बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर विद्यालय प्रबंधन का अर्थ एवं क्षेत्र / विद्यालय प्रबंधन की आवश्यकता,महत्व, उद्देश्य आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
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विद्यालय प्रबंधन का अर्थ एवं क्षेत्र / विद्यालय प्रबंधन की आवश्यकता, महत्व, उद्देश्य
Scope of School Management / विद्यालय प्रबंधन की आवश्यकता,महत्व, उद्देश्य
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विद्यालय प्रबन्धन किसे कहते हैं / what is School Management
साधारण भाषा तथा बोलचाल के अर्थ में विद्यालय प्रबन्धन और विद्यालय प्रशासन इन दोनों शब्दों में कोई अन्तर नहीं माना जाता। विद्यालय की व्यवस्था, अनुशासन का पालन, समय चक्र का निर्माण, अध्यापकों को निर्देश देना, शिक्षा विभाग के पत्रों का उत्तर देना तथा विद्यालय के रिकॉर्डों का ठीक रखरखाव आदि सभी क्रियाओं का सम्बन्ध विद्यालय प्रबन्धन अथवा विद्यालय प्रशासन से माना जाता है किन्तु वास्तव में इन दोनों प्रक्रियाओं में अन्तर है। वस्तुत: प्रशासन एक व्यापक क्रिया है और प्रबन्धन इसके अन्तर्गत आने वाला एक सीमित कार्य। अतः प्रबन्धन की क्रिया प्रशासन के अन्त:क्षेत्र में आती है।
विद्यालय प्रबन्धन का अर्थ
Meaning of School Management
विद्यालय प्रबन्धन से तात्पर्य उस संगठन से है, जिसमें विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं को चलाने के लिये प्रधानाध्यापक, निरीक्षक, शिक्षार्थी एवं अन्य कर्मचारीगण मिलजुल कर शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये कार्य करते हैं। विद्यालय प्रबन्धन विद्यालय प्रशासन का एक अंग है। विद्यालय प्रशासन में एक ओर तो वह क्रियाएँ सम्मिलित की जाती है, जिसका सम्बन्ध विद्यालय प्रबन्धन से होता है और दूसरी ओर उनका सम्बन्ध दीर्घकालीन शिक्षा नीतियों के निर्माण तथा उन नीतियों के अनुसार शिक्षा के प्राप्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये समाज के विभिन्न वर्गों, छात्रों, अभिभावकों और अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करना होता है। विद्यालय प्रबन्धन विद्यालय प्रशासन का एक अंग मात्र है और यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है कि दोनों में अन्तर बताना कठिन हो जाता है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं।
शैक्षिक प्रशासन वह प्रशासनिक व्यवस्था है जिसमें शिक्षा सम्बन्धी नीति निर्धारण, शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के विषय में भौतिक तथा मानवीय साधनों की समुचित व्यवस्था, लक्ष्य की प्राप्ति के लिये नियोजन, व्यवस्थापन, कार्यान्वयन, समायोजन, निरन्तर मूल्यांकन और सुधार की सुनियोजित व्यवस्था होती है। मोहमन (Mochlmann) ने अपनी पुस्तक विद्यालय प्रशासन (School Administration) में स्पष्ट लिखा है-“प्रशासक को समझ लेना चाहिये कि उसका कार्य फाइलों का निपटारा करने, शिक्षण विधियों का पालन करने तथा मानवीय सम्बन्धों को स्वस्थ बनाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसको शैक्षिक विचारधाराओं को कार्य रूप में परिणित करना है। उसका कार्य शैक्षिक क्रिया और शैक्षिक सिद्धान्तों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना है।
विद्यालय प्रबन्धन की आवश्यकता
Need of School Management
किसी भी विद्यालय के उचित ढंग से कार्य करने हेतु वहाँ सुव्यवस्था का होना अति आवश्यक है तभी उसमें दी जाने वाली शिक्षा भी वांछित होगी और उसके द्वारा राष्ट्र के भावी नागरिकों का व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास सम्भव हो पायेगा। विद्यालय समाज का लघु रूप है, जिसके द्वारा विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास किया जाता है अर्थात् छात्रों के मानसिक विकास के साथ-साथ ही उनका शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास का होना भी अति आवश्यक है। विद्यालय प्रबन्धन के अभाव में न तो विद्यालय की साज-सज्जा पूर्ण की जा सकती है, न ही उचित पाठ्यक्रम बनाया जा सकता है,न पाठ्य सामग्री एवं उपकरणों की व्यवस्था की जा सकती है, न समय विभाग चक्र उपयुक्त हो सकता है और न ही अध्यापकों के कार्य पर ही भली-भाँति नियन्त्रण रखा जा सकता है।
