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जीवाणु की खोज,लक्षण,संरचना एवं महत्व / जीवाणु जनित रोग
जीवाणु की खोज,लक्षण,संरचना एवं महत्व / जीवाणु जनित रोग
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जीवाणु Bacteria
बैक्टिरिया सबसे सरलतम जीवधारी हैं। यह एककोशिकीय पूर्वकेन्द्रकीय (Prokaryotic) जीव हैं, जिनमें सत्य केन्द्रक (True nucleus) और सभी दो भित्ति वाले कोशिकांग नहीं पाए जाते हैं। विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत जीवाणुओं की आकारिकी, वर्गीकरण, जनन, वृद्धि, आदि विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है, जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) कहलाती है।
जीवाणु की खोज Discovery of Bacteria
(i) जीवाणुओं की सर्वप्रथम खोज एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antonie van Leeuwenhoek) ने सन् 1683 में की थी और इन्हें जन्तुक (Animalcules) नाम दिया।
(ii) लिनियस (Linnaeus; 1758) ने इन्हें वर्मीस (Vermes) वंश में रखा।
(iii) 1829 में एरनबर्ग (Ehrenberg) ने इन्हें जीवाणु नाम दिया।
(iv) रॉबर्ट कोच (Robert Koch) को ‘आधुनिक जीवाणु विज्ञान का पिता (Father of Modern Bacteriology)’ कहते हैं।
जीवाणुओं के सामान्य लक्षण
General Characteristics of Bacteria
इनके सामान्य लक्षण निम्न हैं।
(i) जीवाणु जल, थल तथा वायु सभी जगह पाए जाते हैं।
(ii) ये एककोशिकीय (Unicellular), पूर्वकेन्द्रकीय (Prokaryotic) और अत्यन्त सरलतम संरचना वाले जीव होते हैं।
(iii) इनकी कोशिका भित्ति मोटी और म्यूकोपेप्टाइड (Mucopeptides) की बनी होती है।
(iv) इनमें स्पष्ट केन्द्रक का अभाव होता है। इसके स्थान पर आरम्भी केन्द्रक (Incipient nucleus) पाया जाता है।
(v) जीवाणु कोशिका में लवक, माइटोकॉण्ड्रिया, गॉल्जीकाय और अन्तः प्रद्रव्यी जालिका जैसे द्विकलीय या दो भित्ति वाले कोशिकांग अनुपस्थित होते हैं।
(vi) ये स्वपोषी (Autotrophic), परजीवी (Parasites) अथवा मृतोपजीवी (Saprophytes) होते हैं।
(vii) इनमें अलैंगिक जनन प्रायः द्विविभाजन और बीजाणुओं (Spores) द्वारा होता है।
(viii) इनमें लैंगिक जनन का अभाव होता है, किन्तु आनुवंशिक पुनर्योजन (Genetic recombination) पाया जाता है।
जीवाणुओं की आकृति एवं माप
Shape and Size of Bacteria
परिमाप में जीवों में सबसे छोटे और सरल समझे जाने वाले गोल जीवाणुओं का व्यास लगभग 0.5-2.5 p तक, लम्बे जीवाणुओं की चौड़ाई लगभग 0.2-24 तक और लम्बाई लगभग 2-15u तक हो सकती है। कुछ जीवाणु बड़े परिमाप (लगभग 30-40p तक) के भी होते हैं।
जीवाणुओं के प्रकार / types of bacteria in hindi
आकार के आधार पर जीवाणु पाँच प्रकार के होते हैं
