शैक्षिक रूप से पिछड़े बालकों (धीमी गति से सीखने वाले) की पहचान,विशेषताएं,समस्याएं, आवश्यकताएँ / धीमी गति से सीखने वाले बालकों की शिक्षा एवं शिक्षण सामग्री

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धीमी गति से सीखने वाले बालक किसे कहते हैं – अर्थ एवं परिभाषा

धीमी गति से सीखने वाले बालक शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन के मुख्य बिन्दु होते हैं। इन बालकों की सहायता करना ही शिक्षा मनोविज्ञान के मुख्य उद्देश्यों में सम्मिलित है। इस प्रकार के बालकों की बुद्धिलब्धि सामान्य बालकों की बुद्धिलब्धि से कम होती हैं।

इनको परिभाषित करते हुए प्रो. श्रीकृष्ण दुबे ने लिखा है कि “एक कक्षा के बालकों को समान रूप से शिक्षण प्रदान करने पर बालकों के अधिगम स्तर में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, जो बालक सामान्य से कम स्तर पर अधिगम करते हैं उनको धीमी गति से सीखने वाले बालक कहा जाता है।”

इससे यह स्पष्ट होता है कि धीमी गति से सीखने वाले बालक का अधिगम स्तर सामान्य।एवं प्रतिभाशाली बालकों से कम होता है। धीमी गति से सीखने के अनेक कारण होते हैं, जो कि।इन बालकों को व्यक्तिगत सामाजिक एवं पारिवारिक क्षेत्र से सम्बद्ध होते हैं।

धीमी गति से सीखने वाले बालकों की विशेषताएँ

धीमी गति से सीखने वाले बालकों में कुछ विशेष प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं, जो कि उनको सामान्य बालकों से पृथक् बनाते हैं। इस विशेष लक्षणों के आधार पर ही उनको पहचाना जा सकता है। धीमी गति से सीखने वाले बालकों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) इस प्रकार के बालकों में सामान्यीकरण कहने की अयोग्यता पायी जाती है अर्थात् विषय-वस्तु का सामान्यीकरण नहीं कर पाते हैं। (2) इस प्रकार के बालकों में अल्पकालीन स्मृति पायी जाती है अर्थात् ये बालक अधिक समय तक किसी विषय-वस्तु को याद नहीं कर।पाते हैं। (3) इन बालकों की अवधान क्षमता भी अल्प होती है अर्थात् विषय-वस्तु पर अधिक।समय ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं । (4) इन बालकों का भाषा विकास भी मन्द गति से होता है अर्थात् इनमें भाषायी योग्यता का अभाव पाया जाता है।

(5) इस प्रकार के बालकों में अपरिपक्व की स्थिति पायी जाती है अर्थात् ये बालक अपनी आयु स्तर के अनुरूप परिपक्व नहीं होते हैं। (6) ये बालक अपनी असफलता के प्रति आशंकित रहते हैं अर्थात् प्रत्येक कार्य को करने से असफलता के भय से ग्रस्त हो जाते हैं। (7) इन बालकों में आत्म-विश्वास की कमी पायी जाती है, जिसके कारण ये अपनी योग्यता का सफल प्रयोग नहीं कर पाते हैं। (8) सामाजिक एवं।कक्षागत उपेक्षा से इनके ऊपर बहुत कुप्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जिससे इनमें दीनता की भावना।उत्पन्न होती है।

धीमी गति से सीखने वाले बालकों की समस्याएँ

धीमी गति से सीखने वाले बालकों की अनेक समस्याएँ होती हैं, जो कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया, सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक व्यवस्था एवं विद्यालयी व्यवस्था से सम्बन्धित होती है। इन समस्याओं के कारण ही इस प्रकार के बालकों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। धीमी गति से सीखने वाले बालों की प्रमुख समस्याएँ निम्न-लिखित हैं-

(अ) पारिवारिक समस्याएँ (Familial Problems)-धीमी गति से सीखने वाले बालकों को परिवार में भी उचित सम्मान प्राप्त नहीं होता है, जिसके कारण अनेक प्रकार की।पारिवारिक समस्याएँ उनके समक्ष उपस्थित होती हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-
(1) परिवार में इस प्रकार के बालकों को सदैव नागमक अभिप्रेरण प्राप्त होता है, जो कि उनमें उत्साह के स्थान पर निरुत्साह भर देता है। (2) परिवार में सदैव उनके द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य में असफलता की सम्भावना को व्यक्त की जाती है। (3) परिवार द्वारा किये गये उपेक्षापूर्ण व्यवहार से उनका प्रत्येक कार्य के प्रति दृष्टिकोण भयमुक्त हो जाता है।

