निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण – अर्थ,परिभाषा | Diagnostic and Remedial Teaching in hindi – दोस्तों सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा में शिक्षण कौशल 10 अंक का पूछा जाता है। शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है। यह विषय बीटीसी बीएड में भी शामिल है। आज हम इसी विषय के समस्त टॉपिक को पढ़ेगे। बीटीसी, बीएड,यूपीटेट, सुपरटेट की परीक्षाओं में इस टॉपिक से जरूर प्रश्न आता है।
अतः इसकी महत्ता को देखते हुए hindiamrit.com आपके लिए निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण – अर्थ,परिभाषा | Diagnostic and Remedial Teaching in hindi लेकर आया है।
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निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण – अर्थ,परिभाषा | Diagnostic and Remedial Teaching in hindi
Diagnostic and Remedial Teaching in hindi | निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण – अर्थ,परिभाषा
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निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण
(Diagnostic and Remedial Teaching)
निदान का अर्थ (Meaning of Diagnosis)
शिक्षा में निदान का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा शिक्षा सम्बन्धी कमजोरियों तथा कठिनाइयों के मूल कारण और प्रकृति का निर्णय लिया जाता है ।
एस. के, अग्रवाल के शब्दों में, “जब कोई रोगी उपचार के लिए डॉक्टर के पास जाता है तो डॉक्टर पहले उसके शरीर की परीक्षा करके रोग के कारण मालूम करता है । तत्पश्चात् रोग को दूर करने के लिए उपचार करता है । इस क्रिया को निदान कहते हैं। डॉक्टर की भाँति अध्यापक भी जब देखता है कि बालक का वचन त्रुटिपूर्ण है, वह पढ़ने में अटकटता है, वह गणित के प्रश्न नहीं कर पाता अथवा ज्ञान प्राप्ति में कोई अन्य कठिनाई तो है तो वह भी इन दोषों के कारणों का पता लगाता है। दूसरे शब्दों में वह छात्र किसी भी विषय की कमजोरी अथवा कमी या पिछड़ेपन का निदान करता है। निदान करने के पश्चात् वह विविध उपचारिक विधियों की सहायता से बालक के पिछड़ेपन या कमजोरी को दूर करता है।”
विद्यार्थियों को सीखने सम्बन्धी कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया में शैक्षणिक निदान (Educational Diagnosis) और इन कठिनाइयों को दूर करते शिक्षण करने को उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching) कहते हैं। शिक्षक पहले निदानात्मक शिक्षण के द्वारा शिक्षार्थियों की कठिनाइयों का निदान करते हैं । तदुपरान्त वे उनको अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों से मुक्त करने के लिए
उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोग करते हैं।
योकम एवं सिम्पसन के अनुसार-“उपचारात्मक शिक्षण उचित रूप से निदानात्मक शिक्षण के बाद आता है।”
निदानात्मक शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Diagnostic Teaching)
