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विषाणु की खोज,लक्षण,संरचना एवं महत्व / विषाणु जनित रोग
विषाणु की खोज,लक्षण,संरचना एवं महत्व / विषाणु जनित रोग
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ऐसे जीव जिन्हें, नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता अथवा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता होती है, सूक्ष्मजीव (Microorganisms) कहलाते हैं; जैसे-जीवाणु (Bacteria), विषाणु (Virus), कवक (Fungi), आदि। विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है, सूक्ष्मजीव विज्ञान (Microbiology) कहलाती है। सूक्ष्मजीवों के बारे में सर्वप्रथम ल्यूवेनहॉक (Leeuwenhoek) ने बताया था। इसीलिए उन्हें सूक्ष्मजैविकी का जनक (Father of Microbiology) कहते हैं। सूक्ष्मजीव अतिसूक्ष्म तो होते हैं, परन्तु इनकी उपस्थिति बड़े जीवों के लिए भी अति महत्त्वपूर्ण होती है। इनकी अपघटनात्मक (Decomposing) एवं संघटनात्मक (Constructive) क्रियाएँ सामान्यतया तो लाभदायक ही होती हैं, परन्तु अनेक बार ये क्रियाएँ हानिकारक भी हो जाती हैं। अतः ये जीव आर्थिक महत्त्व की दृष्टि से भी अति महत्त्वपूर्ण हैं।
विषाणु Virus
वायरस अतिसूक्ष्म अकोशिकीय (Non-cellular), अविकल्पी (Obligate), अन्तः परजीवी (Endoparasite) जीव हैं, जो न्यूक्लिक अम्ल (DNA अथवा RNA) एवं प्रोटीन से मिलकर बने होते हैं अर्थात् सामान्य शब्दों में, ये न्यूक्लियोप्रोटीन कण (Nucleoprotein particles) हैं। यद्यपि विषाणु सर्वत्र पाए जाते हैं, किन्तु ये किसी जीव के शरीर अथवा जीवित कोशिका के सम्पर्क में आने पर ही क्रियाशील होते हैं। अतः इन्हें परजीवी (Parasite) कहा जाता है। वास्तव में इनमें उपापचय अभिक्रियाएँ नहीं होती। अतः ये किसी भी जीवित कोशिका का इस्तेमाल मात्र अपने जनन के लिए करते हैं। इसी कारण से ये पादपों और जन्तुओं में संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं।
विषाणु की खोज Discovery of Virus
वायरस की खोज सन् 1892 में रूसी वनस्पति वैज्ञानिक इवानोवस्की (Ivanowski) ने तम्बाकू की पत्तियों में चितेरी रोग (Tobacco Mosaic Disease or TMV) के अध्ययन के समय की। उन्होंने बताया, कि रोगग्रस्त पादप के रस को स्वस्थ पादप की पत्तियों पर रगड़ने से स्वस्थ पादपों में भी यह रोग हो जाता है। अमेरिकी वैज्ञानिक डब्ल्यू एम स्टैनले (WM Stanley; 1935) ने TMV को क्रिस्टल के रूप में पृथक करने में सफलता प्राप्त की। जीवाणुभोजी विषाणु (Bacteriophage) की खोज एफ डब्ल्यू ट्वॉर्ट (FW Twort; 1975) ने की।
विषाणुओं के सामान्य लक्षण
General Characteristics of Viruses
विषाणुओं में सजीव और निर्जीव दोनों के लक्षण पाए जाते हैं, इसी कारण वैज्ञानिक इन्हें सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी मानते हैं।
विषाणुओं के सजीव लक्षण Living Characters of Viruses
इनके सजीव लक्षण निम्न प्रकार हैं।
