देवनागरी लिपि की विशेषताएं / देवनागरी लिपि में कमियां या कठिनाइयाँ एवं उनका निराकरण

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Devnagri lipi ke gun avm dosh / देवनागरी लिपि की विशेषताएं

देवनागरी लिपि की विशेषताएं / देवनागरी लिपि में कमियां या कठिनाइयाँ एवं उनका निराकरण
देवनागरी लिपि की विशेषताएं / देवनागरी लिपि में कमियां या कठिनाइयाँ एवं उनका निराकरण


देवनागरी लिपि की विशेषताएं / देवनागरी लिपि में कमियां या कठिनाइयाँ एवं उनका निराकरण

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देवनागरी लिपि का इतिहास

भारतवर्ष में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से एक भाषा तथा एक लिपि की आवश्यकता पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया था । इस आन्दोलन के प्रारम्भ में ही देवनागरी लिपिको राष्ट्रलिपिबनाने पर बल दिया गया और इसका प्रयास सबसे पहले अहिन्दी भाषियों द्वारा किया गया था, जिसमें बंगाली, मद्रासी और मराठी विद्वान् थे । इन विद्वानों के सतत्प्र यासों एवं अमान्य कारणों से अन्ततः हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा और देवनागरी की राष्ट्रीय लिपि स्वीकार किया गया। देवनागरी लिपि की उत्पत्ति ब्राह्मी लिपि के रूप में हुई है।

ब्राह्मी और खरोष्ठी को भारत की प्राचीनतम लिपियाँ माना जाता है। इसके रूपप्राचीन शिलालेखों और ताम्रपत्रों के रूप में प्राप्त हुए हैं। अशोक के शहबाजगढ़ी और मनसेहरा नामक स्थानों के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं। खरोष्ठी लिपि में लिखे गये शिलालेखों ब्राह्मी लिपि के शिलालेखों की तुलना में अत्यल्प हैं । अतः हम कह सकते हैं कि ब्राह्मी उस समय की राष्ट्रीय लिपि थी। खरोष्ठी शब्द का अर्थ है ‘गधे के होठवाली’। इसका यह नाम कैसे पड़ा, इसका कोई विवेचन नहीं मिलता। यह लिपि पश्चिमोत्तर प्रदेश की लिपि थी। इसमें वैज्ञानिकता नहीं थी। यह लिपि उर्दू के समान दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा इसे अनार्य लिपि मानते हैं । सुप्रसिद्ध लिपि-विशेषज्ञ पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इसकी उत्पत्ति ईरानियों की प्राचीन राजकीय लिपि’अरमइक से मानते हैं ।

उनका विचार है कि जब ईरानी भारत आये तो उत्तर भारत के शिक्षित समुदाय ने इसमें कुछ परिवर्तन कर एक काम चलाऊ लिपि बना ली। ये लिपि भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में ईसा की तीसरी या चौथी सदी तक रहने के बाद लुप्त हो गयी। सिन्धु घाटीकी खुदाई में प्राप्त मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में प्राप्त प्राचीन लिपि को कुछ विद्वान् विदेशी तथा कुछ स्वदेशी लिपि मानते हैं। विभिन्न विद्वान् उसकी उत्पत्ति सुमेरी लिपि से मानते है तो कुछ आर्य या असुरों द्वारा प्रभावित । परन्तु अब यह सिद्ध हो चुका है कि वह लिपि भारतीयों की ही अपनी लिपि थी। इससे यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि भारत में लेखन-कला बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित थी। कुछ विदेशी विद्वान् पाणिनि (4 सदी ई. पू.) के समय तक भी भारत में किसी लिपि के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते ।

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देवनागरी लिपि का नामकरण

हमारी लिपि नागरी या देवनागरी क्यों कहलायी इसका अभी तक कोई निश्चित प्रमाण या उल्लेख नहीं मिल सका?’नागरी’ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों के विभिन्न मत हैं। विद्वानों का एक वर्ग इसका सम्बन्ध नागर ब्राह्मणों या नागर अपभ्रंश से मानता है अर्थात् नागर ब्राह्मणों में प्रचलित होने के कारण अथवा नागर अपभ्रंश से उत्पन्न होने के कारण इस लिपि को नागरी कहा गया । विद्वानों का दूसरा वर्ग इसका अर्थ ‘नगर’ से सम्बन्धित अर्थात् नगर के लोगों की लिपि लगाते हैं । दक्षिण में इसे नन्दि नागरी’कहते हैं तोइस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है जैसे- प्राचीनकाल में नन्दि नगर नामक कोई राजधानी रही होगी। रामशास्त्रीका इससम्बन्ध में मत है कि प्राचीनकाल में देवताओं की मूर्तियाँ बनाने से पूर्व उनकी उपासना संकेत चिह्नों द्वारा होती थी, जो त्रिकोण या चक्रों आदि के मध्य में लिखे जाते थे’देवनगर’ कहलाते थे। अत: देवनगर के आधार पर इसका नाम देवनागरी पड़ा।

