वित्तीय प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय में वित्तीय प्रबंधन के माध्यम

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वित्तीय प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय में वित्तीय प्रबंधन के माध्यम

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वित्तीय प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय में वित्तीय प्रबंधन के माध्यम


विद्यालय में वित्तीय प्रबंधन के माध्यम / वित्तीय प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषाएं

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वित्तीय प्रबन्धन की अवधारणा
Finance Management

वित्तीय प्रबन्धन हमारी प्राचीन राजतन्त्र या शासन व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग था। सेना के प्रबन्धन के साथ-साथ वित्तीय प्रबन्धन को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। राजा के वित्तीय सलाहकार एवं राजकोष के अधिकारी समय-समय पर राजा को आर्थिक पक्ष में सलाह दिया करते थे। उस राजा को श्रेष्ठ समझा जाता था जिसके राज्य में धन का समान वितरण होता था। लोक कल्याण के लिये राजा धन का उपयोग प्रजा के हित में करता था। अत: वित्तीय प्रबन्धन का उत्कृष्ट स्वरूप प्राचीन शासन में विद्यमान था।

वर्तमान समय में वित्तीय प्रबन्धन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हो गया है। वित्तीय प्रबन्धन का क्षेत्र व्यवसाय तक सीमित न होकर अब भारतीय शिक्षालयों तक पहुंच गया है। जिस विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं प्रबन्ध समति में वित्तीय प्रबन्धन की योग्यता होती है उस विद्यालय की छवि श्रेष्ठ होगी तथा शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में वह विद्यालय छात्रों को उपयुक्त वातावरण प्रदान करेगा। अत: आज सभी विद्यालयों में कुशल वित्तीय प्रबन्धन की आवश्यकता अनुभव की जाती है।

वित्तीय प्रबन्धन का अर्थ एवं परिभाषाएँ / Meaning and Definitions of Finance Management

वित्तीय प्रबन्धन का सम्बन्ध उन आर्थिक क्रियाओं से होता है जो वित्तीय कार्यों के नियोजन, संगठन एवं क्रियान्वयन के लिये सम्पन्न की जाती हैं। वित्तीय प्रबन्धन में वित्त की उपलब्धता एवं उसके सर्वोत्तम प्रयोग पर विचार किया जाता है। वित्तीय प्रबन्धन के द्वारा ही विद्यालयों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है तथा विद्यालयों की छवि को भी वित्तीय प्रबन्धन द्वारा श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वित्तीय प्रबन्धन, वित्त सम्बन्धी नियोजन,संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण की क्रियाओं को अपने आप में निहित किये हुए होता है। वित्तीय प्रबन्धन को विद्वानों द्वारा निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है-

(1) वेस्टन एवं बाइम के शब्दों में, “वित्तीय प्रबन्धन आर्थिक निर्णय लेने की वह प्रक्रिया है जो व्यक्तिगत उद्देश्यों और उपक्रम के लक्ष्यों में समन्वय स्थापित करती है।”

(2) हावर्ड तथा उपटन के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्धन, नियोजन तथा नियन्त्रण कार्य को वित्तीय कार्यों पर लागू करना है।”

(3) फिलियापाटोज के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्धन का सम्बन्ध उन सभी प्रबन्धकीय निर्णयों से होता है जिनके परिणामस्वरूप उपक्रम की दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कोषों की प्राप्ति होती है। इन निर्णयों का विश्लेषण कोषों की प्राप्ति, भुगतान एवं प्रबन्धकीय उद्देश्यों पर पड़ने वाले प्रभाव पर निर्भर करता है।”

(4) व्हिलर के शब्दों में, “वित्तीय प्रबन्धन का आशय उस क्रिया से होता है जो उपक्रम के उद्देश्यों एवं वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूँजी कोषों के संग्रहण एवं उनके प्रशासन से सम्बन्ध रखती है।”

(5) इजरा सोलोमन के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्धन का तात्पर्य एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक स्रोत अर्थात् पूँजी कोष के कुशलतम उपयोग से होता है।”

(6) अन्य शब्दों में, “वित्तीय प्रबन्धन आर्थिक क्रियाओं के प्रबन्ध की वह उच्चतम तकनीकी है जिसके द्वारा वित्तीय स्रोतों का सर्वोत्तम उपयोग किया जाता है।”