(i) विषाणुओं की आकृति और माप सजीवों की भाँति निश्चित होती है।
(ii) विषाणु प्रोटीन और न्यूक्लिक अम्ल (DNA या RNA) से बने होते हैं, जोकि सजीवों के आधारभूत जीव अणु माने जाते हैं।
(iii) किसी जीवित कोशिका के सम्पर्क में आने पर इनका न्यूक्लिक अम्ल सजीवों की तरह ही अपने प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल के संश्लेषण को प्रेरित करता है। और नए विषाणु बनाता है।
(iv) इनके न्यूक्लिक अम्ल का स्व-गुणन (Self-replication) ठीक उसी है। प्रकार होता हैं, जिस प्रकार सामान्य जीवित कोशिका में DNA द्विगुणन करता है।
(v) सजीवों की ही तरह इनमें जीन उत्परिवर्तन (Gene mutation) पाया जाता है।
(vi) विषाणु विकिरण, ताप एवं रासायनिक पदार्थों के प्रति अनुक्रिया दर्शाते हैं।
विषाणुओं के निर्जीव लक्षण Non-living Characters of Viruses
इनके निर्जीव लक्षण निम्न प्रकार हैं
(i) विषाणुओं में कोशिका कला (Cell membrane), कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) और अन्य कोशिकांग (Cell organelles) अनुपस्थित होते हैं, जबकि सजीवों में ये सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं।
(ii) इन्हें निर्जीव पदार्थों के समान कई वर्षों तक क्रिस्टलों (Crystals) के रूप में बोतलों में भरकर रखा जा सकता है अर्थात् पोषद कोशिका के बाहर ये निर्जीव कण की तरह व्यवहार करते हैं, जबकि सजीवों को इस तरह से नहीं रखा जा सकता है।
(iii) इनमें किसी भी प्रकार की उपापचयी (Metabolic) क्रियाएँ नहीं पाई जाती हैं।
(iv) विषाणु कृत्रिम पोषक पदार्थों, संवर्धन माध्यमों, आदि पर सजीवों की भाँति सक्रिय नहीं होते हैं।
(v) सजीवों की भाँति ये स्वतन्त्र रूप से गुणन नहीं कर सकते।
(vi) सजीवों के समान इनमें किसी भी प्रकार की वृद्धि (Growth) नहीं होती है।
विषाणुओं की आकृति एवं माप
Shape and Size of Viruses
विषाणु आकृति के आधार पर निम्न प्रकार के हो सकते हैं।
(i) समव्यासीय (Isodiametric) ये विषाणु गोल (Spherical) अथवा बहुतलीय (Polygonal) होते हैं; उदाहरण-पोलियो, हर्पीज, खसरा विषाणु, आदि।
(ii) असमव्यासीय (Anisodiametric) ये विषाणु दण्डाकार (Rod-shaped) और तन्तुवत् (Thread-like) प्रकार के होते हैं, उदाहरण-पादप विषाणु छड़नुमा अथवा लगभग गोल, जीवाणुभोजी टैडपोल के आकार का होता है। विषाणु कणों की माप 10-300mp तक होती है। सबसे छोटा विषाणु (लगभग 10mu) पशुओं के खुरपका और मुँहपका रोग का होता है तथा सबसे बड़ा विषाणु (लगभग 300mp) चेचक का होता है।
विषाणु का रासायनिक संघटन
Chemical Composition of Virus
