पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के प्रकार / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के प्रकार / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के प्रकार / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत

पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के प्रकार / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत
पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के प्रकार / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत


Management of Co-curricular Activities / पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलाप के उद्देश्य एवं सिद्धांत

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पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों का प्रबन्धन / Management of Co-curricular Activities

पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों की अवधारणा को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-
(1) प्राचीन अवधारणा । (2) आधुनिक अवधारणा।

1. प्राचीन अवधारणा (Traditional concept)

पाठ्य सहगामी प्रवृत्तियों का अनेक भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है; जैसे-पाठ्येत्तर प्रवृत्तियाँ, कक्षेत्तर प्रवृत्तियों, पाठ्य सहगामी प्रवृत्तियाँ आदि।  कुछ समय पूर्व शिक्षा से तात्पर्य केवल पढ़ना, लिखना बल दिया जाता था। शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास नहीं करती थी। इस प्रकार इस समय की शिक्षा अत्यन्त संकुचित,संकीर्ण एवं अव्यावहारिक थी। संगीत, नाटक, भ्रमण, स्काउटिंग, वाद-विवाद,खेलकूद जैसी क्रियाओं को अशैक्षिक क्रियाएँ माना जाता था एवं इन क्रियाओं को शिक्षा जगत् में कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इस प्रकार प्रारम्भ में परीक्षा बोर्ड अथवा विश्वविद्यालय द्वारा निर्दिष्ट प्रवृत्तियों को पाठ्य प्रवृत्तियों कहा जाता था तथा उनको ही परीक्षा में सम्मिलित किया जाता था। अन्य वे प्रवृत्तियाँ थीं, जिनके द्वारा शिक्षार्थी का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास होना था।

2. आधुनिक अवधारणा (Modern concept)

शिक्षा दर्शन की विचारधाराओं के परिवर्तन के साथ ही साथ अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं के सम्बन्ध एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ और वर्तमान में इन्हें अतिरिक्त क्रियाएँ न मानकर सहगामी क्रियाएँ माना जाने लगा। धीरे-धीरे ये सहगामी क्रियाएँ शिक्षा का एक आवश्यक अंग बन गयीं। आधुनिक विचारधारा के अनुसार ‘पाठ्यक्रम’ विद्यालय के विषय तक ही सीमित नहीं हैं वरन् उसके अन्तर्गत सभी अनुभव आते हैं, जिनका बालक शिक्षालय में एवं उसके बाहर प्राप्त करता है। इसलिये अतिरिक्त क्रियाओं को पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग माना गया एवं अब इन क्रियाओं को पाठ्य सहगामी क्रियाएँ कहा जाता है। निश्चित रूप से दोनों प्रकार की क्रियाओं (पाठ्येत्तर क्रियाएँ एवं पाठ्य सहगामी क्रियाएँ) में से कोई भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों के प्रकार / Types of Co-curricular Activities

विद्यालय में अनेक प्रकार की क्रियाओं की संगठन किया जा सकता है। भारतीय विद्यालयों में प्रचलित पाठ्य सहगामी क्रियाएँ निम्नलिखित हो सकती हैं-

1. शैक्षिक कार्यक्रम (Educational programme)

शैक्षिक कार्यक्रमों के आयोजन का मुख्य उद्देश्य छात्रों को आत्म-प्रकाशन का अवसर प्रदान करना है। इन क्रियाओं के माध्यम से छात्र अपने मन के विचार प्रकट करना सीखते हैं। साहित्यिक क्रियाओं के अन्तर्गत निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं-(1) गोष्ठी, (2) वाद-विवाद प्रतियोगिता, (3) कवि सम्मेलन, (4) भाषण प्रतियोगिताएँ, (5) विद्यालय प्रकाशन विद्यालय पत्रिका, (6) साहित्य परिषद्, भाषा परिषद् । (7) वाद-विवाद एवं निबन्ध प्रतियोगिता । वाद-विवाद
एवं निवन्ध प्रतियोगिता द्वारा छात्र अपने अन्दर भाषण कला का विकास करते हैं। छात्र वाद-विवाद द्वारा भावों को प्रकट करने की विधि सरलता से सीख जाते हैं। अपने अनुभवों को ठीक प्रकार से अभिव्यक्ति देने के लिये विद्यालय पत्रिका एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

