मानवीय संसाधनों का प्रबंधन / शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर मानवीय संसाधनों का प्रबंधन / शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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मानवीय संसाधनों का प्रबंधन / शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन

मानवीय संसाधनों का प्रबंधन / शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन
मानवीय संसाधनों का प्रबंधन / शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन


शिक्षक छात्र समुदाय का प्रबंधन / मानवीय संसाधनों का प्रबंधन

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विद्यालयी संसाधनों का प्रबन्धन
Management of School Resources

शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बालक को उसकी रुचि, भविष्य एवं क्षमता के अनुसार इस प्रकार की शिक्षा देना है कि वह अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास इस प्रकार उद्देश्य की प्राप्ति के लिये विद्यालय में पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि में सहायता प्राप्त कर सके जिससे वह समाज में सही ढंग से समायोजित हो सके। इस मुख्य सभी आवश्यक भौतिक एवं मानव संसाधन उपलब्ध होने चाहिये, जिससे सभी प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रम एवं सहगामी क्रियाओं का संचालन प्रभावी ढंग से किया जा सके।

प्रबन्धन करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिये कि यह व्यवस्था उस विद्यालय विशेष की आवश्यकता एव परिस्थितियों के अनुकूल हो। विद्यालय संसाधनों के प्रबन्धन एवं अनुरक्षण का ज्ञान विद्यालय शिक्षक को अनिवार्य रूप से होना चाहिये। विद्यालय में प्राय: दो प्रकार के संसाधन पाये जाते हैं, जो कि मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के रूप में होते हैं। दोनों प्रकार के संसाधनों का प्रबन्धन एवं अनुरक्षण विद्यालय की छवि को श्रेष्ठ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।

मानवीय संसाधनों का प्रबन्धन
Management of Human Resources

मानवीय संसाधनों का कुशल प्रबन्धन ही किसी विद्यालय एवं शैक्षिक व्यवस्था का प्रमुख आधार होता है। उत्तम शिक्षा व्यवस्था के लिये यह आवश्यक है कि मानवीय संसाधनों का सदुपयोग किया जाय। मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन का आशय उस उचित एवं योग्यतानुसार कार्य वितरण से होता है, जिसको कि व्यक्ति की क्षमता के परीक्षण के बाद प्रदान किया जाता है। विद्यालय में प्रत्येक मानवीय संसाधन की योग्यता एवं क्षमता एक समान नहीं होती। इसलिये उनको कार्य का वितरण भी समान रूप से नहीं किया जा सकता वरन् उनकी योग्यता के अनुसार कार्य प्रदान करना ही उनकी क्षमता का सर्वाधिक उत्तम उपयोग है। मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन को अग्रलिखित विद्वानों ने स्पष्ट किया है-

1. प्रो. एस. के दुबे के शब्दों में, “मानवीय संसाधनों का प्रबन्धन विद्यालय के सर्वांगीण विकास को वह कला है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कार्य प्रदान करके तथा मार्ग दर्शन करके उसका पूर्ण सहयोग प्राप्त किया जाता है।”

2.श्रीमती आर. के. शर्मा के अनुसार, “मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से आशय विद्यालय से सम्बद्ध शिक्षर्को, बालकों एवं समुदाय से पूर्ण सहयोग प्राप्त करने की तकनीक से है जो कि सामाजिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति करने में सहायता करती है।

3.ओ. पी.शर्मा के शब्दों में, “मानवीय संसाधनों का प्रबन्धन वह सार्वभौमिक तकनीक है जो विद्यालय से सम्बद्ध मानवों से सर्वाधिक सहयोग प्राप्त कर सम्पूर्ण समाज तथा राष्ट्र की आकांक्षाओं की पूर्ति करती है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन के अभाव में विद्यालयी शिक्षा न तो समाज की आकांक्षा की पूर्ति कर सकती है और न ही शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोग प्राप्त कर सकती है। अत:मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन को तकनीक का सहारा लेना अनिवार्य है। मानवीय संसाधनों के अन्तर्गत प्रायः प्रधानाचार्य शिक्षक, लिपिक,चपरासी, प्रबन्ध समिति के सदस्य, शिक्षा समिति के सदस्य, शिक्षक अभिभावक संघ, एम. टो.ए. पी.टी.ए. एवं प्रशासनिक अधिकारी आदि आते हैं।