विषाणु न्यूक्लियोप्रोटीन से बने होते हैं। पोषद कोशिका से बाहर ये निष्क्रिय सूक्ष्मकणों के रूप में होते हैं, जिन्हें विरिओन (Virion) कहते हैं। विरिओन का लगभग 94% भाग प्रोटीन कवच के रूप में एवं शेष 6% न्यूक्लिक अम्ल होता है। वाइरस कणों के चारों ओर बना कैप्सिड का निर्माण कई आवर्ती प्रोटीन की बनी इकाइयों से होता है, जिन्हें कैप्सोमीयर्स (Capsomeres) कहते हैं। प्रोटीन का कवच या आवरण कैप्सिड (Capsid) कहलाता है। अधिकांश पादप विषाणुओं में RNA तथा जन्तु विषाणुओं में DNA पाया जाता है। मनुष्य के इन्फ्लूएन्जा, गलसुआ, पोलियो, एड्स, खसरा, आदि के विषाणुओं में और जीवाणुभोजी विषाणुओं में DNA का इकहरा सूत्र होता है। कुछ जीवाणुभोजी विषाणु; जैसे-जुकाम के विषाणु में RNA का दोहरा सूत्र पाया जाता है। अधिकांश पादप विषाणुओं और मनुष्य के चेचक, खसरा, हर्पीज, आदि रोगों के विषाणुओं में DNA का दोहरा सूत्र होता है।
विषाणुओं का महत्त्व Importance of Virus
विषाणुओं के महत्त्व निम्नलिखित हैं।
(i) विषाणुओं में सजीव और निर्जीव दोनों के लक्षण पाए जाने के कारण विषाणु को सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी माना जाता है। अतः इसे उद्विकास (Evolution) के एक प्रमाण के रूप में देखा जाता है।
(ii) रोगजनक जीवाणुओं को नष्ट करने और उनसे उत्पन्न रोगों के उपचार एवं रोकथाम में अनेक बार जीवाणुभोजी विषाणु का उपयोग किया जाता है; उदाहरण-अतिसार (Diarrhoea), आन्त्रशोध (Gastroen teritis) उत्पन्न करने वाले जीवाणु ई. कोलाई को नष्ट करके रोग निवारण के लिए T½-फेज का उपयोग किया जाता है।
(iii) आनुवंशिकी अभियान्त्रिकी (Genetic engineering) और आनुवंशिकी अनुसन्धानों में विषाणुओं का उपयोग जीन वाहक के रूप में किया जाता है।
(iv) विषाणु मानव के साथ-साथ उसके आर्थिक महत्त्व के पेड़-पौधों जन्तुओं को संक्रमित करके उनमें रोग उत्पन्न करते हैं एवं उन्हें नष्ट और करते हैं।
कुछ महत्त्वपूर्ण विषाणुओं का विवरण निम्न हैं।
जीवाणुभोजी विषाणु Bacteriophage Virus
जीवाणुभोजी विषाणु की संरचना टैडपोल (Tadpole) के समान होती है। यह शीर्ष, ग्रीवा और पूँछ में विभेदित होता है। इसका शीर्ष बहुतलीय (Polygonal) और पूँछ बेलनाकार होती है। शीर्ष का आकार लगभग 90-95mpx65-70mp और पूँछ की लम्बाई लगभग 100mu होती है। शीर्ष और पूँछ के मध्य छोटे आकार की ग्रीवा (Neck) होती है। शीर्ष भाग में DNA का दोहरा सूत्र उपस्थित होता है। इसके चारों ओर प्रोटीन का कवच होता है, जो कैप्सिड प्रोटीन से बना होता है। कैप्सिड का निर्माण कई आवर्ती (Repeated) प्रोटीन की बनी इकाइयों से होता है, जिन्हें कैप्सोमी कहते हैं। पूँछ के आखिरी छोर पर एक आधार प्लेट (Tail plate) होती है। इससे छ: महीन पुच्छ तन्तु (Tail fibres) निकले हुए रहते हैं। इन पुच्छ तन्तुओं के द्वारा ही यह विषाणु, जीवाणुओं की बाह्य सतह पर बैठता है व इनके द्वारा स्रावित एन्जाइम्स (Enzymes) के द्वारा ही उसमें छेद करके अपना न्यूक्लिक अम्ल जीवाणु कोशिका के अन्दर डालता है।
एच आई वी Human Immunodeficiency Virus