2. संगीत एवं नाट्य क्रियाएँ (Musical and dramatic activities)

नाट्य क्रियाएँ छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में बहुत सहायक हैं। इन क्रियाओं के द्वारा छात्रों को आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं। ये उनकी कल्पना, निर्णय आदि शक्तियों के विकास में सहायक है। इन क्रियाओं के माध्यम से छात्र क्रिया करके ज्ञान की प्राप्ति करते हैं। ये बालकों के मूल प्रवृत्तियों के शोधन में भी अत्यधिक सहायक हैं। नाटक के निर्देशन का कार्य अध्यापक को ही करना चाहिये।

नाटक शिक्षाप्रद होने चाहिये। छात्रों को भूमिका प्रदान करते समय यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि एक प्रकार की भूमिका किसी छात्र को नदी जाय। अभिनय प्रदर्शन के समय छात्रों को प्रोत्साहित करने हेतु उनके अभिभावकों को भी आमन्त्रित करना चाहिये। संगीत हमारे देश की प्राचीनतम् एवं लोकप्रिय कला है। वर्तमान पाठ्यक्रम में संगीत को एक विषय के रूप में स्वीकार कर लिया गया हैएवं विद्यालयों में संगीत शिक्षा का प्रबन्ध भी कर दिया गया है। इस कला को प्रोत्साहन देने हेतु विद्यालय में संगीत प्रतियोगिताओं का आयोजन करना चाहिये।

3. खलकूद प्रतियोगिताएं तथा शारीरिक व्यायाम (Games and physical exercise)

खेलकूद द्वारा छात्रों में  स्वास्थ्य का विकास किया जाता है। खेल के मैदान द्वारा उन गुणों का विकास किया जाता है जो कि भावी जीवन को सफल बनाने के लिये बहुत आवश्यक होते हैं। इनके द्वारा छात्रों में टीम भाव, शीघ्रता से निर्णय लेने की क्षमता,तत्परता, कार्य के प्रति उत्साह, नेतृत्व की भावना तथा सहयोग आदि गुणों का विकास किया जाता है। खेलकूद छात्रों को अनुशासन मरहना सिखाते हैं। इसके अतिरिक्त ये छात्रों को सामाजिक, नैतिक तथा नागरिक प्रशिक्षण भी प्रदान करते हैं।

इन क्रिया के आयोजन से निम्नलिखित उद्देश्य पूरे होते हैं-(1) विद्यार्थियों के स्वास्थ्य के रक्षा होती है। (2) स्वस्थ आदतों का विकास होता है। (3) सहयोग करने की भावना का विकास होता है। (4) सामाजिकता का विकास होता है। (5) व्यक्तित्व समायोजन करने का अवसर मिलता है। (6) आत्म-विश्वास, साहस, धैर्य, दूर दृष्टि तथा सुझबूझ आदि जैसे गुणों का विकास होता है। (7) नियमानुसार सही कार्य करने का अभ्यास होता है। (8) खेलने में जय-पराजय को समान भाव से स्वीकार करने का अभ्यास हो जाता है।

4. छात्र परिषद् / छात्र संघ (Student council)

छात्र परिषद् का विद्यालय को समस्त पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस क्रिया के द्वारा छात्रों को स्वशासन का प्रशिक्षण मिलता है। छात्र अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का समुचित ज्ञान प्राप्त करते हैं। अत: छात्र परिषद् के संगठन एवं संचालन द्वारा छात्रों को नागरिकता की शिक्षा प्राप्त होती है। ये विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने में बहुत सहायक हैं।

5. समाज कल्याण सम्बन्धी क्रियाएँ (Social welfare activities)

समाज कल्याण सम्बन्धी क्रियाएँ छात्रों में सामाजिकता एवं सहयोग की भावना के विकास में सहायक हैं। ये क्रियाएं निम्नलिखित है –

(1) समाज सेवा क्लब (Social service club)

