समय सारणी की आवश्यकता,महत्व,सिद्धांत / विद्यालय में समय का प्रबंधन

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर समय सारणी की आवश्यकता,महत्व,सिद्धांत / विद्यालय में समय का प्रबंधन आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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समय सारणी की आवश्यकता, महत्व,सिद्धांत / विद्यालय में समय का प्रबंधन

समय सारणी की आवश्यकता, महत्व,सिद्धांत / विद्यालय में समय का प्रबंधन
समय सारणी की आवश्यकता, महत्व,सिद्धांत / विद्यालय में समय का प्रबंधन


विद्यालय में समय का प्रबंधन / समय सारणी की आवश्यकता, महत्व, सिद्धांत

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विद्यालय में समय प्रबन्धन
Time Management in school / college

विद्यालय कार्यक्रम को सुचारु रूप से चलाने के लिये आवश्यक है कि समस्त कार्य के सम्बन्ध में एक व्यापक समय सूची का निर्माण किया जाय, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को यह निश्चित रूप से ज्ञात हो जाय कि उसका दैनिक कार्यक्रम क्या है? इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये विद्यालय में शाला कैलेण्डर का निर्माण किया जाता है। वास्तव में शाला कैलेण्डर एक ऐसी योजना है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक कक्ष में अध्यापित विषयों एवं गतिविधियों का लेखा जोखा सम्मिलित होता है।

इसके माध्यम से विद्यालय के कार्य की अवधि के ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों को प्रदान किये गये विषयवार समय और अध्यापक के कार्य भार का पता चलता है। शाला कैलेण्डर में प्रधानाध्यापक का पर्यवेक्षण कार्यक्रम, लिखित तथा गृहकार्य का समयबद्ध जाँच कार्यक्रम, सामान्य तथा स्थानीय छुट्टियाँ, अध्यापक-अभिभावक बैठको का आयोजन कार्यक्रम तथा शालेय सहगामी प्रवृत्तियों का भी कार्यक्रम निर्धारित किया जाता है। विद्यालय कैलेण्डर प्रधानाध्यापक के लिये आगामी वर्ष की योजना बनाने के उद्देश्य से उपयुक्त रहता है जिससे उच्च अधिकारी उनके योजनाबद्ध कार्यक्रमों का अवलोकन कर सकें।

शाला कैलेण्डर की आवश्यकता (Need of school calendar)

विद्यालय के प्रति दिन के निर्धारित कार्यक्रमों, क्रियाकलापों तथा गतिविधियों को समयबद्ध कार्य द्वारा विभक्त किया जाता है। यदि यह विभाजन उपयुक्त नहीं होता तो विद्यालय में अव्यवस्था तथा अराजकता फैल जायेगी और उसके परिणाम अहितकर होंगे। इस दोष को दूर करने के उद्देश्य से शाला कैलेण्डर का निर्माण नितान्त आवश्यक समझा गया है। शाला प्रधान इसके द्वारा प्रत्येक शिक्षक के क्रियाकलापों, उनकी गतिविधियों तथा पत्रों के गृह कार्य एवं लिखित कार्य का मूल्यांकन भली-भाँति कर सकते हैं। समस्त विद्यालयी कार्यों एवं गतिविधियों का सजीव चित्र होता है। इसके अभाव में सक्रियता एवं निष्ठा नहीं हो पाती।

शाला कैलेण्डर का महत्त्व (Importance of school calendar)

शाला कैलेण्डर का महत्त्व अग्रांकित है-(1) शाला कैलेण्डर में शाला के सम्पूर्ण कार्यक्रम तथा विभिन्न गतिविधियों को समुचित स्थान दिया जाता है। (2) इसके द्वारा अध्यापकों तथा छात्रों को अपने निर्धारित समय का बोध होता है। (3) यह कार्य की पुनरावृत्ति तथा अराजकता को रोकने में सहायक सिद्ध होती है। (4) इससे इस बात का बोध होता है कि किस समय, कौन-सा कार्य करता है? अतः समव और शक्ति के अपव्यय की सम्भावना नहीं रहती। (5) इसके द्वारा शाला में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों को सुविधानुसार समय मिल जाता है। (6) शाला कैलेण्डर द्वारा छात्रों में सक्रियता तथा अनुशासन की भावना का प्रादुर्भाव होता है।

