विज्ञान शिक्षण के सिद्धांत, विधियां, शिक्षण सूत्र एवं सहायक सामग्री | CTET SCIENCE PEDAGOGY

दोस्तों अगर आप CTET परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो CTET में 50% प्रश्न तो सम्मिलित विषय के शिक्षणशास्त्र से ही पूछे जाते हैं। आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com आपके लिए विज्ञान विषय के शिक्षणशास्त्र से सम्बंधित प्रमुख टॉपिक की श्रृंखला लेकर आई है। हमारा आज का टॉपिक विज्ञान शिक्षण के सिद्धांत, विधियां, शिक्षण सूत्र एवं सहायक सामग्री | CTET SCIENCE PEDAGOGY  है।

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विज्ञान शिक्षण के सिद्धांत, विधियां, शिक्षण सूत्र एवं सहायक सामग्री | CTET SCIENCE PEDAGOGY

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विज्ञान शिक्षण की पाठयोजना

किसी भी कार्य को करने के लिए पूर्व नियोजन की आवश्यकता होती है। बिना पूर्व नियोजन के कार्य के उद्देश्यहीन और दिशाहीन होने की संभावना होती है। अध्यापन का कार्य भी बिना नियोजन के ठीक प्रकार से नहीं हो सकता है। कक्षा में सफल एवं प्रभावी शिक्षण के लिए पाठ योजना अत्यंत आवश्यक है। जो शिक्षक अपने अध्यापन कार्य को सफल एवं प्रभावी शिक्षण के रूप में करना चाहता है, उनके पास विषय वस्तु से सम्बंधित योजना होती है। पाठ योजना के माध्यम से अध्यापक को शिक्षण बिन्दु का ज्ञान प्राप्त होता है। पाठ योजना किसी इकाई के अन्तर्गत उप इकाई के लिए बनाई गई योजना को कहते हैं। शिक्षण प्रक्रिया के दौरान पाठ योजना में अध्यापक ही केन्द्र बिन्दु के रूप में कार्य करता है।

हरबर्ट पाठ योजना

पाठ योजना से सम्बंधित जो उपागम जे.एफ. हरबर्ट ने दिया था उसे हरबर्ट पाठ योजना कहते है। इसके 6 सोपान हैं –

(i) तैयारी अवस्था

इस अवस्था में अध्यापक बच्चों के पूर्व ज्ञान को जान कर, प्रश्न पूछकर, कहानी सुनाकर, प्रयोग करके,चार्ट, मॉडल आदि दिखाकर उनको नवीन ज्ञान सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है।

(ii) प्रस्तुतीकरण

इस अवस्था में शिक्षक निरीक्षण द्वारा, तथ्यों एवं आंकड़ों के अवलोकन द्वारा, नवीन ज्ञान से सम्बंधित प्रश्न पूछकर, तथ्यों के मध्य संबंध स्थापित करके आदि के द्वारा नवीन ज्ञान को प्रस्तुत करता है।

(iii) तुलना

इस चरण में प्राप्त ज्ञान को सामान्य परिस्थितियों में रखकर स्थायी बनाया जाता है।

(iv) सामान्यीकरण

इस अवस्था में शिक्षक आगमन और निगमन विधि का प्रयोग करता है एवं छात्रों को सक्रिय रूप से भागीदार बनाता है।

(v) अनुप्रयोग

इस अवस्था में शिक्षक अभ्यास के लिए प्रश्न देता है और छात्रों में स्पर्धा की भावना विकसित करता है।

(vi) मूल्यांकन और संक्षिप्तीकरण

इसके माध्यम से शिक्षक को यह जानने में सहायता मिलती है कि छात्रों ने ज्ञान को किस सीमा तक सीखा है।

विज्ञान शिक्षण के सिद्धान्त

शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:

(1) क्रियाशीलता का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य है ‘करके सीखना’। शिक्षार्थी जब ‘करके सीखता है’ तब उसका ज्ञान स्थाई हो जाता है। यह सिद्धान्त शिक्षार्थियों में वास्तविक अवलोकन को बढ़ावा देता है। इस सिद्धान्त से शिक्षार्थियों में आलोचनात्मक चिंतन और समस्या समाधान के लिए क्षमता का विकास होता है। शिक्षार्थी जितना ज्यादा क्रिया-कलापों में लिप्त होगा उसका ज्ञान उतना ही बढ़ेगा। शिक्षार्थियों को कई तरह की गतिविधियों के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। जैसे किसी पौधे के विषय में जानकारी देना है या उसके भागों के बारे में बताना है तब उस से कहा जा सकता है कि वह ज्यादा-से-ज्यादा पौधों और उनके भागों का अवलोकन करे। यह सिद्धान्त शिक्षार्थियों को प्रत्यक्ष हस्तपरक अनुभव कराता है। इस से अधिगम सक्रिय एवं सार्थक होता है। इससे शिक्षार्थियों में स्वयं सीखने/स्व-अध्याय और अवलोकन कौशलों का विकास होता है।

(2) रूचि का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य शिक्षार्थियों में अधिगम के प्रति रूचि पैदा करना और उनमें जिज्ञासा उत्पन्न करना है। अतः पर्यावरण विषय-वस्तु ऐसी होनी चाहिए जिससे शिक्षार्थी उसमें रूचि ले। किस्से-कहानियाँ, कविताएँ, पहेलियाँ आदि को पर्यावरण अध्ययन में शामिल करने का उद्देश्य भी विषय-वस्तु को रोचक बनाना है। इससे शिक्षार्थियों का आमोद-प्रमोद होता है और उनमें  कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता का विकास होता है।

(3) प्रेरणा/अभिप्रेरणा का सिद्धान्त

प्रेरणा/अभिप्रेरणा किसी भी शिक्षण का मुख्य केन्द्र होता/केन्द्र बिन्दु होता है। अभिप्रेरणा वह सिद्धान्त है जो शिक्षण को लक्ष्य निर्देशित बनाता है। अभिप्रेरणा शिक्षार्थी को आन्तरिक बल प्रदान करती है जिससे वह निरंतर क्रियाशील बना रहता है, उसमें अधिगम के प्रति रूचि उत्पन्न होती है और उसमें नैतिक,चारित्रिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विकास होता है।

(4) नियोजन का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत शिक्षण की एक योजना बनानी चाहिए तत्पश्चात् शिक्षार्थियों को अधिगम कराना चाहिए। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत शिक्षार्थियों के क्षमताओं, योग्यताओं आदि का ध्यान रखना चाहिए। इस सिद्धान्त में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए –
◆ कार्य विश्लेषण
● शिक्षण उद्देश्यों की पहचान और
◆ अधिगम उद्देश्यों का निर्धारण

(5) निश्चित उद्देश्यों का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत लक्ष्य निर्धारित अधिगम कराया जाता है। जब शिक्षार्थी को यह पता होता है कि उसके अधिगम का लक्ष्य क्या है तब वह रूचि के साथ अधिगम करता है।

(6) वैयक्तिक भिन्नताओं का सिद्धान्त

प्रत्येक शिक्षार्थी की सीखने की क्षमता, स्तर एक जैसा नहीं होता है। उसके सीखने की क्षमता, स्तर को जन्मजात और वातावरणीय कारक प्रभावित करते हैं। कोई शिक्षार्थी रट कर सीख लेता है तो कोई हस्तपरक गतिविधि करकें। कोई शिक्षार्थी जल्दी सीखता है तो कोई देर से। अर्थात् शिक्षार्थी बहुबुद्धि वाले होते हैं।

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(7) आवृत्ति का सिद्धान्त

अधिगम के स्थाई एवं सार्थक बनाने में इस सिद्धान्त का अति महत्त्व है। विषय वस्तु की एक निश्चित अंतराल पर आवृत्ति होने से शिक्षार्थी उसके सम्पर्क में रहता है और उसका ज्ञान बढ़ता है।

(8) लोकतान्त्रिक/प्रजातान्त्रिक मूल्यों का सिद्धान्त

पाठ्यक्रम इस प्रकार होना चाहिए जिससे शिक्षार्थियों में प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास हो। उनमें सामाजिक मूल्यों का विकास हो। शिक्षार्थी समूह में रह कर कार्य करें, एक दूसरे से विचार-विमर्श करें, एक-दूसरे के विचारों को समझें आदि जैसी भावनाओं का विकास हो।