बहुत से विद्यालयों में समाज सेवा क्लबों का संगठन किया जाता है। इन सेवा क्लवों का मुख्य उद्देश्य जनता की सेवा करना होता है। ये क्लब आवश्यकता पड़ने पर अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ, प्रौढ़ों को साक्षर बनाना, वाढ़ पीड़ितों की सहायता हेतु धन एकत्रित करना, उनको भोजन तथा वस्त्र आदि पहुँचाना, उत्सव एवं मेले के अवसर पर, संक्रामक रोग फैलने पर आदि । क्लबों के माध्यम से बालक समाज की वास्तविक परिस्थितियों से परिचित हो जाते हैं। बालकों में सामाजिक गुणों-सहयोग, सहानुभूति, प्रेम तथा दया, सहनशीलता आदि का विकास होता है। ये क्लब गरीब छात्रों को यथासम्भव सहायता भी प्रदान करते हैं। अत: प्रत्येक विद्यालय में ऐसे क्लबों का निर्माण अवश्य किया जाना चाहिये।

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(2) सहकारी क्रियाएँ (Co-operative activities)

विद्यालय का एक कर्तव्य बालकों को सहयोग कर पाठ पढ़ाना है। बालकों में सहयोग की भावना का विकास करने हेतु विद्यालय में सहकारी समितियों (Co-operative societies) का संगठन किया जाता है। इस सम्बन्ध में रायबर्न का कथन है-“किसी भी बालक को सामान्य रूप से सहयोग का और विशेष रूप से सहकारी समितियों का ज्ञान प्राप्त किये बिना पाठशाला से नहीं गुजरना चाहिये। वह ज्ञान जितना अधिक व्यावहारिक होगा, उतना ही अच्छा होगा।” सहकारी समितियों का प्रमुख उद्देश्य बालकों में सहयोग की भावना उत्पन्न करना है।

(3) श्रमदान (Social service)

विद्यालयों में श्रमदान की व्यवस्था की जा सकती है। सामाजिक दृष्टि से इस क्रिया का बहुत महत्त्व है। श्रमदान विद्यालय सीमा में हो सकता है अथवा विद्यालय सीमा से बाहर भी। श्रमदान निर्धारित हो सकता है अथवा सामयिका श्रमदान के द्वारा छात्रों के शारीरिक विकास में सहयोग प्राप्त होता है। इससे बालक शारारिक श्रम के महत्व को समझने लगते हैं। श्रमदान द्वारा विद्यालय के दैनिक कार्यों में विविधता लायी जा सकती है। श्रमदान के द्वारा विद्यालय एवं समाज को एक-दूसरे के निकट लाया जा सकता है। बालों में श्रम को आदर की दृष्टि से देखने की भावना को जाग्रत करने के लिये विद्यालय द्वारा विभिन्न कार्य कराये जा सकते हैं; उदाहरणार्थ, विद्यालय की सफायी, रास्तों की सफायी, सड़कों के दोनों ओर पेड़ लगाना आदि।

(4) स्काउटिंग/बालचर एवं गाइडिंग (Scouting and guiding)

स्काउटिंग को सर रॉबर्ट वेडेन पॉवेल (Sir Robert Waden Powell) ने जन्म दिया है। सर पॉवेल के अनुसार-स्काउटिंग एक प्रकार का खेल है, जिसमें सभी भाई मिलकर अवकाश के समय एक ऐसा सत्संग करते हैं, जिसमें बड़े भाई अपने छोटे भाइयों को जीवनोपयोगी व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करते हैं। स्काउटिंग का संगठन आजकल जनसेवा तथा अच्छे गुणों के विकास करने हेतु किया जाता है। स्काउटिंग छात्रों में साहस की भावना तथा प्रकृति के लिये प्रेम उत्पन्न करता है।
स्काउटिंग को आयु के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया है
(1)7 वर्ष से 11 वर्ष तक के बच्चे-शेर बच्चे (Cubs) कहलाते हैं। (2) 11 वर्ष से 17 वर्ष तक के बच्चे-स्काउट (Scout) कहलाते हैं। (3) 17 वर्ष से अधिक आयु वाले- रोवर (Rovers) कहलाते हैं।

गर्ल गाउड को भी आयु के आधार पर इस प्रकार विभाजित किया गया है-
(1) 11 वर्ष से कम आयु वाली बालिकाएँ-बुलबुल (The bloue bird flock) कहलाती हैं। (2) 11 वर्ष से 16 वर्ष की आयु वाली बालिकाएँ-गर्ल गाइड कम्पनी (Girl guide company) के अन्तर्गत आती हैं। (3) 16 वर्ष से अधिक आयु वाली बालिकाएँ- रेंजर कम्पनी (Ranger company) में आती हैं।

(5) जूनियर रेडक्रॉस एवं प्राथमिक चिकित्सा (Junior Redeross and First Aid)