इनके प्रबन्धन का आशय इनके मध्य विकसित होने वाले सम्बन्धों से है। मानवीय संसाधनों के मध्य विकसित होने वाले सम्बन्ध धनात्मक रूप में तथा उदार हैं तो विद्यालय की छवि का विकास श्रेष्ठ रूप में होगा तथा माना जायेगा कि विद्यालय के मानवीय संसाधनों का उचित प्रबन्धन हो रहा है। इसके विपरीत मानवीय संसाधनों के मध्य सम्बन्धों का विकास अमानवीय एवं अनुदार पद्धति पर हो रहा है तो विद्यालय की छवि का पतन होता जायेगा तथा यह समझा जायेगा कि विद्यालय के मानवीय संसाधनों का प्रबन्धन नहीं हो रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन का प्रत्यक्ष सम्बन्ध विद्यालय की छवि एवं विकास से होता है।

मानवीय संसाधनों के प्रबन्ध के उद्देश्य / Aims of Management of Human Resources

मानवीय संसाधनों के प्रबन्ध हेतु अग्रलिखित उद्देश्य निर्धारित किये गये हैं-(1) मानवीय संसाधनों का प्रमुख उद्देश्य विद्यालय से सम्बद्ध मानवीय समुदाय का अधिकतम सहयोग प्राप्त करना है जिससे कि विद्यालय का चहुंमुखी विकास सम्भव हो सके। (2) मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार कार्य मिलता है जिससे वह सन्तुष्ट रहता है। (3) मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से विद्यालय से सम्बद्ध व्यक्ति की कार्यक्षमता का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। (4) मानवीय संसाधनों के प्रवन्धन से प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रुचि के अनुसार कार्य मिलता है जिससे वह पूर्ण मनोयोग से कार्य करता है।

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(5) मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से विद्यालय व्यवस्था में गुणात्मक सुधार होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का कार्य गुणवत्तापूर्ण होता है। (6) मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से अनुशासन की भावना का विकास होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने निर्धारित कार्य में निष्ठा के साथ संलग्न रहता है। (7) मानवीय संसाधनों के प्रवन्धन से विद्यालय समाज को आकांक्षा की पूर्ति करने में सक्षम होता है क्योंकि समाज का भी उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। (8) मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन से शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति भी सरल एवं प्रभावशाली ढंग से हो जाती है।

विद्यालय व्यवस्था से सम्बन्धित मानवीय संसाधनों के प्रबन्धन की विद्यालय के वांछित विकास के लिये आवश्यकता होती है क्योंकि प्रबन्धन के अभाव में प्रत्येक मानवीय संसाधन का सर्वोत्तम उपयोग नहीं किया जा सकता। सर्वोत्तम प्रबन्धन के द्वारा ही विद्यालय का चहुँमुखी विकास हो सकता है।

विद्यालय से सम्बन्ध रखने वाले प्रमुख मानवीय संसाधन निम्नलिखित प्रकार है-(1) शिक्षकों का प्रबन्धन। (2) छात्रों का प्रबन्धन । (3) समुदाय का प्रबन्धन । अब हम इन तीनों के प्रबन्धन की चर्चा करेंगे-

1.शिक्षकों का प्रबन्धन
Management of Teachers

विद्यालय के मानवीय संसाधनों में शिक्षक महत्त्वपूर्ण मानवीय संसाधन है। विद्यालय की छवि सुधारने में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रबन्धन के द्वारा शिक्षक को उसके कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का ज्ञान कराया जा सकता है जिसके द्वारा वह अपने कार्यों का निर्वाह उचित प्रकार से कर सके। शिक्षकों के प्रबन्धन हेतु विद्यालय प्रबन्ध समिति एवं शैक्षिक प्रशासन द्वारा निम्नलिखित उपाय करने चाहिये-