(i) कोकाई (Cocci) ये गोल (Spherical) जीवाणु हैं। अधिकतर ये बहुत छोटे (लगभग 1´) होते हैं। यह एकल या समूह में रहते हैं। ये जब एकल।या एककोशिकीय मोटी पर्त बनाते हैं, तो माइक्रोकोकाई (Micrococci), जब दो के समूह में होते हैं, तो डिप्लोकोकाई (Diplococci), जब शृंखला में होते हैं, तो स्ट्रेप्टोकोकाई (Streptococci) कहलाते हैं। इसी प्रकार ये जब चार-चार के समूह में होती हैं, तो टेट्राकोकाई (Tetracocci), जब घन के आकार के होते हैं, तो सारसीनी (Sarcinae) तथा जब अनियमित गुच्छे या समूह में होते हैं, तब स्टैफाइलोकोकाई (Staphylococci) कहलाते हैं; उदाहरण- सारसिना, जो मनुष्य के आमाशय में रहते हैं और निमोनिया के जीवाणु डिप्लोकोकस न्यूमोनी, आदि।
(ii) बैसिलाई (Bacilli) ये आकार में शलाका (Rod) की तरह होते हैं तथा काफी लम्बे या छोटे हो सकते हैं। ये रोमाभ या रोमाभयुक्त (Without or withcilia) हो सकते हैं, जब ये जोड़ों में होते हैं, तो डिप्लोबैसिलाई (Diplobacilli), जब लम्बी शृंखला के रूप में होते हैं, तो स्ट्रैप्टोबैसिलाई (Streptobacilli) और जब अन्य किसी प्रकार के समूह में गुच्छा बनाते हैं, तो स्टैफाइलोबैसिलाई (Staphylobacilli) कहलाते हैं; उदाहरण- बैसिलस।
(iii) स्पाइरिलाई (Spirilli) ये लम्बे किन्तु स्प्रिंग की तरह सर्पिल या पेंच की तरह होते हैं। ये सामान्यतया एकल मिलते हैं। इनके शरीर पर एक या अधिक रोमाभ (Cilia) पाए जाते हैं; उदाहरण- स्पाइरिलम (Spirillum)
(iv) विब्रियो (Vibrio) ये कौमा (,) की आकृति के होते हैं व सामान्यतः एकल ही मिलते हैं; उदाहारण-हैजा का जीवाणु विब्रियो कॉलेरी (Vibrio cholerae)
(v) एक्टिनोमाइसीट्स (Actinomycetes) ये अत्यन्त पतले, शाखित, सूत्राकार जीवाणु हैं। कवक तन्तुओं की तरह दिखाई पड़ते हैं। अन्य जीवाणुओं से अत्यन्त भिन्न तथा अधिक विकसित मालूम होते हैं; उदाहरण-स्ट्रेप्टोमाइसीज (Streptomyces)
जीवाणु कोशिका की संरचना
Structure of Bacterial Cell
जीवाणु कोशिका एक पूर्वकेन्द्रकीय (Prokaryotic) संरचना दर्शाती है। इसके निम्नलिखित भाग होते हैं –
(i) कोशिका भित्ति (Cell Wall) जीवाणु की कोशिका भित्ति पेप्टाइडोग्लाइकेन (Peptidoglycan) अथवा म्यूरीन (Murine)
अथवा म्यूक्लोपेप्टाइड (Mucopeptide) नामक पदार्थों की बनी होती है। कोशिका भित्ति के बाहर जीवाणुओं में रक्षात्मक आवरण के रूप में स्लाइम परत (Slime layer) अथवा सम्पुट (Capsule) पाया जाता है।
(ii) जीवद्रव्य कला (Plasma Membrane) यह जीवद्रव्य को चारों ओर से पतले आवरण की तरह घेरे रहती है तथा फॉस्फोलिपिड और प्रोटीन पक्की बनी होती है। जीवद्रव्यकला कोशिकाद्रव्य की ओर अन्तर्वलित (Infolded) होकर मीसोसोम्स (Mesosomes) बनाती हैं, जिनमें जीवाणुओं को श्वसन सम्बन्धित एन्जाइम उपस्थित रहते हैं। ऐसा माना जाता है, कि यह संरचना किसी सुकेन्द्रकीय कोशिका (Eukaryotic cell) के माइटोकॉण्ड्रिया अथवा हरितलवक के समकक्ष होती है।
(iii) कोशिकाद्रव्य एवं कोशिकांग (Cytoplasm and Cell Organelles) कोशिकाद्रव्य में स्वतन्त्र या पॉलीराइबोसोम के रूप में 70S प्रकार के राइबोसोम, बैक्टीरियोक्लोरोफिल एवं बैक्टीरियोवाइरिडीन युक्त पटलिकाएँ तथा वसा, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, आदि उपस्थित होते हैं। इनमें लवक, अन्तः प्रद्रव्यी जालिका, माइटोकॉण्ड्रिया, गॉल्जीकाय, आदि विभिन्न कोशिकांगों का अभाव होता है।