बिना समुचित प्रबन्धन के शिक्षण का कार्यक्रम कदापि नहीं हो सकता। वास्तव में शिक्षा के विभिन्न साधनों और उनकी प्रक्रियाओं में समायोजन स्थापित करने के लिये विद्यालय प्रबन्धन की अत्यन्त आवश्यकता है। किसी पाठशाला का वातावरण, बालकों का चरित्र, अनुशासन,खेलकूद की उत्तम व्यवस्था,विद्यालय के परीक्षा परिणाम तथा प्रतियोगिताओं में वहाँ के विद्यार्थियों की विजय, शिक्षको का सहयोग, अभिभावकों की पाठशाला में रुचि और अन्त में वहाँ के शिक्षित विद्यार्थियों की भावी जीवन में सफलता, सुख और समृद्धि आदि उत्तम प्रबन्धन के परिचायक हैं।
विद्यालय प्रबन्धन का महत्त्व
Importance of School Management
हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रशासक का प्रबन्धन बढ़ गया है। विद्यालय प्रबन्धन की समस्या भी जटिल हो गयी है क्योंकि विद्यार्थियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है, विद्यालय के कार्यक्षेत्र में विस्तार हो रहा है, नये-नये विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जा रहा है, नयी-नयी शिक्षण विधियों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों में वृद्धि हो रही है, आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों, बुद्धि परीक्षाओं एवं योग्यता परीक्षाओं का विद्यालयों में प्रयोग बढ़ रहा है तथा विद्यालय के समाज के प्रति उत्तरदायित्वों में वृद्धि हो रही है। इसलिये विद्यालय प्रबन्धन का महत्त्व बढ़ता जा रहा है।
सन् 1947 से पूर्व विद्यालयों का उद्देश्य केवल यही था कि छात्रों को विश्वविद्यालय शिक्षा के लिये तैयार किया जा सके परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन आ गया है। आज भिन्न-भिन्न सामाजिक और आर्थिक अवस्था वाले बालकों को शिक्षा देनी है तथा उनको भावी जीवन के लिये तैयार करना है। इसीलिये हाईस्कूल स्तर पर ही भिन्न-भिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की सुविधा के साथ-साथ शैक्षणिक तथा व्यावसायिक मार्ग निर्देशन की आवश्यकता अनुभव होने लगी है। वर्तमान शिक्षण पद्धतियों में जो कमियाँ हैं उनको भी दूर करना है। इसलिये शिक्षा प्रशासक और प्रबन्धक दोनों का ही कार्य जटिल हो गया है। अत: अब विद्यालयों का प्रबन्धन इस प्रकार से करना है कि हम अपने भावी नागरिकों का समुचित विकास कर सकें।
विद्यालय प्रबन्धन का स्वरूप
Form of School Management
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि विद्यालय प्रबन्धन का स्वरूप कैसा हो? कठोर या लचीला। हमने देखा है कि शिक्षा व्यवस्था में सदैव परिवर्तन हुए हैं परन्तु परम्परागत शिक्षा प्रणाली में जिसका मूल सिद्धान्त निरंकुशता है, विद्यालय प्रबन्धन अपेक्षाकृत कठोर, निरंकुश और दमन प्रधान होता है। प्रबन्धन की बागडोर एक सत्ता के हाथ में होती है। ऐसी व्यवस्था के अन्तर्गत प्रधानाध्यापक या प्रधानाचार्य सर्वशक्तिमान होते हैं तथा विद्यालय का प्रबन्धन तानाशाही शैली से चलता है। इस प्रकार की रूढ़िवादी व्यवस्था एक प्रकार से अग्नि की भाँति है जो जलती रहती है। यहाँ व्यवस्था एक अच्छे नौकर की भाँति कार्य कर सकती है, एक अच्छे मालिक की तरह नहीं।
