पठन के प्रकार – सस्वर और मौन पठन / सस्वर और मौन पठन के भेद

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पठन के प्रकार – सस्वर और मौन पठन / सस्वर और मौन पठन के भेद

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पठन के प्रकार – सस्वर और मौन पठन / सस्वर और मौन पठन के भेद


सस्वर और मौन पठन के भेद / पठन के प्रकार – सस्वर और मौन पठन /

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पठन के प्रकार

पढ़ना या पठन दो प्रकार का होता है-(1) सस्वर पठन। (2) मौन पठन!

सस्वर पठन

इस पठन की परिभाषा देते हुए श्रीमती राजकुमारी शर्मा ने लिखा है-“लिखित भाषा के ध्वन्यात्मक पठन को सस्वर पठन कहते हैं।

सस्वर पठन का महत्व

इस पठन का निम्नलिखित रूप में महत्त्व है-
(1) सस्वर पठन से छात्रों की झिझक दूर होती है, निडरता आती है, आत्मविश्वास का गुण पैदा होता है तथा शुद्ध उच्चारण का अभ्यास होता है। (2) छात्रों का संकोच और झिझक दूर होती है, जो उनके सर्वांगीण विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। (3) लेखकों की अनुपस्थिति में अपने विचारों से दूसरों को अवगत कराने के लिये सस्वर पठन की आवश्यकता होती है। (4) सस्वर पठन के विधिवत् अभ्यास द्वारा छात्रों को सफल वक्ता बनाया जा सकता है।

सस्वर पठन के उद्देश्य

इस पठन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(1) पढ़ते समय स्वरों के उतार-चढ़ाव तथा विराम आदि का ध्यान रखना।( 2) पढ़े हुए विषय को छात्र दूसरों को भी समझा सकें, इतनी क्षमता उत्पन्न करना। (3) छात्रों में ऐसी योग्यता पैदा करना कि वे पाठ का पठन इस प्रकार से कर सकें कि सुनने वाला सरलता से समझ सके।

सस्वर पठन के अंग

सस्वर पठन के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं-

1.ध्वनि का उचित ज्ञान-छात्र को शब्द ध्वनियों का उचित ज्ञान कराना। तभी वे मुँह के उचित स्थान से ध्वनि निकालेंगे।

2.शुद्ध उच्चारण-छात्र को शुद्ध उच्चारण का इतना अभ्यास करा दिया जाय कि वह गद्य एवं पद्य के प्रत्येक शब्द का उतार-चढ़ाव के साथ उच्चारण कर सके।

3. उचित बल-छात्र को प्रत्येक शब्द के उचित बल से भी अवगत कराया जाय।

4.विराम चिह्नों का प्रयोग-पढ़ते समय छात्र का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाय कि वह विराम, अर्द्ध-विराम आदि चिह्नों का ध्यान रखकर तथा समझकर पढ़ सके।

5. सरसता एवं मधुरता-छात्रों को धैर्यपूर्वक वाणी में सरसता एवं मधुरता संजोये पठन के लिये प्रेरित किया जाय।

6. रुचि-पठन के प्रति छात्रों में रुचि जाग्रत की जाये।

7.वाचन मुद्रा-पठन में मुद्रा का भी अपना स्थान होता है। उदाहरण के लिये, यदि आप वीर रस की कविता पढ़ रहे हैं तो मुख मुद्रा तेजपूर्ण होनी चाहिये और शृंगार एवं करुण रस में मुख मुद्रा क्रमशः पूर्ण एवं हीन हो जाती है। पठन के विषय के अनुरूप हाथ, आँख और सिर आदि का स्वरूप संचालन प्रभावशील रहता है। पढ़ते समय अपनी दृष्टि में इतने अंश को भर लिया जाय कि यथोचित अवसर श्रोताओं की ओर देखने का मिल सके। केवल पाठक को अपने में ही निमग्न रहने पर श्रोता ऊबने लगता है और पठन अरुचिकर हो जाता है।

8. प्रसंगानुसार उतार-चढ़ाव-प्रसंग के अनुसार अर्थात् श्रोताओं की अवस्था के अनुसार हमें स्वर का ध्यान रखना चाहिये। यथा-‘आज न जाइये’। इसका पुत्र अपने पिता एवं माता से अवरोध पूर्ण स्वर में कहेगा। अत: हमें वाक्य के प्राण को सजीव बनाये रखना चाहिये।

