हिंदी भाषा शिक्षण की प्रकृति,आवश्यकता एवं विशेषताएं | CTET HINDI PEDAGOGY

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हिंदी भाषा शिक्षण की प्रकृति,आवश्यकता एवं विशेषताएं | CTET HINDI PEDAGOGY

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भाषा की उत्पत्ति

वस्तुतः भाषा की उत्पत्ति का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को ध्वनन् की शक्ति कब प्राप्त हुई और उच्चरित ध्वनि तथा उसके अर्थ में संसर्ग-स्थापन करना उसने कब और कैसे सीखा? ध्वनन् के सम्बन्ध में इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य ने भी जन्म से ही ध्वनन् की शक्ति प्राप्त की होगी और शनैः-शनै: यह क्रम आगे बढ़ा होगा। वर्तमान सशक्त भाषा मनुष्य की आवश्यकतानुसार कब आकारित हुई?

इसके लिये एक निश्चित तिथि का उल्लेख करना कठिन है किन्तु इतना सत्य है कि जिस दिन मनुष्य ने ‘का-का’ ध्वनि से ‘काक’, ‘कू-कू’ ध्वनि से ‘कोयल’ एवं ‘ झर-झर’ ध्वनि से ‘निर्झर’ का बोध प्राप्त किया होगा, भाषा उसी दिन से आकारित हो गयी होगी। भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं। दार्शनिकों, मानव वैज्ञानिकों एवं भाषा-वैज्ञानिकों सहित इतिहास के विशेषज्ञों तक ने अपने-अपने ढंग से भाषा की उत्पत्ति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है परन्तु इसकी तारीख निश्चित नहीं हो सकी। अतः यह प्रमाण शून्य है।

भाषा का ऐतिहासिक परिचय

वस्तुतः भाषा अपने सम्पूर्ण इतिहास में अतीत अर्थात् प्राचीनकाल से केवल बोली जाती रही है। लेखन कला का इतिहास सात या आठ हजार वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। संसार में आज भी ऐसी अनेक भाषाएँ हैं, जो बोलचाल से ही जीवित हैं और अभी तक वहाँ पर लेखन कला (Writing art) का विकास नहीं हुआ है। ‘तुर्क लोगों ने सन् 1928 में अरबी अक्षरों के स्थान पर रोमन अक्षरों को अपनाया किन्तु रोमनाक्षरों के पश्चात् भी भाषा को उसी ढंग से व्यवहार में लाते रहे जैसा कि पहले करते थे।

इसका अभिप्राय यह हुआ कि भाषा लिखित या मौखिक चाहे जिस रूप में उपलब्ध हो, वह उच्चारित खण्डों के व्यवस्थित रूप में ही आकारित होती है। ग्लीसन तो उच्चरित एवं लिखित भाषा में स्पष्ट सार्थक्य स्वीकार करते हुए भी लिपि और भाषा की निकट का सम्बन्ध मानते हैं। वे अन्ततः यह भी स्वीकार करते हैं “किसी विशेषण का उल्लेख किये बिना जब भाषा वैज्ञानिक सन्दर्भ में भाषा शब्द का प्रयोग हो तो उस समय उसका अर्थ मौखिक भाषा अर्थात् वाणी के माध्यम से विचारों के सम्प्रेषण के लिये होना चाहिये।” इस प्रकार की ‘भाषा’ व्यक्त वाणी होती है किन्तु वह व्यक्त वाणी मानव कण्ठोद्गीर्ण (निःसृत) होनी चाहिये क्योंकि भाषा विज्ञान अन्य प्राणियों की व्यक्त वाणी या बोली का अध्ययन नहीं करता।

भाषा का अर्थ

भाषा शब्द की रचना संस्कृत के ‘भाषा’ शब्द से हुई, जिसका अर्थ है–’व्यक्तायां वांचि’। धातु के अर्थ की दृष्टि से यदि भाषा की परिभाषा की जाये तो वह यह होगी- “विचारों,भावों तथा इच्छाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखने वाले वर्णात्मक प्रतीकों की समष्टि को भाषा कहते हैं।” वागेन्द्रियजनित और अवागेन्द्रियजनित भेद में ध्वनियाँ दो प्रकार की होती हैं। कण्ठपिटक से लेकर ओष्ठ तक फैला हुआ प्रदेश वागेन्द्रियों के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार से उत्पन्न ध्वनि समष्टि को ही ‘वाक्’ नाम दिया जा सकता है।

