बालक का सामाजिक विकास social development in child

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बालक का सामाजिक विकास social development in child

सामाजिक विकास, social development,विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास दोस्तों आइये जानते है बालक में मुख्य रूप से कितने विकास होते हैं।

बालक में कुल 6 प्रकार के विकास होते हैं।

हम शिक्षा मनोविज्ञान में शारीरिक विकास,मानसिक विकास,सामाजिक विकास,भाषा विकास,नैतिक विकास,संवेगात्मक विकास आदि को मुख्य रूप से पढ़ते है।

तो आइये आज जानते है की सामाजिक विकास क्या है,शैशवावस्था में सामाजिक विकास,बाल्यावस्था में सामाजिक विकास,किशोरावस्था में सामाजिक विकास कैसे होता है।

सामाजिक विकास का अर्थ || meaning of Social Development

सामाजिक विकास की अवधारणा एक प्राचीन धारणा है ।

समाज में होने वाले अनेक प्रकार के परिवर्तन सामाजिक विकास की श्रेणी के अंतर्गत आते हैं ।

समाज में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक विकास की संज्ञा तब प्रदान को जाती है जब उसके सार्थक एवं सकारात्मक परिणाम निकलते हैं ।

सामाजिक विकास की प्रक्रिया में समाज के सदस्यों को अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करने का प्रयास किया जाता है।

दूसरे शब्दों में,

सामाजिक विकास के अन्तर्गत समाज के नियम एवं सिद्धान्तों में मानव कल्याण एवं सामाजिक कल्याण की भावना छिपी होती है।

सामाजिक विकास की परिभाषा || definition of social development

पैनसन के अनुसार

“सामाजिक विकास का अभिग्राय उन सम्बन्धों एवं व्यवस्थाओं से है जो किसी समाज को इस योग्य बनाती हैं कि वह समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ।”

सोरेन्सन के अनुसार

“सामाजिक वृद्धि एवं विकास से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भाली- भौति चलने की बढ़ती हुई योग्यता है।”

फ्रीमेन तथा शावल के अनुसार

“सामाजिक विकास सीखने की वह प्रक्रिया है, जो समूह के स्तर, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों के अनुकूल अपने आप को आने तथा एकता, मेलजोल और पारस्परिक सहयोग की भावना के विकास में सहायक होती है।”

विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास || social development in different stages

अलग अलग अवस्थाओं में सामाजिक विकास किस प्रकार होता है,हम निम्न प्रकार से समझ सकते है।

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शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy)

जन्म के समय शिशु बड़ा ही आत्मकेन्द्रित होता है। जैसे-जैसे वह सामाजिक परिवेश में सम्पर्क में आता है। उसका आत्म-केन्द्रित व्यवहार समाप्त होता जाता है।

क्रो एवं क्रो के अनुसार

“जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, पर वह इस स्थिति में अधिक समय तक नहीं रहता।”

हरलॉक के आधार पर शिशु के सामाजिक विकास

(1) पहला माह – ध्वनियों में अंतर समझना।

(2) दूसरा माह – मानव ध्वनि पहचानना,मुस्कुराकर स्वागत करना।

(3) तीसरा माह – माता के लिए प्रसन्नता और अभाव में दुःख।

(4) चौथा माह – परिवार के सदस्यों को पहचानना।

(5) पाँचवा माह – खुश और गुस्से में प्रतिक्रिया व्यक्त करना

(6) छठवा माह – परिचितों से प्यार एवं अनजान लोगों से भयभीत।

(7) सातवां माह – अनुकरण के द्वारा हाव भाव को सीखना।

(8) 8 और 9 माह –हावभाव से खुशी,क्रोध,भय प्रकट करना

(9) 10 और 11 माह– प्रतिछाया के साथ खेलना,नकारात्मक विकास

(10) दूसरे वर्ष की अवधि में – बड़ो के कार्यो में मदद करना।

तृतीय वर्ष तक बालक आत्म-केंद्रित रहता है। वह अपने लिये ही कार्य करता है, किसी के लिये नहीं।

जब वह विद्यालय में दो या अधिक बालकों के साथ होता है तो उसमें सामाजिकता के भाव का विकास होता है।

इस प्रकार से वह चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक वहिर्मुखी व्यक्तित्व को धारण करना प्रारम्भ कर देता है।

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शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु का व्यवहार परिवार से बाह्य परिवेश की ओर प्रस्तुत होता है।

हरलाक के अनुसार

“शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन से समायोजन स्थापित करना उनके विनिमय करना और खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। जिस समूह का सदस्य होता है, उसके द्वारा स्वीकृत या प्रचलित प्रतिमान के अनुसार स्वयं बनाने की चेष्टा करता है।”

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood)