सन् 1981 में अमेरिका में समलैंगिक (Homosexual) युवकों के एक ऐसे समूह का पता चला, जिन्हें हैरोइन (Heroin) और अन्य मादक पदार्थों के सेवन की आदत थी। इस समूह के सदस्यों को न्यूमोनिया (Pneumonia) और त्वचा कैंसर (Skin cancer-kaposis sarcoma) जैसे घातक रोग होने लगे थे। इसके कारणों की खोज करने पर पता चला कि इन युवकों में इन घातक रोगों के लिए आवश्यक प्रतिरक्षण क्षमता समाप्त हो चुकी थी। इस दशा को उपार्जित प्रतिरक्षा अपूर्णता संलक्षण (Acquired Immunodeficiency Syndrome or AIDS) का नाम दिया गया। सन् 1983 में लुक मोन्टेगनियर (Luc Montagnier) और सन् 1984 में रॉबर्ट गैलो (Robert Gallo) की खोजों से पता चला कि एक अज्ञात रेट्रोवाइरस या रेट्रोविषाणु (Retrovirus) श्रेणी के विषाणु के संक्रमण से ही इन लोगों में प्रतिरक्षण क्षमता समाप्त हो गई।
मई 1986 में विषाणु नामकरण की अन्तर्राष्ट्रीय समिति (International Committee of Virus Nomenclature or ICVN) ने इस विषाणु को मानव प्रतिरक्षा अपूर्णता विषाणु (Human Immunodeficiency Virus-HIV) का नाम दिया। रेट्रोविषाणु ऐसा घातक प्रकार का विषाणु होता है, जिनमें दोनों प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल (अर्थात् DNA एवं RNA) पाए जाते हैं तथा इनमें उपस्थित DNA अपनी प्रतिकृति RNA के माध्यम से बनाता है। इस क्रिया को विपरीत या रिवर्स ट्रांसक्रिप्सन (Reverse Transcription) कहते हैं, जिसे करने के लिए इस विषाणु में विशेष एन्जाइम (Enzyme) उपस्थित होता है। इस एन्जाइम का नाम रिवर्स या इनवर्स ट्रांसक्रिप्टेस (Reverse or Inverse Transcriptase) होता है।
रोग Disease
रोग शरीर की वह अवस्था है, जिसमें शरीर की कार्यिकी (Anatomy) सुचारू रूप से न चलकर कुछ या अधिक परिवर्तित हो जाती है अर्थात् “शरीर की स्वस्थ संरचनात्मक अथवा क्रियात्मक अवस्था में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होना रोग कहलाता है।’ स्वस्थ शरीर की यह रोगग्रस्त अवस्था विभिन्न कारकों से हो सकती है जैसे संक्रमण (Infections), जीवन यापन का गलत तरीका, व्यायाम की कमी, खान-पान की गलत आदतें, आराम की कमी, खान-पान में जरूरी पोषक तत्वों की कमी या कभी-कभी आनुवंशिक विकारों (Genetic disorders) से भी शरीर रोगग्रस्त हो सकता है।
रोगों के प्रकार Types of Diseases
रोगों को उनकी प्रकृति, उत्पन्नता और लक्षणों के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया गया है
(i) जन्मजात रोग (Congenital Diseases) वे रोग, जो जन्म से होते हैं, उन्हें जन्मजात रोग कहते हैं। ये रोग आनुवंशिक तथा पोषण की कमी के कारण हो सकते हैं; उदाहरण- हीमोफीलिया, रंजकहीनता, रतौंधी, डायबिटीज, आदि।
(ii) उपार्जित रोग (Acquired Diseases) वे रोग, जो शरीर में जन्म के पश्चात् उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपार्जित रोग कहते हैं। ये रोग विभिन्न कारणों जैसे-चोट लगना, संक्रमण होना अथवा पोषण की कमी से हो सकते हैं।
उपार्जित रोग पुनः दो प्रकार के होते हैं।