(7) छात्र एवं शिक्षक समयबद्ध एवं निवमित रूप से अपना-अपना कार्य करते रहते हैं और इस प्रकार अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति नहीं पनपने पाती। शिक्षक में कार्य के प्रति उदासीनता समाप्त होती है तथा निष्ठा का उदय होता है। (8) मस्तिष्क ताजा बनाये रखने का यह एक अच्छा माध्यम होता है क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित होता है। (9) शाला कैलेण्डर द्वारा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अध्यापक को किस मात्रा में कितना और कैसा कार्य भार सौंपा गया है? कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यापक को अधिक कार्यभार भी दिया जा सकता है और शैथिल्य अध्यापक को कम ताकि कार्य का सन्तुलन बना रहे। (10) यह शाला प्रधान के कार्यों को उच्च अधिकारियों तथा समाज को दिखाने का कार्य करता है।

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समय सारणी क्या होती है / समय सारणी किसे कहते हैं (Time Table)

विद्यालय के कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाने के लिये आवश्यक है कि समस्त कार्य के सम्बन्ध में एक व्यापक समय-सूची का निर्माण किया जाय, जिसमें विद्यालय में प्रत्येक व्यक्ति को यह निश्चित रूप से ज्ञात कराया जाये कि उसका दैनिक कार्यक्रम क्या है? इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही विद्यालय में समय-विभाग-चक्र का निर्माण किया जाता है। इसे समय-विभाग-चक्र’, ‘समय-तालिका तथा समय-सारणी’ भी कहा जाता है। वास्तव में समय-विभाग-चक्र ऐसी योजना है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक कक्षा में अध्यापित विषयों एवं गतिविधियों का समस्त लेखा-जोखा होता है। इसके माध्यम से विद्यालय में कार्य की अवधि के ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों को प्रदान किये गये समय और अध्यापकों के कार्यभार का भी पता चलता है। इस प्रकार समय-विभाग चक्र निर्माण का मूल उद्देश्य, विद्यालयों के निर्धारित समय का उचित प्रकार से विभाजन है, जिससे विद्यालय में होने वाली सम्पूर्ण
क्रियाओं एवं अनुभवों की उचित व्यवस्था हो सके।

समय-सारिणी की आवश्यकता और उद्देश्य (Aims and Need of Time Table)

विद्यालय के कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिये विद्यालय के कार्य की एक विस्तृत योजना का होना आवश्यक है, जिससे विद्यालय के प्रतिदिन के निर्धारित समय का प्रत्येक विषय, क्रियाओं और कार्यक्रम के लिये ठीक प्रकार से विभाजन हो । यदि विद्यालय के समय का असंगत ढंग से विभाजन किया जाय तो विद्यालय के समस्त कार्य में अराजकता और अव्यवस्था फैल जायेगी तथा एक ही कार्य की अनेक बार पुनरावृत्ति होने की सम्भावना रहेगी।

इस दोष को दूर करने के लिये ही समय-सारिणी का निर्माण किया जाता है। यदि विद्यालय में समय-सारिणी का निर्माण नहीं किया जाय तो इसका परिणाम यह होगा कि प्रधानाध्यापक को यह पता ही नहीं चलेगा कि किस घण्टे में कौन-कौन अध्यापक शिक्षण-कार्य कर रहे हैं तथा कौन-कौन से अध्यापक अपने उत्तरदायित्व को ठीक प्रकार से नहीं निभा रहे हैं? चूंकि समय-सारिणी विद्यालय के समस्त कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। अत: उसकी सहायता से यह तथ्य ज्ञात किया जा सकता है कि विद्यालय में कौन-कौन सी गतिविधियाँ हो रही हैं और कौन-कौन सी नहीं हो रही हैं?

समय सारिणी का महत्त्व
Importance of Time Table

संक्षेप में समय-सारिणी का निम्नलिखित महत्त्व है-(1) समय-सारिणी द्वारा विद्यालय के सम्पूर्ण कार्यक्रम तथा विभिन्न गतिविधियों को समुचित स्थान मिलता है। (2), इसके द्वारा अध्यापकों और छात्रों को अपने निर्धारित समय का ज्ञान होता है। (3) समय-सारिणी कार्य की पुनरावृत्ति और अराजकता को रोकने में सहायक होती है। (4) समय-सारिणी इस बात का ज्ञान कराती है कि किस समय, कौन-सा कार्य करना है? अतः समय और शक्ति के अपव्यय की सम्भावना नहीं रहती

(5) समय-सारिणी द्वारा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किस अध्यापक को किस मात्रा में, कितना और कसा कार्य-भार सौपा गया है? यदि किसी अध्यापक को कम कार्य-भार सौंपा गया है तो उसे अधिक दिया जा सकता है और जिसे अधिक सोपा गया है तो उसके कार्य-भार को हल्का किया जा सकता है। (6) इसके द्वारा विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों को सुविधानुसार समय मिल जाता है। (7) समय-सारिणी की रचना में रुकावट को दूर करने तथा मस्तिष्क को ताजा रखने के सिद्धान्त को ध्यान मेरखा जाता है। इस प्रकार यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को पूर्ति करती है।