शिशु का संसार उसका परिवार होता है, जबकि बालक का संसार परिवार के बाहर बालकों का झुंड और विद्यालय आदि। बालक विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जन द्वारा सामाजिकता का विकास करता है।

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास को निम्नलिखित समझ सकते हैं।

सामाजिक भावना (Social feeling)

इस अवस्था के बालक एवं बालिकाओं में सामाजिक जागरूकता, चेतना एवं समाज के प्रति रुझान विशेष मात्रा में पाया जाता है।

उनका सामाजिक क्षेत्र व्यापक एवं विकसित होने लगता है। वह विद्यालय के पर्यावरण से अनुकूलन करना, नये मित्र बनाना और सामाजिक कार्यों में भाग लेना आदि सीखते हैं।

आत्म-निर्भरता (Self dependency)

बाल्यावरथा में बच्चे स्वयं को स्वतन्त्र परिवार को छेड़कर बच्चों के साथ समय बिताते हैं, क्रियाएँ करते हैं और निर्णय भी लेते हैं।

वास्तविकता तो यह है कि वे अपनी आयु लर्ग के साथ प्रसन्न रहते हैं, न छोटों के साथ खेलते हैं। और न बड़ों के क्रियाकलाओं में रुचि रखते हैं।

समूह प्रवृत्ति (Group tendency)

इस अवस्था के बालक इतने क्रियाशील एव सक्रिय होते हैं कि वे अपनी अवस्था के बालकों का समूह बना लेते हैं। आज खेल समूह, सेवा समूह एवं सांस्कृतिक समूह आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

बालक अपने समूह के नियमों, मान्यताओं आदि को पसन्द करते हैं और अन्य समूह के समक्ष अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करते हैं।
वे ऐसे कार्य करते हैं, जिनसे उनका समूह उन्हें विशिष्ट सदस्य का महत्व दे।

नागरिक गुणों का विकास (Developnent of civilisaion features)

बाल्यावस्था में बालकों में आदतों, चारित्रिक गुयों एवं नागरिक गुणों आदि का विकास होता है।

वे अपने माता-पिता, अध्यापक या विशिष्ट प्रभाव के व्यक्तित्वों के प्रति आकर्षित होते हैं । और उनकी विशेषताओं को सीखते हैं ।

वे स्वयं को सुखी, धनवान, विद्वान्, नेता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि के रूप में देखना चाहते हैं।

अत: बाल्यावस्था ही नागरिक गुणों के विकास एवं स्थायित्व की सही अवस्था है।

वैयक्तिकता का विकास (Development of individuality)

बाल्यावस्था में पुरुषत्व एवं स्त्रात्व स्वभावों का अलग-अलग विकास होना प्रारम्भ हो जाता है।

बालक अधिकांश समय बालकों के साथ व्यतीत करते हैं। बालिकाएँ बालिका समूह के साथ वक्त व्यतीत करती है ।

इस अवस्था में दोनों में यौन भिन्नता के साथ वैयक्तिक अन्तर स्थापित होने लगता है।

उनकी आदते, रुचियों, मनोवृति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट होने लगती है।

भावना ग्रन्धि का विकास (Development of fecling complex)

इस अवस्था में लड़कों में आडिपस और लड़कियों में एलकट्रा भावना ग्रन्थि का विकास होने लगता है।

आडिपस ग्रन्थि के कारण पुत्र अपनी माता को अधिक प्यार करने लगता है।

एलकट्रा ग्रन्थि’के कारण लड़की अपने पिता को अधिक चाहने लगती है।

यह प्रकृति का नियम है कि विषमलिंगी प्यार बाल्यावस्था से प्रारम्भ होकर युवावस्था में (शादी होने पर) समाप्त हो जाता है।

यही कारण है कि लड़के एवं लड़कियाँ अपनी रुचियों एवं कार्यों में अपनी-अपनी भावना ग्रंथियों का प्रदर्शन करते हैं।

इस प्रकार से उनको आत्मिक सुख एवं सन्तोष मिलता है। इसी आधार पर वे अपने भविष्य को निश्चित करते हैं।

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किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Adolescence)

यह मानवीय जीवन की जटिल अवस्था होती है। अतः सामाजिक विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।

किशोरावस्था में सामाजिक विकास को निम्नलिखित
प्रकार से समझ सकते हैं।

आत्म-प्रेम (Auto eroticsm)

इस अवस्था में लड़के एवं लड़कियाँ स्वयं से अधिक प्रेम स्थापित करने लगते हैं। वे स्वयं को आकर्षक बनाने, सजाने, सैँवारने में अधिक समय व्यतीत करते हैं।