(1) शिक्षकों की नियुक्ति उनकी पूर्ण योग्यता एवं क्षमता का परीक्षण करने के पश्चात् ही की जाय। जिससे वे अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें। (2) शिक्षकों को पूर्णतः प्रशिक्षण प्राप्त होना चाहिये क्योंकि अप्रशिक्षित शिक्षक विद्यालय की कक्षा-शिक्षण व्यवस्था एवं सम्प्रेषण विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। (3) शिक्षकों को समय-समय पर सेवारत प्रशिक्षण (In-service Training) प्रदान करते रहना चाहिये जिससे वे नवीनतम् शिक्षण विधियों से परिचित हो सकें। (4) शिक्षकों को उनकी रुचि एवं योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का प्रभारी बनाया जाय जिससे वे पूर्ण मनोयोग से सहयोग दे सकें। (5) शिक्षकों में विद्यालय के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का विकास किया जाय जिससे वे विद्यालय के उत्थान हेतु कार्य कर सकें।

(6) शिक्षकों की समस्याओं के प्रति प्रजन्धकों एवं प्रशासनिक अधिकारियों का सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिये, जिससे वे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से छुटकारा पाकर विद्यालय हित में अधिक समय दे सकें। (7) शिक्षकों की क्षमता एवं योग्यता के अनुसार उनको शिक्षण के अतिरिक्त अन्य विद्यालयी कार्य प्रदान करने चाहिये जिससे कि उनकी सम्पूर्ण योग्यता का उपयोग विद्यालय हित में हो सके। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षक रूपी मानवीय संसाधन के सही प्रबन्धन एवं सर्वोत्तम उपयोग के उक्त उपाय करने चाहिये। यदि इस प्रबन्धन व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया जाता तो शिक्षक का विद्यालय के उत्थान में पूर्ण सहयोग प्राप्त नहीं किया जा सकता।

2.छात्रों का प्रबन्धन
Management of Students

विद्यालय के मानवीय संसाधनों का दूसरा स्तम्भ उस विद्यालय के बालक या छात्र होते हैं। विद्यालय में छात्रों के सर्वांगीण विकास हेतु अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ की जाती हैं जिससे कि प्रत्येक बालक को उसकी क्षमता के अनुसार पूर्णरूपेण विकसित किया जाय। बालकों के, प्रबन्धन का आशय उस विद्यालयौ व्यवस्था से है जिसमें छात्रों के सर्वागीण विकास के पूर्ण उपाय किये जाये। प्रत्येक विद्यालय में एक ही प्रकार की बुद्धिलब्धि एवं योग्यता धारक बालक नहीं होते। इसलिये सभी बालकों को एक प्रकार की शिक्षण व्यवस्था प्रदान नहीं की जा सकती। अत: आवश्यक है कि प्रबन्धन के माध्यम से प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता के अनुसार विकास के अवसर प्रदान किये जायें। छात्रों के प्रबन्धन हेतु निम्नलिखित व्यवस्था विद्यालय में उपलब्ध होनी चाहिये-

(1) बालकों को विद्यालय में शैक्षिक एवं निष्पक्ष वातावरण प्रदान करना चाहिये जिससे उनके मन को आघात न लगे। (2) प्रत्येक बालक की रुचि एवं योग्यता ज्ञात करके ही उसको निर्देशन तथा परामर्श प्रदान करना चाहिये जिससे वह लक्ष्य को प्राप्त कर सके। (3) प्रतिभाशाली एवं सामान्य बालकों के कार्य में मनोवैज्ञानिक विभेद करना चाहिये जिससे कि कार्य करने में उनका मन पूर्णत: लगा रहे। (4) प्रतिभाशाली बालकों एवं सामान्य बालों को पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ प्रदान करते समय भी विभेद किया जाय जिससे कि सभी छात्रों का सर्वांगीण विकास हो सके।