(a) संक्रामक या संचरणीय रोग (Infectious or Communicable Diseases) वह रोग, जिनके तात्कालिक कारण सूक्ष्मजीव (जीवाणु, विषाणु, कवक, आदि) होते हैं, उन्हें सक्रामक रोग कहते है। संक्रामक रोग एक रोगी व्यक्ति से दूसरे स्वस्थ व्यक्ति में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संचरित हो सकते हैं, उदाहरण-हैजा, मलेरिया, एड्स, जुकाम, चेचक, प्लेग, खसरा, डिपथीरिया, आदि। मनुष्यों में संक्रामक रोग मुख्यतया विषाणुओं, जीवाणुओं और कवक के द्वारा संचरित होते हैं।
(b) असंक्रामक या असंचरणीय रोग
(Non-infectious or non-communicable Diseases) वे रोग, जो एक रोगी व्यक्ति से दूसरे स्वस्थ व्यक्ति में संचरित नहीं होते, उन्हें असंक्रामक रोग कहते हैं। ऐसे रोगों का कारण व्यक्तियों में कुपोषण, हानिकारक पदार्थों का सेवन, आदि हो सकता है; उदाहरण- उच्च रुधिर चाप, क्वाशियोरकर, मैरेस्मस, एनीमिया, टायफॉइड, कैंसर, अदि ।
विषाणुजनित रोग Viral Diseases
मनुष्य में विषाणुओं द्वारा होने वाले रोगों में खसरा (Measles), चेचक (Smallpox), पोलियो (Polio), हेपेटाइ (Hepatitis), रेबीज (Rabies), गलसुआ (Mumps), डेंगू (Dengue), मस्तिष्क ज्वर (Encephalitis), कैंसर (Cancer), एड्स (AIDS), हरपीज (Herpes) एवं जुकाम या इन्फ्लुएन्जा (Cold or Influenza), आदि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण रोगों का वर्णन निम्नवत् हैं
1. रेबीज Rabies
यह रोग संक्रमित कुत्ते, बिल्ली, बन्दर, गीदड़, आदि किसी भी जन्तु के काटने से हो सकता है। इस रोग के विषाणु उक्त जानवरों की लार में पाए जाते हैं, जब यह संक्रमित जानवर मनुष्य को काटता है, तो विषाणु लार के माध्यम से मनुष्य के रुधिर में प्रवेश कर जाते हैं और उसे रोगग्रस्त कर देते हैं। इस रोग के विषाणु का नाम रैब्डोवाइरस (Rhabdovirus) है।
लक्षण Symptoms
इस रोग के लक्षण 1-3 माह पश्चात् दिखाई देते हैं। रेबीज के विषाणु का प्रत्यक्ष प्रभाव रोगी के केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (Central nervous system) पर होता है। सिरदर्द, तेज बुखार, छाती, गले की पेशियों में सूजन और ऐंठन इस रोग के लक्षण हैं। इनमें रोगी को बेचैनी होती है तथा दौरे पड़ने लगते हैं। रोगग्रस्त मनुष्य के गले में भयंकर पीड़ा होती है तथा वो कुछ भी निगलने की क्षमता नहीं रखता। अतः प्यास लगने पर भी पानी नहीं पी सकता। रोगी पानी से भी डरने लगता है। इसीलिए इस रोग को हाइड्रोफोबिया (Hydrophobia-Hydro-water; phobia-fear) भी कहते हैं। इस प्रकार अत्यन्त पीड़ा के बाद रोगी की मृत्यु हो जाती है।
रोकथाम Prevention
पालतू जानवर कुत्ता, बिल्ली, आदि को एण्टीरेबीज (Antirabies) का टीका लगाकर प्रतिरक्षण कराना चाहिए। संक्रमित जानवर अगर पागल हो चुका है, तो उसे मार देना चाहिए।
उपचार Treatment
रेबीज के संक्रमण के उपचार हेतु जन्तु द्वारा काटे गए स्थान को लाल दवा से धोना चाहिए। घाव में कार्बोलिक अम्ल, पोटैशियम परमैंगनेट का चूर्ण भर सकते है। रोगी को एण्टीरेबीज के पाँच टीके संक्रमित कुत्ते के काटने से 1, 3, 7, 14,30वें दिन लगवाने चाहिए। रेबीज का उपचार संक्रमित जानवर के काटने से हुए जख्म पर भी निर्भर करता है। जख्म यदि बड़ा हो, तो उपरोक्त टीकों के साथ एक ए आर एस (ARSAnti Rabies Serum) का इन्जेक्शन भी काटने के 24 घण्टे के भीतर लगवाना अतिआवश्यक हो जाता है।