विज्ञान शिक्षण के शिक्षण सूत्र

अधिगम को प्रभावी एवं सफल बनाने के लिए शिक्षण सिद्धान्तों के साथ-साथ, एक शिक्षक को शिक्षण-सूत्रों का भी प्रयोग करना चाहिए। ये शिक्षण सूत्र निम्नलिखित हैं –

(1) ज्ञात से अज्ञात की ओर

शिक्षार्थियों को अधिगम कराने से पूर्व, उस विषय वस्तु से सम्बन्धित पूर्व ज्ञान जो शिक्षार्थी जानता है, से पाठ का आरम्भ करना चाहिए। पूर्व ज्ञान को आधार बना कर शिक्षार्थियों को नवीन ज्ञान प्रदान करना चाहिए। जैसे पाचन को, भोजन के पूर्व ज्ञान बिना नहीं पढ़ाया जा सकता है। पाचन का अधिगम तभी प्रभावी और सफल होगा जब शिक्षार्थियों को भोजन के विषय में पता होगा।

(2) मूर्त से अमूर्त की ओर

शिक्षार्थियों को आरम्भ में ऐसी बातों का ज्ञान कराना चाहिए जिसे वे छू सकें, देख सके तत्पश्चात् उनको कल्पनाशीलता (अमूर्त) का ज्ञान कराना चाहिए। जैसे : शिक्षार्थियों को एक उड़ने वाला पक्षी दिखाया गया और घोड़ा तत्पश्चात् उनसे कहा गया कि वे सोचें कि उड़ने वाला घोड़ा कैसा होगा ? तब वे कल्पना करेंगे कि उड़ने वाले घोड़े के भी पंख होंगे तभी वह उड़ता होगा।

(3) सरल से जटिल की ओर

शिक्षार्थियों के अधिगम की शुरूआत सरल बातों से करनी चाहिए तत्पश्चात्उ नको जटिल अवधारणाएँ और तथ्य बताना चाहिए। जैसे – विभिन्न आवासों के विषय में बताने से पहले शिक्षार्थियों से प्रश्न करना चाहिए कि वे किस प्रकार के आवासों में रहते हैं तत्पश्चात् उन्हें बताना चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों के आवासों में भिन्नता का कारण क्या है?

(4) पूर्ण से अंश की ओर

अधिगम कराये जाने से पहले पाठ का सारांश प्रस्तुत करना चाहिए उसके बाद विभिन्न अंशों का। जैसे – यातायात के साधनों के विषय में पढ़ाने से पहले उन्हें यातायात के साधनों के विषय में बताना चाहिए और उसके उपरान्त एक-एक यातायात के साधनों के फायदे और नुकसान के बारे में बताना चाहिए।

(5) विशिष्ट से सामान्य की ओर

सर्वप्रथम शिक्षार्थियों को एक विशेष उदाहरण के द्वारा विषय के अर्थ को स्पष्ट करना चाहिए। उसके उपरान्त अन्य उदाहरण देते हुए विषय का सामान्यीकरण करना चाहिए। जैसे – शिक्षार्थियों को यह बताना चाहिए कि भोजन हमारे लिए क्यों आवश्यक है। उसके बाद अन्य उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट करना चाहिए कि अन्य जीवों को भोजन की आवश्यकता क्यों होती है। अन्त में यह सामान्यीकरण प्रस्तुत करना चाहिए कि सभी जीवों को भोजन की आवश्यकता होती है।

(6) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर

पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु के तथ्यों के विषय में व्यापक जानकारी देनी चाहिए और उसके उपरांत उन तथ्यों को संयोजित कर संश्लेषण करना चाहिए। अर्थात् किसी विषय-वस्तु पर व्यापक रूप से चर्चा करके उसका सारांश प्रस्तुत करना चाहिए। जैसे – जंगलों के दोहन (कटाई) से होने वाले नुकसान के विषय में व्यापक रूप से चर्चा करके यह सारांश प्रस्तुत किया जा सकता है कि जंगल पर्यावरण में संतुलन बनाये रखने के लिए अति आवश्यक हैं।