समय-सारिणी निर्माण के सिद्धान्त
Principles of Time Table Formation

समय-सारिणी का निर्माण करते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। प्रधानाध्यापक और अध्यापकों को समय-सारिणी का निर्माण करते समय भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा मानवीय आधार पर ध्यान अवश्य देना चाहिये। इसके लिये समय सारणी के निर्माण में सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाना चाहिये, जो इस प्रकार हैं-

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1. छात्र-हित सम्बन्धी सिद्धान्त

विद्यालय की स्थापना का मूल उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का विकास करना है। अत: समय सारिणी का निर्माण करते समय छात्रों के हितों का ध्यान रखना चाहिये। इस विषय में अनलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिये-

(1) रुचि और योग्यता का ध्यान-समय-सारिणी का निर्माण करते समय बालकों की रुचि एवं योग्यता का ध्यान रखा जाय । अन्य शब्दों में,बालकों को अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार विषय चुनने का अवसर प्राप्त होना चाहिये।

(2) क्षमताओं का ध्यान-समय सारणी निर्माण में यथासम्भव बालकों की शारीरिक और मानसिक क्षमता का भी ध्यान रखा जाय।

(3) व्यापकता-समय-सारिणी व्यापक होनी चाहिये, जिससे छात्रों को अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार विषय चुनने में सुविधा हो।

(4)घण्टों के क्रम का ध्यान-समय-सारिणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाय कि प्रथम और अन्तिम घण्टों में कठिन और थकान वाले विषय न रखे जायें क्योंकि प्रथम घण्टे में बालक घर से चलकर आता है, इससे थकान का आना स्वाभाविक है और वह कठिन विषय को थकान के कारण ठीक प्रकार से समझ भी नहीं पाता। इसी प्रकार अन्तिम घण्टे में बालक थक जाते हैं। अत: इस घण्टे में कठिन विषय न रखे जायें। इन घण्टों में सरल और रोचक विषय रखना उत्तम है।

(5) आयु का ध्यान- अवधि का निर्धारण करते समय बालकों की आयु का अवश्य ध्यान रखा जाय। छोटे बालक (6 से 9 वर्ष तक के) 10 से 20 मिनट तक ही एकाग्रचित्त होकर अध्ययन कर सकते हैं। अत: उनके लिये अधिक लम्बे घण्टे रखना अमनोवैज्ञानिक है। 12 से 14 वर्ष की आयु तक के बालक 10-15 से 30-45 मिनट तक ही अपने चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। संक्षेप में, आवश्यकता से अधिक लम्बे घण्टे रखना अनुचित है।

(6)विषय के क्रमों का ध्यान-समय-सारिणी के निर्माण में विषयों के क्रम को अवश्य ध्यान में रखा जाय। यदि दो कठिन विषयों को लगातार रखा जाता है तो बालक शीघ्र थकान से ग्रस्त हो जायेंगे और उनका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगेगा। अतः कठिन विषय के पश्चात् सरल विषय रखा जाय।

(7) धकावट का ध्यान-छात्रों की थकावट को दूर करने के लिये तथा उनमें ताजगी लाने के लिये समय-सारिणी में कम से कम दो मध्यान्तर या अवकाशों की व्यवस्था होनी चाहिये।

(8) मौसम का ध्यान-समय सारिणी का निर्माण करते समय मौसम का भी ध्यान रखना है क्योंकि जलवायु बालकों की कार्य-क्षमता पर अपना प्रभाव डालती है, उदाहरण के लिये ग्रीष्मकाल में (जुलाई से सितम्बर तक तथा मार्च से 20 मई तक) थकावट शीघ्र आ जाती है तथा 10 बजे के बाद गर्मी तीव्र पड़ने लगती है। अतः विद्यालय में शिक्षा का समय प्रात:काल रखा जाय और अध्ययन काल भी अधिक न रखा जाये। जाड़ों में मौसम अच्छा होता जा सकता है। जाड़ों में प्रात: ठण्ड अधिक पड़ती है, इस कारण विद्यालय दस बजे से प्रारम्भ है। अंत:कार्य भी अधिक किया जा सकता है। ऐसी दशा में अध्ययनकाल सुविधानुसार बढ़ाया किया जा सकता है।

(9) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का स्थान-समय-सारिणी के निर्माण में केवल पाठ्य- विषयों को ही स्थान न मिले,वरन् बालकों के बहुमुखी विकास के लिये विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं को पर्याप्त समय मिलना चाहिये। अन्य शब्दों में छात्रों को समय-सारिणी द्वारा, खेलकूद, व्यायाम एवं वाद-विवाद आदि क्रियाओं में भी भाग लेने के अवसर प्राप्त होने चाहिये।