(5) पाठ्यक्रम प्रदान करते समय बा ध्यान दिया जाय कि विद्यालय में प्रचलित पाठ्यक्रम समस्त बालकों के स्तरानुकूल होना चाहिये। दूसरे शब्दों में, यहाँ पाठ्यक्रम विभेद की नीति अपनायी जाय। (6) विद्यालय व्यवस्था में बालों का पूर्ण सहयोग लिया जाय तथा विभिन्न विषयों पर उनके विचार जाने जायें। (7) बालों के सक्रिय सहयोग पर विशेष ध्यान दिया जाय जिससे बालकों को यह अनुभव हो कि वे विद्यालय व्यवस्था तथा अनुशासन हेतु विद्यालय के एक घनिष्ठ अंग है।

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3.समुदाय का प्रबन्धन
Management of Community

विद्यालय व्यवस्था में समुदाय या समाज का प्रबन्धन भी परमावश्यक है क्योंकि विद्यालय विकास में समुदाय की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समुदाय में विभिन्न प्रकार की विचारधारा के व्यक्ति होते हैं। उनको विद्यालय के विकास एवं व्यवस्था की ओर उन्मुख करना समुदाय प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य है। समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को यह ज्ञान कराना कि जिस विद्यालय में उनके बालक शिक्षा ग्रहण करते हैं उस विद्यालय के प्रति उनका भी कुछ दायित्व है। इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए समुदाय प्रबन्धन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये। इसके लिये प्रबन्ध समिति एवं शिक्षा प्रशासन को विभिन्न प्रकार के उपाय करने चाहिये जिससे कि अप्रत्यक्ष रूप से समुदाय का प्रबन्धन हो सके तथा विद्यालय उससे लाभान्वित हो सकें।

समुदाय प्रबन्धन के अन्तर्गत ग्राम शिक्षा समिति, विद्यालय प्रबन्धन समिति, शिक्षक-अभिभावक संघ, मातृ-शिक्षक संघ एवं महिला प्रेरक दल प्रमुख रूप से सम्मिलित किये जाते हैं जिनके बारे में एक संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है-

(1) ग्राम शिक्षा समिति Village Education Committee

मूल नियम सन् 1972 का सन् 1975 में संशोधन किया गया। इसके लिये प्रत्येक ग्राम सभा स्तर पर ग्राम शिक्षा समिति का गठन किया गया। उत्तर प्रदेश पंचायत राज्य एक्ट, 1947 ई. के अधीन यह निश्चित किया गया है कि प्रत्येक गाँव में एक समिति स्थापित की जायेगी, जिसे ग्रामीण शिक्षा समिति के नाम से जाना जायेगा। इसमें निम्नलिखित को सदस्यता प्राप्त होगी-(1) ग्राम सभा का प्रधान अध्यक्ष होगा। (2) बेसिक विद्यालयों के छात्रों के तीन अभिभावक या संरक्षक (इनमें से एक महिला होगी। इनके नाम विद्यालय उपनिरीक्षक द्वारा निर्दिष्ट किये जायेंगे। (3) उस गाँव या समूह के बेसिक विद्यालय प्रधानाध्यापक, यदि एक से अधिक विद्यालय हैं तो उनके प्रधानाध्यापकों में से वरिष्ठतम् प्रधानाध्यापक इस समिति का सदस्य सचिव होगा।

ग्राम शिक्षा समिति के कार्य (Functions of V.E.C.)-ग्राम शिक्षा समिति के कार्य निम्नलिखित प्रकार से हैं-(1) बेसिक विद्यालय के भवनों में सुधार तथा मरम्मत के सुझाव देना। (2) विद्यालय के उपकरणों में सुधार के सुझाव देना । (3)  बेसिक विद्यालय का निरीक्षण करना। (4) शिक्षकों की उपस्थिति और समय से आने के विषय में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को रिपोर्ट देना।

