निरीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य, प्रकार, दोष

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय समावेशी शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर निरीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य,प्रकार,दोष आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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निरीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य,प्रकार,दोष

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विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य,प्रकार,दोष / निरीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं

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पर्यवेक्षक एवं निरीक्षण तन्त्र / Inspection and Supervision System in hindi

समावेशी बच्चों को मुख्य धारा से सम्बद्ध करने और उनके सर्वांगीण विकास में पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः विद्यालयों में शैक्षिक समावेशन के अन्तर्गत निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण तन्त्र की व्यापक रूप में व्यवस्था की जानी चाहिये। वर्तमान विचारधारा के अनुसार निरीक्षक को निरीक्षण से हटकर एक पर्यवेक्षणकर्ता सलाहकार और सहयोगी होना चाहिये। उसे केवल कमियों को ही नहीं देखना है, वरन् अच्छे पहलुओं को प्रोत्साहन भी देना है। वर्तमान समय में निरीक्षण बहुत सीमा तक टेक्नीकल होता जा रहा है। वर्तमान निरीक्षण एक सुनियोजित शैक्षिक गुणात्मक विकास की प्रक्रिया है, जिससे विद्यार्थी और शिक्षकों का क्रमश: उत्तरोत्तर विकास होता है। सीखने के लिये जो भी मानवीय एव भौतिक साधन हैं, उनको सहयोगपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण ढंग से जुटाना भी इसमें सम्मिलित है।

आज निरीक्षण शिक्षकों एवं शाला प्रधान के परस्पर सहयोग से होता है। पहले जिस कार्य के लिये निरीक्षण’ शब्द का प्रयोग होता था, उसके लिये अब ‘पर्यवेक्षण’ शब्द का प्रयोग होता है। पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण को कुछ शिक्षाविद् भिन्न समझते हुए यह मानते हैं कि ये दोनों एक-दूसरे से अलग हैं परन्तु ये दोनों एक-दूसरे से घनिष्ठता से सम्बन्धित हैं। पहले निरीक्षक द्वारा हाकिम बनकर अध्यापकों के कार्यों का निरीक्षण किया जाता था, अब उसके स्थान पर पर्यवेक्षण सम्प्रत्यय आने से कार्य-पद्धति तथा उसकी भावना में अन्तर आ गया है। अत: शिक्षाशास्त्रियों ने निरीक्षण सम्बन्धी नवीन धारणा को अभिव्यक्त करने के लिये एक नवीन शब्द का प्रयोग किया है जो पर्यवेक्षण (Supervision) के नाम से जाना जाता है। यह केवल शब्दों का हेर-फेर नहीं है, वरन् उनमें उद्देश्य, क्षेत्र, विधि एवं दृष्टिकोण का भी बड़ा अन्तर है।

निरीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
Meaning and Definitions of Inspection

निरीक्षण को पूर्णत: समझने के लिये विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी निरीक्षण की परिभाषाओं का अध्ययन करना अनिवार्य है-
(1) वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार, “निरीक्षण का अर्थ किसी व्यक्ति की जाँच करना है।

(2) डॉ. मुखर्जी के शब्दों में, “वरिष्ठ अध्यापक अथवा प्रधानाध्यापक द्वारा किये गये मूल्यांकन को निरीक्षण कहा जाता है।”

(3) बर्टन के विचारानुसार, “शैक्षिक निरीक्षण का उद्देश्य शिक्षण में उन्नति करना है।”

(4) बार एवं बर्टन के अनुसार, “निरीक्षण एक आधार है, जिस पर शिक्षण में उन्नति के सभी कार्यक्रम बनाये जाने चाहिये।”

अत: निरीक्षण का अर्थ है परीक्षा लेना एवं परीक्षा का तात्पर्य है सरलतापूर्वक एवं आलोचनात्मक दृष्टि से जाँच करना। शाब्दिक अर्थ के अनुसार विद्यालय के कार्यों के निरीक्षण को विद्यालय-निरीक्षण कहा जा सकता है।

विद्यालय निरीक्षक के गुण (Qualities of school inspector)