(7) जोसेफ एफ. ब्रोडले के शब्दों में, “वित्तीय प्रबन्धन व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है जिसका सम्बन्ध पूँजी के विवेकपूर्ण उपयोग एवं वित्तीय स्रोतों के सतर्कतापूर्ण चयन से है जिससे व्यवसाय को इसके उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में निर्देशित किया जा सके।”

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वित्तीय प्रबन्धन व्यावसायिक उपक्रमों के चहुँमुखी विकास के लिये प्रस्तुत विधिक योजना है। इस योजना का सम्बन्ध वित्तीय नियन्त्रण,वित्तीय नियोजन एवं कोष के सर्वोत्तम एवं लाभप्रद उपयोग से है।

वित्तीय प्रबन्धन के माध्यम

विद्यालय के वित्तीय प्रबन्धन के माध्यम निम्नलिखित हैं-
(1) विद्यालय अनुदान।
(2) शिक्षण अधिगम सामग्री हेतु अनुदान।
(3) समुदाय से प्राप्त धन।
(4) विद्यालय की भू-सम्पत्ति से प्राप्त धन।
(5) ग्राम पंचायत निधि तथा जन प्रतिनिधियों से प्राप्त अनुदान।

1. विद्यालय अनुदान-विद्यालय के वित्तीय प्रबन्धन हेतु राज्य सरकार से अनुदान विद्यालयों को प्राप्त होता है। यह अनुदान जिला विद्यालय निरीक्षक या बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा विद्यालयों को प्रदान किया जाता है। इसी अनुदान से विद्यालय के क्रियाकलाप एवं गतिविधियाँ सम्पन्न होती हैं। अब शिक्षकों का भुगतान भी बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा किया जाता है।

2. शिक्षण अधिगम सामग्री हेतु अनुदान (टी.एल.एम. ग्राण्ट)-शिक्षण अधिगम सामग्री (टी.एल.एम.) हेतु अनुदान भी राज्य सरकार द्वारा दिया जाता है जिसके आधार पर शिक्षण अधिगम सामग्री खरीदी जाती है।

3. विद्यालय को समुदाय से प्राप्त धन्-विद्यालय को समुदाय के सदस्यों जैसे धनी, उद्योगपति, प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं समाजसेवी संस्थाओं द्वारा विद्यालय की गतिविधियों हेतु धन प्रदान किया जाता है। यह धन भी विद्यालय की वित्तीय व्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक होता है। समुदाय के सदस्य विद्यालय में कक्षा-कक्ष निर्माण अथवा शिक्षण अधिगम सामग्री उपलब्ध कराने में सहायता करते हैं।

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4. विद्यालय की सम्पत्ति से अर्जित धन-अधिकांश विद्यालयों में आवश्यकता से अधिक भू-सम्पत्ति होती है जिसे किराये पर दे दिया जाता है अथवा विद्यालय के अतिरिक्त स्थान या मैदान को किसी समारोह या विवाह के लिये देने पर अतिरिक्त आय प्राप्त होती है जो विद्यालय की वित्तीय व्यवस्था को सूदड़ करने में सहायता देती है।

5. ग्राम पंचायत निधि/जन प्रतिनिधियों से प्राप्त अनुदान-ग्राम पंचायत निधि/जन प्रतिनिधियों द्वारा विद्यालयों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। ग्राम पंचायतों द्वारा अपने कोष से विद्यालयों को वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी जाती है। इसी प्रकार जन प्रतिनिधि, विधायक (एम.एल.ए.) तथा सांसद (एम.पी.) भी अपने क्षेत्र के विद्यालयों को अनुदान या वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।

