शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,शैशवावस्था में शिक्षा

आज hindiamrit का टॉपिक शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,बाल्यावस्था में शिक्षा
है।

दोस्तों बाल मनोविज्ञान में बाल विकास की अवस्थाएँ सबसे महत्वपूर्ण है।

प्रतिवर्ष uptet,ctet,stet,kvs,dssb,btc आदि सभी एग्जाम में इससे प्रश्न पूछे जाते है।

जिसके अंतर्गत हम आज शैशवावस्था की परिभाषाएं,शैशवावस्था का अर्थ,शैशवावस्था में शिक्षा किस प्रकार होनी चाहिए ,आदि सारी बातों की जानकारी देगे।

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शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,शैशवावस्था में शिक्षा

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शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। मानव एक विकासशील प्राणी के रूप में जन्म लेता है।

बालक का विकास गर्भावस्था से लेकर जीवन के अन्त तक होता है। इसके अन्तर्गत शारीरिक मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है।

शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से बाल विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित करके प्रत्येक अवस्था का अलग अलग अध्ययन करना आवश्यक समझा गया है।

मनोवैज्ञानिकों ने शैक्षिक दृष्टि से बाल विकास को निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में बाँटा है-

(1)शैशवावस्था
(2)बाल्यावस्था
(3)किशोरावस्था

शैशवावस्था का अर्थ और परिभाषा,शैशवावस्था किसे कहते हैं || meaning of infancy

बालक के जन्म लेने के उपरांत की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं।

यह अवस्था 6 वर्ष तक मानी जाती है। विकास अवस्थाओं में शैशवावस्था का अपना विशेष स्थान है। शैशवावस्था में बच्चे के भावी जीवन का निर्माण होता है।

सभी अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह अवस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है।

इस अवस्था में उनका जितना भी अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है। उतना ही अधिक उत्तम उसका विकास और जीवन होता है।

शैशवावस्था को दो भागों में बांटा गया है– जन्म से 3 वर्ष तक की अवस्था को पूर्व शैशवावस्था तथा 3 वर्ष से 6 वर्ष तक की अवस्था को उत्तर शैशवावस्था कहते हैं।

शैशवावस्था की परिभाषाएं || definition of infancy

न्यूमैन के अनुसार

“शैशवावस्था जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल है।”

वैलेंटाइन के अनुसार

“शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।”

फ्रायड के अनुसार शैशवास्था की परिभाषा

“बालक को जो कुछ बनना हैं,प्रारंभ के 4-5 वर्षों में बन जाता है।”

स्टैंग की परिभाषा

“जीवन के प्रथम वर्ष में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।यद्यपि उसमें परिवर्तन हो सकता है,पर प्रारम्भिक प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान सदैव बने रहते हैं।”

एडलर के अनुसार

“बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है।कि जीवन में उसका क्या स्थान है।”

क्रो एंड क्रो के अनुसार

“बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है।”

गुडएनफ के अनुसार

” व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है ,उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक हो जाता है।”

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शैशवावस्था की विशेषताएँ || शैशवावस्था के गुण || properties of infancy || characteristics of infancy

यह अवस्था मानव विकास की दूसरी अवस्था है। पहली अवस्था गर्भकाल है।

इसमें शरीर पूर्णतया बनता है। और शैशवावस्था में उसका विकास होता है।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है।

(1) विकास में तीव्रता

इस अवस्था में शारीरिक और मानसिक विकास में तीव्रता रहती है।

शैशवावस्था में शारीरिक विकास और मानसिक विकास दोनों ही बड़ी तेजी से होते हैं।

शारीरिक विकास के अंतर्गत शिशु का शरीर तेजी से बढ़ता है।

मानसिक विकास के अंतर्गत शिशु में ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण,आदि का विकास तेजी से होता है।

(2) सीखने में तीव्रता

इस अवस्था में बालक बहुत जल्दी चीजों को सीखता है। शैशवावस्था में बालक के अंदर सीखने में तीव्रता देखी गई है।

(3) दूसरों पर निर्भरता

इस अवस्था में बालक पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर होता है। शैशवावस्था में बालक असहाय की स्थिति में रहता है।

उसे भोजन एवं अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा स्नेह और सहानुभूति प्राप्त करने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।

(4) कल्पना की सजीवता

इस अवस्था में बालक के अंदर कल्पना की अधिक सजीवता पाई जाती है।

शैशवावस्था में बालक तरह-तरह की कल्पना करने लगता है। और वह कल्पना जगत में विचरण करने लगता है।

(5) आत्मप्रेम की भावना

शैशवावस्था में शिशु के अंदर आत्मप्रेम की भावना बहुत ही प्रबल होती है।

शिशु स्वयं से और अपने खिलौनों या अपनी प्रिय वस्तुओं से बहुत अधिक प्रेम करने लगता है। उनसे दूरी होने पर वह रोने लगता है। तथा पुनः प्राप्त करने की जिद करने लगता है।

(6) नैतिकता का अभाव

इस अवस्था में बालक के अंदर नैतिकता का गुण नहीं होता है।

उसमें पूरी तरह से नैतिकता का अभाव रहता है। शिशु को अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित, सही-गलत का ज्ञान नहीं होता है।

