पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय आरंभिक स्तर पर भाषा का पठन लेख एवं गणितीय क्षमता का विकास में सम्मिलित चैप्टर पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व

पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व
पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व

Pathan ke prakar / पठन का अर्थ और प्रकार / पठन के उद्देश्य एवं महत्व

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पठन एवं लेखन की अवधारणा

सामान्य रूप से भाषायी दक्षताओं के अन्तर्गत सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना एवं व्यावहारिक व्याकरण के ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है। भाषा की इन दक्षताओं की आवश्यकता प्राथमिक स्तर से ही बालकों में विकसित करने के लिये शिक्षक द्वारा उन्हें पठन एवं लेखन सिखाने के प्रयास किये जाने चाहिये क्योंकि इसके अभाव में बालकों में भाषायी।विकास की सम्भावना नहीं होती। समय-समय पर शिक्षक द्वारा अनेक प्रकार की ऐसी गतिविधियों का आयोजन किया जाना चाहिये, जिससे बालकों में पठन एवं लेखन का विकास अनवरत् रूप से चलता रहे क्योंकि ये दोनों क्रियाएँ आवश्यक रूप से भाषायी कौशलों से सम्बन्धित होती है।

पठन का अर्थ

अंग्रेजी भाषा के Reading शब्द के लिये हिन्दी में पठन और वाचन दो शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मूलतः इन दोनों शब्दों में भेद है। वाचन का अर्थ है : जोर-जोर से पढ़ना, जिसका आनन्द श्रोता ले सकें। पढ्न का अर्थ है-जोर से और मौन होकर पढ़ना, जिससे पठित सामग्री समझ में आ जाय। अत: पठन के अन्तर्गत हम सस्वर और मौन दोनों प्रकार के वाचनों को रखते हैं, लेकिन वाचन का उद्देश्य यही रहता है कि वाचन करने वाला (पढ़ने वाला) स्वयं वाचन का आनन्द उठाये साथ ही अपने मानसिक विकास में गति पैदा करे। वाचूनकर्ता पठित सामग्री के भाव को समझकर दूसरों को समझा सके, यह पठन का परम उद्देश्य है।

इस प्रकार लिखित भाषा में अभिव्यक्त विचारों को पढ़ने की क्रिया को पढ़ना या पठन कहते हैं। पठन में मुख्यत: दो तथ्य समाहित हैं-वर्गों तथा शब्दों को पहचान कर ध्वनियों के साथ सहसम्बन्ध स्थापित करना तथा उपयुक्त गति से मौन या व्यक्त पठन करते समय पठित सामग्री का पूर्व पर सम्बन्ध जोड़ते हुए अर्थग्रहण करना। विचारकों और भाषाविदों ने पढ़ने के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार से अपने मत प्रस्तुत किये हैं-

(1) लिखे हुए से अर्थ गढ़ना ही पढ़ना है अर्थात् भाव को समझना ही पठन है।

(2) पढ़ने का अर्थ है लिखे हुए से धारणाओं को गढ़ना और साथ ही विचारों को आपस में जोड़ पाना और उन्हें अपनी स्मृति में रखना।

(3) पढ़ना केवल वर्णमाला की पहचान, शब्द तथा वाक्य को बोल पाना नहीं है, वरन् इसके आगे बहुत कुछ और भी है अर्थात् लिखे हुए के अर्थ को समझकर अपना दृष्टिकोण बनाना या फिर अपनी स्वयं की समझ विकसित करना।

(4) शब्द के भाग करके बोलना पढ़ना नहीं है। पढ़ने का अर्थ है लिखे हुए के साथ सम्वाद करना, अपने अनुभवों एवं समझ के साँचे में लिखे हुए को ढालना।

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(5) पढ़ना एक एकाकी प्रक्रिया नहीं है, इसमें अक्षरों की आकृतियों और उनसे जुड़ी ध्वनियाँ, वाक्य-विन्यास, शब्दों और वाक्यों के अर्थ और अनुमान लगाने का कौशल सम्मिलित है।