नोट – रेबीजरोधी टीके का आविष्कार लुईस पाश्चर (Louis Pasteur) ने किया था।
2. पोलियो Polio
यह रोग पोलियोमाइलिटिस वाइरस (Poliomylitis virus) के कारण होता है, जो एक RNA विषाणु है। यह विषाणु संक्रमित भोजन, दूध तथा पेयजल के माध्यम से आहारनाल को संक्रमित करता है, जहाँ यह विषाणु आँत की कोशिकाओं में पहुँचकर स्वयं की संख्या में वृद्धि करता है। यहाँ से यह रुधिर कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है। रुधिर परिसंचरण के माध्यम से यह विषाणु अन्त में केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में पहुँच जाता है तथा तन्त्रिका तन्त्र की ऐसी कोशिकाएँ, जो शरीर की पेशियों की क्रियाओं को नियन्त्रित करती हैं, इसके द्वारा नष्ट होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप पेशियों पर तन्त्रिका तन्त्र का नियन्त्रण समाप्त होने लगता है और पेशियाँ सुचारु रूप से कार्य करना बन्द कर देती हैं। यह रोग बच्चों में अत्यन्त प्रभावी होता है। विशेषकर 6 महिने से 3 वर्ष तक की उम्र के शिशुओं को इस रोग से संक्रमित होने की सम्भावना अधिक होती है।
लक्षण Symptoms
इस रोग के प्रारम्भिक लक्षण बुखार, उल्टी, सिर और बदन में दर्द एवं गले की पेशियों का सख्त होना है। कभी-कभी शरीर की पेशियों में मरोड़ होने लगता है। और रोगी सुस्त हो जाते हैं। प्रारम्भिक लक्षणों के दिखाई देने के पश्चात् बच्चे के हाथ-पैर कमजोर दिखाई देने लगते हैं तथा वह उन्हें हिला नहीं पाता है अर्थात् पक्षाघात जैसी स्थिति बन जाती है। पक्षाघात का यह दौरा बुखार उतरने पर स्थाई हो जाता है। हाथों की अपेक्षा पैर इस रोग से ज्यादा प्रभावित होते हैं, जिसके फलस्वरूप रोगी ठीक से खड़े होने या चलने में असमर्थ हो जाते हैं।
रोकथाम Prevention
प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग से सुरक्षा के लिए स्वच्छ वातावरण के साथ व्यक्तिगत स्वच्छता भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः बच्चों को गन्दे स्थानों पर खेलने से रोकना चाहिए। उन्हें शुद्ध ताजा आहार खाने के लिए देना चाहिए।
उपचार Treatment
पोलियो का टीका लगवाना ही इस रोग से बचाव का एकमात्र उपाय है। बच्चों को जन्म के प्रथम वर्ष में एक-एक माह के अन्तराल से तीन बार पोलियो ड्रॉप्स पिलानी चाहिए। पोलियो का टीका ड्रॉप्स के रूप में दिया जाता है। WHO की मान्यतानुसार पोलियो भारत वर्ष से समाप्त हो चुका है। इसकी पूर्ण समाप्ति के लिए पोलियो ड्रॉप्स के साथ-साथ अब पोलियो का एक इन्जेक्शन वाला टीका भी लगाया जाता है।
3. यकृतशोथ या हिपेटाइटिस Hepatitis
यह रोग कई प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है। ये विषाणु जल द्वारा स्थानान्तरित होते हैं। इस रोग में यकृत में सूजन, दर्द, आदि विकार उत्पन्न होते हैं। निम्नलिखित प्रकार के यकृतशोथ विश्व में मुख्यतया पहचाने गए हैं।