(2) विद्यालय प्रबन्ध समिति
School Management Committee

शासकीय विद्यालयों के अतिरिक्त कुछ ऐसे विद्यालय भी हैं, जिन्हें प्रबन्ध समितियों द्वारा चलाया जा है। इस प्रकार की विद्यालय प्रबन्ध समिति का गठन एक निश्चित समय के लिये किया जाता है। यह समिति विद्यालय की समस्त प्रबन्ध व्यवस्था करती है। इस प्रकार के विद्यालयों को कुछ आर्थिक सहायता राज्य सरकार की ओर से भी प्रदान की जाती है और शेष राशि की व्यवस्था विद्यालय प्रबन्ध समिति करती है। विद्यालय सम्बन्धी विभिन्न आवश्यकताओं की व्यवस्था विद्यालय प्रबन्ध समिति करती है। विद्यालय प्रबन्ध समिति अपने सभी निर्णय सदस्यों के बहुमत के आधार पर करती है। विद्यालय प्रबन्ध समिति के सभी सदस्य और पदाधिकारी अवैतनिक रूप में कार्य करते हैं।

विद्यालय प्रबन्ध समिति द्वारा भौतिक संसाधनों की व्यवस्था,वित्तीय कार्य तथा प्रशासनिक कार्यों को पूर्ण किया जाता है। प्रबन्ध समिति द्वारा ही विद्यालय की छवि का निर्धारण किया जाता है। अत: विद्यालय प्रबन्धन में विद्यालय प्रबन्धन समिति की भूमिका को विद्यालय के अन्य मानवीय संसाधनों के साथ सम्बन्धों के सन्दर्भ में निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-विद्यालय प्रबन्ध समिति को शैक्षिक गतिविधियों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहियेवर शिक्षक एवं प्रधानाचार्य के द्वारा प्रस्तावित सुविधाओं को उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिये। विद्यालय प्रबन्ध समिति के सदस्यों का उद्देश्य किसी लाभ के लिये कार्य करना नहीं होना चाहिये वरन् विद्यालय की सेवा करने का उद्देश्य होना चाहिये। विद्यालय प्रबन्ध समिति के सदस्यों द्वारा शिक्षक, प्रधानाचार्य एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि की सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये।

विद्यालय प्रबन्ध समिति द्वारा एक माह में एक बार सभी कर्मचारियों की बैठक बुलाकर उनकी समस्याओं को सुनना चाहिये, जिससे सम्बन्धों में मधुरता उत्पन्न हो सके। विद्यालय प्रबन्ध समिति के सभी सदस्यों को सामाजिक, नैतिक एवं मानवीय गुणों से युक्त होना चाहिये, जिससे विद्यालय के अन्य मानवीय संसाधनों में इन गुणों का समावेश कर सकें महाविद्यालय प्रबन्ध समिति के सदस्यों में अधिकारी भाव न होकर विद्यालय के प्रति सेवा एवं सहायता का भाव होना चाहिये,जिससे कि विद्यालय के अन्य सदस्य भी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकें। विद्यालय प्रबन्ध समिति का उद्देश्य विद्यालय के मानवीय संसाधनों के मध्य मधुर सम्बन्ध उत्पन्न करके एवं सामंजस्य स्थापित करके उनका सर्वोत्तम प्रयोग करना होना चाहिये।

(3) शिक्षक-अभिभावक संघ
Teacher Parents Association

शिक्षा की गुणवत्ता में अभिभावकों और शिक्षकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यदि सभी अभिभावक और भारत के सभी शिक्षक एक साथ मिलकर इस ओर ध्यान दें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि यह मिलन अच्छी शिक्षा के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध हो सकता है। कहा भी जाता है कि बालक एक-चौथाई शिक्षा शिक्षकों से, एक चौथाई स्वयं से तथा आधी शिक्षा अपने माँ-बाप या अभिभावक से सीखता है। इस दृष्टि से शिक्षा और उसकी गुणवत्ता के विकास में अभिभावकों का सहयोग लेना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह स्थिति विद्यालयों में शिक्षक-अभिभावक संघ की स्थापना के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। बालक के शैक्षिक विकास में शिक्षक और अभिभावकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है परन्तु दोनों की शिक्षा सम्बन्धी भूमिकाएँ तथा परस्पर अपेक्षाएँ भित्र होती हैं।

