बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय आरंभिक स्तर पर भाषा का पठन लेख एवं गणितीय क्षमता का विकास में सम्मिलित चैप्टर लेखन का अर्थ एवं उद्देश्य / लेखन का महत्व एवं उपयोगिता आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
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लेखन का अर्थ एवं उद्देश्य / लेखन का महत्व एवं उपयोगिता
Lekhan ka arth avm uddeshy / लेखन का महत्व एवं उपयोगिता
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पठन एवं लेखन
सामान्य रूप से भाषायी दक्षताओं के अन्तर्गत सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना एवं व्यावहारिक व्याकरण के ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है। भाषा की इन दक्षताओं की आवश्यकता प्राथमिक स्तर से ही बालकों में विकसित करने के लिये शिक्षक द्वारा उन्हें पठन एवं लेखन सिखाने के प्रयास किये जाने चाहिये क्योंकि इसके अभाव में बालकों में भाषायी विकास की सम्भावना नहीं होती। समय-समय पर शिक्षक द्वारा अनेक प्रकार की ऐसी गतिविधियों का आयोजन किया जाना चाहिये, जिससे बालकों में पठन एवं लेखन का विकास अनवरत् रूप से चलता रहे क्योंकि ये दोनों क्रियाएँ आवश्यक रूप से भाषायी कौशलों से सम्बन्धित होती है।
लेखन का अर्थ
भाषा के दो रूप होते हैं, मौखिक और लिखित । मौखिक रूप के अन्तर्गत भाषा का ध्वन्यात्मक रूप एवं भावों को मौखिक अभिव्यक्ति आती है। जब हम ध्वनियों को प्रतीकों के रूप में व्यक्त करते हैं और उन्हें लिपिबद्ध करके भाषा को स्थायित्व प्रदान करते हैं तो भाषा का यह लिखित रूप कहलाता है। भाषा के इस लिखित रूप का अर्थ शिक्षा के प्रतीकों को पहचान,कर उन्हें बनाने की क्रिया अथवा ध्वनि को लिपिबद्ध करना ही लेखन कहा जाता है। लेखन क्रिया के अन्तर्गत सुडौल एवं अच्छे वर्गों में लिखना सम्मिलित है।
“शुद्ध, सुनिश्चित एवं स्पष्ट शब्दावली के माध्यम से भावों एवं विचारों के क्रमायोजित लिपिबद्ध प्रकाशन को लिखित रचना कहते हैं।” प्राचीनकाल में लेखन हेतु आधुनिक सामग्री नहीं थी तब मानव पत्थरों पर लेखन कार्य किया करते थे। अपने विकास के साथ-साथ मानव ने अपनी लेखनकला को भी विकसित किया और पत्थरों के अतिरिक्त पेड़ों के पत्तों और छालों पर भी लिखना प्रारम्भ किया। शनै:-शनै: लेखन कला में प्रगति हुई साथ ही लेखन सामग्री में भी परिवर्तन हुआ, जो वर्तमान समय में कागज के रूप में दिखायी देता है।
लेखन या लिखने का महत्व
कुशल वक्ता और सफल लेखक दोनों को ही समाज में सर्वप्रियता की कमी नहीं रहती। दोनों ही समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन तथा संशोधन करते हैं। वक्ता की वाणी जादू का काम करती है, किन्तु वह अस्थायी होती है। उससे उसके जीवन काल में ही लाभ प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु लेखक को लेखनी से निसृत श्याम वर्णों को छाप स्थायी होती है और उसका प्रभाव युग-युगों तक बना रहता है। तात्पर्य यह है कि एक सफल लेखक अपने शरीर से सदैव जीवित रहकर जन कल्याण करता रहता है। एक समुचित रचना संग्रह हो, बस फिर क्या अल्प समय में हो तुलसी, सूर, कबीर एवं शुक्न किसी का भी अभिलिखित विचार सत्संग करके लाभ प्राप्त कीजिये।