विद्यालय के सन्दर्भ में वित्तीय प्रबन्धन के उद्देश्य

विद्यालय व्यवस्था में वित्तीय प्रबन्धन की आवश्यकता होती है जिसके माध्यम से विद्यालय की छवि एवं व्यवस्था में सुधार होता है। विद्यालयी वित्तीय प्रबन्धन के उद्देश्य विद्यालय व्यवस्था से सम्बन्धित होते हैं। विद्यालय में होने वाले वित्तीय प्रबन्धन को अनलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) वित्तीय प्रबन्धन द्वारा विद्यालय की छवि सुधारने के लिये विद्यालय प्रमुख द्वारा प्रयत्न करना इसका प्रमुख उद्देश्य है क्योंकि व्यवस्था को श्रेष्ठ रूप प्रदान करना वित्तीय प्रबन्धन का अनिवार्य तत्त्व है। (2) इसमें विद्यालय के उपलब्ध संसाधनों के मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है जिससे समस्त साधनों का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके। (3) वित्तीय प्रबनधन का उद्देश्य विद्यालय के प्राप्त अनुदान का उचित एवं श्रेष्ठ विधि से उपयोग करना है जिससे कि वित्तीय योजना के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। (4) वित्तीय प्रबन्धन द्वारा विद्यालय के लिये वित्तीय स्रोतों की खोज की जाती है जिससे कि विद्यालय की वित्त सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सके।

(5) वित्तीय प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य विद्यालय में उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का मितव्ययतापूर्वक, विद्यालय तथा लोक कल्याण के निहितार्थ सन्तुलित तथा सभी क्षेत्रों में उपयोग करना है जिससे कि कम लागत में अधिक प्रतिफल प्राप्त किया जा सके। (6) वित्तीय प्रबन्धन द्वारा विद्यालय से समाज को जो आकांक्षाएँ होती हैं उन्हें पूर्ण करने में सहायता मिलती है अर्थात् विद्यालयी वित्तीय प्रबन्धन द्वारा सामाजिक लाभ को अधिकतम किया जा सकता है। वित्तीय प्रबन्धन के द्वारा विद्यालय व्यवस्था को श्रेष्ठ रूप प्रदान करने पर छात्रों का सर्वांगीण विकास सम्भव होता है। अत: विद्यालयी वित्तीय प्रबन्धन का उद्देश्य छात्रों का सर्वांगीण विकास करना है।

(8) वित्तीय प्रबन्धन के माध्यम से विद्यालय को समुदाय से प्राप्त धन के सम्बन्ध में विचार किया जाता है अर्थात् समुदाय से अधिकतम धन प्राप्त करके उसका कुशलतम प्रयोग किया जाय, यह वित्तीय प्रबन्धन की उचित अवधारणा है। (9) वित्तीय प्रबन्धन के माध्यम से शिक्षण अधिगम सामग्री के लिये अनुदान निर्धारित करने तथा उसके प्रयोग में सहायता प्राप्त होती है। (10) वित्तीय प्रबन्धन के माध्यम से ही विद्यालय की सम्पत्ति की व्यवस्था की जाती है तथा उससे अर्जित धनराशि का सदुपयोग किया जाता है।

वित्त प्रबन्धन की आवश्यकता
Need of Finance Management

एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र के लिये जनता का शिक्षित होना अति आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये भारत सरकार भी सदैव से ही प्रयत्नशील है परन्तु इस दिशा में वांछित सफलता प्राप्त नहीं हो पा रही है। इसका प्रमुख कारण आर्थिक रूप से सार्वजनिक वित्त का अभाव है। शिक्षा की समुचित व्यवस्था के लिये शैक्षिक वित्त व्यवस्था का नियोजन करना अति आवश्यक है। शैक्षिक वित्त व्यवस्था पर प्रकाश डालने से पहले निम्नलिखित प्रश्न विचारणीय हैं-

(1) किसी विद्यालय में शिक्षा के सभी स्तरों पर कुल कितनी वित्तीय व्यवस्था की आवश्यकता होगी? (2) विद्यालय के पास तत्कालीन समय में शिक्षा के लिये कितना वित्त कोष सुरक्षित है? (3) शिक्षा के विस्तार के लिये कितना धन व्यय किया जाये? (4) आय के प्रमुख साधन कौन-कौन से हैं? (5) प्रति छात्र औसत वार्षिक व्यय कितना है?

