विद्यालय के भौतिक संसाधनों का प्रबंधन / विद्यालय भवन,प्रयोगशाला आदि का प्रबंधन

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर विद्यालय के भौतिक संसाधनों का प्रबंधन / विद्यालय भवन,प्रयोगशाला आदि का प्रबंधन आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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विद्यालय के भौतिक संसाधनों का प्रबंधन / विद्यालय भवन,प्रयोगशाला आदि का प्रबंधन

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विद्यालय के भौतिक संसाधनों का प्रबंधन / विद्यालय भवन,प्रयोगशाला आदि का प्रबंधन


भौतिक संसाधनों का प्रबंधन / विद्यालय भवन,प्रयोगशाला आदि का प्रबंधन

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विद्यालयी संसाधनों का प्रबन्धन
Management of School Resources

शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बालक को उसकी रुचि, भविष्य एवं क्षमता के अनुसार इस प्रकार की शिक्षा देना है कि वह अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास इस प्रकार उद्देश्य की प्राप्ति के लिये विद्यालय में पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि में सहायता प्राप्त कर सके जिससे वह समाज में सही ढंग से समायोजित हो सके। इस मुख्य सभी आवश्यक भौतिक एवं मानव संसाधन उपलब्ध होने चाहिये, जिससे सभी प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रम एवं सहगामी क्रियाओं का संचालन प्रभावी ढंग से किया जा सके।

प्रबन्धन करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिये कि यह व्यवस्था उस विद्यालय विशेष की आवश्यकता एव परिस्थितियों के अनुकूल हो। विद्यालय संसाधनों के प्रबन्धन एवं अनुरक्षण का ज्ञान विद्यालय शिक्षक को अनिवार्य रूप से होना चाहिये। विद्यालय में प्राय: दो प्रकार के संसाधन पाये जाते हैं, जो कि मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के रूप में होते हैं। दोनों प्रकार के संसाधनों का प्रबन्धन एवं अनुरक्षण विद्यालय की छवि को श्रेष्ठ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।

भौतिक संसाधनों का प्रबन्धन
Management of Physical Resources

विद्यालय के भौतिक संसाधनों के अन्तर्गत विद्यालय भवन, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, शिक्षण अधिगम सामग्री, खेल का मैदान, कार्यालय, विद्यालय परिसर, फर्नीचर तथा खेल सामग्री आदि सम्मिलित किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों का विद्यालय विकास एवं छात्रों के चहुंमुखी विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है। भौतिक संसाधनों के अभाव में विद्यालय में उपलब्ध मानवीय संसाधनों का उपयोग भी ठीक प्रकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यह आवश्यक है कि विद्यालय के भौतिक संसाधनों का अनुरक्षण हो क्योंकि इनके अभाव में न तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है और न ही पाठ्यक्रम सहगामी प्रक्रियाओं के माध्यम से बालकों में अन्तर्निहित प्रतिभाओं का विकास किया जा सकता है।

विद्यालय के भौतिक संसाधनों का उपयोग बालकों के विकास में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में किया जाता है। इसलिये प्रधानाध्यापक एवं विद्यालय प्रबन्ध समिति का यह दायित्व है कि वह भौतिक संसाधनों का अनुरक्षण करे तथा जिन संसाधनों का विद्यालय में अभाव है उनको उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिये। विद्यालय ऐसे स्थान पर स्थित हो जहाँ आवागमन की सुविधाएँ हों। विद्यालय किसी कारखाने, मण्डी, बस स्टैण्ड, रेलवे आदि के बहुत समीप स्थापित नहीं किये जाने चाहिये। विद्यालय जिस स्थान पर निर्मित किया जाये वहाँ आधुनिक सुविधाएँ; जैसे-बिजली, पानी, अस्पताल, डाकघर, बैंक आदि होने चाहिये।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि विद्यालय की छवि निर्धारण में तथा बालकों के चहुँमुखी विकास में भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