(6) पढ़ने में महत्त्वपूर्ण है लिखी हुई जानकारियों या संकेतों का अर्थग्रहण करना।

पठन या वाचन के आधार

पढ़ने के या पठन अथवा वाचन के दो प्रमुख आधार है-(1) वाचन मुद्रा तथा (2) वाचन शैली।

1. वाचन मुद्रा-वाचन मुद्रा से हमारा आशय बैठने, खड़े होने, वाचन सामग्री को हाथ में पकड़ने तथा भावों के अनुकूल आँखों, हाथों और अंगों का संचालन करने से है।

2.वाचन शैली-वाचन शैली से हमारा आशय कण्ठ साधकर भाव के अनुसार उचित उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ने के ढंग से है। उचित वाचन मुद्रा के साथ जो व्यक्ति वाचन सामग्री को भावों के अनुसार अंगों का संचालन करते हुए पढ़ता है वह श्रोताओं को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। एक अच्छा वाचनकार आगे चलकर अच्छा वार्ताकार, प्रभावशाली वक्ता और एक सफल अभिनेता हो जाता है।

पढ़ते या पठन कार्य करते समय ध्यान देने योग्य बातें

पढ़ते समय ध्यान रखने योग्य बातें-पढ़ते समय इन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिये-(1) पुस्तक और आँखों के बीच कम से कम एक फीट की दूरी हो (2) पुस्तक इस प्रकार रखी या पकड़ी जाये कि उस पर बार्थी ओर से प्रकाश आये।(3) पढ़ने की गति न तो अधिक तीव्र हो और न ही अधिक मन्द। (4) याठ का आरम्भ और अन्त मन्द गति से हो। (5) उच्चारण शुद्ध एवं स्पष्ट हो। (6) पढ़ते समय पढ़ने की मुद्रा सीधी एवं आरामदायक हो। (7) पढ़ते समय मुख पर भाव झलकने चाहिये। (8) पढ़ने का स्थान पर्याप्त प्रकाशयुक्त हो।

उचित पठन के लिए सुझाव

उचित पठन के लिये सुझाव-उचित पठन के लिये सुझाव इस प्रकार हैं-(1) बालकों को सही अर्थों में पढ़ना सिखाने के लिये सबसे पहले तो आवश्यक है इससे सम्बन्धित अनुभवों पर विचार किया जाय। इससे नवीन शिक्षण विधियाँ स्वाभाविक रूप से सामने आ जायेंगी।

(2) दूसरा आवश्यक तथ्य यह है कि अध्यापक इस तथ्य का महत्त्व समझें कि पढ़ने का अर्थ मात्र शब्दों तथा अक्षरों की पहचान से नहीं है बल्कि उनमें से अर्थ ढूँढ़ने से है और अर्थ भाग करके शब्द पढ़ने से नहीं आते बल्कि लिखे हुए में अपने अनुभव और अनुमान जोड़ने से आते हैं।

(3) तीसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य पढ़ने का अर्थ मात्र पाठ्य-पुस्तकों के पाठों को पढ़ पाना नहीं वरन् अपने चारों ओर बिखरी अथाह अलिखित और मुद्रित सामग्री को पढ़ पाना और उसमें से अपने लिये अर्थ निकाल पाना सही अर्थों में पढ़ना है। भाषा के उच्च स्तरीय कौशल तो पढ़ने की परिभाषा को कहीं और दूर ले जाते हैं। उनके अनुसार पड़ने के प्रति सदैव एक ललक लिये रहना,साहित्य का रसास्वादन करना एवं अपने सामाजिक परिवेश को समझकर उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करना ही पढ़ना है। जब हम मौन होकर किसी अंश को पढते हैं, तब हम उसकी ओर अपना अवधान लगा देते हैं। हमारा ध्यान जितना पाठ में लगता है,उतनी ही शीघ्रता से अर्थ ग्रहण होता है।