एक विद्यालय निरीक्षक में निम्नांकित गुणों का होना अपरिहार्य है-
(1) निरीक्षक का दृष्टिकोण शैक्षिक हो। उसे शिक्षा एवं शैक्षिक प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। (2) निरीक्षक विशाल हृदय एवं उदार चित्त वाला हो । (3) निरीक्षक रचनात्मक प्रवृत्ति वाला हो, ध्वंसात्मक नहीं। (4) निरीक्षक का कार्य समालोचना करना एवं सुझाव देना है। अत: उसे शिक्षकों के कार्यों की प्रशंसा करनी चाहिये एवं उनकी समस्याओं को सुनकर निराकरण हेतु उन्हें सुझाव देने चाहिये। (5) निरीक्षक सहृदय हो। (6) निरीक्षक का व्यवहार मैत्रीपूर्ण होना चाहिये।

विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य / Aims of School Inspection

विद्यालय निरीक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षकों की कमियाँ जानना एवं उन कमियों का निराकरण कर अच्छे शिक्षक तैयार करना। (2) अध्यापकों एवं अधीनस्थ व्यक्तियों के मार्गदर्शन हेतु उनकी क्षमताओं, योग्यताओं आदि को समझना । (3) सीखने की स्थितियों का मूल्यांकन करना, जिसके आधार पर शिक्षण विधियों में सुधार किया जा सके। (4) शिक्षकों को पाठ्यक्रम निर्माण करने का ज्ञान प्रदान करके पाठ्यक्रम निर्माण के मुख्य उद्देश्य से उन्हें अवगत कराना। (5) विद्यालय कर्मचारियों में अनुशासन बनाये रखना। (6) शिक्षण की कमियों, दोषों, अनियमितताओं को रोकना, जिससे शिक्षा का कार्यक्रम प्रभावशाली ढंग से चल सके। (7) उन परिस्थितियों का ज्ञान करना, जो छात्रों को सीखने हेतु प्रेरित करती हैं। (8) शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की समस्याओं का निदान करना एवं उनकी योग्यता का मूल्यांकन करने में सहायता करना।

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विद्यालय निरीक्षण के प्रकार (Types of School Inspection)

विद्यालय निरीक्षण पद्धति को हम मुख्यत: तीन भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं–

1. संशोधनात्मक निरीक्षण (Corrective inspection)-संशोधनात्मक निरीक्षण के अन्तर्गत निरीक्षणकर्ता विद्यालय की अच्छी गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं देता। विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों का अवलोकन करके उनमें दोष ढूँढ़ने का प्रयत्न करता है एवं उन दोषों के आधार पर रिकॉर्ड तैयार करता है। इस प्रकार निरीक्षक आलोचनात्मक दृष्टि से निरीक्षण करता है।

2. निरोधात्मक निरीक्षण (Preventive inspection)-निरोधात्मक निरीक्षण हेतु निरीक्षणकर्ता का अनुभवी होना नितान्त आवश्यक है एवं वह दूरगामी दृष्टि रखने वाला व्यक्ति होना चाहिये। इस प्रकार की निरीक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत निरीक्षक विद्यालय से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं का आभास पहले से ही कर लेता है और उनकी जानकारी शिक्षकों को प्रदान करता है।

3. रचनात्मक निरीक्षण (Constructive inspection)-रचनात्मक निरीक्षण के अन्तर्गत निरीक्षक अध्यापक के स्तर तक आ जाता है। अध्यापक द्वारा शिक्षण-प्रक्रिया में प्रयुक्त विभिन्न प्रयोगों की वह प्रशंसा करता है एवं अध्यापकों में आत्म-विश्वास बढ़ाने का प्रयत्न करता है।

विद्यालय निरीक्षण की प्रक्रिया (Process of School Inspection)

निरीक्षक को वर्षभर के कार्यों का निरीक्षण बहुत ही कम समय में करना होता है। अतः एक निरीक्षक विद्यालय निरीक्षण की प्रक्रिया हेतु निम्नलिखित सोपानों का प्रयोग करता है-

1. निरीक्षण का कार्यक्रम (Programme of inspection)-विद्यालय में निरीक्षण कार्यक्रम पूर्व नियोजित भी हो सकता है अथवा निरीक्षक वहाँ अचानक भी निरीक्षण हेतु जा सकता है। निरीक्षण हेतु वह दोनों विधियाँ अपना सकता है। जिन विद्यालयों में समस्याएँ अधिक हों, वहाँ उसे जल्दी-जल्दी निरीक्षण करना चाहिये। निरीक्षण करते समय निरीक्षक महत्त्वपूर्ण बातों को अपनी डायरी में लिख लेता है, जिससे वह निरीक्षण की पूर्ण एवं सही रिपोर्ट प्रस्तुत कर सके। इस प्रकार निरीक्षक विद्यालय की समस्याओं को समझकर उनके निराकरण का प्रयास करता है।