अवकाश के समय के सदुपयोग के लिये भी ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण होते हैं, उनमें ज्ञानार्जन के साथ मनोरंजन भी होता है। वर्तमान निबन्धात्मक परीक्षा के युग में रचना-शक्ति विद्यार्थियों की अंक प्राप्ति में सहायक होती है। प्राय: वही छात्र अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखे जाते हैं, जिनमें अपने प्राप्त ज्ञान और तत्सम्बन्धी विचारों को एक सुन्दर क्रम में शुद्ध भाषा लिपिबद्ध करने की क्षमता होती है लिखन रचना भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें लेखन विचारों को गहनता, अनुभव तथा परिपक्वता के प्रकाशन हेतु निर्वाध एवं विस्तृत स्थान है । रचना से मानव मस्तिष्क को प्रौढ़ता प्राप्त होती है। इस प्रसिद्ध उक्ति से स्पष्ट है-‘लेखन दशा मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचाती है।’ अंग्रेजी के विद्वान् लेखक बेकन ने भी इसी विचार का समर्थन किया. “बोलना मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचाता है, लेकिन लेखन आदमी को परम शूद्ध बनाता है।
लेखन अभिव्यक्ति का क्रमिक विकास
लिखाना कब सिखाया जाये? इस प्रश्न का एक दूसरा पक्ष बालक की आयु से सम्बन्धित है। इस विषय में मान्यता यह है कि पाँच छ: वर्ष के बालक में इतना विकास हो जाता है कि वह लिखना सीख सके। प्रारम्भिक स्तर पर लेखन की अच्छी आदतों को विकसित करने मेंबनिम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-
1.रेखांकन का अभ्यास-वास्तविक लेखन सीखने से पूर्व छात्र को कुछ रेखाओं को आंचने का अभ्यास होना चाहिये। स्वतन्त्र रूप से मनमाने ढंग से बालक कुछ रेखाएँ खीचें, जिससे उसकी मांसपेशियाँ दृढ़ हों और वह लिखना सीखने के लिये तैयार हो जाये। इन्हीं टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों के माध्यम से बाद में उसे अक्षर बनाने में सरलता होगी।
2. वर्णों की रचना का अभ्यास-बालक स्वभाव से ही क्रियाशील होते हैं। अत: लिखित कार्य में उनकी क्रियाशीलता को प्रोत्साहन मिलना चाहिये। लेखन कार्य की शिक्षा और बालक की क्रियाशीलता के प्रोत्साहन हेतु सर्वप्रथम उनके लेखन कीब जिज्ञासा जाग्रत करने की बात विचारणीय है। बालक विभिन्न आकृतियों में रंग भरकर तथा उसकी अनुकृतियाँ बनाकर प्रसन्नता का अनुभव कर सकता है। अत: चित्रों में रंग भरकर तथा अन्य आकर्षक क्रियाओं द्वारा बालक में लेखन कार्य के प्रति रुचि जगायी जा सकती है।
3.वर्ण के अंग-प्रत्यंग, आकार, मोड़ एवं रूपआदि का अभ्यास-वर्णों की रचना का ज्ञान कराने हेतु वालकों को रेखांकन का अभ्यास देना आवश्यक है। अत: उन्हें क्रमशःआड़ी, तिरछी तथा खड़ी इन रेखाओं के सहयोग से बनी आकृतियों का अभ्यास कराना चाहिये। रेखाओं के इस अभ्यास के पश्चात वृत्त, अर्द्धवृत्त एवं घुण्डियों का ज्ञान कराना भी आवश्यक होता है।
अभ्यास द्वारा रेखाओं और युण्डियों के मेल से निर्मित वर्ण सरल रूप लेने लगेंगे तथा उनमें सुन्दरता आने लगेगी। लेखन सिखाने के लिये वर्णमाला के क्रम को ध्यान में रखा जाय, या गावश्यक नहीं। इस बात का अवश्य ही ध्यान रखा जाना चाहिये कि लेखन कार्य के अभ्यास के लिये उस क्रम को अपनाया जाये, जिसमें कि थोड़े-से परिवर्तन से चार-पाँच वर्ण सरलता से बन जायें। समस्त वर्णमाला को इस क्रम से विभाजित किया जाये जिससे बालक तुलनात्मक दृष्टि से अक्षरों को देख सकें। उदाहरण के लिये- (1) गम भझन,(2) तटम्ववचज,(3) पफयघषजक,(4) र एण,(5) अआ ओ औ अं अःऋत्र,(6) उऊईईडङह,(7) दडढ़वधछ,(8) खशसज्ञक्ष। बनावट के विचार से खड़ी लाइन वालेवों को पहले बनाने का अभ्यास करना उपयुक्त
4. सुडौलता का अभ्यास-लेखन कार्य आरम्भ करते समय लेखन-गति पर ध्यान दिया जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि अक्षर के ठीक-ठीक एवं सुडौल लिखे जाने पर ध्यान दिया जाना महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक होता है। लेखन सीखते समय यदि बालक अपेक्षाकृत बड़े अक्षर लिखते हैं तो उन्हें लिखने दिया जाय।