इन संसाधनों का प्रबन्धन अर्थात् इन संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करते हुए एक कुशल प्रशासक एवं प्रधानाचार्य विद्यालय को सर्वोच्च शिखर पर ले जाता है तथा बालकों का चहुंमुखी विकास करता है। मानवीय संसाधनों में सम्बन्धों में मधुरता तथा भौतिक संसाधनों में मरम्मत करना एवं रखरखाव की व्यवस्था करना ही प्रवन्धन कार्य कहलाता है, जो कि विद्यालय एवं बालकों की उन्नति के लिये अनिवार्य है। भौतिक संसाधनों में प्रमुख रूप से विद्यालय भवन, फर्नीचर, शैक्षिक उपकरण, साज-सज्जा, पेयजल और शौचालय को सम्मिलित किया जाता है जिनके बारे में एक क्रमबद्ध विवरण अग्रलिखित रूप में प्रस्तुत है-

1.विद्यालय-भवन का प्रबंधन

हमारे देश में विद्यालय भवन निर्माण सम्बन्धी समस्या प्रारम्भ से ही है। जब से अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था लागू हुई है तब से यह समस्या और भी गम्भीर हो गयी है। बहुत कम भवन ऐसे मिलेंगे, जो उपयुक्त एवं पर्याप्त सुविधाएँ लिये हों। अतः भवन के स्वरूप पर ध्यान देना अति आवश्यक है। आज भी अनेक विद्यालय अनुपयुक्त वातावरण तथा भवनों में चलाये जा रहे हैं। सर्वप्रथम भवन-निर्माण का निर्णय लेने पर स्थापत्य कलाकार की नियुक्ति करनी चाहिये। वह भली प्रकार से भवन-निर्माण के कार्य-भार को वहन कर सकता है। वह ऐसा व्यक्ति है, जो अभियन्ताओं तथा विद्यालय-प्रबन्धकों के मध्य सामंजस्य स्थापित कर सकता है। विद्यालय भवन का निर्माण करते समय स्वास्थ्य सम्बन्धी बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है। प्रत्येक कक्ष में वायु एवं प्रकाश के लिये उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये। इसके लिये पर्याप्त मात्रा में खिड़की एवं रोशनदान होने चाहिये।

एक कमरे से दूसरे कमरे में आने-जाने की भी व्यवस्था हो। सुरक्षा की दृष्टि से ऐसी व्यवस्था हो कि आवश्यकता पड़ने पर विद्यालय को कुछ ही मिनटों में खाली किया जा सके। इसके साथ-साथ निर्माण में मितव्ययता का भी ध्यान रखा जाय। विद्यालय की संरचना हेतु निर्माण सम्बन्धी दो योजनाएँ प्रचलित हैं-(1) खुली योजना तथा (2) बन्द योजना
1. खुली योजना-खुली हुई योजनाओं में भिन्न-भिन्न रूप वाली इमारतों का उपयोग किया जाता है, जैसे-अंग्रेजी अक्षर की बनावट H टाइप,E टाइप,L टाइप,T टाइप, I टाइप, Yटाइप तथा टाइप।

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2. बन्द योजना-बन्द योजनाओं में तीन रूप आते हैं-(1) ठोस आयत (Solid rectangle), (2) आयत (Rectangle)-इसके बीचों-बीच हॉल तथा अन्य कक्षों का निर्माण होता है। (3) शून्य आयत (Hollow rectangle)-इसमें बीच में खाली स्थान रहता है तथा उसके चारों ओर इमारत बनायी जा सकती है। आजकल खुली योजनाओं का अधिक प्रचलन हो गया है।

2. फर्नीचर का प्रबंधन ( Furniture )