(7) अनुभव से तर्क की ओर

शिक्षार्थी अपने आस-पास के वातावरण का अवलोकन करते हैं और उनके अवलोकन से उनके अनुभव जुड़े होते हैं और इस अनुभव के उनके अपने-अपने तर्क होते हैं। जैसे – कोई बालक यह कहता है कि हल्दी लगाने से उसकी चोट ठीक हो जाती है वहीं दूसरा बालक यह कहता है कि लौंग से उसके दाँत का दर्द ठीक हो जाता है और दवाई की जरूरत नहीं पड़ती। दोनों का तर्क है कि वे बिना दवाई खाये सही हो जाते हैं। उनको यह बताया जा सकता है कि कुछ मसालों को दवाई के रूप भी प्रयोग किया जाता है। बच्चों का अनुभव उन्हें संसार से जोड़ने, विमर्श करने और सीखने की प्रक्रिया को बढ़ाता है।

(8) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर

शिक्षार्थियों को पहले प्रत्यक्ष ज्ञान देना चाहिए तत्पश्चात् अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान में शिक्षार्थी जो देखता है उसे सरलता से ग्रहण कर लेता है जबकि अप्रत्यक्ष ज्ञान को ग्रहण करने में उसे कठिनाई होती है। जैसे – ग्रहों, उपग्रहों के विषय में पढ़ाने से पहले शिक्षार्थियों को तारों, सूर्य और चन्द्रमा के विषय में पढ़ाना चाहिए क्योंकि तारे, सूर्य और चन्द्रमा को शिक्षार्थी देखता है।

(9) अनिश्चित से निश्चित की ओर

बालक को ज्ञान होता पर अनिश्चित और अस्पष्ट। उसके ज्ञान को शुरूआत मान कर उसे निश्चित ज्ञान की ओर अग्रसर करना चाहिए।

विज्ञान शिक्षण की विधियाँ

अच्छा पढ़ाने के तरीके वही होते हैं जिनमें कई तरीकों का मिश्रण हो। प्रयोग विज्ञान के प्रमाण चिह्न हैं,और विज्ञान सीखने के लिए अनिवार्य भी हैं। प्रयोग आधारित विज्ञान के अधिगम को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षकों और विद्यार्थियों के पास जगह और समय होना चाहिए। वैज्ञानिक पद्धतियों के कई चरण होते हैं- जैसे गौर से अवलोकन करना, नियमितताओं और खास पैटर्न की तलाश करना, संकल्पनाओं का निर्माण करना, गणितीय ढाँचा तैयार करना, निष्कर्ष निकालना, निष्कर्षों की जाँच करना और उन सिद्धान्त और नियमों तक पहुँचना जो भौतिक जगत को नियंत्रित करते हैं।

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विज्ञान के नियमों को कभी भी अंतिम सच के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि अनुभव, प्रयोग व विश्लेषण के आधार पर इनमें परिवर्तन होता रहता है। विज्ञान शिक्षा संदर्भ आधारित होती है इसलिए शोध/अनुसन्धान हमारे अपने परिवेश में होने चाहिए। सीखने की प्रक्रिया में विद्यार्थी की धारणाओं और संकल्पनाओं को पुनः निर्मित करने की आवश्यकता होती है। विज्ञान की शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं:

(1) व्याख्यान विधि

यह विधि सबसे सरल एवं प्राचीन है। इसमें शिक्षक विषय वस्तु से सम्बंधित तथ्यों, सिद्धान्तों, नियमों, प्रक्रियाओं आदि को मौखिक रूप से स्पष्ट करता है। यह अध्यापक केन्द्रित विधि है अतः छात्र निष्क्रिय रहते हैं। इसमें समय की बचत होती है। इससे छात्रों का ज्ञान स्थाई नहीं होता है।

(2) पाठ्यपुस्तक विधि

यह भी एक प्राचीन एवं परम्परागत प्रणाली है। इसमें छात्र और शिक्षक दोनों ही सक्रिय रहते हैं। यह छोटी कक्षाओं के लिए उपयुक्त है। इस विधि से कम समय में ज्यादा ज्ञान दिया जाता है। यह विधि रटने की प्रवृति को बढ़ाती है।

(3) प्रदर्शन विधि

इस विधि में सिद्धान्तों या तथ्यों को प्रयोगों द्वारा स्पष्ट किया जाता है।यह छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान देती है। यह छात्रों में उत्साह पैदा करती है।
यह छात्रों में निरीक्षण, तर्क एवं विचार शक्ति का विकास करती है। यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयुक्त है।