इसलिये अंग्रेजी में कहा गया है-“Organisation, therefore, like fire is a good servant but a bad master.” ऐसी व्यवस्था में विद्यालय का प्रबन्धन एक यन्त्र बन जाता है जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी निर्जीव स्तर के और प्रधानाचार्य उसका चालक होता है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में द्रुत गति से परिवर्तन होते जा रहे हैं। नयी-नयी शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षण पद्धतियों का निर्माण किया जा रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि विद्यालय के प्रबन्धन में प्रधानाचार्य, शिक्षक और विद्यार्थियों का समान योगदान रहना चाहिये।
प्रबन्धन की कुशलता और प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये प्रधानाचार्य निरन्तर शिक्षकों और विद्यार्थियों से विचार-विमर्श करने के लिये उत्सुक रहें। पाठशालाओं के प्रबन्धन में अभिभावकों की सलाह लेने का सिद्धान्त भी मान्य है। स्पष्ट है कि विचारों के बदलते रहने के साथ व्यवस्था में भी कुछ परिवर्तन होता रहना चाहिये। इसका कारण यह है कि हमारे विचार एवं आदर्श परिवर्तनशील हैं। अतः उनकी प्राप्ति हेतु व्यवस्था होनी चाहिये और वह व्यवस्था भी उनके अनुकूल ही परिवर्तनशील होनी चाहिये। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार स्पष्ट है कि विद्यालय प्रबन्धन का स्वरूप गतिशील होता है तथा विद्यालय प्रबन्धन की स्थापना सामाजिक एवं व्यक्तिगत शैक्षिक उद्देश्यों की दृष्टि से की जाती है।
विद्यालय प्रबन्धन का क्षेत्र
Scope of School Management
विद्यालय प्रबन्धन का समस्त कार्यभार प्रधानाध्यापक के अधीन रहता है। प्रधानाध्यापक को घड़ी की सुइयों के केन्द्र के समान विद्यालय के केन्द्र के रूप में माना गया है। यदि घड़ी का केन्द्र गड़बड़ या दोषपूर्ण है तो घड़ी समय ठीक प्रकार से नहीं बता पायेगी और सारा समय चक्र बिगड़ जायेगा। इसलिये विद्यालय का समस्त दायित्व प्रधानाध्यापक (Principal) के व्यक्तित्व तथा उसके गुणों पर निर्भर करता है। एक अच्छे प्रधानाध्यापक को विद्यालय प्रबन्धन के क्षेत्र को वर्गीकृत करना पड़ता है और प्रत्येक कार्य को सूचीबद्ध करना पड़ता है। सभी कार्यों को दिनचर्या के अनुसार तथा कार्य की आवश्यकता को व्यक्ति एवं समय के अनुसार क्रमबद्ध करना होता है। इस प्रकार विद्यालय प्रबन्धन के क्षेत्र को विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने अपने-अपने अनुसार विभाजित किया है, जो विद्यालय प्रबन्धन के आवश्यक अंग कहे जाते हैं।
ग्रेग (Gregg) के अनुसार, विद्यालय प्रबन्धन के ये अंग निम्नलिखित प्रकार हैं-(1) विद्यालय के कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय (Decision making) लेना। (2) विद्यालय का संगठन (Organising) करना। (3) विद्यालय की योजना (Planning) बनाना। (4) सम्प्रेषण (Communicate) करना। (5) प्रभावित (Influencing) करना। (6) समन्वय (Co-ordinating) करना। (7) विद्यालय के कार्यों का मूल्यांकन (Evaluating) करना।
भारतीय परिस्थितियों के अनुसार विद्यालय प्रबन्धन में निम्नलिखित क्षेत्र आवश्यक माने गये हैं-(1) भौतिक प्रबन्धन। (2) मानवीय संसाधन प्रबन्धन । (3) कक्षा-कक्ष प्रबन्धन। (4) विद्यालय की समय सारणी का प्रबन्धन। (5) पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों का प्रबन्धन। (6) शैक्षणिक कार्यों का प्रबन्धन । (7) पुस्तकालय का प्रबन्धन। (8) स्वास्थ्य तथा शारीरिक शिक्षा का प्रबन्धन। (9) संग्रहालय तथा प्रदर्शनी प्रबन्धन। (10) आवासीय व्यवस्था (Hostel) का प्रबन्धन । (11) परीक्षा प्रबन्धन या उपलब्धि मूल्यांकन। (12) निर्देशन सेवा प्रबन्धन। (13) विद्यालय अभिलेख प्रबन्धन। (14) विद्यालय तथा समुदाय के सम्बन्धों का समन्वय। (15) विद्यालय में अनुशासन का प्रबन्धन। (16) विद्यार्थियों का वर्गीकरण तथा उनकी उपस्थिति। (17) अर्थ या वित्त प्रबन्धन। (18) विभागीय अधिकारियों से समन्वय। (19) विविध सेवाओं जैसे- भोजन, गणवेश तथा पाठ्य पुस्तकों का प्रबन्धन। (20) घर, विद्यालय तथा समाज में सहयोग। (21) विद्यालय के निरीक्षण का प्रबन्धन। (22) पुरस्कार वितरण तथा दण्ड की व्यवस्था।
विद्यालय प्रबन्धन के उद्देश्य