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9. विशेष बल-विदुषी लेखिका के. क्षत्रिया ने वाचन में अध्यापक के लिये भी विशेष बात ध्यान में रखने की सलाह दी है। उन्हीं के शब्दों में-“पुस्तक को बायें हाथ में आँखों से 12 इंच की दूरी पर 45° का कोण बनाते हुए पकड़कर पढ़ना उपयुक्त होगा। पढ़ने वाले का मुख श्रोताओं को अवश्य दिखायी देता रहे। जहाँ तक सम्भव हो, पाठ कभी भी बैठकर न पढ़ा जाय। कक्षा के समक्ष खड़े होकर पढ़ना ही उत्तम रहेगा।”

सस्वर पठन के भेद

सस्वर पठन के प्रमुख रूप से दो भेद किये गये हैं।
(1) व्यक्तिगत पठन। (2) सामूहिक पठन ।

1.व्यक्तिगत पठन –

व्यक्तिगत पठन कक्षा में अध्यापक के आदर्श पाठ करने के पश्चात् किया जाता है। आदर्श पाठ करने के बाद एक छात्र अध्यापक के वाचन का अनुकरण करता है। विशेष बात यह है कि अनुकरण के समय छात्र की समस्त प्रकार की अशुद्धियों की ओर ध्यान देना चाहिये, किन्तु बीच में रोकना एकदम गलत है। पाठ के बाद ही छात्र को उसकी त्रुटियों से अवगत कराया जाय। माध्यमिक कक्षाओं में वैयक्तिक पठन अधिक उपयोगी है। इससे छात्रों की कमियों को व्यक्तिगत रूप से दूर किया जा सकता है।

2.सामूहिक पठन-

सामूहिक पठन को समवेत वाचन भी कहा जाता है। जिसका अर्थ है-मिलकर या एक साथ पढ़ना। इसका विशेष लाभ कक्षा में दुर्बल या संकोची छात्रों को मिलता है। जो छात्र संकोच या भय के कारण कक्षा के समक्ष वाचन में असमर्थ होते हैं, उन्हें समस्त कक्षा के साथ उच्चारण करने का अवसर मिल जाता है, जिससे वे निडर होकर पढ़ने लगते हैं। छोटी कक्षाओं में अकेला छात्र कभी संकोच के कारण तो कभी भय के कारण बोलने में घबराता है, अत: सामूहिक वाचन कराया जाता है। धीरे-धीरे उच्चारण का अभ्यास होने पर, संकोच के दूर हो जाने पर फिर उसे अकेले पढ़ने में कठिनाई नहीं होती। यह केवल 13-14 वर्ष तक के छात्रों को ही कराया जाय किन्तु विद्यालय के अनुशासन एवं पड़ौस की कक्षाओं में शान्ति भंग न हो इस बात पर अवश्यक ध्यान दिया जाय।

मौन पठन

लिखित सामग्री को मन ही मन बिना आवाज निकाले पढ़ना मौन पठन या मौन वाचन कहलाता है। मौन वाचक के होठ बन्द रहते हैं। जड का कथन है कि “जब छात्र पैरों से चलना सीख जाता है तो घुटनों के बल खिसकना छोड़ देता है।” इसी प्रकार भाषा के क्षेत्र में छात्रजब मौन पठन की कुशलता प्राप्त कर लेता है तो सस्वर पठन का प्रयोग छोड़ देता है। मौन पठन में निपुणता का आना व्यक्ति के विचारों की प्रौढ़ता का द्योतक है और भाषायी दक्षता अधिकार का सूचक है।

मौन पठन के उद्देश्य

मौन पठन के निम्नलिखित उद्देश्य है–
(1) मौन पठन छात्रों को भाषा के लिखित रूप को समझाकर गहरायी तक पहुँचाने में सहायता करता है। (2) यह छात्रों में चिन्तनशीलता का विकास करता है, जिससे उनकी कल्पना शक्ति विकसित होती है और छात्र बुद्धिमान बनता है। (3) अकेलेपन की ऊब से बचने का यह सर्वोत्तम साधन है। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर सत्साहित्य का आनन्द उठाया जा सकता है। (4) मौन पठन में व्यक्ति को थकान कम होती है इसीलिये सस्वर वाचन अधिकतर शालेय जीवन तक ही सीमित होता है। (5) मौन पठन में अन्य साथियों को कोई परेशानी नहीं होती।

(6) मौन पठन में समय की बचत होती है। श्रीमती ग्रे और रॉस के एक परीक्षण द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि कक्षा छ: के छात्र एक मिनट में सस्वर पठन में 170 शब्द बोलते हैं और मौन पठन में इतने ही समय में 210 शब्द पढ़ते हैं। (7) मौन पठन छात्र को स्वाध्याय की ओर प्रेरित करता है और स्वाध्याय की ओर प्रेरित होकर वह साहित्य में रुचि लेने लगता है, इससे उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। (8) सस्वर पठन जितना प्राथमिक कक्षाओं के लिये महत्त्वपूर्ण है, उतना ही मौन पठन, उच्च कक्षाओं के लिये। भावों की गहरायी तक पहुँचने के लिये मौन वाचन अत्यन्त आवश्यक है।