(10) दिवसों के क्रम का ध्यान-दिवसों के क्रम का भी ध्यान रखना आवश्यक है। सप्ताह के 6 दिनों में सोमवार एवं शनिवार ऐसे दिन हैं, जिनमें छात्रों के मस्तिष्क में छुट्टी का ध्यान रखता है। अत: इस दिनों छात्रों को ऐसा कार्य नहीं दिया जाय, जिनमें अधिक श्रम करना पड़े।

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2. अध्यापक-हित सम्बन्धी सिद्धान्त

समय-सारिणी का निर्माण करतेसमय छात्र-हित के साथ-साथ अध्यापकों कीआवश्यकताओं और कठिनाइयों को भी ध्यान में रखा जाय। इस विषय में अग्रलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिये

(1) समय-सारिणी का निर्माण करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाय कि किसी अध्यापक को लगातार एक-सा कार्य न करना पड़े। (2) अध्यापक को उनकी रुचि और योग्यता के आधार पर ही कार्य सौंपा जाय। (3) अध्यापकों पर कार्य-भार यथा-सम्भव समान रहे। कार्य-भार का असमान वितरण अध्यापकों में असन्तोष को जन्मदेता है । (4) अध्यापकों की शारीरिक योग्यताओं,सीमाओं तथा मनोवृत्तियों को भी ध्यान में रखा जाय। (5) किसी अध्यापक को शिक्षण के लिये लगातार घण्टे नहीं दिये जाये, बीच में एक घण्टा खाली देना भी आवश्यक है। (6) प्रत्येक अध्यापक को दो विषयों से अधिक विषय शिक्षण के लिये नहीं दिये जायें।

3. अन्य बातें

उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त समय-सारिणी का निर्माण करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाये

(1) समय-सारिणी सरल और स्पष्ट हो। समय-सारिणी का निर्माण इस ढंग से किया जाय, जिसे छात्र सफलतापूर्वक समझ सकें। (2) समय-सारिणी में इस प्रकार की व्यवस्था हो कि छात्रों को प्रत्येक घण्टे में एक कक्षा से दूसरी कक्षा में नहीं जाना पड़े। इससे समय की बचत होती है। (3) समय-सारिणी इस प्रकार की हो कि जिसमें अध्यापक तथा छात्रों के मध्य किसी प्रकार का संघर्ष न हो। (4) समय-सारिणी अत्यधिक जटिल न हो, उसमें लचीलापन भी हो। (5) समय-सारिणी निर्माण में ग्रामीण आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाय। (6) समय-सारिणी के निर्माण में इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि छात्र और अध्यापकों में अधिक सम्पर्क की सम्भावना हो।

समय-सारिणी के निर्माण में कठिनाइयाँ

विद्यालय की समय-सारिणी का निर्माण करना कोई सरल कार्य नहीं है। इसके निर्माण में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित है-

1. अध्यापकों का अभाव-समय-सारिणी निर्माण में सबसे अधिक कठिनाई अध्यापकों के अभाव के कारण आती है। अध्यापकों की कमी के कारण समय-सारिणी के निर्माण के सिद्धान्तों को नहीं अपनाया जा सकता। परिणामस्वरूप छात्रों को उनकी रुचि के अनुकूल विषय नहीं मिल पाते और इसी प्रकार अध्यापकों को भी अपनी रुचि के अनुसार शिक्षण के अवसर प्राप्त नहीं होते। अत: इसके निवारणार्थ ध्यान दिया जाय।

2. कक्षाओं का अभाव-जब विद्यालय में पर्याप्त कमरे और विशेष कक्ष नहीं होते तब समय-सारिणी का निर्माण करना कठिन हो जाता है। अत:प्रधानाध्यापक को इस पर ध्यान देना चाहिये।

3. भौतिक साधनों का अभाव-पर्याप्त फर्नीचर, अध्यापक कक्ष तथा पुस्तकालय आदि का अभाव भी एक कठिनाई है। इन अभावों की पूर्ति की जाय।

4. विद्यालय में छात्रों की अधिक संख्या-जब विद्यालय में छात्रों की संख्या अत्यधिक होती है तो समय-सारिणी बनाना असुविधाजनक हो जाता है। अत: छात्र-संख्या विद्यालय-क्षमता के अनुसार होनी चाहिये।

5. अंशकालीन अध्यापकों की नियुक्ति-अंशकालीन अध्यापकों (Part-time teachers) की नियुक्ति के कारण भी समय-सारिणी बनाने में बाधाएँ आती हैं क्योंकि उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण संस्थाओं में जाना पड़ता है। अत:स्थायी अध्यापक ही नियुक्त किये जायें।

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