बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय समावेशी शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर पर्यवेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय पर्यवेक्षण के उद्देश्य,आवश्यकता,क्षेत्र आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
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पर्यवेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं / विद्यालय पर्यवेक्षण के उद्देश्य, आवश्यकता,क्षेत्र
विद्यालय पर्यवेक्षण के उद्देश्य, आवश्यकता, क्षेत्र / पर्यवेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं
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पर्यवेक्षण की अवधारणा (Concept of Supervision)
वर्तमान विचारधारा के अनुसार निरीक्षक को निरीक्षण से हटकर एक पर्यवेक्षणकर्त्ता सलाहकार और सहयोगी होना चाहिये। उसे केवल कमियों को ही नहीं देखना है, वरन् अच्छे पहलुओं को प्रोत्साहन भी देना है। वर्तमान समय में निरीक्षण बहुत सीमा तक टैक्नीकल होता जा रहा है। वर्तमान निरीक्षण एक सुनियोजित शैक्षिक गुणात्मक विकास की प्रक्रिया है,जिससे विद्यार्थी और शिक्षकों का क्रमश: उत्तरोत्तर विकास होता है। सीखने के लिये जो भी मानवीय एवं भौतिक साधन हैं, उनको सहयोगपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण ढंग से जुटाना भी इसमें सम्मिलित है। आज निरीक्षण शिक्षकों एवं शाला प्रधान के परस्पर सहयोग से होता है।
पहले जिस कार्य के लिये निरीक्षण’ शब्द का प्रयोग होता था, उसके लिये अब पर्यवेक्षण’ शब्द का प्रयोग होता है। शिक्षा पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण को कुछ शिक्षाविद् भिन्न समझते हुए यह मानते
है कि ये दोनों एक-दूसरे से अलग है परन्तु ये दोनों एक-दूसरे से घनिष्ठता से सम्बन्धित हैं। पहले निरीक्षक द्वारा हाकिम बनकर अध्यापकों के कार्यों का निरीक्षण किया जाता था, अब उसके स्थान पर पर्यवेक्षण सम्प्रत्यय आने से कार्य-पद्धति तथा उसकी भावना में अन्तर आ गया है। अत: शिक्षाशास्त्रियों ने निरीक्षण सम्बन्धी नवीन धारणा को अभिव्यक्त करने के लिये एक नवीन शब्द का प्रयोग किया है जो पर्यवेक्षण’ (Supervision) के नाम से जाना जाता है। यह केवल शब्दों का हेर-फेर नहीं है, वरन उनमें उद्देश्य, क्षेत्र, विधि एवं दृष्टिकोण का भी बड़ा अन्तर है।
पर्यवेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
शिक्षाविदों के कथनानुसार शिक्षा एक गतिशील तत्त्व है। उसका निरन्तर विकास होता रहता है। इसके द्वारा समाज की परम्पराओं तथा आदर्शों का संरक्षण भी होता है। जैसे-जैसे समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुसार शिक्षण संस्थाओं के रूप में परिवर्तन हुआ है, वैसे-वैसे शैक्षिक पर्यवेक्षण का रूप भी बदला है। वास्तव में पर्यवेक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत शिक्षक एवं अधिकारियों के मध्य सहयोग की भावना को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसमें शिक्षक का सर्वोन्मुखी विकास निहित है। पर्यवेक्षण शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द Supervision (सुपरविजन) का हिन्दी रूपान्तर है। Super का अर्थ है-उच्च एवं Vision का अर्थ दृष्टि होता है अर्थात् Supervision का अर्थ है-उच्च दृष्टि, जो विद्यालय को गति प्रदान करके उसे विकास की ओर उन्मुख करे। विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने पर्यवेक्षण को
अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है-
(1) ब्रिग्ज एवंजस्टमैन जॉसेफ(Briggs andJustman Joseph) के शब्दों में,”सामान्य रूप से पर्यवेक्षण का अर्थ है, अध्यापकों की शक्ति को संयोजित करना, अनुप्रेरित करना तथा उन्हें इस योग्य बनाना कि वे अपनी प्रतिभाओं के प्रयोग से प्रत्येक विद्यार्थी को विकास की ओर अनुप्रेरित कर सकें।”
(2) जॉन ए. बर्टकी (JohnA. Bartky) के अनुसार, “पर्यवेक्षण, शिक्षक के विकास,बालक की अभिवृद्धि तथा शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के सुधार से सम्बन्धित है।”
(3) एच. पी. एडम्स एवं एफ, जी. डिकी. (H. P. Adams and E.G.Dickey) के अनुसार, “पर्यवेक्षण एक सेवा कार्य है जो मुख्यत: निर्देशन एवं उसकी उन्नति से सम्बन्धित है। यह प्रत्यक्ष रूप से शिक्षण तथा सीखने की प्रक्रिया और उनके तत्वों से सम्बन्धित है। ये तत्व-शिक्षक, छात्र, पाठ्यक्रम, निर्देश सामग्री, स्थिति का सामाजिक एवं भौतिक वातावरण आदि हैं।”
(4) किम्बल (Kimbal) के शब्दों में, “परिनिरीक्षण या पर्यवेक्षण एक उत्तम शिक्षण-अधिगम परिस्थिति के विकास में सहायता देता है।”
(5) विल्स (Wiles) लिखते हैं, “आधुनिक पर्यवेक्षण अध्यापन एवं अधिगम के श्रेष्ठ विकास में सहायक है।”
(6) आयर (Ayer) के अनुसार, “अपने सर्वोत्तम रूप में पर्यवेक्षण सभी शिक्षात्मक प्रयासों में सबसे अच्छा और सर्वाधिक प्रगतिशील प्रयास है। सबसे अच्छा इसलिये क्योंकि यह सर्वाधिक विचारशील होता है और सर्वाधिक प्रगतिशील इसलिये क्योंकि यह सर्वाधिक रचनात्मक होता है।”
(7) ऑकलोमास्टेट डिपार्टमेण्ट ऑफएजूकेशन (Ocaloma State Department of Education) के अनुसार, “परिनिरीक्षण अथवा पर्यवेक्षण में शैक्षिक कार्यक्रम के प्रत्येक पहलू का सुधार निहित है। शैक्षिक कार्यक्रम में अध्ययन कार्यक्रमों का संगठन, पाठ्यक्रम का संशोधन, शिक्षण-प्रक्रियाएँ, छात्र-क्रिया कार्यक्रम तथा शिक्षक वर्ग की अशैक्षिक क्रियाएँ सम्मिलित हैं।”
(8) हेराल्ड एवं मूर (Harald J.E.and Moor) के अनुसार, “पर्यवेक्षण में वे प्रवृत्तियाँ से आती हैं, जिनका मूलतः सम्बन्ध उन परिस्थितियों के अध्ययन एवं सुधार से होता है जो प्रत्यक्षतः अधिगम, छात्र तथा शिक्षक के विकास से जुड़ी होती हैं।”
(9) विलियम टी, मैलकॉइर(William T.Melkoir) के अनुसार, “आजकल पर्यवेक्षण केवल शिक्षक तथा छात्र के विकास पर ही बल नहीं देता,वरन् स्वयं पर्यवेक्षक वर्ग,अभिभावकों तथा अन्य सामान्य व्यक्तियों के विकास को भी ध्यान में रखता है। यह छात्र- समुदाय तथा संकाय (शाला) के प्रत्येक सदस्य की शारीरिक और सामाजिक कुशलता के विकास से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है। यह उन तत्त्वों से भी सम्बन्धित है, जो शैक्षिक विकास में अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होते हैं।”
विद्यालय प्रशासन एवं पर्यवेक्षण
School Administration and Supervision
मेक्स आर. ब्रूसलेलर के शब्दों में, “प्राय: प्रशासन और पर्यवेक्षण एक सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं। वस्तुतः एक-दूसरे के कार्यों में अन्तर कर पाना भी बड़ा कठिन है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य मुख्य रूप से अधिगम अध्यापन में सुधार लाना है।”
पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य है-शैक्षिक कार्यों एवं गतिविधियों को सदैव प्रोन्नत करना और आवश्यकता पड़ने पर उनमें सुधार करना। विद्यालय प्रशासन शैक्षिक पर्यवेक्षण के लिये आवश्यक है, क्योंकि यदि विद्यालय प्रशासित नहीं होंगे तो पर्यवेक्षण किसका होगा? कक्षा के अनुसार छात्र-छात्राओं का वर्गीकरण, शैक्षिक उपकरणों की व्यवस्था तथा पुस्तकालय एवं वाचनालय की स्थापना आदि ऐसे कार्य हैं, जो विद्यालय प्रशासन के अन्तर्गत आते हैं।
इन सभी का पर्यवेक्षण के साथ बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। विद्यालय में अध्यापक भी एक सीमा तक पर्यवेक्षण करता है, क्योंकि वह सदा अपने शिक्षण-कार्य को प्रोन्नत करने का प्रयास करता है। अत: पर्यवेक्षण शैक्षिक प्रशासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जो भी पर्यवेक्षण सम्बन्धी कार्य प्रशासक करता है, प्रशासनिक कार्यों के अन्तर्गत समाहित किये जा सकते हैं। प्रशासन एवं पर्यवेक्षण दोनों में ही योजना निर्माण करनी होती है। अन्तर केवल यह है कि प्रशासक निर्णय लेता है तथा क्रियान्वित आदेश देता है। वहाँ पर्यवेक्षक निर्णय लेने में सहायता करता है तथा क्रियान्विति को लक्ष्य तक पहुँचाने में योग देता है।
विद्यालय पर्यवेक्षण की आवश्यकता
Need of School Supervision
विद्यालयों में पर्यवेक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है-
(1) पर्यवेक्षण की सहायता से विभिन्न स्थलों पर स्थित विद्यालयों से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। (2) अध्यापकों की कार्य कुशलता को बढ़ाने हेतु पर्यवेक्षण आवश्यक है। (3) पर्यवेक्षण छात्र तथा शिक्षकों को अनुप्रेरित करने हेतु आवश्यक है। (4) यह विद्यालय में संचालित होने वाली गतिविधियों का मूल्यांकन करने में सहायता प्रदान करता है। (5) यह अध्यापक को अपने ज्ञान का नवीनीकरण करने में सहायता प्रदान करता है। (6) विद्यालय में उत्पन कुप्रवृत्तियों को दूर करने में सहायक है। (7) पर्यवेक्षण विद्यालय वातावरण को सुधारने के लिये भी आवश्यक होता है।
विद्यालय पर्यवेक्षण के उद्देश्य
Aims of School Supervision
विद्यालय पर्यवेक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(1) अध्यापकों को शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों, विद्यालय के उद्देश्यों तथा परम्पराओं से अवगत कराना । (2) शिक्षकों एवं छात्रों की समस्याओं का ज्ञान करना। (3) छात्रों की समस्याओं के निदान एवं उपचार के लिये उचित कदम उठाना। (4)अध्यापकों को छात्रों की आवश्यकता एवं समस्याओं से अवगत कराना तथा उनके निराकरण हेतु उचित सहायता प्रदान करना । (5) अध्यापकों को प्रेरित कर उनकी अध्यापन-क्षमता को प्रोन्नत एवं विकसित करना। (6) अध्यापकों के नैतिक स्तर को प्रोन्नत करना। (7) अध्यापकों को समय-समय पर अध्यापन सम्बन्धी नवीन गतिविधियों से परिचित कराना । (8) अध्यापकों की योग्यताओं तथा क्षमताओं का पता लगाकर उन्हें उनके अनुरूप कार्य सौंपना । (9) अध्यापन-क्षेत्र में आये नये अध्यापकों को अध्यापन-कार्य से परिचित कराकर उन्हें इस योग्य बनाना कि वे सरलता के साथ विद्यालय से समायोजन स्थापित कर सकें।