5. लिखने लिखाने में व्यवहत कार्य का अभ्यास-बालक स्वभाव से अनुकरण प्रिय होते हैं। अत: लेखन शिक्षा का क्रमिक विकास आगे लिखी गयी कुछ विधियों द्वारा सम्भव हो सकता है-
(1) समतल भूमि पर बिछी हुई चालू, धूल, राख आदि पर दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली से बालक देख-देखकर अभीष्ट अक्षर बनायें।
(2) पटरी पर रंगीन बीजों या वस्तुओं से भी अक्षर उभारे जायें तथा इन उभरे हुए अक्षरों पर अंगुलियाँ फिराकर बालक अभ्यास करते हैं तथा कलम अथवा चॉक की सहायता से लिखने का अभ्यास करते हैं।
(3) लेखन-क्रिया में निम्नलिखित उपकरणों की सहायता ली जा सकती है-(अ) गत्ते आदि से कटे हुए अक्षर, (ब) रेशमी कपड़े या रेगमाल कागज पर कटे हुए अक्षर, (स) किसी धातु या धरती पर खुदे हुए अक्षर एवं (द) अक्षरों के आकार-प्रकार के कटे हुए लकड़ी के टुकड़े। बालक इन वस्तुओं का स्पर्श करेंगे तथा कुछ समय पश्चात् वे वर्णों की आकृति से परिचित होने लगेंगे। लिखने की शिक्षा देने के सम्बन्ध में जो विचार सामने आये हैं, उनमें प्रारम्भिक ज्ञान के सम्बन्ध में अलग-अलग मत व्यक्त किये गये हैं।
6. लिखना सिखाने की पद्धतियों का अभ्यास-लिखना सिखाने हेतु तीन प्रकार की पद्धतियों उपयोग में लाया जाता है-
(A) वर्ण परिचय-यह परम्परागत पद्धति है। इसमें बालक को वर्णमाला के शब्दों को सुविधानुसार सिखा दिया जाता है तथा अक्षर सीख जाने पर बालक को मात्राओं का ज्ञान दिया जाता है, मात्राओं और वर्गों के योग से सरल शब्दों को लिखने का अभ्यास कराया जाता है; जैसे-(1) द ल, (2) दि ल, (3) व ल एवं (4) बि ल।
(B) शब्द द्वारा अक्षर परिचय- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि शब्द द्वारा काम की अक्षर मानकराया जाना चाहिये। शब्दोंकी वस्तु के साथ या चित्रकसाथ प्रस्तुत करत उपयुक्त बताया गया,जैसे-बालक चित्रों के साथ लिखाए शब्दा तथा विशेष इस विधि में चित्रों के साथ शब्दों को पढ़ने का अभ्यास बालक से कराया जाता है। अक्षर को चिहांकित कर उसके प्रति बालक का ध्यान आकर्षित कराया जाता है। अभ्यास के बाद यदि चित्र और अक्षर को पृथक्कर दिया जाय तो बालक चित्र का पहचान लेता है। बनावट से परिचित वर्ग को वह सरलता से लिखना सीख सकता है।
(C) वाक्य द्वारा अक्षर परिचय-बालकों को रचि की दृष्टि से शब्दों की अपेक्षा वाक्य अधिक सार्थक और उपयोगी सिद्ध होते हैं। अत: पढ़ने में तो यह विधि उपयोगी होती है, परन्तु लिखने में कठिन। उसमें उपयुक्त वाक्यों का चयन महत्त्वपूर्ण होता है। इसके सम्भवन बन पाने के कारण इस विधि का उपयोग सामान्यत: नहीं होता।
लेखन में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का महत्त्व
लेखन कार्य में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि किसी छात्र से रुचिपूर्ण एवं स्वतन्त्र रूप से लेखन कार्य करने के लिये कहा जाय तो वह उस कार्य को अपने तर्क एवं चिन्तन के आधार पर सम्पन्न करता है। उसके इस कार्य में उसके मनोभाव समाहित होते हैं। नियन्त्रित लेखन की अपेक्षा लेखन कार्य में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति को महत्त्व प्रदान करना आवश्यक समझा जाता है। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की प्रमुख आवश्यकता एवं महत्त्व निम्नलिखित रूप से है-