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(9) मौन पठन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि छात्रा कम से कम समय में विषय को गहरायी से समझ लेता है और अत्यधिक आनन्द प्राप्त करने में सपफल होता है। (10) मौन पठन से छात्रा की कल्पना शक्ति का विकास होता है। शान्त मस्तिष्क में छात्रा आगे की घटनाओं के विषय में अनुमान लगा सकता है। (11) छात्रों में चिन्तन एवं तर्क शक्ति को बढ़ाने एवं प्रति उत्तर क्षमता पैदा करने के लिये भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। शान्त रहकर ही छात्रा विषय को समझकर तर्क के लिये स्वयं को तैयार कर सकता है।

मौन पठन के भेद

(1) द्रुत पठन – इस पठन का मतलब है कि मन ही मन मे जल्दी जल्दी पढ़ना ।

(2) गम्भीर पठन – इस पठन का मतलब है कि मन मे अर्थ ग्रहण करते हुए पढ़ना।

मौन पठन के साधन

सस्वर पठन से मौन पठन में जितने अधिक गुण हैं, यह उतना ही दूसरों पर निर्भर भी रहता है। सस्वर पठन शोरगुल पूर्ण वातावरण में भी सम्भव हो सकता है, किन्तु मौन पठन के लिये पूर्ण शान्तिमय वातावरण की आवश्यकता होती है। इस प्रकार मौन पठन के लिये सहायक बातें निम्नलिखित हैं-

1.शान्तिमय वातावरण-मौन पठन के लिये शान्तिमय वातावरण की अत्यन्त आवश्यकता है। बिना शान्त वातावरण के मौन पठन सम्भव नहीं हो सकता। अत: पाठशाला या स्वाध्याय कक्ष का निर्माण ऐसे स्थान पर होना चाहिये जहाँ किसी भी प्रकार का शोरगुल न हो।

2. एकाग्रता-शान्तिपूर्ण वातावरण के बाद दूसरा साधन एकाग्रता है। बाह्य शोरगुल के अतिरिक्त मानसिक शान्ति भी मौन पठन के लिये परम आवश्यक है। एकाग्रता भंग होने पर हमें फिर से सस्वर पठन का आश्रय लेना पड़ता है।

3. व्याकरण की जानकारी-व्याकरण के पूर्ण ज्ञान के बिना भी मौन पठन सम्भव नहीं हो सकता। इसमें विराम, अर्द्ध-विराम तथा प्रश्न वाचक चिह्न और विस्मयादिबोधक चिह्नों का ज्ञान भी परमआवश्यक होता है। इसकी पूर्ण जानकारी के बिना अर्थ का अनर्थ हो जाता है और पढ़ने में आनन्द नहीं आता। ऐसी कठिनाई प्राय: गद्य से अधिक नाटक और कविता पाठ में आती है।

4. समुचित ज्ञान-पाठ्य विषय का पूर्ण भाव ग्रहण करने के लिये यह आवश्यक है कि पाठ्य-विषय के अन्तर्गत आये हुए कठिन शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों के प्रयोग का हमें पूर्ण ज्ञान ही अन्यथा विषय की गहरायी में उतरना कठिन हो जाता है।

5. वृहत् शब्द-कोष-शब्द-कोष से अभिप्राय यह है कि हमें भाषा के समाचार्थी अथवा सह अर्थी शब्दों की भी पूर्ण जानकारी होनी चाहिये। इसके अन्तर्गत पर्यायवाची, विलोम, तत्सम, तद्भव, देश तथा विदेशी,शब्दों का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि ये सभी तथ्य हमें कवि या लेखक की क्षमता को पहचानने में सहायता पहुँचाते हैं।

6. धैर्यशीलता – कभी-कभी संयुक्त या मिश्रित वाक्यों का अर्थ समझने में हमें विलम्ब हो सकता है। इसके लिये हमें उस अंश को धैर्यपूर्वक बार-बार पढ़ना चाहिये तभी हम उसका अर्थ समझ सकते हैं। शीघ्रता करने पर हम भाव की गहरायी से वंचित रह जाते हैं और बिना इस प्रकार के प्रयोग के स्व-शैली का निर्माण सम्भव नहीं है।