(iv) केन्द्रकीय भाग (Nuclear Region) जीवाणुओं में वास्तविक केन्द्रक का अभाव होता है और सामान्य गुणसूत्र नहीं होते। वलयाकार, द्विरज्जुकी DNA होता है, परन्तु इसके साथ हिस्टोन प्रोटीन जुड़ी हुई नहीं होती, इस पूर्ण समूह को केन्द्रकाभ (Nucleoid) या जीनोफोर (Genophore) कहते हैं।
जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व
Economic Importance of Bacteria
जीवाणु मनुष्य के लिए जितने उपयोगी हैं, उतने ही हानिकारक भी हैं। जीवाणुओं के आर्थिक महत्त्व को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है।
जीवाणुओं की लाभदायक क्रियाएँ
Useful Activities of Bacteria
जीवाणुओं की लाभदायक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं
(i) कृषि में महत्त्व (Importance in Agriculture) जीवाणु मृदा की उर्वरकता को बढ़ाते हैं। ये मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा बनाए रखते हैं।
• कुछ नाइट्रोजन स्थिरीकारक सहजीवी जीवाणु; जैसे- एजोटोबैक्टर
(Azotobacter), राइजोबियम लैग्यूमिनोसेरम (Rhizobium leguminosarum) मृदा की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रेट लवणों में।
परिवर्तित कर देते हैं। कुछ नाइट्रीकारक जीवाणु; जैसे-नाइट्रोसोमोनास (Nitrosom onas), नाइट्रोबैक्टर (Nitrobacter) अमोनिया को नाइट्रोजन यौगिकों; जैसे-नाइट्राइट और नाइट्रेट में बदल देते हैं।
(ii) औद्योगिक उपयोग (Industrial Use) सिरका और पनीर उत्पादन,चाय, कॉफी, तम्बाकू, आदि के निर्माण में विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है। जूट, पटसन, रस्सियों के निर्माण में भी जीवाणु अत्यन्त उपयोगी हैं।
(iii) औषधि निर्माण में (In Medicine Formation) एण्टीबायोटिक औषधियाँ (एण्टीबायोटिक वे पदार्थ हैं, जो जीवाणुओं को मारते हैं और सूक्ष्मजीवों द्वारा स्रावित होते हैं); जैसे स्ट्रेप्टोमाइसिन, टैरामाइसिन, एरिथ्रोमाइसिन, आदि जीवाणुओं से प्राप्त होती हैं।
(iv) डेरी उद्योग में (In Dairy Industry) दूध, पनीर, मक्खन, आदि के निर्माण में जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है। लैक्टोबैसिलस लैक्टिस का उपयोग पनीर निर्माण में किया जाता है। लैक्टिक अम्ल जीवाणु का उपयोग दूध से दही के निर्माण में किया जाता है।
जीवाणुओं की हानिकारक क्रियाएँ
Harmful Activities of Bacteria
जीवाणुओं की हानिकारक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं
(i) खाद्य-पदार्थों का विनाश (Spoilage of Food Materials) कुछ जीवाणु खाद्य-पदार्थों को नष्ट कर देते हैं, जिससे खाद्य-पदार्थ खाने योग्य नहीं रह पाता।