1. रुचिपूर्ण लेखन-रुचिपूर्ण लेखन के लिये स्वतन्त्रता आवश्यक है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में छात्र द्वारा जो भी लेखन कार्य किया जाता है उसमें छात्र को पूर्ण रुचि होती है क्योंकि वह अपने विचारों को किसी आधार या नियन्त्रण में प्रस्तुत नहीं करता वरन् अपनी इच्छा के अनुसार प्रस्तुत करता है; जैसे-गाय के ऊपर किसी छात्र को अपने विचार प्रस्तुत करने हैं तो गाय की विशेषताओं में से जो विशेषताएँ उसे अच्छी लगती हैं, उनको वह प्रमुख रूप से वर्णित करेगा। इस प्रकार वह लिखित अभिव्यक्ति का सहारा लेते हुए पूर्ण रुचि एवं मनोयोग से प्रस्तुतीकरण करेगा।
2. प्रभावी लेखन-स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के माध्यम से लेखन में प्रभावशीलता उत्पन्न होती है। सामान्य रूप से देखा जाता है कि जब लेखन कार्य नियन्त्रित एवं प्रतिबन्धित रूप में होता है तो छात्र शिक्षक या पुस्तक का अनुकरण करता है। जब उसे स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है तो इसकी सम्भावना बढ़ जाती है कि उसके लिखित विचार पुस्तक एवं शिक्षक दोनों से ही श्रेष्ठ होंगे क्योंकि छात्रों में भी अनेक छात्र प्रतिभाशाली एवं योग्य होते हैं। इस प्रकार छात्रों का स्वतन्त्र अभिव्यक्ति में लेखन कार्य प्रभावी एवं श्रेष्ठ हो जाता है।
3. भावपूर्ण लेखन-छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करने पर उन्हें अपने विचार एवं भाव स्वतन्त्र रूप से लिखने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इस प्रेरणा के कारण छात्रों का लेखन प्रभावशाली बन जाता है तथा छात्र के विचारों में स्वाभाविकता उत्पन्न होती है। इसलिये श्रेष्ठ लेखन क्षमता के विकास तथा भावपूर्ण लेखन के लिये स्वतन्त्र अभिव्यक्ति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।
4. एकाग्रता का विकास-स्वतन्त्र अभिव्यक्ति में छात्र एकाग्रता का विकास करता है अर्थात् छात्र जिस विषय पर भी लिखना चाहता है वह उसकी इच्छा के अनुरूप होता है तथा लेखन कार्य में भी उस पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता है। इसलिये वह पूर्ण मनोयोग के साथ लिखना प्रारम्भ करता है जिससे उसके लेखन कार्य में एकाग्रता एवं क्रमबद्धता का स्वरूप प्रदर्शित होता है।
5. तर्क एवं चिन्तन का विकास-स्वतन्त्र लेखन में प्रभाशीलता के साथ-साथ छात्रों में तर्क एवं चिन्तन का विकास होता है। जब छात्र किसी निश्चित विषय पर लिखना प्रारम्भ करता है तो वह उस विषय पर पूर्ण विचार प्रारम्भ कर देता है क्योंकि वह विषय उसकी रुचि के अनुसार होता है। लेखन कार्य में वह उस विषय पर तर्क एवं चिन्तन का सहारा लेते हुए उसे श्रेष्ठ में विकसित करने का प्रयास करता है।
6. प्रभावी भाषा शैली का विकास-छात्रों में प्रभावी भाषा शैली के विकास हेतु यह आवश्यक है कि छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की जाय क्योंकि स्वतन्त्र अभिव्यक्ति में छात्र अपने लेखन को सर्वोत्तम बनाने के लिये मानक भाषा का प्रयोग करते हुए सरल एवं साहित्यिक बनाने का प्रयास करता है। वह अपने लिपिबद्ध प्रस्तुतीकरण को विभिन्न प्रकार के मुहावरों एवं लोकोक्तियों के माध्यम से विकसित करता है जिससे उसके प्रस्तुतीकरण की भाषा शैली प्रभावशील हो जाती है।
7. शब्द भण्डार में वृद्धि-लेखन कार्य में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के माध्यम से छात्र अपनी लेखन कला को प्रभावी बनाने के लिये विभिन्न स्थानीय एवं साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करता है। इससे एक ओर उसका लेखन कार्य प्रभावी होता है वहीं दूसरी ओर उसके शब्द भण्डार में वृद्धि होती है।