विद्यालय में वित्त के स्त्रोत
Sources of Finance in school

प्रदेश में शैक्षिक वित्त के स्रोत या साधन निम्नलिखित हैं-(1) सरकारी निधियाँ, (2) स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ, (3) छात्र शुल्क तथा (4) दान ।

1. सरकारी निधियाँ-उत्तर प्रदेश आर्थिक रूप से कमजोर राज्य है। इसलिये केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य के लिये वित्त व्यवस्था की जाती है।

2. स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ-प्रदेश में शिक्षा की आय के साधन स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ प्रमुख साधन हैं । इसके अन्तर्गत नगरपालिकाएँ, जिला परिषदें और पंचायतें आती हैं। यह संस्थाएँ विभिन्न कर लगाकर उनसे आय प्राप्त करती हैं। जिसका कुछ भाग शिक्षा पर व्यय करना निश्चित होता है।

3. छात्र शुल्क-प्रत्येक छात्र से शिक्षण शुल्क लिया जाता है। निर्धन छात्रों के शुल्क में रियायत होती है। इस प्रकार छात्र शुल्क आय का प्रमुख साधन है।

4.दान-बहुत से दानदाता शैक्षिक संस्थाओं को आर्थिक और भूमि तथा सम्पत्ति दान में देते हैं जिससे आय प्राप्त होती है।

विद्यालय वित्त प्रबन्धन के सिद्धान्त
Principles of School Finance Management

जब तक वित्त प्रबन्ध उचित प्रकार से नहीं किया जायेगा, विद्यालय की प्रगति में रुकावट बनी रहेगी। उचित वित्त प्रबन्ध के सम्बन्ध में विद्यालय प्रशासक को सदैव ध्यान रखना पड़ता है। उचित वित्त प्रबन्ध क्या है, इसे समझने के लिये हम वित्त प्रबन्ध के सिद्धान्तों का अवलोकन करेंगे तथा देखेंगे कि वित्त प्रबन्ध में कौन-कौन सी समस्याएँ आती हैं? जो किसी विद्यालय के प्रशासक के सामने उभरती हैं-

1. विद्यालय का वित्तीय प्रबन्ध साधारण रूप में प्रसंगानुकूल प्रदत्त सामग्री का सही ढंग से संगठन-वित्तीय प्रबन्धन से प्रशासकों को प्रदत्त सामग्री मिलती है, जिसके आधार पर वे शैक्षिक कार्यक्रम का आयोजन करते हैं। चाहे कोई भी व्यापार या व्यवसाय हो, बिना सूचना के वह ठीक से सम्पन्न नहीं हो सकता। विद्यालय प्रशासन को भी सूचना की आवश्यकता है। यह वित्तीय प्रबन्ध द्वारा ही उसे मिलती है इसलिये वित्तीय प्रबन्ध में सही लेखा रखना अत्यन्त आवश्यक है। निम्नलिखित क्षेत्रों का सही रूप में कार्य पूर्ण रिकॉर्ड रखने पर निर्भर करता है-
(1) शिक्षक एवं पर्यवेक्षक । (2) अन्य कर्मचारी। (3) विद्यार्थी । (4) बजट। (5) व्यय एवं आय। (6) आन्तरिक लेखांकन । (7) पुस्तकें एवं अन्य क्रय वस्तुएँ। (8) विद्यालय की सम्पत्ति। (9) विद्यालय के बचत खाते इत्यादि।

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2. वित्तीय प्रबन्ध बजट के प्रशासन पर नियन्त्रण रखने की प्रक्रिया-विद्यालय का वित्तीय प्रबन्ध बजट की मदों के अनुसार कार्य करने पर नियन्त्रण रखता है। बजट के लिये प्रस्तावित फॉर्म होते हैं, विद्यालय को उन्हें भरना होता है किन्तु ऐसा करने के लिये रिकॉर्ड तथा रिपोर्ट की आवश्यकता होती है। वित्तीय प्रबन्ध रिकॉर्ड रखने और व्यय इत्यादि की रिपोर्ट पर बल देता है। अतएव वित्तीय प्रबन्ध का दूसरा सिद्धान्त बजट के प्रशासन पर नियन्त्रण है। वित्तीय प्रबन्ध ही यह पक्के रूप से सामने ले आता है कि आय और व्यय पिछले वर्षों में किस प्रकार से हुआ है और अगले वर्ष के लिये किस प्रकार उनका संगठन करना है? इस सम्बन्ध में बजट में आयोजन होता है और इसीलिये हम वित्तीय प्रबन्ध को बजट के प्रशासन पर नियन्त्रण रखने वाला मानते हैं।