(ii) जीवाणु जनित रोग (Bacterial Disease) मनुष्य में क्षयरोग, डिफ्थीरिया, हैजा, टायफॉइड, निमोनिया, आदि जीवाणुओं के कारण होता है। पदापों में नींबू का केन्कर रोग, आलू का रिंगस्पॉट रोग, आदि भी जीवाणुओं के कारण होते हैं।
(iii) भूमि की उर्वरता का नाश (Reduction of Soil Fertility) कुछ जीवाणु; जैसे- थायोबैसिलस डिनाइट्रीफिकेन्स (Thiobacillus denitrificans) नाइट्रोजन यौगिकों को स्वतन्त्र नाइट्रोजन और अमोनिया में बदल देते हैं, जिससे भूमि की उर्वरता नष्ट होती है।
नोट – माइकोप्लाज्मा (Mycoplasma) या PPLO (Pleuro Pneumonia Like Organism) सबसे छोटे सजीव सूक्ष्मजीव माने जाते हैं। ये मनुष्यों में फेफड़ों के क्षयरोग के जनक होते हैं।
जीवाणुजनित रोग Bacterial Diseases
जीवाणु मनुष्य के लिए जितने उपयोगी हैं, उतने ही हानिकारक भी हैं। इनसे होने वाले रोगों में निमोनिया (Pneumonia), टिटनेस (Tetanus), तपेदिक या क्षयरोग (Tuberculosis), हैजा (Cholera), आँत्रीय ज्वर (Typhoid), डिफ्थीरिया (Diphtheria), प्लेग (Plague), आदि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण रोगों का वर्णन निम्न हैं
1. मियादी बुखार या आँत्रीय ज्वर Typhoid
यह रोग मोतीझरा के नाम से भी जाना जाता है। मियादी बुखार साल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi) नामक जीवाणु के शरीर में संक्रमण के फलस्वरूप होता है। संक्रमित व्यक्ति की आँतों में ये जीवाणु वृद्धि करते हैं। यह जीवाणु मुख्यतया दूषित जल के माध्यम से पीने के पानी, आहार, दूध, आदि के द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करता है। वास्तव में रोगी द्वारा इस रोग के जीवाणु बर्तनों, आदि में पहुँच जाते हैं और ये बर्तन यदि ठीक से साफ न किए गए हों, तो यह रोग दूसरे व्यक्ति को भी हो जाता है। मक्खियाँ इस रोग को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस रोग में कुछ समय तक (लगभग दो सप्ताह) ज्वर लगातार बढ़ता है। बाद में धीरे-धीरे कम होकर उतर जाता है। इसलिए इसे मियादी बुखार भी कहते हैं। विशेषकर बच्चों को होने वाला एक रोग है, जिसकी उद्भवन अवधि 6-21 दिन तक होती है।
लक्षण Symptoms
मियादी बुखार से ग्रसित व्यक्ति को लम्बे समय तक बुखार रहता है। इसलिए रोगी काफी अधिक बेचैनी अनुभव करता है। जैसे-जैसे रोग के रोगाणु अपना प्रभाव डालते हैं, बुखार का समय बढ़ता जाता है। यह बुखार लगातार एक महीने या उससे कुछ अधिक समय तक बना रहता है। बुखार के साथ-साथ कभी-कभी सारे शरीर पर, छोटे-छोटे सफेद रंग के मोती के समान आकार वाले दाने भी निकल आते हैं। इसी कारण यह रोग मोतीझरा भी कहलाता है। इस रोग में आँतों (Intestine) में सूजन और आहारनाल सम्बन्धी अन्य विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं। इसी कारण यह रोग आँत्रीय ज्वर भी कहलाता है।
रोकथाम Prevention