रेडक्रॉस एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है जिसकी विद्यालयों में पायी जाने वाली शाखा जूनियर रेडक्रॉस कहलाती है। अन्य क्रियाओं के साथ-साथ जूनियर रेडक्रॉस सोसाइटी’ एवं प्राथमिक चिकित्सा क्लब’ का विद्यालय की पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन संस्थाओं के संगठन का प्रमुख उद्देश्य छात्रों को नित्य प्रति दुर्घटनाओं में चोट के लिये सामान्य उपचार की शिक्षा प्रदान करना है। इनका संगठन स्वास्थ्य शिक्षक या स्काउट मास्टर की अध्यक्षता में किया जाना चाहिये। आवश्यकता पड़ने पर इनके संचालन हेतु धनराशि चन्दा लेकर भी एकत्रित की जा सकती है।

संगठन के सभी सदस्यों को समय- समय पर स्वास्थ्य सम्बन्धी सामान्य सिद्धान्तों से अवगत कराना चाहिये। संस्था के सदस्य अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये आसपास के डॉक्टर की सहायता ले सकते हैं। पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति तथा भ्रातृत्व भाव आदि मानवीय गुणों का विकास करने के लिये जूनियर रेडक्रॉस जैसी क्रियाएँ बहुत लाभदायक रहती हैं। जूनियर रेडक्रॉस में छात्र को प्राथमिक चिकित्सा, प्राथमिक सहायता, अग्निशमन, रोगों को जानना एवं उनकी रोकथाम के उपायों आदि की शिक्षा प्रदान की जाती है, जो कि जीवन के लिये बहुत ही उपयोगी होती है।

(6) विद्यालय प्रार्थना सभा (Morning assembly)

विद्यालय कार्यक्रम प्रार्थना सभा से ही प्रारम्भ होता हा इस प्रवृत्ति का नैतिक, मनोवैज्ञानिक एवं प्रशासनिक दृष्टि से अत्यंत महत्व है। नियमित प्रार्थना के माध्यम से ईश्वर, राष्ट्र एवं समाज के प्रति निष्ठा, आदर का स्वतः प्रभाव विद्यार्थियों पर पड़ता है।  इसका मनोविज्ञान प्रभाव भी पड़ता है जो सारे दिन विद्यालय पर्यावरण में व्याप्त रहता है। प्रशासनिक दृष्टि से भी इसका महत्व है। बालको को निर्देशन देने सबसे उपयुक्त स्थल प्रार्थना सभा ही होता है। प्रार्थना सभा, वस्तुतः सहयोग से कार्य करने का प्रशिक्षण स्थल है। यही वह स्थल है जहाँ धार्मिक भजन एवं संगीत के पर्यावरण में विद्यार्थियों में आध्यात्मिक अनुभूति के भाव पैदा किये जा सकते हैं।

(7) शैक्षिक भ्रमण अथवा यात्राएँ (Educational tours or excursions)

अवकाश के समय छात्र प्रायः बिना उद्देश्य के घूमते-फिरते रहते हैं। परिभ्रमण एवं यात्राओं द्वारा उनके घूमने-फिरने की इच्छाओं को सन्तुष्ट कर उचित मार्ग पर लाया जा सकता है। अत: अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे समय-समय पर परिभ्रमण की योजनाएँ बनायें। आधुनिक शिक्षा विधियों में इसका बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा बहुत से पाठ्य-विषयों का शिक्षण बहुत रोचक ढंग से किया जा सकता है। भ्रमण द्वारा छात्रों को विभिन्न स्थानों, वस्तुओं आदि का वास्तविक अध्ययन कराया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त छात्र भ्रमण द्वारा अपने स्थानीय वातावरण का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। भ्रमण को ले जाने से पूर्व शिक्षक को छात्रों की सहायता से उसकी योजना तैयार कर लेनी चाहिये। इस प्रकार शैक्षिक भ्रमणों का भी बहुत ही अधिक शैक्षिक महत्त्व है। पुस्तकें बालकों को प्राय: सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करती हैं परन्तु जब बालक किन्हीं वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं तो वे वास्तविक ज्ञान प्रापर कर लते हैं। यह ज्ञान अधिक स्थायी होता है। भ्रमणों से विद्यालय जीवन में सरसता तथा क्रियाओं में विविधता आती है। इससे विद्यालय जीवन की नीरसता का अन्त होता है।

(8) एन.सी.सी. (N.C.C.)