(ब) सामाजिक समस्याएँ (Social Problems)- धीमी गति से सीखने वाले बालकों।को समाज में भी उचित सम्मान नहीं मिलता है। इस प्रकार के बालकों की समाज से सम्बन्धित।अनेक समस्याएँ हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-
(1) समाज में धीमी गति से सीखने वाले बालकों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य प्रदान नहीं।किये जाते हैं, जिससे उनको अपनी उपेक्षा का अनुभव होता है। (2) सामाजिक एवं सांस्कृतिक।कार्यों में भी इन बालकों की सहभागिता नगण्य होती है क्योंकि इनको असफल होने का भय रहता है। (3) समाज द्वारा इस प्रकार के बालकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है, जो कि इनके लिये समस्या का कारण होता है।

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(स) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सम्बन्धी समस्याएँ (Teaching learning Process Related Problems)-धीमी गति से सीखने वाले छात्रों को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो कि निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षण विधियों का निर्धारण करते समय इन बालकों की मानसिक योग्यता एवं स्तर का ध्यान नहीं रखा जा सकता है। (2) शिक्षण विधियों के प्रयोग में शिक्षक द्वारा उन विधियों का प्रयोग किया जाता है, जो उसके लिये प्रयोग में सरल हों; इससे अधिगम में इस प्रकार के बालकों की समस्या उत्पन्न होती है । (3) इन बालकों को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में।भाग लेने का अवसर उचित रूप में प्राप्त नहीं होता है क्योंकि सामान्य बालक इनको बोलने का अवसर ही नहीं देते हैं । (4) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षकों द्वारा भी इनकी उपेक्षा की जाती हैं तथा नकारात्मक अभिप्रेरण प्रदान किया जाता है।

(द) पाठ्यक्रम सम्बन्धी समस्याएँ (Curriculum Related Problems)-धीमी गति से सीखने वाले बालकों को पाठ्यक्रम सम्बन्धी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है, जो कि निम्नलिखित हैं-
(1) पाठ्यक्रम निर्माण में इन बालकों के स्तर का ध्यान न देकर सम्पूर्ण कक्षा को आधार माना जाता है, जिससे इनकी समस्या उत्पन्न होती है। (2) पाठ्यक्रम में इन छात्रों के लिये कोई विशेष पाठ्यक्रम नहीं होता है, जो कि इनके स्तर के अनुरूप हो। (3) पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में भी इन छात्रों की सहभागिता अधिक नहीं होती है क्योंकि इनको अपने साथियों से उपेक्षा का भय होता है। (4) इन छात्रों के लिये खेलों में सरल एवं साधारण खेलों के लिये विद्यालय में व्यवस्था होनी चाहिये, जबकि ऐसा नहीं पाया जाता है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है धीमी गति से सीखने वाले बालकों की समस्याएँ प्रत्येक क्षेत्र में होती हैं क्योंकि इनको अपने स्तरानुकूल वातावरण प्राप्त नहीं होता है। स्तरानुकूल वातावरण न मिलने की स्थिति में कुसमायोजन की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे कि इस प्रकार के बालकों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। अत: इनकी समस्याओं का समाधान प्रत्येक क्षेत्र में होना चाहिये।

धीमी गति से सीखने वाले बालकों की विशिष्ट आवश्यकताएँ
Special Needs of Slow Learned Children

धीमी गति से सीखने वाले बालकों को सामान्य बालकों की श्रेणी में लाने के लिये सर्वप्रथम हमको उनकी आवश्यकता पर ध्यान देना पड़ेगा। उनकी आवश्यकता की पूर्ति करके ही उनके विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। धीमी गति से सीखने वाले बालकों की प्रमुख आवश्यकता निम्नलिखित हैं-