इस रोग की रोकथाम के लिए खाद्य पदार्थों को हमेशा ढ़ककर रखना चाहिए, जिससे मक्खियाँ जीवाणुओं को खाने तक न ला सके। पीड़ित व्यक्ति को अलग कमरे में रहना चाहिए तथा अन्य व्यक्तियों को उसके सम्पर्क से बचना चाहिए। रोगी के मल-मूत्र, थूक, आदि को जमीन में दबा देना चाहिए। रोगी को रोशनी युक्त हवादार कमरे में रखना चाहिए। रोगी को बहुत हल्का भोजन और सुपाच्य फलों का रस ही देना चाहिए तथा उसे जल और अन्य पदार्थ भी उबालकर ही देना चाहिए। स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि रोग फैल ना सके।
उपचार Treatment
इस रोग की जाँच रुधिर परीक्षण, जिसे विडाल टेस्ट (Vidal test) कहते हैं, के द्वारा की जाती है। इस रोग में क्लोरेम्फेनिकोल (Chloramphenicol) और क्लोरोमाइसिटीन (Chloromycetin) नामक दवाइयाँ लाभदायक रहती हैं। रोगी को TAB के टीके (TAB vaccine) लगवाने चाहिए।
2. तपेदिक या क्षयरोग Tuberculosis or TB
यह रोग माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (Mycobacterium tuberculosis) नामक जीवाणु के कारण होता है। इस रोग का संक्रमण वायु द्वारा होता है। इस रोग के जीवाणु रोगी व्यक्ति के छींकने, खाँसने, थूकने, बलगम, आदि द्वारा वातावरण में आते हैं, जब कोई अन्य स्वस्थ व्यक्ति ऐसे वातावरण के सम्पर्क में आता है, तो वह भी संक्रमित हो जाता है। शारीरिक अथवा मानसिक दुर्बलता, रोगी व्यक्ति से सम्पर्क, मानसिक चिन्ता और तनाव, आवश्यकता से अधिक कार्य, छोटी आयु में विवाह, परिवार नियोजन का पूर्ण पालन नहीं करना, आदि कारक इस रोग के तेज प्रसार में मदद करते हैं।
लक्षण Symptoms
इस रोग के जीवाणु फेफड़ों (Lungs), त्वचा, आँत और अस्थियों में ग्रन्थियाँ बनाकर रहते हैं। क्षयरोग के आरम्भ में व्यक्ति अत्यधिक थकान महसूस करता है, धीरे-धीरे रोगी को भूख कम लगने लगती है। इसके अतिरिक्त बार-बार जुकाम और खाँसी का होना, बलगम अथवा कफ के साथ रुधिर आना, शरीर में रुधिर की कमी, छाती में दर्द, शरीर अत्यधिक कमजोर हो जाना, आदि इस रोग के अन्य लक्षण हैं।
रोकथाम Prevention
तपेदिक के लक्षण दिखाई देने पर एक्स-रे और थूक का निरीक्षण कराकर रोग का पता लगाया जा सकता है। इस रोग से बचने के लिए बीसीजी (BCG) का टीका लगवाना आवश्यक है। रोगी के कपड़े, थूक, बर्तन, बिस्तर, आदि को अलग रखना चाहिए। रोगी को शुद्ध जल और पौष्टिक भोजन नियमित रूप से देना चाहिए। नियमित रूप से व्यायाम, सुबह-शाम खुली हवा में टहलना, आदि क्रियाएँ फेफड़ों के लिए लाभप्रद होती हैं। इस रोग में स्वच्छता का विशेष ध्यान रहना चाहिए।
उपचार Treatment
इसके उपचार के लिए आजकल अनेक अत्यधिक उपयोगी औषधियाँ प्राप्त की जा चुकी हैं। योग्य चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए। इसका उपचार अधिक समय तक चलता है। अतः नियमित रूप से उपचार करवाना चाहिए। इस रोग की सर्वोत्तम चिकित्सा शुद्ध जल, धूप और पौष्टिक आहार प्रदान करना है। आजकल एण्टीट्यूबरक्यूलर ट्रीटमेन्ट (ATT) द्वारा क्षयरोग का उपचार पूर्णतया सफल है।
नोट – तपेदिक रोग की खोज सन् 1882 में रॉबर्ट कोच (Robert Koch) द्वारा की गई।
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