(4) विश्लेषण एवं संश्लेषण विधि

ये दोनों विधियाँ एक दूसरे की पूरक हैं। आइए इनको अलग अलग समझते हैं।

(A) विश्लेषण विधि

इसका शिक्षण सूत्र है अज्ञात से ज्ञात की ओर। यह विधि खोज करने की प्रभावशाली विधि है। इसमें विषय वस्तु को सिखाने में अधिक समय लगता है। इस विधि में किसी समस्या को छोटे-छोटे भागों में विभक्त किया जाता है। यह छात्रों में कल्पना, तर्क, चिन्तन आदि का विकास करती है। यह ज्ञान को स्थायी बनाती है। यह छोटी कक्षाओं के लिए उपयुक्त नहीं है।

(B) संश्लेषण विधि

इसका शिक्षण सूत्र है ज्ञात से अज्ञात की ओर इसमें छोटे-छोटे खण्डों को जोड़ कर पढ़ाया जाता है। यह कमजोर छात्रों को भी लाभान्वित करती है। यह रटने की प्रवृति को बढ़ावा देती है। इसमें छात्र निष्क्रिय रहता है।

(5) परियोजना/प्रोजेक्ट विधि

इस विधि के जन्मदाता है डब्लयू.एच. किलपैट्रिक। इस विधि में बालक को कोई कार्य सम्पन्न करने के लिए कहा जाता है। इस विधि के द्वारा शिक्षार्थी में योजना बनाना, उसको क्रियान्वित करना,उसका मूल्यांकन करना आदि कौशलों का विकास होता है। योजना व्यक्तिगत या समूह में की जाती है।

(6) आगमन एवं निगमन विधि

(A) आगमन विधि

इस विधि में पहले कई सारे उदाहरण बताये जाते हैं और तत्पश्चात् एक निष्कर्ष बताया जाता है। इस विधि के द्वारा ज्ञान को स्थाई रूप से ग्रहण किया जा सकता है। यह विधि विशिष्ट से सामान्य और मूर्त से अमूर्त शिक्षण सूत्रों का अनुसरण करती है।

(B) निगमन विधि

इस विधि में पहले कोई नियम बताया जाता है और उसके पश्चात् उदाहरणों द्वारा पुष्टि की जाती है। यह विधि सामान्य से विशिष्ट शिक्षण सूत्र के ऊपर आधारित है। यह विधि बाल केन्द्रित नहीं है। इस विधि में छात्रों में रटने की प्रवृति बढ़ती है।

(7) अन्वेषण/खोज विधि

इस विधि के जन्मदाता प्रो.आर्मस्ट्राँग थे। यह विधि ‘स्वयं करके सीखना’ पर आधारित है। इस विधि में छात्र स्वयं सूचना तथा सिद्धान्तों की खोज के लिए अनेक प्रयोग करता है। इस विधि से छात्र में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है। इस विधि में शिक्षक मार्गदर्शक के रूप में होता है। इस विधि से छात्र आत्मविश्वासी, चिन्तनशील और आत्मनिर्भर बनता है।

(8) भ्रमण विधि

इस विधि में छात्र भ्रमण करके ज्ञान अर्जित करता है। यह विधि कक्षा-कक्षीय अधिगम को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों के साथ जोड़ती है। यह विधि छात्रों को सक्रिय/प्रत्यक्ष ज्ञान उपलब्ध कराती है।

(9) प्रयोगशाला विधि

इसमें छात्र स्वयं प्रयोग करता और उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है। यह सबसे ज्यादा उपयुक्त विधि है। इसमें वैज्ञानिक ज्ञान का सत्यापन होता है। इससे ज्ञान स्थायी हो जाता है। इसमें छात्र सक्रिय रूप से भाग लेता है। इस विधि में शिक्षक मार्गदर्शक के रूप में होता है। इस विधि में अधिक समय लगता है।

(10) समस्या समाधान विधि

समस्या समाधान से तात्पर्य हमारे द्वारा किसी परिस्थिति में किए जाने वाले उन प्रयासों से है जब हमें यह नहीं मालूम कि हमें क्या करना चाहिए। इसमें अध्यापक शिक्षार्थियों के सामने समस्याओं को रखता है तथा शिक्षार्थी सीखे हुए ज्ञान, नियमों तथा प्रत्ययों की सहायता से कक्षा में समस्या का समाधान ज्ञात करते हैं।