(10) विद्यालय के छात्रों ने निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति किस सीमा तक की है, इसके आधार पर अध्यापकों का मूल्यांकन करना । (11) समस्यात्मक छात्रों की समस्याओं को समझने में अध्यापकों की सहायता करना तथा उनके निराकरण हेतु अध्यापकों को उपचारात्मक उपायों के लिये प्रेरित करना। (12) शिक्षकों को विशेष योग्यताओं के विकास के अवसर प्रदान करना। (13) मानवीय सम्बन्धों में परस्पर विश्वास उत्पन्न करना एवं सहयोग को बढ़ावा देना। (14) शिक्षकों को व्यावसायिक विकास के अवसर प्रदान करना। (15) विद्यालय विकास की योजनाओं में तथा कार्यक्रमों में शिक्षकों का नियमित सहयोग प्राप्त करना। (16) सेवारत प्रशिक्षण कार्यक्रमों का नियमित आयोजन करना। (17) विद्यालय, समुदाय तथा राष्ट्र के प्रति शिक्षक को स्वयं की भूमिका के प्रति सचेत करना। (18) विद्यालय एवं कर्मचारियों में कार्यों के प्रति निष्ठा जगाने के लिये उचित पर्यावरण सृजित करना। (19) विद्यालय के प्रशासनिक का उन्मूलन करना।
विद्यालय पर्यवेक्षण का क्षेत्र
Scope of School Supervision
विद्यालय पर्यवेक्षण के क्षेत्र को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) पर्यवेक्षण की निदानात्मक भूमिका
(2) पर्यवेक्षण की मार्ग-दर्शन सम्बन्धी भूमिका
1. पर्यवेक्षण की निदानात्मक भूमिका
पर्यवेक्षण की निदानात्मक भूमिका के अन्तर्गत मुख्य रूप से तीन बातें निहित हैं-
(i) कक्षा-शिक्षण का पर्यवेक्षण/अवलोकन
(ii) शिक्षकों द्वारा कक्षा में दिये गये कार्य का पर्यवेक्षण
(iii) प्रधानाध्यापक द्वारा शिक्षकों के प्रदत्त कार्य का पर्यवेक्षण
1. कक्षा-शिक्षण का पर्यवेक्षण-कक्षा
शिक्षण का निरीक्षण सर्वाधिक महत्त्व रखता है। कक्षा-शिक्षण पर्यवेक्षण के मुख्य उद्देश्य हैं-
(1) कक्षा-समस्याओं का पता लगाना। (2) शिक्षक द्वारा विकसित पाठ्य-वस्तु का विकास किस प्रकार किया जा रहा है ? इसका पता लगाना । (3) शिक्षक द्वारा किन कठिनाइयों का सामना किया जा रहा है? इसका पता लगाना एवं पता लगाकर उसके शिक्षण में सुधार लाने हेतु उसे सुझाव एवं सहायता प्रदान करना। नीगले एवन्स (Neagley and Evans) के अनुसार-प्रधानाचार्य और शिक्षक के मध्य सद्भाव बढ़ाने की दृष्टि से, शिक्षक की प्रगति के मूल्यांकन की दृष्टि से, समग्र सीखने की प्रक्रिया पर दृष्टिपात करने की दृष्टि से तथा शिक्षक के महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण के अच्छे और कमजोर पक्षों को जानने की दृष्टि से कक्षा शिक्षण का पर्यवेक्षण अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
अत: कक्षा-शिक्षण के पर्यवेक्षण के द्वारा निम्नलिखित उद्देश्य पूर्ण होते हैं-
(1) कक्षा-समस्याओं का ज्ञान होता है। (2) शिक्षक की कक्षा-शिक्षण सम्बन्धी कठिनाइयों का ज्ञान होता है। (3) शिक्षकों की सहायता करने एवं उन्हें सुझाव देने का अवसर प्राप्त होता है । (4) शिक्षक की प्रगति का मूल्यांकन किया जा सकता है। (5) विद्यार्थियों के स्तर का ज्ञान होता है। (6) शिक्षक एवं विद्यार्थियों की शिक्षण-अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों का ज्ञान होता है। (7) शिक्षक एवं विद्यार्थियों के परस्पर व्यवहार का ज्ञान होता है।
इस प्रकार समग्र शिक्षण के सुधार का आधार ही कक्षा-शिक्षण पर्यवेक्षण है। जितना अच्छा एवं व्यापक कक्षा-निरीक्षण होगा, उतना ही शिक्षक का व्यावसायिक उन्नयन एवं छात्रों की अधिगम-प्रक्रिया का विकास किया जा सकता है।
2. शिक्षकों द्वारा कक्षा में दिये गये कार्य का पर्यवेक्षण
