बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर फ्रॉबेल का शिक्षा दर्शन | फ्रॉबेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
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फ्रॉबेल का शिक्षा दर्शन | फ्रॉबेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां
फ्रेडरिक फ्रॉबेल का शिक्षा दर्शन | फ्रॉबेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां
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फ्रेडरिक फ्रॉबेल का जीवन परिचय (1782-1852)
फ्रॉबेल का जन्म दक्षिणी जर्मनी के ओवरवीसपवास 21 अप्रैल, सन् 1782 में हुआ। था। फ्रॉबेल जब नौ माह का था तब ही उसकी माँ का देहान्त हो गया। उसका पिता पादरी था। पिता की उपेक्षा ने फ्रॉबेल को आत्म-निष्ठ बना दिया था। पढ़ायी में वह एक अच्छा विद्यार्थी न बन सका। 15 वर्ष की आयु में उसे एक वन रक्षक के साथ कार्य करने का अवसर मिला, परन्तु उसे भी छोड़ दिया। उसे प्रकृति से प्रेम हो गया। सत्रह वर्ष की आयु में उसने अपने भाई के साथ जैना विश्वविद्यालय में प्रवेश पा लिया, लेकिन धन के अभाव में, वह वहाँ भी अध्ययन न कर सका। सन् 1813 में वह सेना में भर्ती हो गया।
पुन: सन् 1814 में वह खनिज विज्ञान के अध्यापक पद पर बर्लिन म्यूजियम में नियुक्त हो गया। धीरे-धीरे वह मेधावी होने की प्रामाणिकता प्राप्त करने लगा। सन् 1817 में कीलहाऊ (Keilhau) में उसने एक विद्यालय की स्थापना की। सन् 1826 में विल्हेमिन होफ सिस्टर नामक युवती से उसने विवाह रचाया। उसकी पत्नी धनवान थी। अत: धन का अभाव कम होता गया, उसकी पत्नी बीमार रहने लगी। इसी बीच उसने मनुष्य की शिक्षा पर एक पुस्तक लिखी। बाद में वह कीलहाऊ से जर्मनी वापस लौट आया और विद्यालय से पूर्व की शिक्षा पर कार्य करने लगा। सन् 1837 में उन्होंने किण्डरगार्टन की स्थापना की। सम्पूर्ण जीवन उसने किण्डरगार्टन में व्यतीत किया। वर्ष 1852 में उसका देहावसान हो गया। मृत्यु के समय उनकी आयु 70 वर्ष थी।
फ्रॉबेल के दार्शनिक सिद्धान्त
Philosophical Principles of Froebel
फ्रॉबेल काण्ट, फिक्टे, शैलिंग तथा हीगल आदि आत्मवादी दार्शनिकों से प्रभावित है। फ्रॉबेल का अध्ययन ब्रह्माण्ड विकास को समझने के उद्देश्य से प्रेरित है। फ्रॉबेल पर कमेनियस, तथा पेस्टालॉजी का भी प्रभाव है। फ्रॉबेल ने प्रमुखतया इस बात का निरीक्षण अति ध्यान से किया कि उत्पादक क्रियाएँ कितनी सजग होती हैं। बालक उत्पादन करते समय किन आत्म-प्रेरित विधियों का प्रयोग करते हैं। फ्रॉबेल बालकों पर अध्ययन का अत्यन्त जिज्ञासु विचारक था। इसीलिये एरोवुड ने लिखा है, “सत्य तो यह है कि इस कथन के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है कि फ्रॉबेल शिक्षा जगत् के अत्यधिक मोलिक एवं वैज्ञानिक सुधारक हैं।”
फ्रॉबेल के दार्शनिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. एकता का सिद्धान्त
फ्रॉबेल एकता के सिद्धान्त को मानता है, उसके