किसी व्यक्ति की प्रशंसा में बजायी गयी तालियों को ‘वाक’ नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: भाषा शब्द संकुचित और व्यापक दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। अपने संकुचित अर्थ में भा, ‘शब्दमयी’ और व्यापक अर्थ में अभिव्यक्ति, माध्यम मात्रमयी है। इस प्रकार के अर्थ में वह शब्दों, संकेतों आदि को अपने भीतर समेटती चलती है। अतः भाषा के शिक्षक को व्यापक अर्थ में ही भाषा शब्द को ग्रहण करना चाहिये। अन्यथा वह अपने छात्र में अभीष्ट प्रकार की अभिव्यक्ति की योग्यता उत्पन्न नहीं कर सकेगा-विशेषतः भाषा के शृव्य रूप के प्रयोग के क्षेत्र में।

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भाषा की परिभाषाएं

विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने भाषा की अनेकानेक निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं-

(1) सुमित्रानन्दन पन्त के अनुसार, “भाषा संसार का नादमय चित्र है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की हृदय तन्त्री की झंकार है, जिनके स्वर में अभिव्यक्ति पाती है। “

(2) काव्यादर्श के अनुसार, “यह समस्त तीनों लोक अन्धकारमय हो जाते, यदि शब्दरूपी ज्योति से यह संसार प्रदीप्त न होता, यथा- इदमघतमः कृत्सनं जातेत् भुवन् त्रयम्,यदि शब्दाहृयं ज्योतिरात्संसार न दीप्यते ।

(3) सीताराम चतुर्वेदी के अनुसार, “भाषा के आविर्भाव से सारा मानव संसार गूँगों की विराट बस्ती बनने से बच गया।”

(4) बर्नार्ड ब्लॉक एवं जॉर्ज ट्रेगर के शब्दों में, “भाषा स्वेच्छागत वाक्-प्रतीकों की वह प्रणाली है, जिसके द्वारा सामाजिक समूह परस्पर संगठित रहता है।”

(5) स्वीट के शब्दों में, “भाषा स्वर ध्वनि के द्वारा विचारों की अभिव्यक्तिकरण है।”

(6) श्यामसुन्दर दास के शब्दों में, “भाषा ध्वनि संकेतों का व्यवहार है।”

(7) रामचन्द्र वर्मा के शब्दों में, “मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का समूह जिसके द्वारा मन की बातें बतायी जाती हैं, भाषा कहलाती है।”

(8) करुणापति त्रिपाठी के शब्दों में, “भाषा के द्वारा आंकलित भावों एवं विचारों से-साहित्य का निर्माण होता है तथा साहित्य में मानव सभ्यता का परिचय मिलता है। इस रूप में भाषा से हमारे सामाजिक जीवन का परिचय है।”

भाषा ध्वनि चिह्नों की वह समष्टि है, जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचार,इच्छाएँ तथा भाव दूसरे व्यक्ति के लिये व्यक्त करता है तथा दूसरे के विचार, इच्छाएँ और भाव ग्रहण करता है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्शन भाषा ही कराती है। अतः भाषा जीवन जीने के लिये एक अभिन्न, अनिवार्य तथा आवश्यक माध्यम है। इसके अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

(9) ब्लूमफील्ड (Bloomfield) के अनुसार, “लेखन भाषा नहीं, वह दृश्य संकेतों के द्वारा भाषा को अंकित करने का साधन माना है।”
“Writing is not language, but merely a way of recording language by means of visible marks.”

(10) गुणे के शब्दों में, “ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा हृदयगत भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है।”

(11) बाबूराम सक्सेना के अनुसार, “जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसे भाषा कहते हैं।”
इस प्रकार भाषा ध्वनि चिह्नों की वह समष्टि है, जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचार, इच्छाएँ तथा भाव दूसरे व्यक्ति के लिये व्यक्त करता है तथा दूसरे के विचार, इच्छाएँ और भाव ग्रहण करता है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्शन भाषा ही कराती है।

(12) सर विलियम विन्टर (Sir William Winter) के शब्दों में, “आत्म-प्रकाशन मनुष्य की बहुत बड़ी आवश्यकता है।”
“Self-expression is the dominant necessity of human being.”