3. अच्छे वित्तीय प्रबन्ध के आधार हैं सरलता, पर्याप्तता तथा प्रमापी करणीयता- वित्तीय प्रबन्ध ऐसा होना चाहिये जो सरलता से सबकी समझ में आ जाये। विद्यालय में वाणिज्य या लेखांकन के विशेषज्ञ शायद ही कुछ व्यक्ति होते हैं। अतएव यदि प्रबन्ध में जटिलता है तो वह विद्यालय के अधिकांश कर्मचारियों की समझ में नहीं आयेगा। पर्याजता से तात्पर्य यह है कि वित्तीय प्रबन्ध में विद्यालय के सभी आवश्यक तत्त्व सम्मिलित हों। वित्तीय प्रबन्ध सभी शिक्षकों, कर्मचारियों एवं विद्यार्थियों को प्रभावित करता है। अतएव प्रबन्ध ऐसा होना चाहिये कि उसमें सबके हित का ध्यान रखा गया हो। इसके अतिरिक्त सह शैक्षिक तथा अन्य विद्यालयी कार्यक्रमों की वित्तीय व्यवस्था का आयोजन भी हो।

वित्तीय संसाधन सम्बन्धी कार्य
Financial Resource Relative Functions

विद्यालय वित्तीयकरण में संसाधनों के स्रोत सम्बन्धी कार्यों पर बल दिया जाता है जो कि निम्नलिखित हैं-

1. मानव संसाधन सम्वन्धी कार्य (Human resource related functions)-मानव संसाधनों में कौशलयुक्त मानवशक्ति एवं अनेक उद्देश्यों हेतु आवश्यक योग्यता प्राप्त सेवी वर्ग आते हैं।

2.भौतिक संसाधन सम्बन्धी कार्य (Material resource related functions)- इन सामयी संसाधन एवं पूंजी संसाधन आते हैं। सामग्री संसाधन का तात्पर्य भवन, उपकरण, कमाएँ, फीचर खेल के मैदान तथा प्रयोगशालाओं से प्राप्त धन प्राप्ति कहलाता है जबकि व्यय (Expenditure) का तात्पर्य इनसे शिक्षा को संगठित करने में आये हुए खर्चे से है। प्राप्ति का तात्पर्य है प्राप्त जायदाद का नगद मूल्य सम्मिलित है। प्राप्ति और राजस्व शब्दों का तात्पर्य एक ही नहीं है दोनों का अर्थ भिन्न-भिन्न है। प्राप्ति में उधार धन से प्राप्त और करों के भुगतान से प्राप्त या जायदाद आदि के बेचने से प्राप्त नगद धन सम्मिलित नहीं है क्योंकि इससे तत्कालीन राजस्व नहीं बन पाता। दूसरी ओर राजस्व में सरकारी अनुदान, स्थानीय निकायों के आवण्टन शैक्षिक कर, शिक्षण और अन्य शुल्क, विद्यालयी निधि और स्थायी निधि से प्राप्त आय, निजी व्यक्तियों और संगठनों से प्राप्त उपहार, जायदाद के किराये और बेचने से प्राप्त धन आता है।

3. राजस्व के खोत सम्बन्धी कार्य (Sources and revenue related functions)- शिक्षा के पूँजी संसाधन या वित्त स्रोत अनेक तरीकों से प्राप्त किये जाते हैं तथा इन स्रोतों का वर्णन आगे भी किया जा रहा है। विस्तृत रूप से उन दो सोतों-सार्वजनिक (Public) और वैयक्तिक (Private) में विभक्त, किया जा सकता है। इनसे प्राप्त निधि सार्वजनिक निधि (Public funds) और वैयक्तिक निधि (Private funds) के नाम से जानी जाती है-