इस विधि के चरण

समस्या में दिये गये तथ्यों एवं उनके सम्बन्धों को समझना
समस्या का विश्लेषण करना
सम्भावित हल खोजना
हल ज्ञात करने के लिए गणना करना
समस्या का हल ज्ञात कर उत्तर की जांच करना
स्वीकृत समाधान का प्रयोग करना

इस विधि के लाभ

यह विधि शिक्षार्थियों को अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए तैयार व जागरूक बनाने में सहायक है।
इससे छात्रों में आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता का विकास होता है।
इससे छात्रों में समस्या से लड़ने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
यह छात्रों में सही चिन्तन व तर्कशक्ति का विकास करती है।
इसमें छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं का ध्यान रखा जा सकता है।

इस विधि के दोष

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पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पाता।
इस विधि में समय ज्यादा लगता है।
यह विधि निम्न कक्षाओं के लिए उपयुक्त नहीं है।

विज्ञान शिक्षण सहायक सामग्री

शिक्षण सहायक सामग्री विषयवस्तु को सरल, रुचिकर, स्पष्ट, प्रभावशाली तथा स्थायी बनाती है।

शिक्षण सहायक सामग्री का महत्त्व

(1) शिक्षण सहायक सामग्रियों से अभिप्रेरणा मिलती है।
(2) ये कठिन से कठिन विषयवस्तु को सरल, स्पष्ट, रुचिकर एवं सार्थक बना देती है।
(3) ये पठन-पाठन में नवीनता लाती है।
(4) ये शिक्षक के कार्य को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में सहायक होती है।
(5) इनके प्रयोग से समय और शक्ति की बचत होती है।
(6) ये रटने की प्रवृति को कम करती है।
(7) ये विद्यार्थियों को पुनर्बलन प्रदान करती है।
(8) ये विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देती हैं।
(9) ये विद्यार्थियों में कल्पनाशक्ति, निरीक्षण, तर्कशक्ति एवं विचार शक्ति का विकास करती है।
(10) ये छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की पूर्ति करती हैं।
(11) ये ज्ञानेन्द्रियों के अधिकतम उपयोग पर बल देती हैं।
(12) ये कक्षा में अनुशासन बनाये रखती हैं क्योंकि ये बच्चों में रुचि पैदा करती है।

विज्ञान शिक्षण सहायक सामग्री का वर्गीकरण

शिक्षण सहायक सामग्रियों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जाता है:
(i) इन्द्रियाँ आधारित
(ii) तकनीकी आधारित

(i) इन्द्रियाँ आधारित शिक्षण सहायक सामग्री

ये चार प्रकार की होती हैं-

(a) श्रव्य सामग्री –  रेडियो,ग्रामोफोन,फोनोग्राफ/लिंग्वाफोन,टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर आदि।

(b) दृश्य सामग्री – चित्र, ग्राफ, प्रतिमान, पोस्टर, संग्रहालय एपिडायस्कोप, एपिस्कोप, फ्लैनल बोर्ड, शिरोपरी प्रक्षेपी,चार्ट, मानचित्र,ग्लोब, पाठ्यपुस्तक, फिल्म-पट्टियाँ,सूक्ष्म प्रक्षेपी,चॉक बोर्ड,बुलेटिन बोर्ड आदि।

(c) क्रियात्मक साधन – रोल प्ले, प्रदर्शनियाँ, प्रयोगशाला, मेले, भ्रमण आदि।

(d) श्रव्य-दृश्य सामग्री – टेलिविजन, बोलते चलचित्र, कम्प्यूटर, कठपुतली आदि।

(ii) तकनीक आधारित शिक्षण सहायक सामग्री

ये तीन प्रकार के होते हैं :

(a) सरल हार्डवेयर – एपिस्कोप, स्लाइड प्रक्षेपी,शिरोपरी प्रक्षेपी, मायादीप, फिल्म पट्टी प्रोजेक्टर आदि।

(b) जटिल हार्डवेयर – रेडियो, टेलिविजन, टेपरिकार्डर, कम्प्यूटर आदि।

(c) सॉफ्टवेयर – स्लाईड, फिल्म पट्टियाँ, चित्र, चार्ट,मानचित्र, फोटोग्राफ, ग्राफ आदि।