(1) धीमी गति से सीखने वाले बालकों की प्रमुख आवश्यकता पारिवारिक सद्भावना होती है। उनको परिवार में सामान्य बालकों की भाँति सम्मान मिलना चाहिये। (2) इस प्रकार के बालकों का सकारात्मक अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है अर्थात् उनके कार्य करने पर उनके लिये प्रशंसा के दो शब्द अवश्य बोलने चाहिये। (3) पारिवारिक कार्यों में ये बालक सामान्य बालकों की भाँति कार्य करने के परम इच्छुक, होते हैं क्योंकि इससे उनमें आत्म विश्वास जागृत होता है। (4) समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इनकी विशेष इच्छा होती है। इस इच्छा की पूर्ति हेतु ये उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने की भी इच्छा रखते हैं। (5) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में सहभागिता करना इनकी प्रमुख आवश्यकता होती है, जिससे कि अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर सकें। (6) अधिगम प्रक्रिया में इनकी आवश्यकता इनके स्तरानुकूल शिक्षण विधियाँ होती हैं, जिनके अभाव में इनका अधिगम स्तर निम्न हो जाता है।

(7) अधिगम प्रक्रिया में पूर्ण सहभागिता इनकी प्रमुख आवश्यकता होती है, जिसके पूर्ण न होने अधिगम में स्थायित्व उत्पन्न नहीं होता है। (8) कक्षा-कक्ष में समायोजन भी इस प्रकार क बालकों की आवश्यकता में गिना जाता है । इसके अभाव में कुसमायोजन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। (9) अधिगम प्रक्रिया में सकारात्मक अभिप्रेरण भी इनकी प्रमुख आवश्यकता माना जाता है। नकारात्मक अभिप्रेरण से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। (10) धीमी गति से सीखने वाले बालकों की प्रमुख आवश्यकता पृथक् पाठ्यक्रम होता है, जिसके द्वारा वे अपनी क्षमताओं का विकास कर सकते हैं। (11) इस प्रकार के बालकों के लिये पृथक् पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ तथा पृथक् खेलकूदों की आवश्यकता होती है। (12) इस प्रकार के बालकों के लिये पृथक् निर्देशन व्यवस्था की आवश्यकता होती है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धीमी गति से सीखने वाले बालकों की अनेक प्रकार की विशिष्ट व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति ही उनके चहुंमुखी विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। इन बालकों की आवश्यकता की पूर्ति न होने पर इनके अधिगम स्तर की निम्नता तथा सीखने की धीमी गति बनी रहती है। इसलिये धीमी गति से सीखने वाले बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान देना आवश्यक है।

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धीमी गति से सीखने वाले बालकों की शिक्षा

धीमी गति से सीखने वाले बालकों के लिये विशेष शिक्षण की व्यवस्था होना एक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य तथ्य है क्योंकि विशेष शिक्षण के माध्यम से ही इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। इस विशेष शिक्षण प्रक्रिया के माध्यम से इन बालकों में अपेक्षित सुधार किये जा सकते हैं। अत: यह आवश्यक है कि इन बालकों को विशेष शिक्षण प्रदान किया जाय, जिससे कि इनको भी सामान्य बालकों की श्रेणी में लाया जा सके। धीमी गति से सीखने वाले बालकों को निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष शिक्षण प्रदान करना चाहिये-

(1) पारिवारिक समायोजन सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Familial Adjustment Related specific teaching)-पारिवारिक समायोजन के सन्दर्भ में छात्रों को बताया जाय कि उनको परिवार के नियम एवं परम्पराओं का किस प्रकार पालन करना है? तथा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना है। विशेष शिक्षण प्रक्रिया के माध्यम से उनको इस कार्य में सहायता।करनी चाहिये। इससे उनकी पारिवारिक समायोजन सम्बन्धी आवश्यकता पूर्ति होती है।

2. शैक्षिक समायोजन सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Educational Adjustment।Related specific teaching)-कक्षा में इस प्रकार के बालकों के समक्ष समायोजन की आवश्यकता होती है। सामान्य बालकों के साथ इनका समायोजन नहीं होता है। इसलिये एक।शिक्षक को चाहिये, वह बालकों को समायोजन करने के उपायों को बताये, जिससे कि ये।बालक उन सामान्य बालकों के साथ समायोजित हो तथा कुछ नवीन ज्ञान का अर्जन कर सकें।

3. भाषा विकास सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Language Development Related specific teaching)-भाषा विकास इन बालकों की प्रमुख आवश्यकता होती है क्योंकि भाषा के विकास न होने के कारण इनका अधिगम स्तर निम्न होता है। एक शिक्षक को इस सन्दर्भ को बताना चाहिये कि किस प्रकार बालक अपने भाषा ज्ञान को समृद्ध कर सकते हैं ? तथा भाषा विकास की मन्द गति को तीव्र कर सकते हैं। अत: इस प्रकार के बालकों को भाषा।विकास सम्बन्धी विशेष शिक्षण अवश्य प्रदान करना चाहिये।