अब देश के अधिकांश विद्यालयों में एन.सी.सी. प्रारम्भ की गयी है। इसके पीछे निम्नलिखित उद्देश्य निहित हैं-(1) छात्रों का शारीरिक, मानसिक एवं चारित्रिक विकास करना। (2) देश रक्षा की दूसरी पंक्ति तैयार करना। (3) नेतृत्व के गुणों का विकास करना। (4) देश प्रेम की भावना का विकास करना। (5) अनुशासन एवं आत्म-विश्वास का विकास करना । (6) शारीरिक श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण विकसित

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6. सांस्कृतिक कार्यक्रम (Cultural programme)

इनके अन्तर्गत वे विभिन्न क्रियाएँ आती हैं, जो कि शैक्षिक महत्त्व की होने के साथ-साथ मनोरंजन भी प्रदान करती हैं; जैसे-वागवानी में कार्य करना, किसी प्रोजेक्ट कार्य को करना तथा सत्र के अन्त में समारोह का आयोजन करना आदि। इन क्रियाओं द्वारा छात्रों में अवकाश के समय का सदुपयोग करने के लिये विभिन्न रुचियाँ एवं अभिरुचियाँ उत्पन्न की जाती है।

उदाहरणार्थ, विद्यालय दिवस, असेम्बली, प्रदर्शनी आदि। विद्यालय में विभिन्न प्रकार के प्रिय व्यापार की अवस्था भी हो सकती है; जैसे-फोटोग्राफी, टिकट संग्रह करना, सिक्के संग्रह करना, बागवानी तथा ऐतिहासिक कलाकृतियों के नमूने संग्रह करना आदि। इनके अतिरिक्त विद्यालय क्लब एवं रेडियो क्लब आदि भी निर्मित किये जा सकते हैं। इन क्रियाओं का बहुत ही शैक्षिक महत्त्व है। इसके आयोजन एवं संगठन में छात्रों को अधिकाधिक सहयोग लिया जाना चाहिये। विद्यालय में वार्षिकोत्सव, छात्रसंघ दिवस, छात्र सम्मेलन, राष्ट्रीय पर्वो का आयोजन तथा अभिभावक दिवस आदि भी मनाया जाना चाहिये। ये क्रियाएँ छात्रों के चरित्र निर्माण में भी, बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं।

7. राष्ट्रीय पर्व (National festivals)

इसके अंतर्गत  राष्ट्रीय पर्व छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त तथा दो अक्टूबर आते हैं। इनको मनाने से छात्रों में देशप्रेम की भावना का विकास होता है। छात्रों को अपने इतिहास का पता चलता है एवं वो सदैव देश की सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं।

8. बागवानी एवं सत्रान्त समारोह (Gardening and annual function)

बागवानी को भी पाठ्य सहगामी क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। इसके माध्यम से छात्र पर्यावरण के महत्त्व को सीखते हैं और पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान प्रस्तुत करते हैं। सत्र के अन्त में समारोह आयोजित करने से छात्रों को नयी-नयी बातें सीखने को मिलती हैं। इसमें विभिन्न कार्यक्रमों में छात्र भाग लेते हैं जिससे उनमें आवश्यक कौशलों का विकास होता है।

पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों के लाभ / Advantages of Co-curricular Activities

पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों के निम्नलिखित लाभ हैं-
(1) इनके द्वारा बालकों में नेतृत्व शक्ति का विकास होता है। (2) बालकों का शारीरिक विकास होता है। (3) सहगामी क्रियाओं से सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति होती है। (4) ये क्रियाएँ बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के उपयुक्त हैं। (5) नागरिकता की शिक्षा देने में ये क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण योग देती हैं। (6) इनके द्वारा छात्र अवकाश के क्षणों का उचित उपयोग करना सीख जाते हैं। (7) विद्यालय में इन क्रियाओं के आयोजन द्वारा समाज तथा विद्यालय एक-दूसरे के निकट आते हैं एवं एक-दूसरे का लाभ उठाते हैं। (8) इनके द्वारा बालकों के चरित्र का विकास होता है। (9) बालकों का मानसिक विकास होता है। (10) बालकों की अनेक मूल प्रवृत्तियों का शोधन तथा मार्गान्तरीकरण होता है।


पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों का स्वरूप एवं महत्त्व / Form and Importance of Co-curricular Activities

विद्यालय में पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों के बिना सरसता उत्पन्न नहीं होती। इसके अभाव में विद्यालयी जीवन में नवीनता उत्पन्न नहीं होती एवं छात्रों का केवल एकांगी विकास होता है। अत: विद्यालयों में बालों के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक है कि सहगामी क्रियाओं पर पर्याप्त बल दिया जाय। कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनमें कार्य के अतिरिक्त खेल के गुण अधिक होते हैं; यथा-विविध प्रकार की हॉबी, वाद-विवाद, नाट्यीकरण आदि, जिनसे विद्यार्थियों की सृजनात्मकता और अभिवृत्ति के विकास को प्रोत्साहन मिलता है। प्रत्येक विद्यालय को विविध प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन करना चाहिये जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपनी रुचि और क्षमता के आधार पर कुछ प्रवृत्तियों में भाग ले सके। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठ्य सहगामी क्रियाओं का बालकों के जीवन में बहुत महत्त्व है। इन क्रियाओं के लाभ निम्नलिखित है-

1. नैतिक प्रशिक्षण (Moral training)-पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के द्वारा नैतिक प्रशिक्षण के लिये वास्तविकता प्रदान की जानी है, जिसमें बालक भाग लेकर उन गुणों को सीखता है, जो चरित्र निर्माण के आवश्यक तत्त्व हैं। इनके द्वारा छात्र अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को भूलकर समूह के लिये त्याग करना सीखते हैं। सामूहिक खेलकूदों में भाग लेने से उनकी ईमानदारी, सत्यता तथा न्यायप्रियता की परीक्षा हो जाती है। अपने नेता द्वारा जो आज्ञाएँ दी जाती हैं, उनका वे प्रसत्रता से पालन करते हैं। इस प्रकार आत्म-अनुशासन की भावना उनमें स्वत: उत्पन्न हो जाती है।

2. सामाजिक प्रशिक्षण (Social training)- पाट्य सहगामी क्रियाएँ इस उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत सहयोग प्रदान करती हैं। समाज-सेवा, शिविर, स्काउटिंग, स्कूल, श्रमदान तथा रेडक्रॉस आदि के द्वारा बालकों में सामाजिकता का विकास किया जा सकता है। इनके द्वारा बालक सामाजिक आचार-विचारों को सीखता है, सामाजिक व्यवहारों का ज्ञान प्राप्त करता है तथा सामाजिक बुराइयों तथा कुरीतियों से अवगत होकर उनके प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करता है। छात्र इन क्रियाओं की सहायता से सहयोग, टॉम भावना, नतृत्व, महत्त्व, शक्ति, स्वस्थ एवं स्पष्ट चिन्तन तथा शद्ध निर्णय आदि गुण का अपने विचार एवं व्यवहार में प्रयोग करना स्वत: ही सीख जाते है।

3. नागरिक प्रशिक्षण (Citizen training)-पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की सहायता से किशोरों में अनेक ऐसे गुणों का विकास किया जा सकता है, जो एक सुनागरिक के लिये आवश्यक है। छात्रों को अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान कराने हेतु ये क्रियाएँ एक शसक्त साधन है। इनके द्वारा छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जा सकता है। ये क्रियाएं बालकों को वास्तविक स्थितियों का सामना करन, समुदाय का सेवा करने एवं स्वतन्त्र निर्णय लेने में सहायक होती है। ये क्रियाएँ बालकों में लोकतन्त्रीय नागरिकता का भी विकास करता है। इस प्रकार पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से छात्र प्रजातन्त्र तथा नागरिकता काव्यावहारिक पाठ पढ़ते हैं। वे शासन में भाग लेना तथा शासित होने की कला भी सीखते हैं। इन क्रियाओं द्वारा छात्रों में सहयोग, सहानुभूति, नेतृत्व एवं दलीय मित्रता आदि अनेक गुणों का विकास किया जा सकता है।

4. किशोरावस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति (Satisfaction of the needs of adolescent)- यह अवस्था अत्यन्त कोमल होती है। इस समय बालक में अतिरिक्त शक्ति का आधिक्य पाया जाता है तथा उसकी मानसिक स्थिति में जिज्ञासाओं का एक तूफान सा छाया रहता है। छात्र की मानसिक दशा अत्यधिक भावुक हो उठती है। अनेक प्रकार के मानसिक विकास उसे घेर लेते हैं।