विद्यालय में भौतिक संसाधनों के प्रबन्धन के अन्तर्गत विद्यालय का फर्नीचर (Furniture) भी आता है। विद्यालय में उपयुक्त फर्नीचर होना चाहिये, जिससे छात्र सुविधा- पूर्वक अध्ययन कर सकें। सामान्य प्राथमिक विद्यालयों में बालों के बैठने के लिये टाट-पट्टी का प्रयोग किया जाता है परन्तु वर्तमान समय में अधिकतर विद्यालयों में कुर्सी तथा डेस्क का प्रयोग किया जाने लगा इस सम्बन्ध में इनकी सुविधापूर्ण रख-रखाव तथा गुणवत्ता पर ध्यान देना परम आवश्यक है। प्रत्येक कक्षा में छात्रों की संख्या के अनुसार मेज तथा कुर्सियों का प्रबन्ध होना चाहिये। जहाँ तक हो सके इस बात का ध्यान रखा जाय कि एक सीट पर दो छात्र न बैठें।

प्रत्येक छात्र के लिये अलग मेज तथा कुर्सी होनी चाहिये। इससे छात्रों को लिखने तथा पढ़ने में सुविधा रहती है। छात्रों के लिये अलग-अलग मेज-कुर्सी का होना व्यय साध्य तो होगा परन्तु बालों के लिये सुविधाजनक है तथा उन्हें अनेक छूत के रोगों से भी बचाया जा सकता है। इनके स्थानों पर जुड़वाँ डेस्कों का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसमें डेस्क तथा कुर्सी एक साथ जुड़ी रहती हैं तथा एक ही स्थान पर जमी रहती हैं। इस प्रकार की डेस्कों को आगे पीछे तथा ऊपर-नीचे करने की व्यवस्था होनी चाहिये। यदि फर्नीचर उपयुक्त ढंग का होगा तो छात्रों को आसन सम्बन्धी दोषों से बचाया जा सकता है। अनुपयुक्त फर्नीचर से छात्रों के नेत्रों तथा आसन पर कुप्रभाव पड़ता है। विद्यालय में बालकों के व्यक्तित्व के विकास में फर्नीचर का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

3.शैक्षिक उपकरण का प्रबंधन

विद्यालय में फर्नीचर के अतिरिक्त अन्य शैक्षिक सामग्री का भी महत्त्व होता है। शिक्षण करते समय अध्यापक को निम्नलिखित शैक्षिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है-

1. श्यामपट्ट (Black board)-शिक्षण में श्यामपट्ट का विशेष महत्त्व होता है। कक्षा में शिक्षण करते समय अध्यापक को इसकी अत्यधिक आवश्यकता होती है। इसकी सहायता से अध्यापक अपने पाठ का शिक्षण सुगमतापूर्वक करता है। यह शिक्षण कार्य को आगे बढ़ाने में बहुत सहायक होता है।

2. विज्ञान-सामग्री (Science material)-आज के वैज्ञानिक युग में प्रत्येक विद्यालय में विज्ञान प्रशिक्षण से सम्बन्धित सामग्री होनी चाहिये। विज्ञान-सामग्री उपलब्ध कराने के लिये विभाग द्वारा विज्ञान किट्स प्रदान किये जाते हैं। उनको भली प्रकार रखा जाना चाहिये। यदि विज्ञान-शिक्षण के लिये प्रयोगशाला उपलब्ध करायी जा सके तो और भी अच्छा है। इन प्रयोगशालाओं का आकार छात्रों की संख्या के अनुसार होना चाहिये। ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’ योजना के अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक विद्यालय में दी जाने वाली विशिष्ट सामग्री का विवरण इस प्रकार है-

