (Maccia, 1965) के अनुसार-

(1) औपचारिक सिद्धान्त–तार्किक तथा गणितीय सिद्धान्त (Formal Theory- Theory of pure logic and puse mathematics),

(2) विवरणात्मक सिद्धान्त या दार्शनिक सिद्धान्त (Descriptive Theory or Philosophical Theory)


हायमन, 1971 (Hyman, 1971) के अनुसार-

(1) औपचारिक, वैज्ञानिक सिद्धान्त (Formal, Scientific Theory),

(2) आगमन या विवरणात्मक सिद्धान्त (Inductive or Descriptive Theory),

(3) दार्शनिक सिद्धान्त (Philosophical Theory)।




शिक्षण के मूलभूत सिद्धान्त / fundamentals theories of teaching in hindi

(1) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Theory of Activity)
(2) प्रेरणा का सिद्धान्त (Theory of Motivation)
(3) रुचि का सिद्धान्त (Theory of Interest)
(4) जीवन से सम्बन्धित स्थापना का सिद्धान्त (Theory of Related with Life)
(5)  निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Definite Aims)
(6) चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection)
(7) नियोजन का सिद्धान्त (Theory of Planning)
(8) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)
(9) लोकतान्त्रिक व्यवहार का सिद्धान्त (Theory of Democratic Dealing)
(10)विभाजन का सिद्धान्त (Theory of Division)
(11) आवृत्ति का सिद्धान्त (Theory of Revision)
(12) निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त (Theory of Construction and Recreation)
(13) पाठ्य-सामग्री के चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection of Subject Matter)
(14) मनोवैज्ञानिकता का सिद्धान्त (Theory of Psychologic)

शिक्षण के  सिद्धान्त के प्रकार (Types of Theories of Teaching)

छात्रों को समुचित शिक्षण प्रदान करने के लिए आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

(1) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Theory of Activity)

बालक जैसे-जैसे क्रियाशील होता जाता है वह कार्य करने में आनन्द का अनुभव करने लगता है । इस किण्डरगार्टन, बेसिक शिक्षा आदि इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं। सिद्धान्त के अन्तर्गत ‘करके सीखने’ पर जोर दिया जाता है । डाल्टन पद्धति, मॉन्टेसरी,●●●○●●●●

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(2) प्रेरणा का सिद्धान्त (Theory of Motivation)

इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों में पाठ के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए किया जाता है । प्रेरणा का संचार होने
पर बालक शीघ्र ही पाठ सीखने का प्रयास करते हैं । बालकों को आस-पास के वातावरण के बारे में भी जानकारी देनी चाहिए । आस-पास स्थिति औद्योगिक कारखाने, खनिज संग्रह, बाग-बगीचा, विद्युत घर, म्यूजियम आदि के बारे में जानकारी करने के
लिए उन्हें वहाँ ले जाकर उनके बारे में बताना चाहिए । इनका अध्ययन करने पर उनमें अध्ययन के प्रति प्रेरणा उत्पन्न होती है।

(3) रुचि का सिद्धान्त (Theory of Interest)

शिक्षण के स्पष्ट, सुपाच्य, पठनीय एवं रुचिपूर्ण बनाने के लिए पाठ में एक आदर्श लक्ष्य निर्धारित किया जाता है।
इस निर्धारित लक्ष्य के द्वारा ही आगे बढ़कर पाठ में रुचि उत्पन्न की जा सकती है।

(4) जीवन से सम्बन्धित स्थापना का सिद्धान्त (Theory of Related with Life)

इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि किसी विषय को पढ़ाते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि जीवन में प्रयुक्त होने वाली परिस्थितियों से सम्बन्धित हो । जीवन से सम्बन्धित विषय को बालक शीघ्र सीख लेते हैं।

(5)  निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Definite Aims)

कक्षा शिक्षण का एक प्रमुख सिद्धान्त है निश्चित उद्देश्यों का सिद्धान्त । जिसका तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य ही निश्चित होता है। उद्देश्यों के अभाव में, शिक्षक उचित शिक्षण नहीं करा सकता । यदि पाठ के उद्देश्यों का निर्धारण पूर्व में ही कर लिया जाता है तो शिक्षण बहुत ही स्पष्ट, व्यावहारिक, सरल, सुगम एवं रुचिकर हो जाता है। साथ ही साथ शिक्षक-शिक्षार्थी की क्रियाओं, विषय-वस्तु, विधि, प्रविधि, सहायक सामग्री, मूल्यांकन की प्रविधि आदि का भी निर्धारण किया जाता है अत: उद्देश्यविहीन शिक्षण निरर्थक है।

(6) चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection)

ज्ञान विस्तृत है । उस ज्ञान को बालक की क्षमता एवं योग्यता के अनुसार ही महत्वपूर्ण तथ्यों का चयन करके प्रदान करना चाहिए । शिक्षक सम्पूर्ण इकाई अथवा पाठ्यक्रम को एक ही 40-45 मिनट के कालांश में प्रदान नहीं कर सकता । वह उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बातों का चयन कर बताता है । इस हेतु उसे क्या, कब, कितना व कैसे पढ़ाना है ? वह चयन करना आवश्यक हो जाता है।

अतः शिक्षक को उपयोगी एवं आवश्यक तथ्यों का चयन कर अनुपयोगी एवं अनावश्यक विषय-वस्तु को त्याग देना चाहिए और अपने शिक्षण को सफल बनाना चाहिए । इसका चयन भी शिक्षक की अपनी योग्यता पर निर्भर करता है ।