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शिक्षक बालकों की जिन समस्याओं को अपने दृष्टिकोण से देखता है, उनके अभिभावकों का उन्हीं समस्याओं के प्रति सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण होता है। इसका एक सबल कारण यह है कि जहाँ शिक्षक के लिये विद्यार्थी सैकड़ों में से एक है, वहीं माँ-बाप के लिये वह स्वयं का अंश है। शिक्षक जहाँ प्रत्येक बालक के समान विकास की बात सोचता है वहीं माँ-बाप अथवा अभिभावक अपने बालक के अधिकाधिक शैक्षिक विकास में रुचि लेने की शिक्षकों से अपेक्षा करते हैं। इन भिन्नताओं के कारण ही बालक की क्षमताओं,रुचिों तथा व्यवहारगत् दोषों के बारे में अभिभावों की सोच, शिक्षकों से सर्वथा भिन्न होती है क्योंकि बालक अभिभावकों के समक्ष शिक्षक की तुलना में कहीं अधिक रहता है अत: वे शिक्षक से अनेक क्षेत्रों के बारे में अधिक जानते हैं। अतः अभिभावकों का बालकों के शैक्षिक विकास में सहयोग लिया जाना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

(4) मातृ शिक्षक संघ
Mother Teacher Association

मातृ शिक्षक संघ की अवधारणा का उदय बालिकाओं के सामाजिक एवं शैक्षिक  उत्थान के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर हुआ है। बालिकाओं की  सामाजिक और शैक्षिक स्थिति प्रारम्भ से ही अच्छी नहीं रही है। बालिकाओं को समाज में बालकों की तुलना में कम महत्त्व प्रदान किया जाता है। विद्यालय एक ऐसा केन्द्र है, जहाँ आधुनिक एवं उपयोगी सूचनाओं को लाभ प्राप्त होता है। शैक्षिक एवं सामाजिक लाभ की सूचनाओं को महिलाओं तक पहुंचाने के को एकत्रित किया जाता है तथा समाज के लिये प्रसारित किया जाता है। इन सूचनाओं से समाज लिये माता शिक्षक संघ की स्थापना की गयी है। आज प्रदेश के प्रत्येक विद्यालय में माता शिक्षक की स्थापना की जा चुकी है, जिससे विद्यालय एवं समुदाय दोनों को ही लाभ प्राप्त हो रहा है।

(5) महिला प्रेरक दल
Woman Promptor Team

महिला प्रेरक दल का आशय कर्मनिष्ठ एवं सामाजिक विकास का दृष्टिकोण रखने वाला महिलाओं के समूह से है जो कि अपने कार्य एवं व्यवहार के माध्यम से समाज को प्रेरणा प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिये एक ग्राम में 100 बालक एवं बालिकाओं में से 50 बालक एवं  बालिकाएँ विद्यालय जाती हैं तथा शेष बालक एवं बालिकाएँ अपने गृहकार्य में लगी रहती हैं तो उस गाँव को महिला प्रेरक दल की आवश्यकता होगी तथा महिलाएँ घर-घर जाकर शिक्षा के लाभ बताकर विद्यालय न जाने वाले बालक-बालिकाओं को विद्यालय जाने के लिये प्रेरित करेंगी।

महिला प्रेरक दल की विद्वानों द्वारा निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गयी हैं-

1.पी. एस. के. दुबे के अनुसार, “महिला प्रेरक दल का आशय शिक्षित एवं योग्यताधारी महिलाओं के उस समूह से है जो शिक्षा के सार्वभौमीकरण, महिला शिक्षा एवं नारी सशक्तीकरण के क्षेत्र में प्रेरणा स्रोत का कार्य करता है।”

2. श्रीमती आर. के. शर्मा के शब्दों में, “महिला प्रेरक दल प्रतिष्ठित एवं कर्मनिष्ठ महिलाओं का वह समूह है जो विद्यालय व्यवस्था में महिला, बालक एवं बालिकाओं की सहभागिता को सुनिश्चित करने की प्रेरणा प्रदान करता है तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार में सहयोग करता है।”

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महिला प्रेरक दल प्रतिष्ठित, शिक्षित एवं प्रभावशाली महिलाओं का समूह होता है जो विभिन्न प्रकार के कार्यों द्वारा विद्यालय व्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप से सहयोग करता है तथा अन्य व्यक्तियों को सहयोग के लिये प्रेरित करता है।

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