अत: इस अवस्था में छात्र को उचित प्रकार से मानसिक भावना को प्रकट करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। पात्य सहगामी क्रियाओं द्वारा उनकी अतिरिक्त शक्ति एवं मूल प्रवृत्तियों को विभिन्न उपयोगी धाराओं में प्रवाहित किया जाता है एवं छात्र के भावुक मन को उचित मार्ग में ला सकते हैं। इस प्रकार छात्र की काम-बासना को कविता, वाद-विवाद, खेलकुद, संगीत, कला एवं नृत्य आदि में लगाकर शोधित किया जा सकता है। अत: ये क्रियाएँ किशोर अवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ छात्रों की मूल प्रवृत्तियों का शोधन भी करती हैं।

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5. अवकाश के समय का सदुपयोग (Proper use of leisure time)-वर्तमान युग में अवकाश के क्षणों का सदुपयोग करने की कला सीखना नितान्त आवश्यक है। सहगामी क्रियाओं के माध्यम से बालक अपनी रुचि के अनुसार हॉबी का विकास कर लेते हैं। इन क्रियाओं द्वारा उनकी रुचियों में कलात्मकता आ जाती है। वे अतिरिक्त समय में वाद-विवाद,खेलकूद आदि करते हैं। साहित्य पढ़कर, निबन्ध प्रतियोगिता एवं कविता प्रतियोगिता आदि में भाग लेकर वे बचपन से ही अध्ययन की ओर प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार इन क्रियाओं के माध्यम से बालक समय का सदुपयोग सीखते हैं एवं इनसे बालक की रुचियों के विकास पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

6.विद्यार्थियों के रुचि का विकास (To develop interest of students)-पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा छात्रों में विभिन्न रुचियों का विकास किया जाता है। रुचि सीखने की प्रक्रिया का आधार है। अतः इन क्रियाओं के माध्यम से इस बात का पता चल जाता है कि बालकों की वास्तविक रुचियाँ क्या है ? विद्यार्थियों की रुचियों का पता चल जाने पर उनके लिये उनकी रुचि के अनुसार सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जा सकता है और इस प्रकार उनकी रुचियों को विकसित होने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है। विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ बालकों में कुछ विशेष रुचियों को उत्पन्न करने में बहुत सहायक हैं। ये विभिन्न रुचियां एवं कुशलताएँ बालक के भावी जीवन को समृद्ध एवं सफल बनाने में भी सहायक सिद्ध होती है।

7. अनुशासन स्थापन में सहायक (Helpful in establishing discipline) सहगामी क्रियाओं के द्वारा अनुशासनहीनता भी समाप्त की जा सकती है। जब बालक इन रचनात्मक क्रियाओं में भाग लेता है तो उसे विध्वंसात्मक तथा अनुशासनहीन क्रियाओं करने का समय ही नहीं मिल पाता। अतः स्पष्ट है कि इन क्रियाओं के द्वारा शिक्षालय में अनुशासन स्थापित किया जा सकता है।  इस प्रकार सहगामी क्रियाओं के द्वारा अनुशासनहीनता की समस्या समाप्त की जा सकती है एवं बालक अपनी अतिरिक्त शक्ति (Surplus energy) को तोड़-फोड़ में न लगाकर सृजनात्मक कार्यों में लगाने लगते हैं।

8. शारीरिक विकास (Physical development)-सहगामी क्रियाएँ बालक के शारीरिक विकास में सहायक होती हैं। खेलकूद, तैराकी, एन.सी.सी तथा ड्रिल, परेड आदि स्वस्थ शारीरिक विकास के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

9. नेतृत्व की भावना का विकास (Development of the feeling of leader-ship)-पाठ्य सहगामी क्रियाओं के द्वारा बालों में धैर्य, आत्म-विश्वास, साहस, कार्य के लिये उत्साह, विश्वास तथा तत्परता आदि गुर्गों का विकास होता है। अत: स्पष्ट है कि नेतृत्व की भावना एवं भावी जीवन के लिये प्रशिक्षण कक्षा के द्वारा प्रदान नहीं किया जाता वरन् इन क्रियाओं के द्वारा प्रदान किया जाता है।

