दोस्तों अगर आप CTET परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो CTET में 50% प्रश्न तो सम्मिलित विषय के शिक्षणशास्त्र से ही पूछे जाते हैं। आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com आपके लिए विज्ञान विषय के शिक्षणशास्त्र से सम्बंधित प्रमुख टॉपिक की श्रृंखला लेकर आई है। हमारा आज का टॉपिक विज्ञान शिक्षण में प्रयोगात्मक कार्य का महत्व एवं दोष | CTET SCIENCE PEDAGOGY है।
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विज्ञान शिक्षण में प्रयोगात्मक कार्य का महत्व एवं दोष | CTET SCIENCE PEDAGOGY
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विज्ञान शिक्षण के लिए प्रयोगात्मक क्रियाओं का बहुत महत्त्व होता है। विज्ञान विषय को केवल पुस्तकों से पढ़कर नहीं सीखा जा सकता है। विज्ञान के कठिन तथ्यों एवं सिद्धान्तों को प्रयोगों द्वारा अच्छी तरह से समझा जा सकता है। प्रयोगशाला के अभाव में विज्ञान विषय को पूर्णरूपेण नहीं समझा जा सकता है। प्रयोग करके विद्यार्थी स्वयं अपने अनुभवों के आधार पर वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है। प्रयोगात्मक कार्यों से ही विद्यार्थी की रचनात्मक कार्य करने की शक्ति का विकास होता है, जो विज्ञान की योग्यता का एक मुख्य अंग है। विद्यार्थी प्रयोगशाला में ‘करके सीखते हैं’ और सीखे हुए ज्ञान का उनके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
डॉ. डी. एस. कोठारी के अनुसार, “विज्ञान को सीखना विज्ञान को स्वयं करना है। इसके अलावा विज्ञान को सीखने के लिए कोई उपयुक्त विधि नहीं है।”
अर्थात् विज्ञान में प्रयोगात्मक कार्य से बालक को लाभ होता है तथा किसी सिद्धान्त की सत्यता की जाँच हो जाती है । उसमें प्रयोगात्मक कार्य से साधन सम्पन्नता (Resource Fluencess) तथा सहयोग की भावना जाग्रत होती है और उत्साह पैदा होता है। छात्र स्वयं क्रियाशील रहता है और लगन के साथ किसी सिद्धान्त के प्रयोगात्मक प्रभाव को मालूम करने के लिए उत्सुक रहता है।
प्रयोगात्मक कार्य का महत्त्व
प्रयोगात्मक कार्य का निम्नलिखित महत्त्व है-
(1) प्रयोगात्मक विधि करके सीखने के सिद्धान्त पर आधारित है। इस विधि में विद्यार्थियों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करने का अधिकाधिक अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्थायी होता है।
(2) विद्यार्थियों को वैज्ञानिक विधि से प्रशिक्षित किया जाता है।
(3) विज्ञान के कठिन तथ्यों एवं सिद्धान्तों को प्रयोगों द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
(4) विद्यार्थियों में निरीक्षण, परीक्षण, चिन्तन, तर्क आदि कुशलताओं का विकास किया जा सकता है।
(5) प्रयोग करके विद्यार्थी अपने अनुभवों के आधार पर वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा उनकी रचनात्मक शक्ति का विकास होता है।
(6) विद्यार्थियों में वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास होता है।
(7) विद्यार्थियों को नये-नये आविष्कार करने का अवसर प्राप्त होता है।
(8) विज्ञान के किसी भी सिद्धान्त की सत्यता की जाँच हो जाती है।
(9) विद्यार्थी मिलजुल कर कार्य करते हैं इससे उनमें सहयोग की भावना जाग्रत होती है।
(10) विद्यार्थी क्रियाशील रहते हैं और लगन के साथ किसी सिद्धान्त के प्रयोगात्मक प्रभाव को मालूम करने के लिए उत्सुक रहते हैं।
(11) विद्यार्थी अपने प्रयोगात्मक कार्य का मूल्यांकन स्वयं कर सकते हैं।
(12) विद्यार्थियों को अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर प्राप्त होता है। विद्यार्थी भिन्न-भिन्न प्रकार के उपयोगी उपकरण स्वयं बना सकते हैं।
(13) छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए प्रयोगात्मक प्रणाली अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(14) विद्यार्थियों को अनुसन्धान करने के अवसर प्राप्त हो सकते हैं।
(15) विद्यार्थियों में सिद्धान्तों को समझने की शक्ति तथा सामान्यीकरण करने का विकास होता है।
प्रयोगात्मक कार्य के दोष
(1) प्रयोगात्मक कार्य करते समय शिक्षक का सक्रिय रहना आवश्यक है अन्यथा इस विधि के असफल होने की सम्भावना रहती है।
(2) कभी-कभी उन समस्याओं को हल किया जाता है जो वास्तविक समस्याएँ नहीं होती हैं। इससे प्रयोगशाला का वातावरण नीरस हो जाता है।
(3) कभी-कभी शिक्षक विद्यार्थियों द्वारा निकाले गये परिणामों एवं निष्कर्षों पर ठीक प्रकार से ध्यान नहीं देते जिससे विद्यार्थी वैज्ञानिक सिद्धान्तों को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाते ।
(4) कभी-कभी विद्यार्थियों की संख्या अधिक होने पर उपकरणों की कमी हो जाती है जिससे विद्यार्थी अपनी प्रगति के अनुसार एक ही समय में विभिन्न प्रयोग करते हैं।
(5) यह विधि अधिक खर्चीली है।
(6) अनेक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थियों की प्रयोगात्मक पुस्तिका से नकल करके अपनी पुस्तिकाओं पर प्रेक्षण एवं निष्कर्ष तथा परिणाम लिख लेते हैं। ऐसे विद्यार्थी प्रगति नहीं कर पाते ।
(7) कुछ प्रयोग अत्यधिक जटिल होते हैं जिन्हें विद्यार्थी शिक्षक की सहायता के बिना नहीं कर सकते अत: प्रयोगात्मक कार्य करते समय शिक्षक का होना आवश्यक है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. “विज्ञान को सीखना विज्ञान को स्वयं करना है। इसके अलावा विज्ञान को सीखने के लिए कोई उपयुक्त विधि नहीं है।” कथन है-
(ब) स्किनर का
(द) न्यूटन का ।
(अ) डॉ. डी. एस. कोठारी का
(स) मैण्डलीफ का
2. प्रयोगात्मक कार्य से विकास होता है-
(अ) निरीक्षण कुशलता का
(ब) चिन्तन कुशलता का
(द) ये सभी ।
(स) तर्क कुशलता का
3. प्रयोगात्मक कार्य से होती है-
(अ) किसी सिद्धान्त की सत्यता की जाँच
(ब) सहयोग की भावना जाग्रत होना
(स) साधन सम्पन्नता
(द) ये सभी ।
उत्तर- 1. (अ), 2. (द), 3. (द)।
◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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