डॉयगनोसिस (Diagnosis) का हिन्दी रूपान्तरण है, ‘निदान’ जिसका शाब्दिक अर्थ है मूल कारण अथवा रोग-निर्णय । जिस प्रकार एक चिकित्सक रोगी के लक्षणों को देखकर, उसके रोग का निदान करता है, उसी प्रकार शिक्षक-छात्र की विषयगत मन्दता, पिछड़ेपन या उसकी अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों और कमियों का ज्ञान प्राप्त कर उसकी कठिनाइयों का निदान करता है।
हमारी परम्परागत शिक्षण-विधि अध्यापक और विषय प्रधान है । इसमें अध्यापक विभिन्न विषयों का ज्ञान छात्रों को कराता है । छात्रों का कर्त्तव्य है कि इस विषय को पढ़ें, समझें और याद करें । यदि छात्र विषय को पढ़ने या याद करने में असमर्थ होते हैं तो उसे उनका अपराध समझा जाता है और उन्हें दण्ड दिया जाता है ।
दण्ड ही छात्रों की एकमात्र दवा या चिकित्सा मानी जाती है । किन्तु अब शिक्षण का वह रूप बदल चुका है । आधुनिक शिक्षण बालक को प्रधानता देता है । इसके अनुसार शिक्षण बालक की रुचि, योग्यता यानी बाल-मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए । इसकी सफलता के लिए ‘बालक का अध्ययन’ आवश्यक है । बालक के अध्ययन के अन्दर इसकी रुचि, योग्यता, दृष्टिकोण और अभिवृत्ति का अध्ययन ही नहीं अपितु उसकी समस्याओं एवं दोषों का अध्ययन करना भी है ।
निदानात्मक शिक्षण का अर्थ
किसी भी विषय को पढ़ने, समझने एवं किसी भी क्रिया को क्रियान्वित करने में बालक द्वारा प्रदर्शित कमी या कमजोरी के भी कारण हो सकते हैं। अध्यापक का काम इसके लिए बालक को मात्र दण्ड देना ही नहीं है बल्कि इनका पता लगाना भी है । इस कार्य को निदानात्मक शिक्षण की संज्ञा दी जाती है ।
इसी तरह शिक्षण के तीन रूप हो जाते हैं-
(1) शिक्षा देना।
(2) बालक के अन्दर आये दोषों का पता लगाना (निदानात्मक)।
(3) और उन दोषों को दूर करना (औपचारिक या चिकित्सात्मक)।
इस तरह निदानात्मक शिक्षण का अर्थ है बालक में आये शिक्षा सम्बन्धी दोषों का पता लगाना और उनके कारणों को ढूँढ़ना । यानी शैक्षणिक निदान वह प्रक्रिया है जिसमें लक्षणों के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में आयी हुई बालकों की कठिनाइयों को सुधारने की दृष्टि से पता लगाया जाता है।
इन कठिनाइयों का पता लगाने के लिए तथ्यों का संग्रह करना पड़ता है । तथ्यों का संग्रह अनेक साधनों एवं विधियों के द्वारा होता है । साधारण निरीक्षण से लेकर असाधारण परीक्षण तक करना पड़ता है। जैसे रोगी का रोग का पता लगाने के लिए अनेक साधनों (वैज्ञानिक उपकरणों) एवं ढंगों का प्रयोग होता है तथा कभी-कभी साधारण निरीक्षण से काम हो जाता है।
परिभाषाएँ (Definitions)
गुड के अनुसार, “निदान का अर्थ है-अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण।”
योकम एवं सिम्पसन के अनुसार, “निदान किसी कठिनाई का उसके चिन्हों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला या कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।”
शिक्षा के पिछड़ेपन के कारण शिक्षा में पिछड़ेपन के कई कारण हो सकते हैं। मुख्य रूप से दो कारण हैं (1) आन्तरिक कारण, और (2) बाह्य कारण । आन्तरिक कारण बालक से सम्बन्धित होते हैं और बाह्य कारण वातावरण से सम्बन्धित होते हैं ।
शिक्षा में पिछड़ेपन का कारण
नीचे की पंक्तियों में हम इन दोनों पर विचार करेंगे-
(1) आन्तरिक कारण (Internal Causes)-इनको दो भागों में बाँटा गया है-
(क) शारीरिक कारण-जैसे कम सुनना, हकलाना, दृष्टि-दोष, अस्वस्थता, शक्ति की कमी आदि ।