2. अध्यापकों की बैठक (Teachers meeting)- निरीक्षक अध्यापकों के साथ बैठक करता है। निरीक्षण करते समय उसने जो मुख्य बातें नोट की थीं, उन पर अध्यापकों के साथ विचार-विमर्श करता है। अध्यापकों की समस्याओं को सुनता है एव उन समस्याओं के निराकरण हेतु आवश्यक सुझाव देता है।

3. प्रदर्शन पाठों का आयोजन (Organizing of demonstration lessons)- निरीक्षक प्रत्येक विषय के कुछ प्रदर्शन पाठों को आयोजित करने का प्रबन्ध भी करता है। प्रदर्शन पाठ निरीक्षक स्वयं भी दे सकता है एवं इसमें विद्यालय के अच्छे शिक्षकों का सहयोग भी ले सकता है। यदि आवश्यक हो तो वह अन्य विद्यालयों से योग्य शिक्षकों एवं विषय विशेषज्ञों को भी आमन्त्रित कर सकता है। निरीक्षक को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि प्रदर्शन पाठ की समाप्ति पर वह अध्यापकों को चर्चा करने का अवसर प्रदान करे, जिससे शंकाओं का निदान मिलजुलकर किया जा सके। प्रदर्शन पाठ नवीन शिक्षण-विधियों पर आधारित होने चाहिये।

4. मूल्यांकन (Evaluation)-निरीक्षक का यह दायित्व है कि वह विद्यालय की समस्त गतिविधियों एवं कार्यों का मूल्यांकन करे, परन्तु यह मूल्यांकन आलोचनात्मक न होकर सुधारात्मक होना चाहिये। यदि शिक्षण-प्रक्रिया में दोष हैं तो अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के अवसर प्रदान करने चाहिये। शिक्षण के साथ-साथ भौतिक संसाधनों की कमियों को भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये।

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विद्यालय निरीक्षण के दोष
Demerits of School Inspection

निरीक्षण पद्धति का प्रारूप परम्परागत एवं आदेशात्मक है। इसमें निरीक्षक की स्थिति निरंकुशतापूर्ण होती है। उसका दृष्टिकोण नकारात्मक एवं आलोचनात्मक होता है। निरीक्षण व्यवस्था ब्रिटिशकाल की देन है। इसलिये इसे ‘परम्परागत निरीक्षण’ अथवा आदेशात्मक निरीक्षण के नाम से पुकारा जा सकता है। निरीक्षण पद्धति के दोषों की चर्चा निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर कर सकते हैं-

(1) निरीक्षण कार्य बहुधा अनियोजित होता है, इसलिये यह प्रभावशाली नहीं होता। (2) निरीक्षक के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि उसे शिक्षण का अनुभव हो परन्तु निरीक्षक पद पर जिन व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है, आवश्यक नहीं है कि उन्हें शिक्षण का अनुभव हो ही। इसलिये उनके द्वारा किया गया निरीक्षण कार्य विश्वसनीय नहीं होता। (3) निरीक्षण प्रतिवर्ष नियमित रूप से नहीं हो पाता। (4) बहुधा निरीक्षक विद्यालय के सभी पहलुओं का निरीक्षण नहीं कर पाते। इसलिये आज निरीक्षण एक दिखावा मात्र ही समझा जाने लगा है। निरीक्षकों की भावना रहती है कि निरीक्षण करते समय विद्यालय अधिकारियों द्वारा उनका पूर्ण सत्कार किया जाना चाहिये। यदि उनके सत्कार में कोई कमी रह जाती है तो वह उस विद्यालय की रिपोर्ट उसके विपरीत देते हैं।