(13) एगमैन फ्रैंक (Egman Frank) के अनुसार, “सब कुछ जो भी तुम या मैं करता। हूँ, वह दो प्रेरक शक्तियों के कारण सेक्स की प्रेरणा से और महान् बनने की कामना है।”

भाषा की प्रकृति

भाषा की प्रकृति में निम्नलिखित का अध्ययन किया जाता है-
(1) ध्वनि, (2) व्याकरण, (3) शब्द-समूह, (4) वाक्य, (5) विषय एवं साहित्य।

1. ध्वनि- भाषाओं के ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि ध्वनियाँ जटिलता से सरलता की ओर सदैव अग्रसर होती हैं। वास्तव में आधुनिक भाषाओं की अपेक्षा प्रारम्भिक स्थिति में ध्वनियों का उच्चारण जटिल रहा होगा। अफ्रीका की असभ्य जातियों की भाषा में आज भी क्लिप्ट ध्वनियाँ हैं, जिनका उच्चारण आज भी कठिन माना जाता है। निश्चित रूप से आरम्भ में क्लिष्ट ध्वनियों का बाहुल्य रहा होगा।

प्राचीन तथा आदिम जातियों की भाषा में गीतात्मक स्वराघात प्रयोग का बाहुल्य था, जो धीरे-धीरे आधुनिक भाषाओं तक पहुँचते-पहुँचते समाप्त होने लगा। वैदिक संस्कृत एवं हिन्दी की तुलना के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दी में अपेक्षाकृत गीतात्मक स्वराघात में न्यूनता आयी है। इसके साथ ही वैदिक भाषा की अपेक्षा शब्दों का आकार भी हिन्दी में छोटा हो गया। होमरिक ग्रीक में भी वैदिक भाषा की भाँति ही गीतात्मक स्वराघात के प्रमाण मिलते हैं। अतः निश्चित रूप से आधुनिक भाषाओं में आदिम युग की भाषाओं की अपेक्षा ध्वनियाँ सरल हुई हैं, शब्दों के आकार छोटे हुए हैं तथा गीतात्मक स्वराघात भी पूर्ववत् सुरक्षित नहीं रह सका।

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2. व्याकरण-आरम्भिक अवस्था में भाषा संश्लेषणात्मक अर्थात् संयोगात्मक रही होगी, जो बाद में वियोगात्मक हो गयी होगी; जैसे- संस्कृत संयोगात्मक भाषा थी किन्तु आज वियोगात्मक हो चुकी। प्रारम्भ में शब्दों के अनेक रूप होंगे जिनमें सादृश्य एवं ध्वनि परिवर्तन के कारण क्रमशः कमी आयी होगी। अपवादों का बाहुल्य रहा होगा। आज की तुलना में लोगों का मस्तिष्क अव्यवस्थित रहा होगा, जिसके कारण भाषा में भी व्यवस्था का रहा होगा। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आज की भाँति आदिम अवस्था की भाषा में भाषिक नियम अथवा व्याकरणिक व्यवस्था का अभाव रहा होगा। इस प्रकार की कठिनाई का वातावरण रहा होगा।

3. शब्द-समूह-भाषा के विकास एवं अभिव्यंजन क्षमता में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है। चूँकि आरम्भिक अवस्था की भाषा में अभिव्यंजन-क्षमता अत्यल्प रही होगी। अतः सूक्ष्म एवं सामान्य भावों को व्यक्त करने के लिये शब्दों का एकान्त अभाव रहा होगा। आज भी दुनिया की अनेक असभ्य एवं अविकसित भाषाओं की यही स्थिति है। उदाहरणार्थ- अमेरिका की चेरोकी भाषा में सिर धोने, हाथ धोने तथा मुँह धोने के लिये अलग-अलग शब्द तो हैं किन्तु ‘धोने के लिये’ कोई शब्द नहीं है।