इसका मुख्य कारण विषम लिंगीय आकर्षण होता है। विद्यालय स्तर पर किये गये अध्ययनों से प्रकट होता है कि किशोरियाँ इस बात में रुचि रखती हैं कि कौन-सा
किशोर उसको देखकर क्या सोचता है? और किशोर तो किशोरियों के बारे में बातचीत करते ही रहते हैं।

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अत: आत्म-प्रेम का भाव अचेतन अवस्था की लिंगीय चेतनता ही है।

समलिंगीय समूह (Homo-sexual group)

इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों को अपनी लिंगीय बनावट का पूर्ण अनुभन होने लगता है। वे समान लिंग के प्रति रुचि जाग्रत करने लगते हैं। वे अपने आयु समूह के सक्रिय एवं प्रतिष्ठित सदस्य बन जाते हैं।

वे अपने अन्दर अवस्था एवं त्याग को आवश्यक गुण के रूप में स्थापित करते हैं।

जब कभी उनकी अवस्था एवं त्याग को ठेस लगती है तो वे समाज के साथ असामान्य व्यवहार प्रकट करने लगते हैं और उनमें आन्तरिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।

सामाजिक भावना का उदय (Developmentof social feeling)

इस अवस्था में समूह भावना, आस्था और त्याग का व्यापक रूप सामाजिक चेतना के रूप में देखने को मिलता है।

किशोर एवं किशोरी के क्रिया-कलाप विद्यालय, समुदाय, अन्तराष्ट्रीय स्तर तक विकसित होने लगते हैं । वे स्वरयं की सीमाओं से निकलकर मानवीय दायरे में प्रवेश करते हैं।ताकि समाज का अधिक से अधिक भला कर सकें।

इसीलिये इतिहास के अनुसार, देश पर प्राण न्यौछावर करने वाले वीर किशोर एवं किशोरी ही अधिक थे।

भिन्नता में स्थायित्व (Stability indifferenciation)

इस अवस्था में मानवीय सम्बन्ध स्थिरता की और प्रस्थान करते हैं। अस्थिरता एवं शारीरिक आवेग एवं तनाव की स्थिति से किशोर एवं किशोरी निकल कर मित्रता को स्थायी बनाते हैं।

आगे चलकर यही मित्रता आत्मीय सम्बन्धं में बदल जाती है। इस प्रकार से किशोर एवं किशोरी अपने चारों तरफ एक आत्मीय एवं सहयोगी परिवेश का निर्माण करते हैं, जो उनके भविष्य निर्माण में सहायक होता है।

समायोजन में अस्थिरता (Unstability in adjustment)

किशोरावस्था में संवेगों की तीत्र अभिव्यक्ति होती है। किशोर अपनी इच्छओं एवं आकांक्षाओं को निश्चित मापदण्डों के बिना पूर्ण करना चाहते हैं, जो समाज को अमान्य होता है।

अत: ये अपना समायोजन सही रूप से नहीं कर पाते। वे अपने दमन के प्रति और स्वतन्त्रता हनन के प्रति विद्रोह करने लगते हैं। यही भावना कुछ हृद तक किशोरियों में भी पायी जाती है।

सामाजिक पहचान (Social recognition)

किशोरावस्था का मुख्य आकर्षण ‘सामाजिक पहचान ‘ को स्थापित करने के लिये किशोर एवं किशोरियों का क्रियाशील रहना है।

इसके लिये वे अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिये तत्पर रहते हैं।

वे परिश्रम, लगन, परोपकारिता, स्वतन्त्रता एवं सामाजिक कार्यों में सहभागिता आदि कार्यों में प्रमुख भूमिका निर्वाह करते हैं।

इस प्रकार से वे स्वयं की समाज में पहचान स्थापित करने में तत्परता दिखलाते हैं।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
Fractors Effecting to the Social Development

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सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं।
(1) वंशानुक्रम
(2) शारीरिक विकास
(3) संवेगात्मक विकास
(4)परिवार
(5)माता पिता का दृष्टिकोण
(6) माता पिता की आर्थिक स्थिति
(7)विद्यालय का वतावरण
(8)समूह
(9) परिवार के रीति-रिवाज
(10) धार्मिक संस्थाएँ
(11) भाषा
(12) सिनेमा,नाटक, रेडियो
(13) समाचार-पत्र
(14) राष्ट्रीय पर्व
(15) शिक्षा के अनौपचारिक साधन
(16) सामाजिक प्रतियोगिताएँ।

वंशानुक्रम (Heredity )

वंशानुक्रम बालक की अनेक योग्यताएं निर्धारित करता
है। सामाजिक विकास को वंशानुक्रम प्रभावित करता है, परन्तु कुछ मनोवैज्ञानिक सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का प्रभाव कुछ सीमा तक ही मानते हैं।

शारीरिकविकास (Physicaldevelopment)