(ख) मानसिक कारण-जैसे-बुद्धि की कमी, रुचि का अभाव, संवेगात्मक तनाव, क्रोधी, झेंपू, हीन भावना ग्रस्तता, अन्तर्मुखी होना आदि ।
(2) बाह्य कारण (External Causes)—इनको तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) घरेलू कारण-जैसे—घर में काम की अधिकता, सौतली माँ और बाप का व्यवहार, खाने-पीने की कमी, पढ़ने की असुविधा।
(ख) विद्यालयी कारण विद्यालय का दूषित वातावरण, साधन और सुविधाओं की कमी, उपस्थिति की कमी, त्रुटिपूर्ण शिक्षण शिक्षकों में असन्तोष ।
(ग) सामाजिक कारण सामाजिक दुर्व्यवस्था, बुरा पड़ौस, बुरी संगति, भौतिक सुविधाओं का अभाव । इस विषय पर सेरीलबर्ट की शोधपूर्ण पुस्तक आगे की कक्षा में पठनीय है।
शैक्षणिक निदान का उद्देश्य-निदानात्मक शिक्षण का प्रमुख प्रयोजन बालकों की कठिनाइयों का पता लगाना और उसके उपचार की व्याख्या करता है।
डॉ. एल. मुकर्जी ने लिखा है-“जो भी कारण हो, शीघ्र निदान जरूरी होता है । वह बुरी आदतों का बनना बन्द करता है और विशिष्ट समस्याओं को निम्न स्तर पर ला देता है । यह अध्यापक और कभी-कभी छात्र को उस क्षेत्र विशेष के लिए सचेत कर देता है जिसमें दोष रहता है और यह उपचार की ओर एक लम्बा कदम है।
निदानात्मक शिक्षण का महत्त्व
निदानात्मक शिक्षण का महत्त्व निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है-
(1) निदानात्मक विधि से छात्र और अध्यापक दोषों या कठिनाइयों को जान जाते हैं और फिर उसे बढ़ने नहीं देते।
(2) इससे बालकों में बुरी आदतों का बनना बन्द हो जाता है।
(3) निदान के आधार पर ही उपचार की व्यवस्था होती है यानी निदान के बिना उपचार सम्भव नहीं।
(4) शिक्षण की सफलता के लिए निदान आवश्यक होता है।
(5) छात्रों के विषय में अध्यापकों के अनुभव में वृद्धि होती है।
(6) छात्रों को कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।
निदानात्मक शिक्षण विधि का कार्य क्षेत्र
निदानात्मक शिक्षण विधि वैसे सभी विषयों के लिए जरूरी है मुख्य रूप से — (1) वाचन, (2) अभाव विन्यास, (3) लेखन, (4) व्याकरण, (5) गणित के शिक्षण के लिए विशेष उपयोगी है।
छोटी कक्षाओं में उपरोक्त विषयों के शिक्षण पर ही जोर दिया जाता है। आगे चलकर छात्र इन्हीं के आधार पर अन्य विषयों की शिक्षा प्राप्त करते हैं । प्रारम्भिक स्तर पर आयी गड़बड़ियाँ ही आगे की शिक्षा को प्रभावित करती हैं इसलिए इसी स्तर पर इसका निदान कर उपचार कर देना चाहिए । इस विधि का कार्यक्षेत्र बढ़ता जा रहा है।
निदानात्मक शिक्षण के साधन-विशेष अनुसन्धानों के द्वारा पता चल गया है कि व्यक्तित्व सम्बन्धी तत्व, सामाजिक वातावरण का प्रभाव तथा निकृष्ट अध्ययन इन सबसे बालकों की शिक्षण सम्बन्धी कठिनाइयों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । परीक्षणों के आधार
पर ही इन सबका पालन नहीं हो सकता ।
निदानात्मक शिक्षण विधि के कार्य क्षेत्र के साधन
इनके लिए निम्नलिखित साधनों को भी प्रयोग में लाना होगा-
(1) निरीक्षण (Observation),
(2) साक्षात्कार (Interview),
(3) संचित अभिलेख (Comulative Records)|