देवनागरी लिपि का महत्त्व

देवनागरी लिपि आज संसार की सर्वाधिक अधिक वैज्ञानिक लिपि मानी जाती है। इसमें संसार की लगभग सभी भाषाओं की ध्वनियों को उच्चरित कर सकने की शक्ति और क्षमता है । इस लिपि में जो लिखा जाता है, उसका उच्चारण बिल्कुल वही किया जाता है । जबकि संसार की अन्य किसी लिपि में यह गुण पूर्ण रूप से नहीं मिलता । उर्दू और रोमन लिपियों का कोई निश्चित नियम नहीं है क्योंकि इनमें लिखा कुछ जाता है तथा उसका उच्चारण कुछ और ही किया जाता है।

एक ही अक्षर का प्रयोग भिन्न-भिन्न स्थानों पर करने से उसके उच्चारण में भी परिवर्तन हो जाता है परन्तु देवनागरी लिपि में ऐसा नहीं होता । इस लिपि में एक निश्चित वर्ण का प्रयोग ही उचित माना गया है । इसी कारण देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक लिपि माना गया है। अन्य अनेक भारतीय लिपियों में भी देवनागरी लिपि की उपर्युक्त विशेषताएँ मिलती हैं। विशेष रूप से उन लिपियों में जिनका देवनागरी लिपि से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । देवनागरी लिपि को उपर्युक्त विशेषताएँ दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषाओं की विभिन्न लिपियों में भी मिलती हैं।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ

देवनागरी लिपि में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(1) वैज्ञानिकता। (2) आक्षरिक लिपि। (3) सरल एवं सुन्दर। (4) विदेशी ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता। (5) गौरवपूर्ण लिपि।

1. वैज्ञानिकता-जिस भाषा में उच्चारण और लेखन में सीधा अपवाद रहित सम्बन्ध होगा, उसकी लिपि वैज्ञानिक कही जायेगी। इस सन्दर्भ में देवनागरी वैज्ञानिक लिपि है। हिन्दी में जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है अथवा यूँ कहें कि जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है। देवनागरी लिपि चिह्न हिन्दी की ध्वनियों से तालमेल रखते हैं। यह इस लिपि की वैज्ञानिकता है। देवनागरी लिपि में प्राय: सभी मूल ध्वनियों के लिये पृथक्-पृथक् ध्वनि चिह्न हैं। इस लिपि का ध्वनि तत्व बड़ा वैज्ञानिक है, जबकि अंग्रेजी आदि भाषाओं की लिपियों में यह वैज्ञानिकता कम है; जैसे-नेचर बोला जाता है ‘नेचर’ और लिखा जाता है Nature’ | हिन्दी के साथ ऐसा नहीं है, ‘त्रिदेव’ बोला जा रहा है तो ‘त्रिदेव’ ही लिखा जा रहा और ‘त्रिदेव’ ही पढ़ा जा रहा है। यह इस भाषा की लिपि की वैज्ञानिकता है।

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2. आक्षरिक लिपि-देवनागरी लिपि आक्षरिक लिपि है क्योंकि इसमें स्वर एवं व्यंजन के संयोग से तथा मात्रा के संयोग से तथा व्यंजन और व्यंजन के संयोग से नये अक्षरों का निर्माण होता है। ऐशियाई देशों की अधिकतर लिपियाँ आक्षरिक हैं।

3. यह लिपि सरल एवं सुन्दर है-देवनागरी लिपि के वर्गों की बनावट सरल और है। इसे सीखने में कठिनाई नहीं आती। इसे आसानी से सीखा जा सकता है।

4.विदेशी ध्वनियों को व्यक्त करने में समर्थ-देवनागरी लिपि में यह भी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस लिपि में विदेशी ध्वनियों को व्यक्त करने की समर्थता है। कुछ विदेशी ध्वनियों को व्यक्त करने के लिये लिपिचिह्न भी लिये गये हैं; जैसे-ऑ, क आदि।

5. गौरवपूर्ण लिपि-देवनागरी लिपि हमारे देश का गौरव है। हमारे देश का अधिकतर साहित्य इस लिपि में सुरक्षित है। इस लिपि का देश में प्रचलित लगभग सभी लिपियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हिन्दी भाषा के अतिरिक्त यह संस्कृत, मराठी और नेपाली भाषाओं की लिपि भी है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी यह लिपि गौरवमयी लिपि कही जाती है।