(i) हिपेटाइटिस-A (Hepatitis-A) यह गम्भीर यकृत रोग है, जो हिपेटाइटिस- A विषाणु (Hepatitis – A Virus) or HAV द्वारा होता है, यह विषाणु एक पिकॉरनावाइरस (Picornavirus) है। इसके मुख्य लक्षण बुखार, अकड़ाहट और बेचैनी हैं तथा अन्य लक्षण भूख में कमी, पीलिया, रुधिर से पित्त का पृथक् होना तथा उसका मूत्र द्वारा विसर्जन, साथ ही दस्त तथा मटमेला रंग का मल होना है। टीकाकरण (Vaccination) एवं अच्छी साफ-सफाई द्वारा ही इसका बचाव सम्भव है।
(ii) हिपेटाइटिस B (Hepatitis-B) यह हिपेटाइटिस B विषाणु (HBV) द्वारा होता है, जो वीर्य (Sperm) एवं योनि (Vagina) तरल जैसे तरल पदार्थों द्वारा फैलता है, परन्तु यह लार (Saliva) व आँसू द्वारा नहीं फैलता। HBV का जीनोम गोल द्विकुण्डलित DNA का बना होता है, जो अपनी प्रतिकृति RNA माध्यमिक कारक द्वारा रिवर्स प्रतिलेखन (Reverse transcription) से बनाता है। टीकाकरण (Vaccination-3 महीनों में 3 डोज) द्वारा बचाव सम्भव है।
(iii) हिपेटाइटिस-C (Hepatitis-C) यह हिपेटाइटिस-C विषाणु (HCV) द्वारा होता है तथा रुधिरदान (Blood transfusion) द्वारा व रोगी व्यक्ति से सम्बन्ध होने पर फैलता है। इसका कोई टीका नहीं बना है। इसका केवल बचाव किया जा सकता है, इलाज नहीं ।
(iv) हिपेटाइटिस-D (Hepatitis-D) यह मुख्यतया अवैधानिक ड्रग्स का इन्जेक्शन लेने वाले व्यक्तियों में ही संक्रमित होता है। साथ ही यह विषाणु हिपेटाइटिस-B संक्रमित व्यक्तियों में ही प्रभावी होता है।
(v) हिपेटाइटिस-E (Hepatitis-E) यह केवल दूषित जल द्वारा ही संक्रमित होता है।
लक्षण Symptoms
विभिन्न प्रकार के हिपेटाइटिस के लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं, परन्तु यकृत (Liver) में सूजन आने से भूख न लगना, वमन के साथ तेज बुखार, जी मिचलाना, सिरदर्द, जोड़ों में दर्द, आदि इस रोग के सामान्य लक्षण हैं, जो सभी प्रकार के हिपेटाइटिस में प्रकट होते हैं। संक्रमण के 3-10 दिनों के बाद मूत्र गहरे पीले रंग का व मल हल्के रंग का होने लगता है।।
रोकथाम Prevention
संक्रमण से सुरक्षा के लिए पेयजल आयोनाइज्ड और UV किरणों से उपचारित पेयजल देना चाहिए। रोगी के वस्त्र, बिछौने, बर्तन, आदि को समय-समय पर निःसंक्रमित करते रहना चाहिए।
उपचार Treatment
हिपेटाइटिस-B में एन्जीरीक्स-B एवं शैन-वैक-B का टीका लगवाना चाहिए। इन्टरफेरॉन (Interferon) की सूई रोग के नियन्त्रण में सहायक है। यकृत को आराम देने के लिए उच्च कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन का अल्प मात्रा में उपयोग करना चाहिए। वसायुक्त, प्रोटीनयुक्त एवं मिर्च-मसालायुक्त भोजन का सर्वथा त्याग करना चाहिए। रोगी को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए।
◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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