यह कार्य भी पर्यवेक्षण की निदानात्मक भूमिका में आता है। इसके अन्तर्गत शिक्षक द्वारा कक्षा में किये गये कार्य-पाठ का सारांश देना, गृह-कार्य देना, प्रायोगिक कार्य करवाना, व्याख्या देना आदि का समावेश होता है। इन कार्यों के रिकॉर्ड के आधार पर शिक्षक की योग्यता, कार्य के प्रति निष्ठा, विषय की तैयारी एवं विद्यार्थियों को दिये गये कार्यों की जाँच आदि का पता लग सकता है। समयाभाव एवं व्यस्तता के कारण प्रधानाध्यापक प्रत्येक कक्षा में नहीं जा सकता, परन्तु इन्हीं कार्यों के रिकॉर्ड की सहायता से वह शिक्षक एवं विद्यार्थियों के कार्य का मूल्यांकन कर सकता है।
3. प्रधानाध्यापक द्वारा शिक्षकों के प्रदत्त कार्य का पर्यवेक्षण
शिक्षक का कार्य बालक का केवल मानसिक विकास करने तक ही सीमित नहीं है, वरन् उसे उसके शारीरिक, सामाजिक, भावात्मक तथा संवेगात्मक आदि के विकास को भी ध्यान में रखना होता है। विकास के इन विविध क्षेत्रों में शिक्षक अनेक पाठ्य-सहगामी या पाठ्येत्तर प्रवृत्तियों का संचालन करता है। उदाहरणार्थ-सांस्कृतिक कार्यक्रम, शैक्षिक भ्रमण, खेलकूद, संगोष्ठियाँ एवं प्रदर्शनियाँ आदि। ये सभी कार्य वस्तुतः शैक्षिक ही हैं एवं बालक के सर्वांगीण विकास में पूर्णरूप से सहायक होते हैं। दक्षता से इन कार्यकलापों को करने वाले शिक्षकों को प्रोत्साहित करने हेतु एवं शिक्षकों का समुचित मार्गदर्शन करने के लिये अथवा उचित कार्यवाही करने के लिये प्रधानाध्यापक इन कार्यों का पर्यवेक्षण करता है। सत्य तो यह है कि जहाँ शैक्षिक कार्य कक्षा तक ही सीमित रहते हैं वहीं ये कार्य विद्यालय को समुदाय के साथ जोड़ते हैं। अत: इनके कार्यों का समय-समय पर पर्यवेक्षण तथा आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन प्रत्येक प्रधानाध्यापक लिये परमावश्यक है।
2. पर्यवेक्षण की मार्ग-दर्शन सम्बन्धी भूमिका
प्रधानाध्यापक द्वारा शिक्षकों की शैक्षिक, शिक्षेत्तर योग्यताओं, उनकी विशेषताओं, उनकी त्रुटियों तथा सीमाओं को जान लेने के पश्चात् यह आवश्यक हो जाता है कि वह स्तर से नीचे कार्यों को ऊपर उठाने के लिये तथा औसत स्तर के कार्य को श्रेष्ठतर बनाने के लिये नियमित रूप से उनका मार्ग-दर्शन करे। प्रधानाध्यापक के इन कार्यकलापों को मुख्यत: तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1.शिक्षकों की व्यावसायिक समस्याएँ एवं पर्यवेक्षण
प्रधानाध्यापक को केवल पर्यवेक्षण की कला में ही दक्ष नहीं होना चाहिये, वरन् शिक्षकों को उनके व्यावसायिक विकास में योग देने के लिये उसे योग्य सलाहकार (Conslutant) भी होना चाहिये। सलाहकार के रूप में वह शिक्षक के विविध कार्यकलापों के विकास में भी ध्यान देता है। एन. ई. ए. के एक सर्वेक्षण के अनुसार वह शिक्षकों के सामूहिक प्रोजेक्ट एवं नवीन विधाओं तथा शोधों में भी योग देता है।
2. शिक्षकों के गुण-दोष तथा पर्यवेक्षण
पर्यवेक्षक दोनों प्रकार के शिक्षकों की सहायता करता है। वे शिक्षक जो विषय में अत्यन्त कमजोर होते हैं इनकी कमियों को दूर करता है तथा योग्य शिक्षकों को निरन्तर अपनी कार्यकुशलता एवं योग्यता बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित करता है। इसके लिये पर्यवेक्षक को प्रत्येक शिक्षक के कमजोर पक्ष तथा सबल पक्ष को जानना परमावश्यक है। नीगले तथा एवन्स (Neagley and Evans) ने पर्यवेक्षक की इस भूमिका को उसकी नेतृत्व सम्बन्धी भूमिका का प्रमुख अंग माना है।