(5) निरीक्षण में द्वेषालोचन की भावना पायी जाती है। अच्छे कार्यों का आकलन नहीं किया जाता। (6) निरीक्षक विद्यालय की वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ होते हैं। निरीक्षण प्रक्रिया केन्द्रीकृत योजना है। इसमें अध्यापकों का कोई सहयोग नहीं लिया जाता तथा उन तत्त्वों की उपेक्षा की जाती है जो वास्तव में महत्त्वपूर्ण होते हैं। (7) बहुधा निरीक्षण के पीछे खाना-पूर्ति की भावना कार्य करती है। विशेष विषय का निरीक्षण करने के लिये विषय-विशेष से सम्बन्धित अध्यापक को आमन्त्रित नहीं किया जाता। यह आवश्यक नहीं कि एक निरीक्षक को प्रत्येक विषय का ज्ञान हो ही। (8) प्राय: निरीक्षक या तो शिक्षकों के शिक्षण-कौशल का निरीक्षण करते हैं या विद्यालय की प्रशासनिक या वित्तीय स्थिति का। विद्यालय की शैक्षणिक क्रियाओं, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं, विद्यालय भवन, विद्यालय से सम्बन्धित अन्य सुविधाओं एवं छात्र के पूर्ण विकास की ओर ध्यान नहीं दिया
जाता।

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने वर्तमान निरीक्षण-पद्धति में निम्नलिखित दोषों का उल्लेख किया है

(1) वर्तमान निरीक्षण-पद्धति में निरीक्षक की स्थिति अधिनायक जैसी होती है। वह शिक्षकों को शिक्षा-सम्बन्धी समस्याओं के विषय में न तो बताने का अवसर देता है और न उनको अपने सुझाव प्रस्तुत करने का अवसर ही प्रदान करता है। (2) निरीक्षण देखावटी होते हैं। निरीक्षक द्वारा विद्यालय निरीक्षण के लिये जो समय प्रदान किया जाता है, वह अपर्याप्त है। इस अपर्याप्त समय का अधिकांश भाग दिन-प्रतिदिन के प्रशासकीय कार्य को दिया जाता है। उदाहरणार्थ-विद्यालय के हिसाब-किताब तथा पत्र-व्यवहार आदि को। शैक्षिक कार्यों के निरीक्षण के लिये बहुत कम समय दिया जाता है और शिक्षकों तथा निरीक्षकों के बीच सम्पर्क बहुत ही कम होते हैं। (3) निरीक्षक निरीक्षण आलोचनात्मक एवं परीक्षात्मक दृष्टिकोण से करते हैं। इस कारण निरीक्षण हर्षोत्पादक न होकर भयोत्पादक होता है।

(4) वर्तमान निरीक्षण-पद्धति का एक दोष विषयगत निरीक्षकों का अभाव भी है। अत: एक निरीक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रत्येक विषय के शिक्षक के कार्य का निरीक्षण करे। यह प्रथा शैक्षिक दृष्टि से हानिकारक है। (5) निरीक्षण की स्थिति के विषय में रायबर्न (Rayburn) का मत है-“उसका पद अत्यधिक निरंकुशतापूर्ण होता है। यदि उसकी इच्छा कानून नहीं होती तो वह उसके इतने समीप होती कि समस्त व्यावहारिक उद्देश्यों एवं अभिप्रायों की दृष्टि से प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक उसको कानून के रूप में ही ग्रहण करते हैं।”

(6) डी. आई. लाल ने निरीक्षक के कार्यों की आलोचना करते हुए लिखा है-“उसका प्रमुख कार्य फाइलों का आदेश प्रदान करने तथा विद्यालयों में दर्शन देने के लिये जाना है, जहाँ वह राजसी ठाठ-बाट जैसा स्वागत प्राप्त करता है। उससे अच्छी रिपोर्ट प्राप्त करने के लिये सभी प्रकार से उसको सम्मान प्रदान किया जाता है।” (7) एन. सी. ई. आर.टी. के एक सर्वेक्षण के आधार पर ज्ञात होता है कि निरीक्षण कम अवधि के कारण औपचारिक मात्र रह जाते हैं। जिला अधिकारियों के प्रशासनिक कार्यों के कारण कुछ विद्यालय ही एक वर्ष में देखे जा सकते हैं। अतः प्रत्येक विद्यालय का नियमित निरीक्षण सम्भव नहीं हो पाता।

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निरीक्षण प्रणाली में सुधार के सुझाव