जिस बालक का शारीरिक विकास जनक होता है, उसका सामाजिक विकास भी सन्तोषजनक होता है।

सोरेन्सन के अनुसार,

“जिस प्रकार अच्छा शारीरिक और मानसिक विकास साधारणतः सामाजिक रूप से परिपव्व होने में सहायता करता है, उसी प्रकार कम शारीरिक और मानसिक विकास बालक सामाजिक विकास की गति को धीमी कर देता है।”

संवेगात्मक विकास (Emotional development)

संवेगात्मक विकास भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। क्रोधी व्यक्ति से सभी घृणा करते हैं। चिड़चिड़े
स्वभाव के व्यक्ति को कोई पसन्द नहीं करता, परन्तु मधुर स्वभाव वाला व्यक्ति सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

परिवार (Family)

बालक का समाजीकरण परिवार में ही आरम्भ होता है। परिवार
के सदस्य जैसा व्यवहार करते हैं, बालक भी वेसे ही व्यवहार का अनुकरण करता है।

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माता-पिता का दृष्टिकोण (Views of parents)

बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण भी उसके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। जिस बालक को बहुत अधिक लाड़-प्यार मिलता है, उसका सामाजिक विकास अन्य बालकों की अपेक्षा कम होता है।

माता-पिता की आर्थिक स्थिति (Economic status of parents)

जो बालक धनी परिवार से सम्बन्ध रखते हैं, उनका सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होता है।
इसका कारण यह है कि उसका सम्पर्क अनेक व्यक्तियों से होता है, जो उसके सामाजिक विकास में सहायता करते हैं। निर्धन परिवार के बालकों का सामाजिक विकास मन्द गति से होता है।

विद्यालय का वातावरण (Environment of school )

विद्यालय का वातावरण भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है, यदि विद्यालय का बातावरण मधुर है तो बालक का सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होगा। जनतन्त्रीय सिद्धान्तों पर चलने वाले विद्यालयों में बालकों का सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होता है।

समूह (Group)

हरलॉक का कथन है, “समूह के प्रभाव के कारण बालक
सामाजिक व्यवहार का ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त करता है, जो समाज द्वारा निश्चित की गयी दशाओं में उतनी कुशलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता।”

परिवार के रीति-रिवाज

सामाजिक विकास को परिवार के रीति रिवाज़ भी प्रभावित करते है।क्योंकि बालक इन सबसे भी सीखता है ,सोचता है।

सिनेमा, नाटक, रेडियो

आजकल बालक सिनेमा ,नाटक,रेडियो,टेलीविजन में बहुत रुचि लेते है। वह उससे ही सीखते है। अतः हमे बच्चों को दूर रखना चाहिए तथा उन्हें केवल अच्छी जानकारी वाले कार्यक्रम ही दिखाने चाहिए।

समाचार-पत्र

बालक समाचार को देखता पढ़ता है। वह उससे सारी जानकरी जानकरी एकत्र करके सोचता है। इस प्रकार समाचार भी प्रभावित करते है।

सामाजिक विकास में विद्यालय का योगदान
Contribution of School Towards Social Development

वालकों के सामाजिक विकास में विद्यालय का विशेष योगदान रहता है।

बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के पश्चात् विद्यालय का ही स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण होता है।

विद्यालय का अनुशासन दण्ड और दमन पर आधारित है।तो बालक का सामाजिक विकास उचित प्रकार से नहीं हो पाता। बालक के सामाजिक विकास पर शिक्षक का भी विशेष प्रभाव पड़ता है।

यदि शिक्षक शान्त स्वभाव का तथा सहानुभूति रखने वाला है तो छात्र उसके अनुरूप ही व्यवहार करते हैं, परन्तु इसके विपरीत, यदि शिक्षक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो छात्र भी अपना मानसिक सन्तुलन नहीं रख पाते।

सफल और योग्य शिक्षकों के सम्पर्क से बालकों के सामाजिक विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। विद्यालय के खेलकूद बालक के सामाजिक विकास में विशेष स्थान रखते हैं।

बालक खेल द्वारा अपने सामाजिक व्यवहार का प्रदर्शन करता है। सामूहिक खेलों के द्वारा बालक मैं सामाजिक गुणों का विकास होता है। खेल के अभाव में बालक का सामाजिक विकास नहीं हो पाता।

स्किनर के अनुसार
“खेल का मैदान बालक का निर्माण स्थल है। वहाँ उसे मिलने वाले सामाजिक और यान्त्रिक
उपकरण उसके सामाजिक विकास को निर्धारित करने में सहायता करते हैं।”

सामाजिक विकास के घटक

(1) परिवार
(2) विद्यालय
(3) पास-पड़ोस
(4) संस्कृति एवं सभ्यता
(5) शिक्षा

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