10. मनोरंजन प्रदान करना-पाठ्य सहगामी क्रियाएँ बालकों का मनोरंजन भी करती हैं। कक्षा के घुटनपूर्ण वातावरण में बालक को शीघ्र ही थकान का अनुभव होने लगता है। इस थकान को दूर करने में सहगामी क्रियाएँ बहुत सहायक होती हैं। इनके द्वारा छात्रों का श्रम के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित होता है एवं वे प्रसन्नतापूर्वक स्वयं करके सीखते हैं।
अत: यह स्पष्ट है कि विद्यालय में सहगामी क्रियाओं का बहुत महत्त्व है एवं इनके द्वारा व्यक्तित्व का सन्तुलित तथा सर्वांगीण विकास सम्भव है। इस प्रकार सहगामी क्रियाएँ पाठ्यक्रम में बाधक न होकर उसकी पूरक तथा आवश्यक अंग हैं।

पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाकलापों के उद्देश्य एवं सिद्धांत / Aims and Principles of Co-curricular Activities

1. विविधता (Variety)-पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संगठन में विविधता के सिद्धान्त को अवश्य अपनाना चाहिये, उनका संगठन इस प्रकार से हो कि समस्त छात्र व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर अपनी इच्छा, रुचि एवं योग्यता के अनुसार इन क्रियाओं में भाग ले सकें।

2. छात्रों का सहयोग (Student’s co-operation)-सहगामी क्रियाओं के संगठन में छात्रों का परामर्श लिया जाना चाहिये। अध्यापक इन क्रियाओं में छात्रों को स्व-शासन प्रदान करें। जहाँ तक हो सके छात्र ही इन क्रियाओं का संचालन करें। अध्यापक केवल मार्गदर्शक ही रहें।

3. शिक्षक पथ-प्रदर्शक (Teacher as a guide)-शिक्षकों को इन क्रियाओं का उत्तरदायित्व योग्यता एवं रुचि को ध्यान में रखते हुए दिया जाय। प्रत्येक क्रिया को एक अध्यापक की देखरेख में सम्पन्न करें परन्तु उसी अध्यापक को इन्चार्ज बनाया जाय, जिसमें उस क्रिया के संचालन हेतु रुचि एवं योग्यता हो । जो भी शिक्षक जिस क्रिया का अध्यक्ष बनाया जाय, वह उस क्रिया को संगठित करने वाले छात्रों की क्षमता में विश्वास रखे एवं समय-समय पर उनका पथ-प्रदर्शन करे।

4. साधनों की पर्याप्तता (Adequate means)-सहगामी क्रियाओं की योजना विद्यालय के साधनों के अनुसार होनी चाहिये। अत: कोई भी क्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व यह देख लिया जाना चाहिये कि उसके संचालन हेतु पर्याप्त साधन एवं सुविधाएं उपलब्ध हों। यदि इसके विपरीत कार्य किया जायेगा तो इनका संगठन विधिवत् नहीं हो पायेगा।

5. क्रियाओं के चयन में स्वतन्त्रता (Freedom in selection of activities)- छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार क्रियाओं का चयन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाय, जिससे वे उन्हीं क्रियाओं में भाग ले सकें, जिनमें उनकी रुचि हो। छात्रों पर किसी क्रिया को लादा नहीं जाना चाहिये।

6. शनैः शनैः कार्यान्वित करना-विद्यालय में इन क्रियाओं को धीरे-धीरे लागू किया जाना चाहिये एवं समस्त क्रियाओं को एक साथ लागू नहीं किया जाना चाहिये।

7. उचित निरीक्षण व्यवस्था (Proper supervision) प्रधानाध्यापक को समय- समय पर स्वयं पकठ्य सहगामी क्रियाओं का निरीक्षण करते रहना चाहिये एवं उनकी कमियों को दूर करने हेतु उपयुक्त सुझाव प्रस्तुत करने चाहिये। अतः इस क्रियाओं के संगठन को सफलतापूर्वक परिचालित करने के लिए समय समय पर  निरीक्षण होना चाहिये।

8. समय तालिका में स्थान प्रदान करना (Providing in place time-table) – पाठ्य सहगामी क्रियाओं को विद्यालय की समय तालिका में स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। इससे इन क्रियाओं का महत्व छात्रों एवं अध्यापकों के समझ मे आ जाएगा।


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