पठन का महत्त्व

पठन का जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मनुष्य में ज्ञानार्जन की जिज्ञासा स्वभावत: होती है और वह ज्ञान-वृद्धि के लिये सतत् प्रयल भी करता रहता है। ज्ञानार्जन और ज्ञान-वृद्धि के तीन साधन हैं-(1) प्रत्यक्ष निरीक्षण तथा स्वानुभव। (2) विचार विनिमय एवं दूसरों से शिक्षा ग्रहण। (3) स्वाध्याय तथा पठनाभ्यास।

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प्रत्यक्ष निरीक्षण तथा स्वानुभाव द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है, किन्तु इस विस्तृत विश्व में ज्ञान का सागर इतना असीम एवं अथाह है कि मनुष्य अपने इस छोटे से जीवन में ज्ञान का अल्पांश भी प्राप्त नहीं कर सकता। उसको विचार-विनियम और दूसरों के अर्जित ज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने में ही अधिक लाभ होता है। विद्यार्थी को यह सुविधा भी विद्यालय छोड़ने के पश्चात् प्रायः नहीं मिलती और उसके लिये एक ही साधन रह जाता है कि वह भूतपूर्व तथा वर्तमान विद्वानों की कृतियों का स्वाध्याय करके ही नवीन ज्ञान का अर्जन तथा प्राप्त ज्ञान में सम्वर्द्धन कर सकता है।

स्वाध्याय में पठन ही प्रमुख है; अतएव कहा जा सकता है कि हमारे सम्पूर्ण ज्ञानार्जन की कुँजी पठन ही है। शिक्षा पर प्राचीन संस्कृति के संरक्षण एवं अग्रसरण का उत्तरदायित्व रहता है। इस दृष्टि से पठन की महत्ता और भी बढ़ जाती है। छात्र को राष्ट्र के लिये उत्तम नागरिक बनाना भी शिक्षा के पठन द्वारा ही सम्भव है। सामयिक घटनाओं तथा विचार- धाराओं से परिचय प्राप्त करने तथा विश्व से सम्पर्क बनाये रखने की दृष्टि से भी पठन का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है। आधुनिक समय में हमारे देश के छात्रों का शिक्षा स्तर नीचा होने का एक प्रमुख कारण पठन में उनकी अरुचि तथा स्वाध्याय की प्रवृत्ति का ह्रास है। अत: पठन के महत्त्व को समझने की आवश्यकता है।

पठन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. श्रीधरनाथ मुखर्जी लिखते हैं-“पठन एक कला है। यह ज्ञानार्जन की कुन्जी है। वाचन शक्ति ठीक रहने पर ही मनुष्य जटिल से जटिल विषय पढ़कर समझ सकता है तथा पढ़े हुए अंश का सार बोलकर या लिखकर व्यक्त कर सकता है। सुवाचन के बिना न तो कोई अच्छा वक्ता बन सकता है और न ही लेखक । पठन मृत्यु-पर्यन्त मनुष्य का साथी होता है। आप अकेले घर में बैठे हैं, रेल यात्रा कर रहे हैं अथवा बीमार पड़े हैं,ऐसे समय में आप एक पुस्तक उठाइये और उसके पठन का आनन्द लीजिये।”

पठन की जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता होती है। प्रगतिशील दशाएँ तो पठन के प्रति रुचि जाग्रत करने के लिये विद्यालय में सभी प्रकार के प्रयत्न करती हैं और समुदाय एवं समाज जिसमें आप राज्य को भी सम्मिलित कर सकते हैं, पठन के लिये सभी प्रकार के अवसर और सुविधाएँ देता है। जीवन चरित्र, इतिहास, काव्य, कहानियाँ, लेख, उपन्यास, नाटक आदि सत्साहित्य का प्रकाशन किग जाता है। पुस्तकालयों और वाचनालयों की व्यवस्था की जाती है, जिससे लोगों में पढ़ने (पठन) के प्रति रुचि और उत्साह निरन्तर बढ़ता रहे। पुस्तक मेले भी लगाये जाते हैं।