विषय-वस्तु के उपर्युक्त चयन के कारण ही शिक्षा के निर्धारित किये गये उद्देश्यों के प्रति सम्भव है। जैसे भारतीय बैंकों का शिक्षण अथवा भारतीय बैंक का ज्ञान कोई भी शिक्षक एक कालांश में नहीं दे सकता । इनमें से एक कालांश हेतु केवल एक ही बैंक का चयन करना पड़ेगा ।

इस प्रकार चयन का सिद्धान्त शिक्षण हेतु उपयोगी एवं आवश्यक सिद्धान्त हैं। इसके महत्व को बताते हुए रायबर्न लिखते हैं कि, “चयन का सिद्धान्त अति महत्वपूर्ण है और शिक्षक की अच्छे चयन की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता बहुत कुछ निर्भर करती है।”


(7) नियोजन का सिद्धान्त (Theory of Planning)

पाठ्य-सामग्री चुनने के बाद शिक्षक को क्रमबद्ध तरीके से अन्य तत्वों का निर्माण करना चाहिए । उदाहरणार्थ- पाठ योजना का निर्माण, सहायक सामग्री का प्रयोग, गृह-कार्य, पुनरावृत्ति आदि ।


(8) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)

प्रत्येक बालक की आयु के अनुसार उसकी योग्यताएँ, रुचियाँ,
अभिवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । अतः शिक्षक को वैयक्तिक विभिन्नताओं की जानकारी करके शिक्षण कार्य करना चाहिए जिससे प्रत्येक स्तर पर छात्र लाभान्वित हो सकें।



(9) लोकतान्त्रिक व्यवहार का सिद्धान्त (Theory of Democratic Dealing)

शिक्षक को चाहिए कि कक्षा में स्वतन्त्रता का वातावरण उत्पन्न करे । अर्थात् प्रत्येक बालक को कक्षा के अन्तर्गत यह स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि अपनी शंका का समाधान कर सके। पाठ का विकास करने में छात्रों का पर्याप्त सहयोग भी लेना चाहिए।

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(10) विभाजन का सिद्धान्त (Theory of Division)

पाठ प्रस्तुत करने की सरलता एवं सुविधा की दृष्टि से पाठों की छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त कर लेना चाहिए।
रायबर्न के अनुसार-“एक विभाजन दूसरे विभाजन तक पहुँचा देता है, जिसके फलस्वरूप कक्षा के लिए समझना सहज बन जाता है।”



(11) आवृत्ति का सिद्धान्त (Theory of Revision)

पाठ्य-सामग्री के प्रति छात्रों के मस्तिष्क में स्थायी विचार बनाने के लिए शिक्षक को पाठ पढ़ाने के पश्चात छात्रों को आवृत्ति का अवसर देना चाहिए । स्थायी विचार ज्ञान प्राप्ति का स्त्रोत होते हैं।


(12) निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त (Theory of Construction and Recreation)

छात्रों में रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्ति का विकास करने हेतु उनसे रचनात्मक एवं मनोरंजनपूर्ण क्रियाएँ करानी चाहिए । खेल-खेल अथवा मनोरंजन में वे अपने पाट को स्वत: ही सीख लेंगे।


(13) पाठ्य-सामग्री के चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection of Subject Matter)

पाठ्य सामग्री चुनते समय शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि
कि वह छात्रों के स्तर के अनुकूल हो साथ ही उससे शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके । जहाँ तक सम्भव हो पाठ्य-वस्तु में उपयोगी तत्वों का ही समावेश होना चाहिए।

(14) मनोवैज्ञानिकता का सिद्धान्त (Theory of Psychologic)

शिक्षण में शिक्षकों को मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग करना चाहिए जिससे कि छात्र वांछित दिशा में अपना कार्य कर सकें । प्रत्येक बालक की रुचियों और बौद्धिक क्षमताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम एवं पाठ योजना का क्रियान्वयन करना चाहिए।




शिक्षण-सिद्धान्तों की आवश्यकता (Needs of Theory of Teaching)

(1) अधिगम के लिए समुचित परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए शिक्षण-सिद्धान्त आवश्यक हैं।


(2) शिक्षण-सिद्धान्तों के द्वारा शिक्षण प्रक्रिया में युक्त आश्रित एवं स्वतन्त्र चरों की जानकारी शिक्षक के ज्ञान, पूर्वकथन तथा नियन्त्रण में वृद्धि होती है।


(3) शिक्षण सिद्धान्तों द्वारा, शिक्षक के ज्ञान, पूर्वकथन तथा नियन्त्रण में वृद्धि होती है।


(4) ये शिक्षण के नियोजन, व्यवस्था तथा मूल्यांकन आदि के लिए वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते हैं।


(5) ये वर्तमान ज्ञान को संगठित करते हैं ।


(6) ये शिक्षकों की विभिन्न अवधारणाओं के विषय में ज्ञान प्रदान करते हैं।


(7) शिक्षण-सिद्धान्तों के माध्यम से शिक्षण को एक स्वतन्त्र तथा अपरिहार्य विषय बनाया जा सकात है।


(8) इनसे हमको शिक्षण के विभिन्न स्तरों की जानकारी मिलती है तथा इस बात का भी पता लग जाता है कि उनकी व्यवस्था किन प्रतिमानों पर आधारित है तथा शिक्षण के कौन-कौन से विभिन्न स्वरूप हैं।


(9) ये शिक्षण के विभिन्न चरों तथा अचरों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की प्रक्रिया को सरल बनाते हैं।


(10) ये शिक्षण तथा सीखने के मध्य सह-सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं ।


(11) ये शिक्षण नीतियों के विषय में स्पष्ट निर्देश प्रदान करते हैं।


(12) ये विभिन्न अनुदेशन प्रारूपों (Instructional Designs) के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।


(13) ये शिक्षण के क्षेत्र में शोध एवं प्रयोग के लिए नये आयाम प्रस्तुत करते हैं।


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