निरीक्षण में छात्रों के व्यवहारों का निरीक्षण किया जाता है। कार्य करने से बालकों के बीच रहने पर अध्यापक उनका निरीक्षण कर सकता है । इस निरीक्षण से भी अनेक कारणों का पता लगा सकता है। कभी-कभी बालक के बैठने तथा कलम पकड़ने का ढंग से भी उसकी लिखावट पर असर पड़ता है । अध्यापक निरीक्षण द्वारा कारण का पता लगा सकता है।
साक्षात्कार से बालक की कठिनाइयों का पता लग सकता है । इसके लिए अध्यापक को बालक से आत्मीयता प्राप्त करनी होगी, ताकि वह उसे खुलकर बात कर सके और तथ्यों को छिपाने का प्रयास न करे।
संचित अभिलेख में छात्रों की दिन-प्रतिदिन या वार्षिक प्रगति का लेखा होता है। इसके अवलोकन से उसकी परम्परा का पता लग सकता है।
निदानात्मक शिक्षण और निरीक्षण–परीक्षण से भी निदानात्मक शिक्षण में सहायता मिलती है ।
विद्यालयों में समय-समय पर होने वाली परीक्षाओं से बालक की कमजोरियों का पता लग जाता है । इस कमजोरी के कई कारण हो सकते हैं; जैसे अध्यापक को अध्यापन विधि, समय सारिणी में विषय पढ़ाने का समय प्रयुक्त होने वाले साधन या स्थान आदि । इन कारणों का पता कक्षा स्तर से मालूम होगा । यह सामान्य रूप से सभी छात्रों की स्थिति किस विषय में कमजोर हो तो कारण भी सामान्य होगा । यदि बालक विशेष के साथ वह देखी जाती है, तो इसका कारण केवल बालक विशेष से श्याम नये दृष्टान्त सम्बन्धित होगा।
उपचारिक या निवारणात्मक शिक्षण का अर्थ
उपचार शब्द चिकित्साशास्त्र की देन है । उपचार ऐसे रोगों या शारीरिक दोषों का होता है जो व्यक्ति की स्वास्थ्य प्रगति में बाधक होते हैं । रोगों के उपचार में केवल रोगी की दवा ही नहीं खिलायी जाती बल्कि
उसके खान-पान, रहन-सहन और चतुर्दिक वातावरण में भी आवश्यक परिवर्तन लाया जाता है । ठीक इसी तरह औपचारिक शिक्षा में भी छात्रों की कठिनाइयों का पता लगाकर उन्हें दूर करने का दोहरा प्रयास-निषेधात्मक एवं निश्चयात्मक कहा जाता है।
इसका उद्देश्य-वैसे इस विधि का लक्ष्य छात्रों की शिक्षण सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर कर उन्हें सामान्य स्थिति में लाना है ताकि वे सामान्य छात्रों की तरह प्रगति कर सकें।
इसके निम्नलिखित लक्ष्य हो सकते हैं-
(1) छात्रों की मानसिक उलझनों को समाप्त करना ।
(2) विकास बाधा स्वरूप उपस्थित होने वाली कठिनाइयों का निराकरण ।
(3) बुरी आदतों को दूर करना एवं अच्छी आदतें डालना ।
(4) छात्रों के व्यक्तित्व के विकास का प्रोत्साहन करना।
(5) छात्रों के चरित्र एवं मनोबल को ऊँचा करना या उठना ।
इसकी पद्धतियाँ-अच्छा उपचार कक्षा के भीतर हो सकता है, पर विशेष परिस्थिति में कक्षा के बाहर भी सम्भव है ।
उपचार के लिए अध्यापक को छात्रों से निकट सम्पर्क या आत्मीयता पैदा करनी होगी। वह उन्हें विश्वास दिलाकर ही उनका उपचार कर सकता है । किसी छात्र के अशुद्ध उच्चारण करने के मनोवैज्ञानिक कारणों का उपचार कक्षा के भीतर कर सकता है, पर नेत्र दोष जैसी कठिनाइयों के लिए चिकित्सक की सहायता लेनी होगी।
शैक्षणिक उपचार की विधियाँ
(1) पुरानी पद्धति—अभ्यास के द्वारा दोषों को दूर करना । वैदिक काल में हमारे यहाँ वाचन सम्बन्धी दोषों को अभ्यास के द्वारा किया जाता था।
(2) सामूहिक निराकरण-जहाँ कक्षा में सभी छात्र त्रुटि करते हैं, वहाँ कक्षा के अन्दर सामूहिक रूप से उनको दूर किया सकता है।