(1)शिक्षण उपकरण-पाठ्य विवरण, पाठ्य-पुस्तकें, शिक्षक, मार्गदर्शिका, (2) शिक्षण सामग्री-मानचित्र, प्लास्टिक ग्लोब, (3) खेल उपकरण-विजडम ब्लॉक, सरफेशटेन्शन, पक्षी तथा पहेली, तराजू तथा बाँट, आवर्धक लैन्स, चुम्बक, फीता, छात्रों की जानकारी सम्बन्धी चार्ट, (4) खेल उपकरण-कूदने की रस्सी, बाल तथा फुटबाल रिंग आदि, (5) प्राथमिक विज्ञान किट,(6) लघुऔजार किट आदि,(7) पुस्तकालय के लिये पुस्तकें-सन्दर्भ पुस्तकें, शब्दकोष, बच्चों की पुस्तकें, पत्रिकाएँ और समाचार पत्र, (8) विद्यालय के लिये घण्टी, (9) वाद्य-यन्त्र-ढोलक, तबला, हारमोनियम तथा मंजीरा, (10) शिक्षक के पास आकस्मिक व्यय के लिये धन, (11) सर्व ऋतु कमरे आवश्यक सामग्री सहित, (12) श्यामपट्ट, (13) चॉक तथा डस्टर, (14) पानी व्यवस्था एवं (15) कूड़ादान आदि।

4. विद्यालय की साज-सज्जा का प्रबंधन

विद्यालय को अत्यन्त आकर्षक एवं सुन्दर बनाने के लिये अर्थात् विद्यालय की साज-सज्जा के लिये विद्यालय के प्रांगण का अधिकाधिक सुन्दर होना आवश्यक है। इस हेतु विद्यालय में पेड़-पौधों, बागवानी तथा वृक्षारोपण होना आवश्यक है। विद्यालय में फल-फूल के पौधे विद्यालय के वातावरण को प्रदूषण से मुक्त करते हैं साथ ही उसकी सुन्दरता तथा आकर्षण को बढ़ाते हैं। जिस विद्यालय में पेड़-पौधे एवं बागवानी नहीं होती उन विद्यालयों का शैक्षिक वातावरण आकर्षक न होकर नीरस होता है। अतः एक अच्छे विद्यालय में इनका होना अनिवार्य है। विद्यालय में फूलों के पौधों का रोपण अवश्य किया जाना चाहिये। मुख्य मार्ग के दोनों ओर ईंटों की पंक्तियाँ हों जो सफेद रंग से रंगी हों। दीवारों एवं मुख्य भवन पर सफेदी की हुई होनी चाहिये। भवन की विभिन्न प्रयोगशालाओं को विषय सम्बन्धित चार्टो, चित्रों एवं मॉडल से
सजाया जाये। कक्षा-कक्ष में दीवारों पर चार्ट टाँगे जायें। बुलेटिन बोर्ड एवं सूचनापट यथास्थानरखे जायें।

5.विद्यालय में पेयजल का प्रबंधन

विद्यालय खेल के मैदान में पीने के शुद्ध पानी का समुचित प्रबन्ध होना चाहिये। पानी की शुद्धता पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है यह उद्गम के कारण भी हो सकता है अथवा नाली या कीचड़ के कारण या गन्दे बर्तनों में भरे रहने के कारण भी। बालक के विकास में जल का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि हमारे शरीर में 70 प्रतिशत के लगभग जल होता है। यदि जल अशुद्ध रूप में हमारे शरीर में पहुँचता है तो अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न कर देता है। अतः विद्यालय में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था होनी चाहिये। जल के संग्रहण एवं उसे शुद्ध करने के लिये विद्यालय प्रशासन द्वारा पूर्ण प्रयास किये जाने चाहिये। विद्यालय परिसर में पीने हेतु शुद्ध जल की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये।