3.शिक्षकों की शिक्षेत्तर त्रुटियों को दूर करते हुए उनकी क्षमताओं को विकास से सम्बन्धित करना
पर्यवेक्षक के लिये आवश्यक है कि वह शिक्षकों की त्रुटियों के निदान के बाद उन त्रुटियों का परिमार्जन करे। इसी प्रकार शिक्षकों की क्षमताओं का भी उनके पूर्ण व्यावसायिक,शैक्षिक एवं शिक्षेत्तर विकास के लिये सहयोग मिलना चाहिये, जिससे विद्यालयी विकास में उनका प्रतिभागित्व हो सके। इसके लिये पर्यवेक्षक और शिक्षक मिलकर निम्नलिखित आयोजन कर सकते हैं-
(1) प्रदर्शन-पाठ आयोजित करना। (2) स्टडी सर्किल चलाना। (3) पाठ्य-वस्तु में पुनः दीक्षित करना। (4) सेमिनार, वर्कशॉप, विचारगोष्ठियाँ आदि आयोजित करना । (5) केन्द्रीय पुस्तकालय की व्यवस्था करना। (6) शैक्षिक उपलब्धि हेतु पत्र-पत्रिकाएँ एवं ग्रन्थों की व्यवस्था करना। (7) व्यक्तिगत समस्याओं पर व्यक्तिगत विचार करना। (8) स्थानीय उच्च शिक्षण केन्द्रों का भ्रमण करना। (9) ग्रीष्मकालीन उन्नयन पाठ्यक्रमों के लिये शिक्षकों को भेजना। (10) नवीन प्रयोगों को प्रोत्साहन देना। (11) विस्तार भाषणों का आयोजन करना।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास करना है। अत: निम्नलिखित पक्षों के पर्यवेक्षण पर भी विद्यालय में बल दिया जाना अति आवश्यक है-
(1) मानसिक विकास के लिये-अध्यापन अधिगम प्रवृत्तियाँ।
(2) शारीरिक विकास के लिये-खेलकूद प्रवृत्तियाँ।
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संवेगात्मक विकास के लिये विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का आयोजन करना आवश्यक है। अतः प्रधानाध्यापक के लिये कक्षा अनुदेशन के अतिरिक्त खेलकूद प्रवृत्तियों, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों आदि का भी पर्यवेक्षण करना अति आवश्यक है। जहाँ-जहाँ त्रुटियाँ या दोष हों, उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। कार्यालय का भी पर्यवेक्षण आवश्यक है। विभिन्न रिकॉर्ड,उनका उचित रख-रखाव, वित्तीय लेखा-जोखा, बजट तथा छात्रवृत्ति खातों आदि की समय-समय पर जाँच करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त विद्यालय भवन, कक्षा-कक्ष, कार्यालय, छात्रावास, प्रयोगशाला, फर्नीचर, उपकरण आदि का भी समय-समय पर पर्यवेक्षण आवश्यक है। वर्ष में एक बार सभी सामान का भौतिक सत्यापन होना भी आवश्यक है। इस प्रकार के पर्यवेक्षण अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं,यदि ये सुनियोजित, नियमित तथा व्यापक हों।
शैक्षिक पर्यवेक्षण के दोष
प्रचलित शैक्षिक पर्यवेक्षण में निम्नलिखित दोष दिखायी देते हैं-
(1) प्रत्येक विद्यालय की कार्य सीमा निश्चित होती है। अत: उन्हें नवीन प्रयोगों के अवसर प्राप्त नहीं हो पाते। (2) शिक्षकों द्वारा छात्रों की रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों पर बल न देना। (3) नवीन अविष्कारों से शिक्षकों का अवगत न होना । (4) नवीन प्रयोग एवं नवीन विधियों का समुचित प्रयोग न करने को प्रेरित करना। (5) सृजनशील नेतृत्व के अभाव में पर्यवेक्षण
सफलतापूर्वक सम्पादित नहीं किया जा सकता। (6) विद्यालय भौतिक, मानवीय तथा आर्थिक संसाधनों से इतने परिपूर्ण नहीं होते कि वह नवीन प्रयोगों को क्रियान्वित कर पायें।
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