(अ) सार्वजनिक निधि (Public funds)-सार्वजनिक निधि को सरकारी निधि भी कहा जाता है। इसमें केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) से प्राप्त धन आता है। सरकार (केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय) शिक्षा के लिये अनुदान के रूप में आर्थिक सहायता देती है। केन्द्र सरकार या प्रत्यक्ष रूप से स्वयं ही या अपने सम्प्रभुता प्राप्त निकायों जैसे- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् अथवा अन्य निकायों द्वारा अनुदान देती है। ये अनुदान बजट में अलग से प्रदर्शित किये जाते हैं। अनुदान एक सरकारी इकाई द्वारा दूसरी इकाई को प्रदत्त धन या अन्य सामग्री के रूप में होते हैं। यह केन्द्रीय सरकार या निकाय इसकी वापसी की आशा नहीं करते तथा इन अनुदानों में निजी निकायों जैसे-विद्यालय, विश्वविद्यालय, शिक्षा परिषदों, प्रबन्धों आदि को दिये गये अनुदान भी आते हैं।

(ब) वैयक्तिक निधि (Private funds)-इन स्रोतों में (शुल्क, (2) स्थायी निधि और भूमि अनुदान, (3) अन्य स्रोत सम्मिलित हैं-

1.शुल्क (Fees)-शुल्क के रूप में विद्यार्थियों से एकत्रित किया गया प्रत्येक प्रकार का धन आता है। भारत में प्राचीन समय में विद्यार्थी भिक्षा लाते थे, पशु चराते थे और आश्रम की देखभाल करते थे। उनके इस कार्य से प्राप्त धन से रखरखाव की लागत पूरी हो जाती थी। गाँधीजी की बेसिक शिक्षा की योजना ने स्व-सहायक शिक्षा (Self supporting education) के विचार को आगे बढ़ाया। इस निधि के लाभ यह थे कि संस्थाएँ सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त हो सकती  तथा ऐसे व्यक्तियों को तैयार कर समाज में भेज सकती थी जो कार्य-दर्शन (Philosophy of work) से ओतप्रोत हों और दक्ष सदस्य के रूप में समाज में सम्मिलित होने के लिये तैयार हों। इस योजना को व्यवहार में नहीं लाया जा सका। शुल्क अनेक प्रकार के होते हैं। शिक्षण शुल्क, मैगजीन शुल्क, खेल शुल्क, भवन शुल्क, प्रयोगशाला शुल्क, पुस्तकालय शुल्क, वाचनालय शुल्क तथा पंखा शुल्क आदि।

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सरकार ने कुछ श्रेणियों के विद्यार्थियों को शुल्क से मुक्त करने के आदेश भी दिये हैं। इस धन को सरकार स्वयं पूर्ण करती है। यह भी शुल्क के अन्तर्गत सम्मिलित है लेकिन शिक्षा निकायों के माध्यम से प्राप्त शुल्क या विश्वविद्यालय परीक्षा शुल्क तथा पंजीकरण शुल्क आदि इस स्त्रोत के अन्तर्गत नहीं आते। इसी प्रकार विशिष्ट उद्देश्यों के लिये जैसे-बस (वाहन) शुल्क, भोजन शुल्क आदि भी इस स्त्रोत में नहीं आते। ऐसा शुल्क भी जो विद्यार्थियों की सुविधाओं के लिये सावधानी स्वरूप लिया गया हो इसमें सम्मिलित नहीं है।

भारत में विद्यार्थियों से शुल्क लेने का प्रचलन सन् 1854 में बुड के घोषणा-पत्र की संस्तुतियों के बाद से हुआ। यद्यपि बंगाल सरकार ने शुल्क व्यवस्था सन् 1844 में प्रारम्भ कर दी थी। बाद में विद्यार्थियों से प्राप्त किया गया शुल्क सरकार के अनुदान-सहायता व्यवस्था (Grant in-aid system) का आधार बन गया। यह सहायता उन्हीं संस्थाओं को दी जाती थी जो विद्यार्थियों से शुल्क वसूल करती थीं।