Aims of School Management
किसी भी विद्यालय का प्रबन्धन करने वालों को उद्देश्यों के सम्बन्ध में स्पष्ट होना चाहिये। यह अवश्य सोचना चाहिये कि इस विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य क्या है और जो प्रबन्धन किया जा रहा है वह इन उद्देश्यों की पूर्ति में कहाँ तक सहायक है ? विद्यालय प्रबन्धन के उद्देश्य निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर निर्धारित किये जा सकते हैं-
1. अध्ययन-अध्यापन के लिये उचित वातावरण-किसी भी विद्यालय का पहला उद्देश्य यह होना चाहिये कि विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिये अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराया जाये। शिक्षा के लिये विद्यालय पाठ्यक्रम होता है। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत कक्षा में अध्ययन एवं अध्यापन के साथ ही सभी आवश्यक सहगामी क्रियाओं का आयोजन भी होता है। प्रबन्धकों को यह देखना चाहिये कि वे सभी आवश्यक भौतिक एवं मानव संसाधनों की व्यवस्था करें, जिससे उत्कृष्ट कोटि की शिक्षा विद्यार्थियों को दी जा सके। इसका अभिप्राय है कि विद्यालय में विषय के प्रशिक्षित विद्वान्, सुविधाजनक कक्षा-कक्ष,पुस्तकालय, प्रयोगशालाएँ,खेल के मैदान तथा छात्रावास इन सभी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे विद्यार्थी सही अर्थ में शिक्षा प्राप्त करते हुए परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकें।
2. मानवीय तथा भौतिक साधनों का उचित प्रयोग-जब मानवीय एवं भौतिक संसाधनों की व्यवस्था हो जाती है तब उद्देश्य यह होना चाहिये कि इन भौतिक एवं मानवीय संसाधनों में समन्वय स्थापित किया जाय। इसका अर्थ यह है कि अलग खेलने के मैदान हैं तो बालक खेल के मैदान पर खेलते दिखायी देने चाहिये। यदि पुस्तकालय और प्रयोगशालाएँ हैं तो यह देखना चाहिये कि विद्यार्थी पुस्तकालय का पूरा-पूरा लाभ उठायें और प्रयोगशालाओं में प्रयोग करते दिखायी दें। विभिन्न कक्षाओं में पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी हों। यह सन्तुलन शिक्षा प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होता है।
3.शिक्षकों तथा कर्मचारियों में आत्म-विश्वास-विद्यालय प्रबन्धन वही उत्कृष्ट है जहाँ विद्यालय में सेवारत विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारी परस्पर प्रेम एवं विश्वास की भावना रखें, विद्यार्थियों से स्वाभाविक रूप से स्नेह करें तथा प्रबन्धकों के प्रति उनमें विश्वास हो। यह मानकर चलना चाहिये कि वही विद्यालय अपने उद्देश्यों में सफल होगा, जहाँ सेवारत कर्मचारी एवं शिक्षक समर्पण एवं सेवा की भावना से कार्य करेंगे और यह तभी सम्भव होगा जब कर्मचारी वर्ग को यह विश्वास हो जाय कि प्रबन्धक उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील है। सेवारत शिक्षकों एवं कर्मचारियों में इस प्रकार की भावना विकसित होना सफल विद्यालय प्रबन्धन का एक अनिवार्य उद्देश्य है।
4. जटिल शैक्षिक कार्य को सरल बनाना-प्रबन्धकों को यह भी देखना चाहिये कि विद्यालय में कार्यरत कर्मचारी एवं शिक्षक अनुत्पादक श्रम में अपना समय एवं शक्ति नष्ट नहीं करें। वे कार्य भी करें, उसमें उन्हें सफलता भी नहीं मिले और जटिलता से जूझते रहें। यह स्थिति विद्यालय में उत्पन्न न हो, यह देखना भी प्रबन्धक का दायित्व होता है।
5. निरन्तर मूल्यांकन को प्रभावी बनाना-प्रबन्धन कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिये। मूल्यांकन जहाँ अपनी उपलब्धियों को रेखांकित करता है वहीं अपनी सीमाओं एवं कमियों की ओर भी संकेत करता है। इससे आगे के कार्यक्रम एवं भावी योजनाएँ बनाने में सहायता मिलती है। साथ ही इस सम्बन्ध में भी विचार किया जा सकता है कि जो संसाधन उपलब्ध कराये गये हैं वे विद्यार्थियों को विद्याध्ययन के लिये किस सीमा तक अनुकूल एवं उपयुक्त वातावरण प्रदान करने में सफल रहे हैं?