इसी प्रकार ‘तस्मानिया’ की भाषा में पेड़ों के लिये अलग-अलग शब्द हैं किन्तु ‘वृक्ष’ का अर्थ द्योतित करने वाला कोई शब्द नहीं है। अत: जूलू भाषा में लाल, काली एवं सफेद गाय के लिये अलग-अलग शब्द हैं किन्तु ‘गाय’ के लिये कोई शब्द नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रारम्भ में विशिष्ट पदार्थ के द्योतक एवं व्यक्तिवाचक शब्द होंगे किन्तु जातिवाचक शब्दों का अपेक्षाकृत अभाव रहा होगा।

4. वाक्य – भाषाओं के इतिहास से यह प्रकट हो चुका है कि वाक्य में अलग- अलग शब्दों का अस्तित्व बहुत बाद में विकसित हुआ है। आरम्भ में एक ही शब्द में पूरे वाक्य का भाव सम्बलित रहता होगा। मनुष्य में जैसे-जैसे विचारों का विकास होता गया वैसे-वैसे विभिन्न अर्थ एवं भाव को प्रकट करने के लिये वाक्य में विभिन्न अवयवों का विकास होता गया। उदाहरणार्थ- अमरीका की कुछ पिछड़ी भाषाओं में कुछ समय पहले तक पृथक्-पृथक् शब्दों की कल्पना तक नहीं की गयी थी किन्तु शोध के साथ अब परिवर्तन हुए हैं।

5. विषय एवं साहित्य – आदिम अवस्था में मनुष्य ‘भाव प्रधान’ रहा होगा। बाद में वह विचारों की श्रृंखला में बँधा होगा। मनुष्य में जैसे-जैसे विचार प्रधान होता गया वैसे-वैसे अभिव्यंजन क्षमता का विकास होता गया। चूँकि आरम्भिक बेला में मनुष्य भाव प्रधान था, इसीलिये भाषा मूलतः पद्यात्मक (गेय प्रधान) रही होगी। अतः विचारों में वृद्धि के साथ ही पद्यात्मकता की ओर से गद्यात्मक भाषा का विकास हुआ होगा। आरम्भिक गीतों में प्रकृतिगत भाव जिनका विकास जन्मजात होता है, की प्रधानता रही होगी। अतः प्रेम, क्रोध, घृणा एवं भय के चित्र ही भाषा में प्रकट होते होंगे।

निष्कर्षतः आदिम अवस्था में भाषा भावों के सम्पूर्ण अभिव्यंजन में असमर्थ थी और ध्वनियाँ जटिल थीं। स्थूल एवं विशिष्ट के लिये शब्द तो थे किन्तु सूक्ष्म एवं सामान्य की अभिव्यक्ति हेतु शब्दों का अभाव था। वाक्यहीन भाषा थी इसलिये व्याकरण का भी अभाव था। अतः भाषा में सर्वत्र अपवाद रहा होगा किन्तु भाषा संगीतात्मक रही होगी। भाषा की उत्पत्ति का सम्यक ज्ञान आज तक नहीं हो सका है और यही कारण है कि भाषा विज्ञान ने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सोचना अब छोड़ दिया है। साथ ही भाषा विज्ञान की आधुनिक पुस्तकों ने भी अप लेवर में भाषा की उत्पत्ति को स्थान देना छोड़ दिया।

भाषा की विशेषताएँ

भाषा में विद्यमान विशेषताएँ उसकी प्रकृति के कारण हैं। अतः भाषा की इन विशेषताओं को हम निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-

1. परम्परागत सम्पत्ति-भाषा एक परम्परागत सम्पत्ति है। बालक जन्म से ही बोलने की प्राकृतिक शक्ति लेकर आता है और अपने माता-पिता के संसर्ग से अपनी मातृभाषा बोलना सीखता है। जब बालक इसे सीखने में तर्क और ज्ञान का प्रयोग नहीं करता है तब उसे बता दिया जाता है कि अमुक वस्तु का नाम ‘थाली’ है तो वह उसे ज्यों का त्यों मान लेता है।

2. अर्जित सम्पत्ति – भाषा परम्परागत सम्पत्ति होने के साथ-साथ एक अर्जित सम्पत्ति भी है। मनुष्य भाषा की क्षमता परम्परा से लेकर उत्पन्न होता है, किन्तु वह समाज में रहकर ही उसे सीखता और अर्जन करता है। इसी अर्जन की प्रवृत्ति के कारण भाषा का विकास और परिष्कार होता है। अतः इसी अर्जन के फलस्वरूप अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को और भारतीय लोगों ने अंग्रेजी भाषा को सीखा।