देवनागरी लिपि की कमियां या कठिनाइयाँ

देवनागरी लिपि में वर्गों की संख्या अधिक है जबकि अंग्रेजी और उर्दू में अपेक्षाकृत कम वर्ण हैं; फिर भी देवनागरी में चीनी आदि भाषाओं की भाँति हजारों वर्ण नहीं हैं । मात्राओं के अलग-अलग संकेतों के कारण भी वर्णमाला बड़ी हो गयी है । अधिक वर्णों का एक कारण महाप्राण ध्वनियों और अनुनासिक ध्वनियों के विकल्प भी हैं । अत:आरम्भ में वर्णमाला सीखने में कुछ कठिनाई होती है और अभ्यास करने तथा मात्राएँ लगाने में भूल हो जाती है। देवनागरी लिपि की उपर्युक्त कमी के कारण मुद्रण और टंकन (टाइपराइटर) के लिये इस लिपि को कुछ विद्वान् उचित नहीं मानते। मुद्रण में तो विशेष कठिनाई नहीं होती, केवल वर्गों की संख्या बढ़ जाती है परन्तु उससे कम्पोजिंग में कठिनाई होती है।

अब कम्प्यूटर के प्रयोग तथा अभ्यास द्वारा समस्या का निराकरण हो गया है । लम्बी वर्णमाला के कारण लिपि की शुद्धता के लिये बहुत बड़ा टंकन यन्त्र (टाइप राइटर) होना आवश्यक है । इसके कारण टाइपिस्ट की गति भी नहीं बढ़ पाती। वर्णों एवं मात्राओं में बहुत कमी कर देने पर ही हिन्दी का टाइप राइटर (टंकण यन्त्र) बन सकता है। फिर भी उससे टाइप (टंकण) करने की गति में बहुत अन्तर है, जो अंग्रेजी की तुलना में लगभग आधे का है । हिन्दी में फ,झ और भ जैसे लगभग समान वर्गों की छपाई में भूल होने की सम्भावना अधिक रहती है । हिन्दी अनुहासिक को शुद्ध लिपि का प्रयोग कठिन हो गया है । गङ्गा के स्थान पर ‘गंगा’ होता जा रहा है । पङ्क के स्थान पर पंक हो गया है।

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देवनागरी लिपि की जटिलताओं के निराकरण हेतु सुझाव इन्हीं कुछ कमियों को लक्ष्य कर देवनागरी लिपि में सुधार करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है । सभी का यह मत है कि वर्गों की संख्या कम कर देनी चाहिये और ऋष आदि वर्णों को हटाकर क्रमश:रि,श,का प्रयोग यथेष्ट है । कुछ लोगों का विचार है कि महाप्राण ध्वनियों को भी देवनागरी लिपि से हटा देना चाहिये । उनके स्थान पर ह’ का संयोग करके काम चलाया जा सकता है परन्तु महाप्राण ध्वनियों में ह’का संयोग मात्र ही नहीं वरन् इससे लिपि की वैज्ञानिकता में अन्तर पड़ेगा। आधुनिक विद्वान् यद्यपि देवनागरी लिपिकी वैज्ञानिकता को स्वीकार करते हैं तथापि इसके स्वरों और मात्राओं का विरोध भी करते हैं । वे इसे संक्षिप्त रूपदेने का प्रयत्न कर रहे हैं ।

काका कालेलकर ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धद्वारा अपनी नवीन योजना को कार्य-रूप में परिणित करने का प्रयत्न भी किया था। उनका मत था कि केवल एक वर्ण’अ’में ही अन्य मात्राएँ लगायी जा सकती हैं। इस प्रकार केवल छह वर्णों –इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ की संख्या कम की जा सकती है। जबकि अन्य फिर भी वैसे ही रहते हैं परन्तु इस परिवर्तन से अनेक समस्याएँ उठ खेड़ी होंगी क्योंकि हमारा समस्त प्राचीन वाङ्गमय उसी पुरानी लिपि में लिखा गया है। अत: उसमें भी परिवर्तमकरना आवश्यक हो जायेगा ।

काका कालेलकर की यह नवीन पद्धति स्वराखड़ी’ कहलाती है। फिर भी टाइप राइटर टंकण में केवल व्यावहारिक क्षेत्र में परिवर्तन कर देने से कोई हानि नहीं होगी । सुविधा के लिये पत्र-व्यवहार में वर्णमाला छोटी की जा सकती है परन्तु मुद्रण के क्षेत्र में परिवर्तन करने से उपर्युक्त हानियों की ही सम्भावना अधिक है, लाभ की कम । उसमें से अप्रयुक्त ध्वनियों; जैसे—ऋ, ष आदि को हटाया जा सकता है । अनुनासिक के लिये बिन्दु (.) का प्रयोग किया जा सकता है । देवनागरी लिपि में परिवर्तन करने के लिये सामूहिक प्रयत्न किये जा रहे हैं । इसके लिये समितियों का निर्माण किया जा चुका है, जो समय-समय पर अपना निर्णय देती रहती हैं।



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