अभ्यास प्रश्न ( परीक्षा उपयोगी प्रश्न )

1.पाठ योजना के किस चरण में शिक्षक आगमन और निगमन विधि का प्रयोग करता है?
(a) प्रस्तुतीकरण
(b) तुलना
(c) सामान्यीकरण
(d) अनुप्रयोग

2.निम्न में से किस शिक्षण सिद्धान्त के अन्तर्गत विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष हस्तपरक अनुभव की प्राप्ति होती है, जिससे उनका अधिगम सक्रिय एवं सार्थक होता है ?
(a) रुचि का सिद्धान्त
(b) क्रियाशीलता का सिद्धान्त
(c) प्रेरणा का सिद्धान्त
(d) नियोजन का सिद्धान्त

3. विज्ञान कक्षा VIII की अध्यापिका कोमल जोशी ग्रहों, उपग्रहों के विषय में पढ़ाने से पहले विद्यार्थियों को तारों, सूर्य और चन्द्रमा के विषय में पढ़ाती है। वह किस शिक्षण सूत्र का प्रयोग कर रही हैं?
(a) अनुभव से तर्क की ओर
(b) विशिष्ट से सामान्य की ओर
(c) अनिश्चित से निश्चित की ओर
(d) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर

4. निम्न में से कौन-सी विधि छात्रों में रटने की प्रवृति को बढ़ावा देती है?
(a) अधिन्यास
(b) आगमन
(c) खोज
(d) निगमन

5. विज्ञान की कक्षा में चित्र, ग्राफ, मॉडल आदि का प्रयोग किया जाता है। ये
शिक्षण सहायक सामग्रियाँ हैं।
(a) दृश्य
(c) श्यामपट्ट
(b) क्रियात्मक
(d) श्रव्य-दृश्य

6. शिक्षण सहायक सामग्री के महत्व हैं
(I) इससे विद्यार्थी को व्यक्तिगत अनुभव की प्राप्ति होती है।
(II) इसके उपयोग से जटिल और सूक्ष्म ज्ञान को सरलता से समझा जा सकता है।
(III) इसके उपयोग से छात्र अधिगम की प्रक्रिया में सक्रिय रहता है।
(IV) इससे छात्रों में केवल श्रवण एवं अवलोकन कौशलों का विकास होता है।
(a) I, II
(b) I, II, III
(c) II, III, IV
(d) I, II, III, IV

7. निम्न में से कौन-सा एक अभिप्रेरित शिक्षण का संकेत होता है
(a) बच्चों द्वारा प्रश्न पूछना
(b) गृह कार्य पूर्ण करना
(c) कक्षा में बिल्कुल शांति
(d) कक्षा में अधिकतम उपस्थिति

8. विज्ञान में शैक्षणिक भ्रमण का मूल उद्देश्य है
(a) टीम भावना बढ़ाना
(b) समाजीकरण को बढ़ावा देना
(c) बच्चों के लिए प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान करना
(d) बच्चों की उर्जा को विकसित करना

9. विज्ञान की कक्षा में प्रयोग और निर्देशन किए जाते हैं।
(a) भाषा और सम्प्रेषण कुशलताओं को सुधारने के लिए
(b) बच्चों को स्वयं सीखने के योग्य बनाने और अवलोकन कौशलों को पैना करने के लिए।
(c) विषय को अनुभव संसार से जोड़ने के लिए
(d) उपरोक्त सभी

10. विज्ञान मेलों से
(a) बच्चों को अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए उपयुक्त अवसर और प्रोत्साहन मिलता
(b) बच्चों में विश्लेषण, आलोचनात्मक गुणों, संश्लेषण एवं मूल्यांकन की योग्यता विकसित होती है।
(c) बच्चों में निरीक्षण एवं प्रस्तुतीकरण की योग्यता विकसित होती है।
(d) बच्चों में विचारों की स्वच्छन्दता की योग्यता विकसित होती है।

उत्तरमाला – 1. (c) 2. (b) 3. (d) 4. (d) 5. (a) 6. (b) 7. (a) 8. (c) 9. (b) 10. (a)


                            ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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