(3) उपचार गृह-इसमें छात्र को कक्षा के बाहर किसी अनुकूल (मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से) वातावरण में रखकर जो उपचार की दृष्टि से बना होता है, उपचार किया जा सकता है
(4) व्यक्तिगत रूप से छात्रों का उपचार-इस विधि का प्रयोग व्यक्तिगत छात्र के सुधार के लिए किया जाता है।
(5) व्यक्तिगत भेदों के आधार पर व्यक्तिगत भेदों के आधार पर छात्रों का वर्गीकरण करके उनका उपचार किया जाता है।
उपचारात्मक शिक्षण की सफलता की जाँच
उपचारात्मक शिक्षण की सफलता निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है-
(1) बालक के स्वानुभव पर–बालक को स्वयं अनुभव होने लगता है कि उसकी कठिनाई कहाँ तक दूर हुई।
(2) समायोजन पर यदि बालक उस वातावरण में जिसमें सम्बन्धित कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया गया है, समायोजन कर लेता है।
(3) अशुद्धियों में कमी होने पर निरीक्षण एवं परीक्षण के द्वारा इसका पता लगाया जा सकता है।
निरोध का उपाय निरोध के उपायों के लिए निम्नलिखित बातों की व्यवस्था की जाती है ।
(1) शैक्षणिक उपकरणों की जाँच कर उनमें सुधार किया जा सकता है।
(2) शिक्षण विधियों का अनुकूल बनाने का प्रयास किया जा सकता है ।
(3) शैक्षणिक वातावरण में अनुकूल परिवर्तन किया जाता है ।
(4) कभी-कभी परीक्षा विधि की गलती या कमी के कारण मूल्यांकन ठीक से नहीं हो पाता इसलिए छात्र में कमी न होते हुए भी कमी दिखायी देती है । इसलिए परीक्षा विधि को विश्वसनीय बनाया जाना चाहिए ताकि उसके परिणामों पर विश्वास किया जा सके।
(5) छात्रों की शारीरिक एवं मानसिक अवस्था की जाँच करते रहना चाहिए। उपचारात्मक शिक्षण के क्षेत्र-अभी इस विधि का प्रयोग कुछ ही विषयों के लिए किया गया है, पर इस क्षेत्र में विकास किया जा रहा है। शीघ्र ही सभी विषयों के लिए इसका प्रयोग हो सकेगा। फिर भी निम्नलिखित क्षेत्र में यह विधि विशेष उपयोगी है।
(1) लेखन
(क) कलम ठीक ढंग से पकड़ना।
(ख) बैठने का ढंग ठीक करना।
(ग) अक्षरों की बनावट पर ध्यान देना ।
(घ) अक्षर विन्यास को ठीक करना।
(2) वाचन
(क) शब्दों एवं अक्षरों को पहचानना ।
(ख) उनके उच्चारण का ज्ञान रखना।
(ग) विराम चिन्हों पर ध्यान रखना।
(घ) नेत्रों को ठीक ढंग से चलाना।
निदानात्मक शिक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण से लाभ
1. छात्रों की दुर्बलता और उनकी कठिनाइयों का पता लग जाता है।
2. छात्रों की सीखने सम्बन्धी सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं।
3. उनकी शक्ति को उचित दिशा की ओर मोड़ दिया जाता है।
4. शिक्षण की प्रक्रिया प्रभावशाली हो जाती है।
5. शिक्षक अपने व्यवहार में परिवर्तन लाता है।
6. वह अपनी मनोवृत्ति को बदल देता है।
7. भविष्य में होने वाली त्रुटियों से छात्र बच जाते हैं।
8. छात्रों का उचित अनुकूलन होता है।
9. एक अच्छे समाज का निर्माण होता है।
10. बालक कुसमायोजन से बच जाते हैं।
अतः उपचारात्मक शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण सुधार है। इससे बालकों के सीखने सम्बन्धी मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का निवारण होता है । बालक की प्रगति सुगम हो जाती है । बालकों में कार्य के प्रति निष्ठा जाग्रत होती है। यह सामान्य शिक्षण से अधिक फलदायी है।
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