8. छात्रों में कल्पना शक्ति का विकास-नियन्त्रित लेखन प्रणाली में छात्र द्वारा एक निर्धारित एवं नियन्त्रित मार्ग पर लेखन कार्य किया जाता है परन्तु स्वतन्त्र अभिव्यक्ति में छात्रों द्वारा लेखन कार्य में अपनी विभिन्न प्रकार की कल्पनाओं का समावेश कियाजाता है। कल्पनाओं के समावेश के आधार पर लेखन कार्य पूर्णत: श्रेष्ठ एवं प्रभावी रूप में सम्पन्न होता है तथा छत्री में कल्पना शक्ति का विकास सम्भव होता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि रुचि एवं स्वतन्त्रता के साथ लेखन करने से सम्पूर्ण लेखन व्यवस्था भाषा शैली एवं व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण होती है। इस प्रकार के लेखन में स्थानीय भाषा का समावेश होता है तथा लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग भी छात्रों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार रुचि एवं स्वतन्त्रतापूर्वक किया गया लेखन सरल,साहित्यिक एवं बोधगम्य होता है।
लेखन के उद्देश्य
लिखने का उद्देश्य भावों, विचारांचा अनुभवों को लिखित रूप में सुरक्षित रखना है। इस प्रकार लेखन का प्रमुख उद्देश्य अपने विचारों से दूसरों को अवगत कराना तथा अपने अनुभवों को नयी पीढ़ी तक पहुँचाना है। इस प्रकार लेखन के उद्देश्य अत्यन्त व्यापक हैं जिन्हें निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) वर्तमान समय में बालकों के लिये सन्तुलित भोजन पर लेख लिखा जाय तो प्रत्येक अभिभावक द्वारा इसे ध्यानपूर्वक पढ़ा जायेगा तथा उस पत्रिका को भी महत्त्व दिया जायेगा जिसमें यह लेख प्रकाशित होगा। प्रत्येक अभिभावक द्वारा अपने बालकों को कुपोषण से बचाने तथा पोषण प्रदान करने के लिये सन्तुलित भोजन के बारे में सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कराने ,का प्रयास किया जाये तथा उसको व्यवहार में लाया जायेगा।
(2) स्थानीय वस्तुओं का ज्ञान प्रदान करने के लिये एवं प्राप्त करने के लिये लेखन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लिखित रचनाओं के द्वारा हमें स्थानीय एवं वैश्विक ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसलिये लेखन की भाषा में बोधगम्यता होनी चाहिये। इसकी भाषा में एक ओर स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग होना चाहिये जिसे स्थानीय नागरिकों की रुचि का सम्वर्द्धन हो तो दूसरी ओर इसमें साहित्यिक शब्दों का प्रयोग भी होना चाहिये जिससे जो भी इस अनुच्छेद का पठन करे उसको साहित्य एवं भाषा का सही ज्ञान हो सके। इस प्रकार के अनुच्छेद लेखन से पत्रिका के पाठकों में वृद्धि होगी तथा अनुच्छेद लेखन के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकेगा।
(3) लेखन कला के द्वारा संश्लेषण एवं विश्लेषण की क्षमता का विकास होता है। इसलिये लेखन अभ्यास के रूप में जब शिक्षक या छात्र को किसी पत्रिका के लिये अनुच्छेद लेखन का कार्य किया जाय तो उसमें संश्लेषण करने की योग्यता का प्रदर्शन अवश्य करना चाहिये। प्रत्येक वाक्य के द्वारा अनुच्छेद के प्रत्येक उद्देश्य एवं सारतत्त्व को प्रदर्शित करना चाहिये। इस प्रकार के अनुच्छेद लेखन को पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों की दृष्टि से सर्वोत्तम माना जाता है। इन सभी में संश्लेषण की क्षमता का उपयोग किया जाता है।
(4) लेखन कजा में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का ज्ञान होता है क्योंकि लेखन में स्थानीय स्तर पर प्रयुक्त किये जाने वाले मुहावरे एवं लोकोक्तियों का उपयोग किया जाता है। इसके साथ साहित्यिक शब्दों का उपयोग भी करना चाहिये जिससे भाषायी दृष्टि से भी लेखनमें प्रभावशीलता उत्पन्न हो।