4.कार्य सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Work Related specific teaching)-कार्य की असफलता के कारण इनके मन में हीनता की भावना रहती है तथा कार्य के प्रारम्भ में ही ये कार्य को छोड़ देते हैं क्योंकि इनको अपनी असफलता के कारण अपने अपमान का डर बना रहता है। इस स्थिति में एक शिक्षक को चाहिये कि इनको निर्देशन प्रदान करके कार्य के प्रति जागृत करें तथा असफलता के भय को दूर करने का मार्ग बतायें।

5.आत्म-विश्वास सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Self-confidence Related specific teaching)- इस प्रकार के बालकों में आत्मविश्वास की कमी होती है, जिसके लिये इन्हें।विशेष शिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता होती है उनको बताना चाहिये कि कार्य के प्रति।रुचि होनी चाहिये तथा उसको पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पन्न करना चाहिये। असफलता ही सफलता।की कुंजी है। अतः प्रत्येक कार्य को पूर्ण आत्मविश्वास के साथ सम्पन्न करना चाहिये।
इसलिये धीमी गति से सीखने वाले बालकों को आत्मविश्वास सम्बन्धी विशेष शिक्षण प्रदान।करना चाहिये।

6. कक्षा-कक्ष आवश्यकता सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Class-Room Needs Relatedspecific teaching)-कक्षा में प्रतिभाशाली छात्रों एवं शिक्षक के उपेक्षापूर्ण व्यवहार बचाव के लिये इन बालकों को विशेष शिक्षण की आवश्यकता होती है। शिक्षक को चाहिये कि उनको विशेष शिक्षण के माध्यम से यह बतायें कि किस प्रकार से इनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार से बचा जा सकता है? विशेष शिक्षण के माध्यम से बालकों को कक्षागत आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।

7.सामान्यीकरण सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Generalisation Related specific teaching)-सामान्यीकरण की अयोग्यता के कारण ही इन बालकों के सीखने की गति धीमी होती है। इस क्षेत्र में इनको विशेष शिक्षण प्रदान करके सामान्यीकरण करने की क्षमता का विकास करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये। सामान्यीकरण की योग्यता का विकास इन बालकों की प्रमुख आवश्यकता है, जो कि विशेष शिक्षण के माध्यम से सम्भव है।

8. पाठ्यक्रम सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Curriculum Related specific teaching)-इस प्रकार के बालकों के पृथक् पाठ्यक्रम की व्यवस्था होनी चाहिये परन्तु भारतीय परिस्थिति में पृथक् पाठ्यक्रम उपलब्ध न होने के कारण इनको विशेष शिक्षण की आवश्यकता होती है। शिक्षक को बताना चाहिये कि वह इस पाठ्यक्रम के साथ-साथ कुछ अन्य पाठ्य-पुस्तकों का भी अध्ययन करे तो वह इस पाठ्यक्रम को सीख सकता है तथा सामान्य बालकों की श्रेणी में आ सकता है। अत: इस निर्देशन प्रक्रिया के माध्यम से उनकी पाठ्यक्रम सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति होगी।

9. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं सम्बन्धी विशेष शिक्षण (Co-curricular Activities Related specific teaching)-इस प्रकार के बालकों का संकोच दूर करने के लिये पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से सम्बन्धित विशेष शिक्षण प्रदान करना चाहिये। पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं एवं खेलकूद के चुनाव में उनको बताना चाहिये कि वह अपने स्तरानुकूल पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं एवं खेलकूद का चयन करें। इससे उनको उन कार्यों में सफलता भी प्राप्त होगी तथा उनका चहुंमुखी विकास भी होगा। इस प्रकार पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं एवं खेलकूद के सन्दर्भ में विशेष शिक्षण प्रदान करके उनकी आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है।

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उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धीमी गति से सीखने वाले बालकों को प्रदान किया गया विशेष शिक्षण उस अवस्था में सफल एवं प्रभावी होगा, जब उनकी विशिष्ट।आवश्यकताओं को आधार बनाकर विशेष शिक्षण प्रदान किया जाय अर्थात् विशेष शिक्षण।बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला होना चाहिये। जब बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति होगी तो उसकी सीखने की गति में वृद्धि होगी तथा धीरे-धीरे वह सामान्य बालकों की भाँति सीखना प्रारम्भ कर देगा।