6. प्रयोग तथा अनुसन्धान के लिये अवसर-विद्यालय प्रबन्धकों को यह भी देखना चाहिये कि जिन शिक्षकों का चयन किया गया है तथा जो विद्यालय में सेवारत हैं उन्हें अपनी व्यावसायिक वृद्धि के समुचित अवसर प्राप्त हों। इसके लिये विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिये। प्रबन्धन के क्षेत्र में अधिक उत्कृष्ट व्यवस्था के लिये प्रबन्धकों को प्रयोग करने चाहिये तथा इस क्षेत्र में नयी दिशाओं की खोज करने की भी चेष्टा करनी चाहिये।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विद्यालय प्रबन्धकों को कुछ आवश्यक क्रियाएँ एवं सुनियोजित कदम उठाने चाहिये। इन क्रियाओं को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है-
1.संसाधनों का नियोजन-विद्यालय प्रबन्धन से अभिप्राय ही भौतिक एवं मानवीय संसाधनों को विद्यालय में पर्याप्त मात्रा में इस दृष्टि से उपलब्ध कराना है कि विद्यार्थी को अपेक्षित शिक्षा प्राप्त करने हेतु अनुकूल वातावरण मिल सके। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए समय,शक्ति एवं धन की व्यवस्था करना ही नियोजन है। यह व्यवस्था प्रबन्धकों को भौतिक एवं मानवीय संसाधनों की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था करनी है। शिक्षा के ऐसी एवं इतनी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिये, जिससे शैक्षिक प्रगति में सफलता मिल सके।
2. संसाधनों का संगठन-साधनों के नियोजन के बाद उनके संगठन की ओर ध्यान देना चाहिये। जिन भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का उद्देश्यों को दृष्टि में रखकर, समय, शक्ति एवं धन की उपलब्धता के आधार पर नियोजन किया गया है, उन संसाधनों का विद्यार्थियों द्वारा पर्याप्त रूप उपयोग किया जाना आवश्यक है। इसके साथ यह भी देखा जाना आवश्यक है कि दोनों साधनों में समन्वय रहे।
3. संसाधनों का समन्वय-विद्यालयों में मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का नियोजन एवं संगठन करने का उद्देश्य तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक इन दोनों प्रकार के संसाधनों में समन्वय नहीं हो। संसाधनों में समन्वय से तात्पर्य यह है कि मानवीय संसाधन भौतिक संसाधनों के अधिक से अधिक उपयोग के अवसर प्राप्त करने में सहायता दें तथा विद्यालय को एक ऐसा केन्द्र बनाने में सहायता दें जिसका उपयोग स्थानीय समुदाय भी कर सके।
4. संसाधनों का नियन्त्रण-शिक्षा प्रबन्धकों को यह भी देखना चाहिये कि जो संसाधन विद्यालय में उपलब्ध हैं उन पर पूरा नियन्त्रण हो। पूरा नियन्त्रण रखने से तात्पर्य यह है कि प्रबन्धक देखें कि सभी साधनों का सही रूप से उपयोग हो। न तो इन साधनो का दुरुपयोग हो, न ऐसी स्थिति हो कि इनका उपयोग ही न होता हो अर्थात् जुटाये गये सभी संसाधन निरर्थक प्रमाणित होते हो। यह नियन्त्रण भी सफल विद्यालय प्रबन्धन के लिये आवश्यक है। अन्त में विद्यालय प्रबन्धों को निरन्तर इसका मूल्यांकन करना चाहिये कि जो संसाधन नियोजित किये गये हैं, जिन्हें संगठित किया गया है, जिस प्रकार साधनों में परस्पर समन्वय स्थापित किया गया है तथा नियन्त्रण रखा गया है, उससे लक्ष्यों को प्राप्त करने में कहाँ तक सफलता मिली है और यदि कोई कमी रह गयी
है तो वह क्या है तथा क्यों है?
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