2. स्थायी निधि एवं भूमि अनुदान (Endowments and land grants)-शैक्षिक वित्तीयकरण की यह प्रथा प्राचीन और मध्यकालीन भारत में प्रचलित थी। कुछ समय पहले तक यह युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका (U.S.A.) में भी प्रचलित थी। भारत में यह आज भी प्रचलित है। इन अनुदानों का प्रयोग आवर्तक (Recuring) और अनावर्तक (Non recurring) खर्चे तथा विशिष्ट उद्देश्यों जैसे-गरीब और योग्य विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करने तथा विशिष्ट अध्यापकों के अनुरक्षण के लिये प्रयोग में लाया जाता है। वित्त प्राप्त करने की इस विधि का लाभ यह है कि संस्थाओं का स्थायीपन सुनिश्चित हो जाता है। वे सम्प्रभुता प्राप्त होते हैं तथा शिक्षा का विस्तार और सुधार सरलता से करना सम्भव होता है।

इसका दोष यह है कि इस प्रकार से प्राप्त वित्तीय सहायता शासकों और जमीदारों पर निर्भर करती है जो शैक्षिक वित्तीयकरण के लिये कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं करते। जब एक बार भूमि अनुदान या स्थायी निधि की व्यवस्था हो जाती है फिर भी आर्थिक अभाव बना रहता है तथा यह अभाव वृद्धि और प्रगति को अवरुद्ध कर देता है। आर्थिक निराशा आय में अस्थायीपन ला देती है जिसके कारण सुविधाओं में कमी बनी रहती है। सम्प्रभुता, गैर जिम्मेदारी तथा सार्वजनिक माँगों के प्रति उदासीनता को जन्म दे सकती है।

स्थायी निधि ऐसा धन होता है जिसमें मूलधन को वैसा ही सुरक्षित रखा जाता है तथा मूलधन पर प्राप्त ब्याज धन को ही प्रयोग में लाया जाता है। अतीत में अनेक विद्यालय और संस्थाएँ स्थायी निधि की सहायता से ही चलती थीं। इसीलिये अनेक धार्मिक और आय स्थायी तथा निर्धारित होती है। परोपकारी ट्रस्ट शिक्षा के लिये वित्तीय सहायता का प्रावधान करते हैं। स्थायी निधि से प्राप्त

3. अन्य स्रोत (Other source)-शैक्षिक वित्तीयकरण के लिये धन प्राप्त करने के अन्य अनेक स्रोत हैं। इनमें दान, उपहार, चन्दा (Subscription), वसीयत (Fequests), जुर्माना,विक्री से प्राप्ति, बैंक शेष और ऋण पर ब्याज, भवनों के किराये तथा ऋण आदि आते हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व इन सभी से प्राप्त आय अन्य स्रोतों से मानी जाती थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से स्थायी निधि से प्राप्त आय को पृथक् कर दिया है तथा अन्य सभी को भी अन्य स्रोतों से आय के अन्तर्गत रखा गया है।

इस प्रकार सरकारी या सार्वजनिक और मुख्य दोनों स्रोतों को शिक्षा की वित्तीय व्यवस्था के लिये प्रयोग में लाया जाता है। इनमें से प्रत्येक कितना हो तथा दोनों के बीच अनुपात क्या हो? यह एक देश से दूसरे देश में भिन्न होता है। भारत में इन दोनों के संयोजनको अपनाने की प्रथा है लेकिन आज प्रवृत्ति यह है कि सरकार का भाग धीरे-धीरे बढ़ रहा है तथा अन्य स्रोत जिसमें भूमि अनुदान तथा स्थायी निधि भी सम्मिलित है, का भाग धीरे-धीरे कम हो रहा है।

जनता से दान लेने के कुछ लाभ हैं। इस निधि का लाभ यह है कि दानदाता संस्थाओं की भलाई में रुचि लेते हैं तथा उनका सहयोग भी मिलता है लेकिन भारत जैसे देश में जहाँ परोपकारी व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है इसका प्रयोग भी कम होता जा रहा है। बहु उत्तरदायित्वों से युक्त आधुनिक संस्थाओं को चलाने के लिये उपयुक्त निधि केवल दान से प्राप्त नहीं की जा सकती। बढ़े हुए कराधान तथा अनेक उद्योगों के राष्ट्रीकरण से शैक्षिक वित्त का यह स्त्रोत सूख-सा गया है। इसके अतिरिक्त दानदाता भी अपने लाभ के लिये संस्थाओं का दुरुपयोग कर सकते हैं जैसा कि प्रायः होता है।

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