धीमी गति से सीखने वाले बालकों के लिए शिक्षण विधियां एवं विधाएं

ऐसे बालकों की शिक्षा हेतु प्रमुख रूप से निम्नलिखित विधियों एवं विधाओं का प्रयोग किया जाना चाहिये-

(1) पिछड़े बालकों को धीमी गति की तरह ही दोगुने अभ्यास के द्वारा भी शिक्षण करानानचाहिये। (2) पिछड़े बालकों को मूते या स्थूल रूप से ही शिक्षण कराना चाहिये। (3) पिछड़े बालकों को पाठ्यक्रम, समय-सारणी तथा पाठ्य-पुस्तके आदि सभी पृथक होने चाहिये ताकि सामान्य बालकों से अधिक अनुप्रेरणात्मक वातावरण इनको मिल सके। (4) सह-सम्बन्ध की शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाना चाहिये। (5) सामान्य बालकों की गति से दोगुनी धीमी गति के द्वारा इनका अध्ययन होना चाहिये क्योंकि पिछड़े बालकों को किसी भी बात को दो बार कहकर समझाया जा सकता है। (6) इनको अध्ययन कराते समय अर्थात् अध्ययन का एक चरण भली-भाँति आने पर ही दूसरे चरण के लिये बढ़ाना चाहिये। (7) पिछड़े बालकों के शिक्षण के समय उनको बालक (बच्चा) मानकर व्यवहार नहीं करना चाहिये, उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षण कार्य किया जाना चाहिये।

(8) पिछड़े बालकों की शिक्षण विधि में बराबर प्रोत्साहन, रुचि तथा जिज्ञासा आदि होनी चाहिये। इससे वे अधिकाधिक सीख सकेंगे। (9) पिछड़े बालकों को मूर्त एवं स्थूल वस्तुओं आदि के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिये । एक प्रकार से माण्टेसरी पद्धति इनके लिये श्रेष्ठ विधि हो सकती है। (10) पिछड़े बालक शारीरिक रूप से दुर्बल होते हैं, इसलिये ऐसे बालकों को शारीरिक शिक्षा भी दी जानी चाहिये। (11) पिछड़े बालकों को जीवनोपयोगी शिक्षादीजानी चाहिये अर्थात् जो जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिये। (12) पिछड़े बालकों के लिये नृत्य,संगीत-चित्रकला आदि की शिक्षा भी दी जा सकती है। (13) उनके पाठ्यक्रम में हस्तकौशल पर अधिक बल दिया जाना चाहिये। विशिष्ट कार्यशालाओं में इनको प्रशिक्षण दिया जाना
चाहिये। (14) ऐसे बालकों को सहायक सामग्री; जैसे-चित्र, मॉडल, टेप रिकॉर्ड्स, रेडियो,।दूरदर्शन, प्रोजेक्टर स्लाइड्स तथा एपीडायरस्कोप आदि के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिये।

धीमी गति से सीखने वाले बालकों के लिये शिक्षण अधिगम सामग्री

सामाजिक पिछड़े छात्रों के लिये शिक्षण अधिगम सामग्री का स्वरूप सामान्य से पृथक् होता है; जैसे-इनको उन महान पुरुषों के चित्र दिखाने चाहिये जो कि पिछड़ी जाति एवं दलित जाति से सम्बन्धित थे। इससे इनके मन में आत्म विश्वास जाग्रत होगा। इसके साथ-साथ इनकी शिक्षण अधिगम सामग्री में चित्र, चार्ट एवं रेखा चित्रों का प्रयोग करना चाहिये क्योंकि इनका निर्माण ये स्वयं कर सकते हैं तथा इनके घर परिवार में सरलता से उपलब्ध हो सकते हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षक को कक्षा-कक्ष में उन सभी विविध छात्रों का ध्यान रखना चाहिये जो कि बौद्धिक, सामाजिक एवं रुचि के आधार पर भिन्नता रखते हैं। उपरोक्त प्रयोगों के आधार पर ही वह प्रत्येक छात्र की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण अधिगम सामग्री तैयार करके प्रस्तुत कर सकते हैं।


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