अनुसार एकीकरण के बिना किसी कार्य का निर्माण एवं संरचना सम्भव नहीं है। अतः शिक्षा स्वयं के एकीकरण का सूक्ष्म स्वरूप है। सम्पूर्ण ज्ञान एकता पर आधारित है, जहाँ एकता नहीं, वहाँ अज्ञानता है, अन्धकार है। अत: शिक्षा का प्रथम सिद्धान्त एकतामयी होना है।
2.विकास का सिद्धान्त
फ्रॉबेल के अनुसार विकास जीवन की प्रथम आवश्यकता है, अतः विकास का सिद्धान्त एकता के बाद तत्पर सामने दिखायी देता है। समस्त सृष्टि में एकता है और इसीलिये विकास है। प्रत्येक जीवधारी क्रियाशील है और क्रियाशीलता ही विकास की जनक है। फ्रॉबेल के अनुसार सम्पूर्ण मानवीय जीवन गत्यात्मक (Dynamic) है। फ्रॉबेल के अनुसार विकास मनुष्य की आत्म-प्रेरित अनिवार्य क्रिया है, यह सदैव मनुष्य में अन्त तक चलती रहती फ्रॉबेल के शब्दों में-“इस निराधारा भ्रम को कि मनुष्य क्रियाशीलता एवं उत्पादन करने वाला इसीलिये है जिससे वह अपने को जीवित रख सके, भोजन पाकर, कपड़े और आवास ले सके। यह तो सहन किया जा सकता है, किन्तु इस भ्रम का प्रचार नहीं करना चाहिये।” फ्रॉबेल मनुष्य को प्रकृति (ईश्वर) का वाहक मानता है, अर्थात मनुष्य ईश्वर के कार्यों का दूत या सेवक मात्र है।
फ्रॉबेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
फ्रॉवेल के अनुसार जीवन की पूर्णता, संस्कृति की पूर्णता तथा बहुमुखी विकास एवं जीवन और प्रकृति के सभी अंगों में व्याप्त सामंजस्य का बोध कराना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। फ्रॉबेल के अनुसार ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त है। अतः ईश्वर का ज्ञान जो सभी प्राणियों में प्रविष्ट है, शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये। चूँकि प्रकृति (ईश्वर) एकता की प्रतीक है। अत: इस एकता का ज्ञान कराना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये। उद्देश्य का दूसरा पक्ष बालक की संकल्प शक्ति को विकसित करने का है। संकल्प द्वारा चरित्र गठन होता है। इसीलिये विद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य संकल्प विकास होना चाहिये। अत: फ्रॉबेल बालक की अन्तःसंकल्प शक्ति को विकसित करने के पक्ष को शिक्षा का उद्देश्य मानता है। वह चरित्र-निर्माण को भी शिक्षा का उद्देश्य मानता है।
फ्रॉबेल की शिक्षण पद्धति
फ्रॉबेल की शिक्षण पद्धति बालक के विकास की प्रक्रिया से सम्बद्ध है। शिक्षक को तो मात्र बालक (अधिगमकर्ता) को उत्तेजित करना है, उस पर दृष्टि रखनी है, उसका निरीक्षण करना है। छात्र स्वयं उत्तेजित होकर स्व-क्रिया करने लगेगा। उसके अनुसार बालक प्रकृति प्रेमी होते हैं, आत्म-प्रेरित होते हैं तथा विकासशील होते हैं। अतः उन्हें उत्तेजित करने की आवश्यकता है। शिक्षण पद्धतियों के रूप में फ्रॉबेल ने तीन प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख किया है-
1.आवृत्ति आत्मक क्रियाएँ
सह क्रियाएँ बालक के अवयवों का विकास करती हैं। ध्वनिपूर्ण क्रियाएँ बालकों की श्रवणेन्द्रियों का विकास करती हैं। फ्रॉबेल शरीर की सभी इन्द्रियों के विकास के पक्षधर हैं।
2. वस्तुओं के प्रयोग द्वारा शिक्षण प्रक्रिया