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3. सामाजिक निधि-मनुष्य समाज में रहकर भाषा का अर्जन करता है। समाज में परम्परा से जिस भाषा का प्रचलन और प्रसार होता है, मनुष्य उसी को अपनाता है और उसी का प्रयोग करता है।

4. विकासशील अथवा परिवर्तनशील – विकास अथवा परिवर्तन भाषा का अनिवार्य गुण है। समाज के वातावरण तथा शिक्षा के संस्कार के कारण मनुष्य अपनी भाषा का निरन्तर विकास और परिष्कार करता रहता है।

5. विकास में बाधाएँ- भाषा के विकास में ये बाधाएँ व्याकरण के नियमों के रूप में प्रकट होती हैं।

6. अनुकरण द्वारा अर्जन- अनुकरण मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है और भाषा के सीखने में वह इसका प्रयोग सबसे अधिक करता है।

7. भाषा का परिवर्तनशील स्वरूप – भाषा का निरन्तर विकास होने से उसका स्वरूप बदलता रहता है।

8. भाषा का विकास कठिनता से सरलता की ओर होता है- भाषा के विकास की धारा स्वाभाविक रूप से कठिन से सरल की ओर जाती है। सभी भाषाओं के विकास की यही प्रवृत्ति होती है। हिन्दी भी इसका अपवाद नहीं है। अतः ‘प्रयत्न लाघव’ का सिद्धान्त इसी बात का प्रमाण है।

9. भाषा का विकास चक्र है-भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर तथा वियोगावस्था से पुनः संयोगावस्था की ओर विकसित होती है।

भाषा सीखने के कौशल

इस प्रकार से भाषा सीखने के चार प्रमुख भाषा कौशल होते हैं-
(1) श्रवण (सुनना) ।
(2) भाषण (बोलना) ।
(3) वाचन (पढ़ना) ।
(4) लेखन (लिखना) ।

भाषा ध्वनि चिह्नों की वह समष्टि है, जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचार, इच्छाएँ तथा भाव दूसरे व्यक्ति के लिये व्यक्त करता है तथा दूसरे के विचार, इच्छाएँ और भाव ग्रहण करता है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्शन भाषा ही कराती है। अतः भाषा जीवन जीने के लिये एक अभिन्न, अनिवार्य तथा आवश्यक माध्यम है। इसके अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

भाषा के विकास की आवश्यकता

इस भाषा के मूल्य का आंकलन करना अति कठिन कार्य माना जाता है। अतः भाषा का मूल्य अपरिमित है। मानव के लिये टहलने एवं श्वांस लेने के समान ही बोलना भी अति आवश्यक है। बोलना श्वांस लेने के समान ही आवश्यक अभिव्यक्ति है। बालक अपने क्रमिक विकास के माध्यम से लड़खड़ा कर चलना सीख जाता है और फिर उसी प्रकार से तुतला-तुतला कर बोलना सीख जाता है। एडवर्ड सापिर (Edward Sapir) के अनुसार,“चलना स्वयं में एक मूल प्रवृत्ति न होकर एक प्रकार की कायिक क्रिया है, नैसर्गिक एवं स्वाभाविक कार्य भी है, जबकि बोलने को नैसर्गिक प्रवृत्ति रहित, अर्जित एवं सांस्कृतिक व्यापार कहा जाता है। “

इस प्रकार भावों को बोलकर ही स्पष्ट किया जा सकता है तथा भाषा ही मानव को समाज में प्रतिष्ठित बनाती है। भाषा के माध्यम से हम अपने सुख, दुःख, हर्ष-विमर्श, भय एवं क्रोध आदि भावों को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत कर पाते हैं। भाषा केवल हमारे विचारों की ही संवाहिक नहीं है बल्कि वह हमारी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं कला कौशल की परिचायिका भी है। अनेकानेक विषयों पर लिखित पुस्तकों का प्रकाशन भी भाषा के द्वारा ही सम्भव है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि भाषा के उच्चरित रूप की तुलना में उसका लिखित रूप अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अतः वाणी की अपेक्षा लेखनी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।

                         ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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