वाचन (पठन) ही ऐसा माध्यम है जिससे हम साहित्य के विशाल साम्राज्य में प्रवेश करते हैं। इसी से हमें अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। पठन ही ऐसी क्रिया है जिसका अवलम्बन एवं उपयोग करने से व्यक्ति सम्पूर्ण मानव’ बन जाता है। फ्रांसिस बेकन के इस कथन पर ध्यान दें,“सम्मेलन से मुस्तैदी और लेखन से दुरुस्ती आती है, परन्तु मनुष्य में पूर्णता पढ़ने से आती है।” पठन का इतना अधिक महत्त्व है कि वह विद्यालय की चहारदीवारी से बाहर भी मानव का साथ देता है और उसे पूर्ण बनाता है। पठन के जिस रूप की प्रशंसा बेकन ने की है, वह वास्तव में निपुणता एवं व्यक्ति के विचारों की प्रौढ़ता का सूचक है और यह निपुणता बताती है कि व्यक्ति में भाषायी दक्षता कितनी और कहाँ तक अपना स्थान बना चुकी है?

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पठन का अर्थ ग्रहण में महत्त्व

पठन के द्वारा छात्र में अर्थ ग्रहण की निम्नलिखित योग्यताओं का विकास होता है-
(1) पठित सामग्री का केन्द्रीय भाव या विचार ग्रहण कर लेना। (2) अनावश्यक स्थलों को छोड़ते हुए मुख्य सूचनाओं और भावों को ग्रहण कर लेना। (3) प्रकाशित सामग्री से उन सामग्रियों को चुन लेना जो उसकी आवश्यकताओं के अनुकूल हों। (4) पठित् सामग्री में से तथ्यों, भावों और विचारों को चुन लेना तथा उनकी क्रमबद्धता को पहचानना। (5) पठित सामग्री पर पूछे गये प्रश्नों का उत्तर दे सकना, निष्कर्ष निकाल सकना, उपयुक्त शीर्षक दे सकना,अपरिचित शब्दों, उक्तियों, मुहावरों के अर्थ का अनुमान लगा लेना तथा शब्दों के लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ को समझ लेना । (6) पुस्तकालय तथा वाचनालयों में जाकर पुस्तक सूची (Cata-logue) आदि से पुस्तकें चुन लेना एवं उनका प्रयोग कर सकना । (7) साहित्य की विविध विधाओं के प्रमुख तत्वों को पहचानना।

पठन का सृजनात्मक योग्यता में महत्त्व

सत्साहित्य के पठन से व्यक्ति को आनन्द मिलता है तथा उसका मन भी सृजन की ओर झुकने लगता है। गय हो या पद्य अथवा साहित्य की कोई अन्य विधा निरन्तर नियमित पठन करने वाले का मन कुछ न कुछ लिखने की ओर अवश्य झुकता है क्योंकि पढ़ने से उसकी कल्पना शक्ति विकसित होती है। प्रौढ़ावस्था में भी साहित्य कल्पना शक्ति को पुन: जाग्रत करता है और विचार करने की प्रेरणा देता है। पाठक अपने आन्तरिक भण्डार स्त्रोत की वृद्धि करता है और जो कुछ असावधानी अथवा परिस्थिति की विषमता के कारण भूल गया है उसको पुन: प्राप्त करता है। सत्साहित्य तो नित्य नूतन रूप धारण करता रहता है। शेक्सपीयर के जिस नाटक को आपने विद्यालयी जीवन में पढ़ा, उसी को पुनः प्रौढ़ावस्था में पढ़ने से द्विगुणित आनन्द आया।

पठन के प्रकार

पढ़ना या पठन दो प्रकार का होता है-(1) सस्वर पठन। (2) मौन पठन!

1. सस्वर पठन

सस्वर पठन की परिभाषा देते हुए श्रीमती राजकुमारी शर्मा ने लिखा है-“लिखित भाषा के ध्वन्यात्मक पठन को सस्वर पठन कहते हैं।

सस्वर पठन के भेद
(1) व्यक्तिगत पठन
(2) व्यापक पठन

2. मौन पठन

लिखित सामग्री को मन ही मन बिना आवाज निकाले पढ़ना मौन पठन या मौन वाचन कहलाता है। मौन वाचक के होठ बन्द रहते हैं।

मौन पठन के भेद
(1) द्रुत पठन
(2) गंभीर पठन


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