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जहाँ तक सम्भव हो पानी ऋतु के अनुसार ठण्डा एवं गरम हो। विद्यालय की पानी की टंकी में नित्य शुद्ध एवं ताजा पानी भरा जाना
चाहिये। समय-समय पर टंकी की सफाई की जानी चाहिये। टंकी के साथ-साथ मटकों एवं वाटर कूलर की व्यवस्था भी की जा सकती है। पानी पीने के लिये गिलासों का प्रबन्ध हो एवं ये गिलास प्रतिदिन साफ करने चाहिये। पीने के पानी की व्यवस्था शौचालय अथवा मूत्रालय के निकट नहीं होनी चाहिये। विद्यालयों में शुद्ध जल-व्यवस्था की नितान्त आवश्यकता होती है। विद्यालय में जल-व्यवस्था हेतु सीमेन्ट की या लोहे की टंकी रखी जायें या मिट्टी के बड़े मटके रखे जायें।

6.विद्यालय में शौचालय का प्रबंधन

विद्यालय में शौचालय तथा मूत्रालय का प्रबन्ध परम आवश्यक है। ये विद्यालय प्रांगण के किसी भी किनारे पर निर्मित किये जायें ताकि दुर्गन्ध तथा गन्दगी न फैले। इनकी प्रतिदिन पानी से धुलाई की जाय। यदि “फ्लश सिस्टम हो तो और भी अच्छा है। हमारे देश में विद्यालयों में मल-मूत्र के निकास एवं समाप्ती (Disposal) या निस्तारण की समस्या गम्भीर रूप धारण किये हुए है। मल-मूत्र संवाहन की सुव्यवस्था के अभाव में बहुत से रोग; जैसे-हैजा, टाइफाइड एवं पेचिश आदि हो जाते हैं। विद्यालयों के मूत्रालयों से प्रायः यूरिया की दुर्गन्ध आती है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।

मूत्रालय की प्रतिदिन पानी से धुलाई की जानी चाहिये और धुलाई में फिनायल का प्रयोग करना चाहिये, इससे हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं। मूत्रालय से मूत्र के निकास के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिये। इसके प्रवाह के लिए पक्की ढंकी हुई नालियों का प्रयोग किया जाना चाहिये। ये नाली सीवेज (Sewage) लाइन अथवा नगर की बड़ी-बड़ी भूमि के अन्दर की गन्दे जल को ले जाने वाली नालियों से मिली होनी चाहिये। मल-मूत्र के त्याग एवं उनके निस्तारण की सुव्यवस्था में शौचालयों की बनावट एवं प्रकार का अत्यन्त महत्त्व है।

7.विद्यालय में प्रयोगशाला का प्रबंधन

विद्यालयों में प्रयोगशाला का अपना स्थान होता है। किसी भी विषय के शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये यह आवश्यक है कि उसमें कुछ उपकरणों का प्रयोग किया जाय। आज विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले प्रत्येक विषय के लिये प्रयोगशाला के महत्त्व को मान्यता प्रदान की जाने लगी है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति ने प्रत्येक विषय के शिक्षण के लिये प्रयोगशाला की आवश्यकता पर बल दिया है परन्तु अन्य विषयों में उपकरणों की इतनी आवश्यकता नहीं होती,जितनी कि विज्ञान में। अत: यह आवश्यक है कि विज्ञान-शिक्षण के उपकरणों को सुरक्षित एक स्थान पर रखा जाय, जिससे आवश्यकता पड़ने पर उसका प्रयोग सरलता से किया जा सके। इस उद्देश्य के लिये ही विद्यालयों में विज्ञान प्रयोगशालाओं का निर्माण किया जाता है।

8. विद्यालय के कार्यालय का प्रबंधन

विद्यालय के भौतिक संसाधनों की श्रृंखला में कार्यालय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कार्यालय सदैव प्रधानाचार्य कक्ष के पास होना चाहिये, जिससे कार्यालय को आवश्यक निर्देश शीघ्रता एवं सरलता से प्रदान किये जा सकें।

9.विद्यालय में खेल का मैदान का प्रबंधन (क्रीडांगन)