निरीक्षण प्रणाली में सुधार के लिये माध्यमिक शिक्षा आयोग ने विशेषज्ञ निरीक्षकों को नियुक्ति पर बल दिया है और शिक्षा आयोग ने प्रशासकीय तथा शैक्षिक कार्यों की देखभाल के लिये पृथक्-पृथक् अधिकारियों की नियुक्ति का सुझाव दिया है। शिक्षा आयोग के अनुसार जिला स्तर पर प्रशासन कार्य ‘जिला-विद्यालय परिषद्’ के हाथ में रहे एवं शैक्षिक कार्य की देखभाल ‘जिला शिक्षा अधिकारी को सौंपी जाये। इसी प्रकार निरीक्षण के दोषों को दूर करके उसे अधिक उपयोगी बनाने के लिये विभिन्न आयोगों एवं अन्य विद्वानों ने अधोलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) सरकारी निरीक्षक विद्यालय के अभिलेखों, सरकारी अनुदान के उचित प्रयोग, वित्तीय मामलों की व्यवस्था तथा सरकारी निर्देशों के पालन के अतिरिक्त शैक्षिक कार्यक्रम की भी जाँच करें। (2) एक निरीक्षक से सभी विषयों के ज्ञान, उनकी शिक्षण विधियों आदि की अपेक्षा करना अन्याय है। अतः राज्य के शिक्षा विभाग विभिन्न क्षेत्रों के लिये विशेषज्ञ निरीक्षकों की नियुक्ति करें। ये विभिन्न विद्यालयों में अधिक अवधि तक रहकर अपने विषयों के शिक्षकों की व्यावसायिक उन्नति के लिये अधिक सहायता प्रदान कर सकते हैं। (3) निरीक्षकों की नियुक्ति के समय उनकी योग्यता एवं अनुभवों को ध्यान में रखा जाना चाहिये। (4) निरीक्षक का दृष्टिकोण आलोचनात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिये।

(5) निरीक्षण करते समय निरीक्षक को विद्यालय के कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग लेना चाहिये एवं निजीक्षण नीतियों का निर्माण करते समय शिक्षकों का पूर्ण सहयोग लिया जाना चाहिये। (6) निरीक्षकों की नियुक्ति एवं विद्यालयों की संख्या में उचित अनुपात होना चाहिये। (7) विद्यालय निरीक्षण का कार्य आन्तरिक स्तर पर भी होना चाहिये। आन्तरिक निरीक्षण का उत्तरदायित्व प्रधानाध्यापक, विभिन्न विभागाध्यक्षों आदि को सौंपा जाना चाहिये। दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का निवारण प्रधानाध्यापक को स्वयं एवं अपने अन्य सहयोगियों की सहायता से करना चाहिये। प्रधानाध्यापक की सामर्थ्य से बाहर की समस्याएँ ही सरकारी निरीक्षक सुलझायें। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में जो धन, समय एवं शक्ति की हानि हो रही है, उसका सदुपयोग होगा।

(8) निरीक्षण करते समय निरीक्षक का दृष्टिकोण सहयोगी एवं मैत्रीपूर्ण होना चाहिये। विद्यालयों में निरीक्षकों,विशेषज्ञों, सलाहकारों, अध्यापकों एवं प्रधानाध्यापकों के निकट सम्पर्क के परिणामस्वरूप शिक्षकों में अपने विषय के प्रति उत्साह उत्पन्न होगा और वे अपनी शिक्षण-योग्यता को सुधारने में अधिक रुचि लेंगे। (9) निरीक्षक द्वारा दिये गये सुझाव केवल कागज तक सीमित न रहें वरन् उन्हें व्यावहारिक रूप में अनुपालित किया जाना चाहिये। (10) निरीक्षण के लिये ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिये जो निरीक्षण में विशेष योग्यता रखते हों।

निरीक्षण प्रणाली के दोषों के सम्बन्ध में योजना आयोग के कार्यकारी दल के प्रतिवेदन के दो बिन्दु हैं-(1) निरीक्षकों की संख्या बढ़ायी जाये। (2) कुछ विशिष्ट अधिकारियों की भी नियुक्ति हो, जो गुणात्मक शिक्षा के लिये कार्य करें। इन अधिकारियों का उद्देश्य मुख्य रूप से शिक्षकों को मार्गदर्शन देना होना चाहिये।

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