दोस्तों हमारा आज का टॉपिक करुण रस की परिभाषा और उदाहरण | karun ras in hindi | करुण रस के उदाहरण है। हमे अनेक परीक्षाओं में रसों से संबंधित प्रश्न आते हैं,जिनमे रस के उदाहरण या उदाहरण देकर रस का नाम पूछा जाता है। इसलिए hindiamrit.com आज आपको इस टॉपिक की विधिवत जानकारी देगा।
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करुण रस की परिभाषा और उदाहरण | karun ras in hindi | करुण रस के उदाहरण
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करुण रस की परिभाषा और उदाहरण | karun ras in hindi | करुण रस के उदाहरण
हमने आपको इस टॉपिक में क्या क्या पढ़ाया है?
(1) करुण रस की परिभाषा
(2) करुण रस के उदाहरण स्पष्टीकरण सहित
(3) करुण रस के अन्य उदाहरण
(4) करुण रस के परीक्षा उपयोगी प्रश्न
करुण रस की परिभाषा | करुण रस किसे कहते हैं
प्रिय वस्तु या इष्ट वस्तु के नाश से जो क्षोभ होता है, उसे शोक कहते हैं। यही शोक नामक स्थायी भाव ज़ब विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस रूप में परिणत होता है, उसे करुण रस कहते हैं।
उदाहरण
अर्ध राति गयी कपि नहिं आवा। राम उठाइ अनुज उर लावा ॥
सकइ न दृखित देखि मोहि काऊ। बन्धु सदा तव मृदृल स्वभाऊ ॥
जो जनतेऊँ वन बन्धु विछोहु। पिता वचन मनतेऊँ नहिं ओहु॥
स्पष्टीकरण-
इस पद्य में करुण रस है । रस सामग्री इस प्रकार है –
स्थायी भाव – शोक
आश्रय – राम
उद्दीपन – लक्ष्मण का मूर्चछित शरीर ,रात का सुनसान समय।
आलम्बन – लक्ष्मण
अनुभाव – लक्ष्मण को उठाकर गले लगाना, अश्रु, स्वर भंग आदि।
व्यभिचारी-भाव – आवेग, चिन्ता, विषाद आदि।
रस – करुण
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करुण रस के अन्य उदाहरण | करुण रस के आसान उदाहरण
(1) तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे ।
(2) हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
(3) हा ! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा ।
(4) अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका?
संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका ।
(5) उसके आशय की थाह मिलेगी किसको?
जनकर जननी ही जान न पायी जिसको?
(6) यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को ।
चौंके सब सुनकर अटल केकयी-स्वर को
(7) विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली !
★ रस के अंग – विभाव,अनुभाव,संचारी भाव,स्थायी भाव आदि पढ़िये इसे टच करके।।
करुण रस के परीक्षा उपयोगी प्रश्न
(1) चिर सजग ऑँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना !
जाग तुझको दूर जाना !
(2) टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।
(3) उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर,
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर ।
(4) वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा गँभीर नीरनिधि जैसी ।
(5) हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”,
सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।
(6) मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?
(7) प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा,
रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा !
(8) मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नव जीवन-अंकुर बन निकली !
(9) पथ को न मलिन करता आना
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली !
सम्पूर्ण हिंदी व्याकरण पढ़िये ।
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