फ्रॉबेल बालकों को वस्तुओं के प्रयोग द्वारा शिक्षण का समर्थक है। फ्रॉबेल के उपहार (Gifts) बालकों को शिक्षण हेतु तीव्रतर स्थिति में ले जाते हैं। उपहारों का उपयोग ठीक समय तथा उपयुक्त परिस्थिति में होना चाहिये।
फ्रॉबेल के शिक्षण के उपहार तीन प्रकार के हैं – (1) गोला (Sphere), (2) घन (Cube), (3) बेलनाकार (Cylender) । फ्रॉबेल इन तीनों आकारों को सृष्टि का सृजन मानता है। गोले के रूप में फ्रॉबेल गेंद का प्रयोग करते हैं। वे गेंद को शिक्षण के लिये सर्वाधिक उत्तम मानते हैं। रस्सी में लटकाकर, रंगकर, ऊन तथा मखमल चढ़ाकर विभिन्न प्रकार से गेंद को उपयोगी तथा आकर्षक बनाया जा सकता है। गेंद से विभिन्न उदाहरण देकर शिक्षण कार्य कुशलता से हो सकता है। इसी प्रकार ठोस गोलों, घनों, बेलनों आदि से भी विभिन्न प्रकार के गणित, बीजगणित तथा रेखागणित का शिक्षण बालकों को दिया जा सकता है।
3. बालकों के प्रिय व्यापार तथा कार्य द्वारा शिक्षण
फ्रॉबेल के अनुसार, बालकों के रुचिपूर्ण व्यापार मिट्टी के मॉडल बनाना, कागज काटना, चित्र रंगना, बालू के घरोंदे बनाना, ड्राइंग बनाना, सिलाई, कढ़ाई, कताई-बुनाई तथा हाथ के रोचक कार्य हैं। बालकों के यह प्रिय व्यापार तथा कार्य कहलाते हैं। इनसे बालक शीघ्र सीखते हैं।
4.खेल क्रिया द्वारा शिक्षण
फ्रेडरिक फ्रॉबेल सभी खेलों को बालकों के शिक्षण हेतु सर्वाधिक प्रमुख मानता है। उसके अनुसार खेल एक आत्म-प्रेरित क्रिया है। वह खेलों को विकास की दृष्टि से तीन काल में बाँटता है-(1) शैशवावस्था की खेल क्रियाओं में-मातृ-खेल, शिशु-गीत, श्रवण क्रियाएँ, दृष्टिपूर्ण क्रियाएँ आदि। (2) बाल्यावस्था की क्रियाओं में-संगीत तथा बाल व्यापार (उपहारों से युक्त) क्रियाएँ आती हैं। (3) किशोरावस्था की क्रियाओं में-संकल्प दृढ़ता की क्रियाएँ, सामाजिक क्रियाएँ, सामूहिक क्रियाएँ (खेलकूद), कहानी तथा कथाएँ सुनना-सुनाना, प्रकृति के अध्ययन हेतु देशाटन तथा गणित, ज्यामिति, ड्राइंग आदि की क्रियाएँ सम्मिलित हैं।
फ्रॉबेल के अनुसार पाठ्यक्रम
फ्रेडरिक फ्रॉबेल के अनुसार सीखने में उत्पादन का तत्व होना अनिवार्य है। वह सीखना निरर्थक है, जिसमें उत्पादन नहीं होता हो। उसके अनुसार सीखने का अर्थ है – (1) आदतें सीखना, (2) कौशल सीखना, (3) आदर्श चरित्र । सीखना अर्थात् कुशल सीखना वह है, जिसमें उत्पादन निहित हो। फ्रॉबेल का पाठ्यक्रम-धर्म, प्राकृतिक, विज्ञान, भाषा, गणित, कला एवं उद्यान विज्ञान, कृषि आदि से सम्बन्धित है। फ्रॉबेल इन विषयों को शिक्षा में स्थान देने का पक्ष लेता है। प्रारम्भिक कक्षाओं में वह संगीत को उपयोगी मानता है। पाठ्यक्रम में विषय के अतिरिक्त वे शारीरिक क्रियाओं को भी महत्व देता है।
फ्रॉबेल के अनुसार अनुशासन
फ्रेडरिक फ्रॉबेल दमनात्मक अनुशासन का विरोधी था। उसका विचार था कि आत्म-क्रिया तथा आत्म-नियन्त्रण के द्वारा बालक में स्वयं ही अनुशासन में रहने की आदत पड़ जायेगी। सक्के मतानुसार शिक्षक को बालक के साथ प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिये तथा उसे क्रिया करने के पूर्ण अवसर प्रदान करने चाहिये।
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