खेल बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं। खेल बालक के स्वास्थ्य तथा सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये उपयोगी होते हैं। खेल एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि है। इसलिये खेलों के मैदान को भी विद्यालय में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिये तथा खेल के मैदान की सफाई का समुचित प्रबन्ध होना चाहिये। मैदान का धरातल समतल हो, मिट्टी ठीक से पड़ी हो एवं कंकड़-पत्थर न हों। बरसात के दिनों में वहाँ पानी नहीं भरना चाहिये। गर्मी एवं बरसात में खेलने हेतु मैदान का थोड़ा-सा भाग ढंका हुआ होना चाहिये।

मैदान के चारों ओर छायादार वृक्ष लगे होने चाहिये, जिससे छात्र वहाँ थकावट उतारने हेतु विश्राम कर सकें परन्तु मच्छरों तथा मक्खियों आदि से बचाव हेतु मैदान में चूना एवं कीटनाशक दवा का छिड़काव करवाते रहना चाहिये। खेल के मैदान में व्यवस्था इस प्रकार की हो कि वहाँ जानवर प्रवेश न कर सकें अन्यथा उनके मल-मूत्र द्वारा वहाँ गन्दगी फैलेगी। छात्रों को भी वहाँ गन्दगी न फैलाने हेतु निर्देशित किया जाना चाहिये। वर्तमान समय में विद्यालय के लिये खेल का मैदान परमावश्यक है क्योंकि विद्यालय से समाज की अपेक्षाएँ अधिक हो गयी हैं। आज सरकार भी व्यक्तिगत क्षेत्र में उन विद्यालयों को मान्यता प्रदान करती है, जिनके पास खेल का मैदान अनिवार्य रूप से होता है

10.विद्यालय भवन तथा परिसर में स्वच्छता सफाई व्यवस्था का प्रबंधन

विद्यालय भवन तथा परिसर का स्वरूप उसकी व्यवस्था एवं उसके उद्देश्य को स्पष्ट करता है। विद्यालय भवन एवं परिसर में स्वच्छता पर ध्यान देना परमावश्यक है क्योंकि बालक जिस परिवेश में रहता है उस परिवेश को तन और मन दोनों से स्वीकार कर लेता है। इसलिये प्राथमिक स्तर से ही बालकों में स्वच्छता की आदत का विकास करना चाहिये। स्वच्छता की आदत के विकास में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है क्योंकि विद्यालय में ही उससे यह कार्य कराया जाता है तो उसमें इस आदत का विकास होता है। विद्यालय भवन एवं परिसर की सफाई व्यवस्था को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-

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1. कक्षाकक्ष की स्वच्छता (Cleanliness of classroom)-प्राथमिक स्तर पर सामान्यतः सफाई कर्मचारी की व्यवस्था विशेष रूप से नहीं की जाती। बालकों से ही कक्षा कक्षों की सफाई करायी जाती है। बालकों को प्रतिदिन बारी-बारी से कक्षा कक्षों की सफाई करनी पड़ती है। कक्षा कक्षों में मकड़ी के जालों को भी साफ करना चाहिये जिससे कक्षाकक्ष स्वच्छ लगे और उसमें रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु न पनप सकें। कक्षाकक्ष की खिड़कियों, दरवाजों एवं जंगलों को पूर्णतः साफ कर देना चाहिये।

2. फर्नीचर की स्वच्छता (Cleanliness of furniture)-विद्यालय में बालकों को अपने बैठने वाली टेबल और कुर्सी को नियमित रूप से साफ करना चाहिये। उनमें लगे हुए जाले भी हटा देने चाहिये। कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व श्यामपट्ट की भी सफाई कर देनी चाहिये। फर्नीचर की सफाई सूखे एवं गीले कपड़े दोनों प्रकार से करनी चाहिये।

3. विद्यालय प्रांगण की स्वच्छता (Cleanliness of school ground)-विद्यालय प्रांगण की सामान्य सफाई नियमित रूप से होनी चाहिये; जैसे-प्रार्थना सभा के बाद यह कह दिया जाये कि सभी बालक मैदान से कागज, लकड़ी एवं पत्थर उठाकर एक स्थान पर एकत्रित करें। विद्यालय प्रांगण की पूर्ण सफाई हफ्ते में दो या तीन बार करनी चाहिये।