(5) छात्राध्यापकों को जिस प्रकरण पर अनुसन्धान करना है उसकी प्रारम्भिक सूचना आवश्यकता एवं महत्त्व का वर्णन भी लिखित रूप में मिलता है। अत: लेखन का उद्देश्य अनुसन्धान कार्यों को प्रोत्साहन और इनके बारे में जानकारी देना है। इससे पाठकों के मन में यह उत्साह होता है कि इस सन्दर्भ में भी सार्थक परिणाम आने वाले हैं; जैसे-सन्तुलित भोजन एवं मितव्ययता तथा सन्तुलित भोजन एवं स्वास्थ्य आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर अनुसन्धान सम्बन्धी अनुच्छेद लिखे जा सकते हैं क्योंकि वर्तमान समय में प्रत्येक नागरिक कम धन व्यय करके अधिकतम् सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार के अनुच्छेद अधिक ख्याति अर्जित करते हैं।
(6) लेखन की प्रक्रिया में सामाजिक जागरूकता का विकास होता है। इसके लिये कर्त्तव्य एवं अधिकार पर अनुच्छेद लेखन प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें स्थानीय स्तर पर दोनो ही क्षेत्रों में जागरूकता उत्पन्न होगी। प्रथम व्यक्ति अपने कर्त्तव्य का पालन करेंगे जिससे स्थानीय स्तर पर विकास की स्थिति उत्पन्न होगी तथा यह क्रम राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच सकेगा। इसके साथ नागरिकों में अधिकार के प्रति सजगता होगी जिससे उनका कोई शोषण नहीं कर सकेगा। अधिकारों का ज्ञान प्राप्त करके स्थानीय नागरिक अपने आपकों गौरवान्वित कर सकेंगे।
लेखन की उपयोगिता
लेखन का कार्य भाषायी विकास के लिये परमावश्यक है। अत: छात्रों के सन्दर्भ लेखन की उपयोगिता को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) लेखन प्रक्रिया में उन स्थितियों का सजन किया जाता है, जिसमें छात्र अधिक से अधिक शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रहे. जिससे कि छात्रों का अधिगम स्तर उच्च हो सके।
(2) लेखन का प्रमुख आधार प्रयोग एवं क्रियाशीलता है। इसमें बालक के लिये उन गतिविधियों को निर्मित किया जाता है, जिसमें बालक रुचिपूर्ण ढंग से भाषायी ज्ञान सीखता है; जैसे-बालकों को सरल शब्दोंका श्रुतलेख,अनुलेख एवं प्रतिलेखसम्बन्धी परिस्थितियों का सृजन करना।
(3) लेखन प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका एक मार्गदर्शक की होती है, जिसके द्वारा वातावरण का निर्माण किया जाता है। सीखने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका छात्र की ही होती है। छात्रों द्वारा स्वयं क्रियाशील होकर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
(4) लेखन प्रक्रिया में छात्रों की रुचि एवं योग्यता का ध्यान रखा जाता है। इसमें छात्रों के स्तरानुकूल विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण छात्रों को भाषायी ज्ञान सीखने के लिये प्रेरित करता है।
(5) लेखन कौशल के विकास में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन मौखिक रूप से न होकर लिखित रूप में होता है; जैसे-निबन्ध प्रतियोगिता, कहानी प्रतियोगिता एवं पहेली प्रतियोगिता आदि का आयोजन लिखित रूप में किया जाता है। मौखिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ इसमें लिखित अभिव्यक्ति को भी महत्त्व प्रदान किया जाता है।
(6) लेखन में शिक्षण सूत्रों का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है। इसमें सामान्य से विशिष्ट की ओर तथा सरल से कठिन की ओर चलते हुए वातावरण का निर्माण किया जाता है, जिससे कि छात्रों को किसी प्रकार की कठिनता का अनुभव न हो तथा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।
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