शैशवावस्था के अंतिम दिनों में नैतिक विकास प्रारंभ हो जाता है।

(7) मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार

किस अवस्था में शिशु का व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है।

शिशु भूख लगने पर रोता है।

वस्तु न मिलने पर वह क्रोधित होता है।

और जो वस्तु उसके पास होती है उसे मुंह में डाल लेता है।

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(8) संवेग का प्रदर्शन

इस अवस्था में शिशु अपने मूल संवेगों का प्रदर्शन भी करता है।

शिशु क्रोध करता है। प्रेम करता है। शिशु भय का प्रदर्शन भी करता है।

शिशु अपनी पीड़ा भी दर्शाने की कोशिश करता है।

(9) अनुकरण द्वारा सीखना

इस अवस्था में शिशु जो कुछ भी सीखता है वह अनुकरण विधि के द्वारा सीखता है।

वह बड़े लोगों को जिन क्रियाओं को करते देखता है शिशु भी उन क्रियाओं करता है।

दूसरी ओर बड़े बुजुर्गों द्वारा जो कुछ भी शिशु को सिखाया जाता है। उसका अनुकरण करके सीख जाता है।

अर्थात इस अवस्था में शिशु अनुकरण विधि के द्वारा सीखता है।

(10) अन्य विशेषतायें

(i) शिशु में किसी क्रिया या शब्दों को दोहराने की विशेष प्रवृत्ति होती है।

(ii) शिशु में पहले एकांत में खेलने और फिर बाद में दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है।

(iii) शिशु प्रत्यक्ष और स्थूल वस्तुओं के सहारे सीखता है।

(iv) इस अवस्था में शिशु में सामाजिक भावना का विकास होने लगता है।

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शैशवावस्था में बालक की शिक्षा हेतु ध्यान देने योग्य बिंदु || शैशवावस्था में शिक्षा || शैशवावस्था में शिक्षा का आयोजन या स्वरूप

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(1) उचित व्यवहार

इस अवस्था में शिशु के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। शिशु को छोटी-छोटी बातों में भय एवं दण्ड से दूर रखना चाहिये।

भय एवं दण्ड का बच्चों के शारीरिक,
मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।

(2) उचित वातावरण

इस अवस्था में शिशु को शिक्षा देने के साथ उचित वातावरण भी प्रदान करना चाहिए।

शिशु के साथ बड़े प्रेम और स्नेह के साथ पढ़ाना चाहिए। किसी बात पर उसे डराना नहीं चाहिए।

(3) जिज्ञासा की संतुष्टि

शैशवावस्था में शिशु अधिक जिज्ञासु होता है। और प्रत्येक वस्तु को देखकर तरह तरह के प्रश्न पूछता है। एवं उनके बारे में जानने की कोशिश करता है।

इसलिए शैशवावस्था में शिशु के शिक्षण में यह आवश्यक है कि उसकी जिज्ञासा की संतुष्टि की जाए।

वह जो कुछ भी पूछो उसे बड़े प्यार के साथ उसे उसके प्रश्न का उत्तर बताना चाहिए।

(4) खेल,क्रिया,चित्रों कहानी के द्वारा शिक्षा

शैशवावस्था में बालक को तरह तरह खेल एवं क्रियाओं के द्वारा पढ़ाना चाहिए।

जैसे कि शिशु को पहाड़ा याद कराना है तो पहाड़े का खेल खिला कर उन्हें सिखाया जाए।

शिशु को आवश्यक है कि उन्हें चित्रों कहानियों के द्वारा भी अधिगम कराया जाए। क्योंकि चित्र और कहानी शिशु में रुचि उत्पन्न करते हैं। और शिशु जल्दी सीख जाता है।

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(5) अभिव्यक्ति का विकास

शैशवावस्था में अभिभावक या शिक्षकों को चाहिए कि वह शिशु में अभिव्यक्ति का विकास करें। अभिव्यक्ति का सबसे उत्तम साधन मातृभाषा है।

अतः अभिभावकों शिक्षकों द्वारा शिशुओं को छोटी-छोटी कहानियां, कविताएं सुनानी तथा याद करवानी चाहिए। और उनसे सरल भाषा में वार्तालाप करना चाहिए।

(6) विभिन्न अंगों की शिक्षा

शैशवावस्था में शिक्षक को विभिन्न अंगों की शिक्षा भी देनी चाहिए।

इससे तात्पर्य है कि शिशु को पुस्तक पकड़ने का ज्ञान, कलम पकड़ने का ज्ञान, खेल का ज्ञान तथा अन्य अंग की भी शिक्षा देनी चाहिए।

(7) आत्म प्रदर्शन का अवसर

इस अवस्था में शिशु को आत्म प्रदर्शन का अवसर प्रदान करना चाहिए।

कक्षा में खेल संगीत नाटक या किसी भाषण के माध्यम से शिशु को आत्म प्रदर्शन का मौका प्रदान करना चाहिए।

(8) पाठ्यक्रम का निर्धारण

शैशवावस्था में शिशु की शिक्षा में सबसे आवश्यक है -पाठ्यक्रम का निर्धारण।

इस अवस्था में पाठ्यक्रम क्रिया, खेल, चित्र ,कहानी तथा अन्य वस्तुओं के माध्यम से शिक्षा, पर आधारित होना चाहिए। शिशु को पाठ्यक्रम रुचिकर,सरल लगना चाहिए।

(9) अन्य तथ्य

(i) शिशु आरम्भ से ही संगीत प्रिय होता है। इसलिये शिक्षण कार्य के लिये गीतों का प्रयोग करना चाहिये।

(ii) शिशु को सोचने-विचारने के लिये अधिक अवसर देना चाहिये।

(iii) शिशु के सामाजिक विकास के लिये शिक्षा देते समय व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान देना चाहिये।

(iv) शिशु में अच्छी आदतों के विकास के लिये स्वयं को उसके समक्ष अच्छे रूप में प्रस्तुत होना चाहिये।

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2 thoughts on “शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,शैशवावस्था में शिक्षा”

    • जी नही ये बाल मनोविज्ञान का चैप्टर है जो deled फर्स्ट सेमेस्टर में शामिल है। लेकिन आपके लिए यह uptet ,supertet में काम आएगा ।

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