4. पीने के पानी की स्वच्छता (Cleanliness of drinking water)-पीने के पानी की टंकी को सफाई सप्ताह में एक बार अवश्य करनी चाहिये तथा टंकी को पूर्णत: ढककर रखना चाहिये, जिससे कि उसमें धूल एवं पत्ते आदि गिरकर पानी को दूषित न कर दें। पानी का स्रोत हैण्डपम्प के रूप में सर्वोत्तम माना जाता है। पानी का भण्डारण किया जा रहा है तो उसमें जल के शुद्धीकरण के लिये समय-समय पर पोटेशियम परमैंगनेट (लाल दवा) तथा फिटकरी डालनी चाहिये, जिससे पीने का पानी स्वच्छ बना रहे।

5. शौचालय की स्वच्छता (Cleanliness of toilet)-विद्यालय में शौचालय की सफाई प्रतिदिन होनी चाहिये, जिससे उसमें गन्दगी उत्पन्न न हो। लघुशंका करने के बाद पानी अवश्य डालना चाहिये इससे शौचालय में दुर्गन्ध नहीं आयेगी तथा स्वच्छता बनी रहेगी। सप्ताह में दो या तीन बार तेजाब या टॉयलेट क्लीनर से सफाई अवश्य करनी चाहिये।

6. प्रयोगशाला की स्वच्छता (Cleanliness of laboratory)-प्राथमिक स्तर पर प्रयोगशालाओं की संख्या नगण्य है फिर भी जहाँ विज्ञान से सम्बन्धित प्रयोग एवं प्रदर्शन किये जाते हैं उस स्थान की स्वच्छता का उत्तरदायित्व भी छात्रों पर होता है। प्रयोगशालाकीसफाई के समय यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी उपकरण को हानि न पहुंचे तथा सफाई करते समय अपने शरीर की भी सुरक्षा करनी चाहिये; जैसे-रासायनिक पदार्थों के घातक प्रभावों से बचना । इस प्रकार प्रयोगशाला की सफाई अवश्य करनी चाहिये।

7. पुस्तकालय की स्वच्छता (Cleanliness of library)-विद्यालय में पुस्तकालया की स्वच्छता भी परमावश्यक है। पुस्तकालय की स्वच्छता के आधार पर ही छात्रों का मन उसमें अध्ययन करने में लगेगा अन्यथा छात्रों को पुस्तकालय से अरुचि हो जायेगी। पुस्तकालया में बैठने के स्थान तथा पुस्तकों की सफाई होनी चाहिये। पुस्तकों को झींगुर एवं चूहों से बचाने के लिये दवा का छिड़काव करना चाहिये। पुस्तकों को दीमक से बचाने के लिये गैंगरीन का
छिड़काव करना चाहिये।

8. खेल के मैदान की स्वच्छता (Cleanliness of play ground)-खेल के मैदान की सफाई भी परमावश्यक है। विद्यालय में खेल के मैदान की सामान्य सफाई प्रतिदिन होनी चाहिये क्योंकि कोई न कोई कक्षा खेल के मैदान का उपयोग प्रतिदिन अवश्य करती है। खेल के मैदान की पूर्ण सफाई माह में दो बार अवश्य होनी चाहिये।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि विद्यालय परिसर के प्रत्येक कोने-कोने की सफाई करना आवश्यक है। स्वच्छता के लिये यह आवश्यक है कि बालकों से यह कहा जाय कि कागज, कूड़ा एवं अन्य व्यर्थ का सामान कूड़ेदान में डालें तथा कूड़ेदान को सदैव ढककर रखें। इस प्रकार विद्यालय परिसर में गन्दगी नहीं होगी तथा स्वच्छता करते समय बालकों को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।

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