सस्वर एवं मौन पठन के तरीके

गद्य एवं पद्य के पाठों में सस्वर पठन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक कक्षाओं में गद्य की पाठ्य-पुस्तकें अलग नहीं होती, किन्तु मौन पठन का प्रशिक्षण केवल गद्य पाठों द्वारा किया जा सकता है। माध्यमिक एवं उच्च स्तर पर सहायक पुस्तकें अलग रहती हैं। इन पुस्तकों को पढ़ाते समय द्रुत मौन पठन का अभ्यास कराने में सरलता रहती है। पद्य पढ़ाते समय मौन पठन नहीं किया जाता क्योंकि पद्य का उद्देश्य है, रसानुभूति कराना।

शिक्षण में पहले शिक्षक द्वारा आदर्श सस्वर पठन किया जाता है, उसके बाद छात्र अनुकरण पठन करते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या के बाद ही मौन पठन का अर्थ सरलता से ग्रहण किया जा सकता है। मौन पठन से पूर्व कुछ प्रश्न भी श्यामपट्ट पर लिखे जा सकते हैं, जिनके उत्तर मौन पठन करने के बाद छात्रों से लिये जा सकते हैं। इसी दृष्टि से छात्र मौन पठन करके उत्तर देने के लिये पहले से तैयार रहेंगे एवं उनका पठन भी किसी उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होगा। हिन्दी शिक्षक तथा छात्रा द्वारा प्रयोग किये जाने वाले सस्वर पठन एवं मौन पठन के तरीके निम्नलिखित हैं-

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1.चित्र पठन-छोटी कक्षाओं में छात्रों के सामने कक्षा की भित्ति पर एक बड़ा सा चित्र टाँग कर अध्यापक उनका ध्यान उस चित्र की ओर आकृष्ट करता है अथवा जब छात्र किसी पाठ को पढ़ता है तब छात्रों के सामने सहायक सामग्री के रूप में चित्र उपस्थित किया जाता है। छात्र दत्तचित होकर उस चित्र का पठन करते हैं और चित्र जिस तथ्य अथवा भाव की अभिव्यक्ति करता है, उसको छात्र ग्रहण करते हैं। शैक्षिक चित्र न केवल उनके अवधान को आकृष्ट कर उसके भाव को ग्रहण करने के लिये विवश कर देते हैं, बल्कि छात्रों का चित्र प्रदर्शन से मनोरंजन भी होता है क्योंकि चित्र कौतूहल, सौन्दर्य और आनन्द का साधन होता है।

2. शब्द पठन-गद्य पढ़ने और कभी-कभी कविता पाठों में भी ऐसे शब्द आ जाते हैं, जो छात्रों के लिये नये और कठिन होते हैं। शिक्षक ऐसे शब्दों को श्यामपट्ट पर लिखकर छात्रों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट करता है। यदि छात्र उसका अर्थ नहीं बता पाते, तो उनके स्पष्टीकरण के लिये वह अनेक विधियों का प्रयोग करता है। इन विधियों से छात्र शब्द में निहित अर्थ को समझने के योग्य हो जाते हैं। ये विधियाँ हैं- चित्र प्रदर्शन, प्रतिमूर्ति प्रदर्शन, प्रत्यक्ष पदार्थ दर्शन, संकेत अभिनय, पर्याय कथन, विलोम कथन, सन्धि विग्रह, अर्थ कथन, वाक्य प्रयोग,अन्त:कथा और व्याख्या।

3. शाब्दिक पठन-शाब्दिक पठन का अर्थ है, मौखिक पठन। मौखिक पठन के आठ गुण होते हैं-स्पष्ट वर्णोच्चारण, स्पष्ट शब्दोच्चारण, उचित ध्वनि, निर्गम बल, सुन्दरता, मधुरता, धैर्य और पाठ्य मुद्रा। मौखिक पठन तीन प्रकार का होता है-आदर्श पठन, अनुकरण पठन एवं समवेत पठन।

4. चिन्तनात्मक पठन-पठन की क्रिया का महत्त्वपूर्ण चरण है-चिन्तनात्मक पठन। इस प्रकार के पठन से छात्र लेखक के विचारों को आत्मसात् करते हैं, विरोधी भावों को हटाकर अपेक्षित ज्ञान का संचय करते हैं एवं उस समय हम गद्यांश अथदा अन्य पाठ के मुख्य भावों को ग्रहण ही नहीं करते, उस पर चिन्तन भी करते हैं। इस प्रकार के चिन्तन का अभ्यास छात्र स्वयं करता है और स्वयं ही सीखता है। चिन्तन स्वकार्य का भी एक रूप है। स्वाध्याय का ही दूसरा
नाम चिन्तनात्मक पठन है।

5. सृजनात्मक पठन-पढ़ते-पढ़ते मानव सृजन की ओर अग्रसर होने लगता है। उसका झुकाव गद्य और पद्य में से किसी एक की ओर हो जाता है और साहित्य की विविध विधाओं में से किसी एक को चुनकर वह सत्साहित्य का सजन करने लगता है।

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