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विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन / पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन / पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन / पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व

विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन / पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व
विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन / पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व


पाठ्य पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व / विद्यालय में पाठ पुस्तकों का प्रबंधन

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पाठ्य-पुस्तकें किसे कहते है – अर्थ एवं परिभाषाएं

अंग्रेजी भाषा में पुस्तक के लिये ‘बुक’ (Book) शब्द का प्रयोग किया जाता है। बुक शब्द जर्मन भाषा ‘बीक’ (Beach) से बना है, जिसका अर्थ वृक्ष होता है। फ्रांसीसी भाषा में इसका अर्थ ‘वृक्ष की छाल’ लिया जाता है। भारत में पुस्तक के लिये प्राचीनकाल से ग्रन्थ शब्द का प्रयोग होता आया है। ग्रन्थ का अर्थ गूंथना और बाँधना है।

पाठ्य-पुस्तक की परिभाषाएँ-किसी भी पुस्तक को हम पाठ्य-पुस्तक नहीं कह सकते। पाठ्य-पुस्तक के सम्बन्ध में निम्नलिखित परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं-

(1) बेकन पाल के शब्दों में, “पाठ्य-पुस्तक कक्षा-शिक्षण के प्रयोग के लिये प्ररचित वह पुस्तक है जो सावधानी के साथ उस विषय के विशेषज्ञ द्वारा तैयार की जाती है और जो सामान्य शिक्षण युक्ति से भी सम्पन्न होती है।”

(2) गुड का मानना है,“एक निश्चित पाठ्यक्रम के अध्ययन के प्रमुख साधन के रूप में एक निश्चित शैक्षिक स्तर पर प्रयुक्त करने के लिये एक निश्चित विषय पर व्यवस्थित ढंग से लिखी गयी पुस्तक पाठ्य-पुस्तक है।”

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(3) हर्ल आर. डगलस के अनुसार, शिक्षकों के बहुमत ने अन्तिम विश्लेषण के आधार पर पाठ्य-पुस्तक को ‘वे क्या और किस प्रकार पढ़ायेंगे’ की आधारशिला बताया है।”

(4) प्रो. बार तथा बटेन के शब्दों में, “पात्य-पुस्तक हमारे देश में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण यन्त्र है।”
उपरोक्त विवरण से शिक्षण में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार से विभिन्न विषयों की निश्चित पाठ्यचर्या के अनुसार विशेषज्ञों द्वारा जो पुस्तकें तैयार की जाती हैं, उन्हें पाठ्य-पुस्तकें कहते हैं।

पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्त्व

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में पाठ्य पुस्तकों का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। आधुनिक युग में ज्ञान की अनेक शाखाएँ एवं प्रशाखाएँ बनती जा रही हैं, जिसके चलते आज ज्ञान की संरचना विशिष्ट होती जा रही है। ऐसे में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। भाषा पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्त्व को हम निम्नलिखित प्रकार से समझ सकते हैं-

1. ज्ञानार्जन का साधन-पाठ्य-पुस्तकें ज्ञानार्जन का साधन हैं। मानव ने अपने अनुभूत पर्याप्त ज्ञान को पुस्तकों के रूप में संग्रहीत कर रखा है। अतः पाठ्य-पुस्तकें ज्ञानार्जन का सशक्त साधन हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “ज्ञान-राशि के संचित कोश का नाम साहित्य” माना है। पुस्तकों के अध्ययन से हम विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

2. शिक्षक एवं विद्यार्थियों की मार्गदर्शिका-पाठ्य-पुस्तकें शिक्षक तथा छात्र दोनों के लिये ही मार्गदर्शक का कार्य करती हैं। भाषा के अध्यापक एवं विद्यार्थी न केवल हिन्दी पाठ्य-पुस्तक का बल्कि सन्दर्भ पुस्तकों का भी अध्ययन करके मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं।

3. स्वाध्याय का आधार-पाठ्य-पुस्तकें स्वाध्याय का आधार होती हैं। भाषा पुस्तकों के अभाव में स्वाध्याय विकसित होना ही सम्भव नहीं है। भाषा के जटिल प्रत्ययों को पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से ही स्पष्ट किया जा सकता है। विद्यार्थी और अध्यापक अपने संक्षिप्त ज्ञान का विस्तार भी पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से ही करते हैं। इस प्रकार पाठ्य-पुस्तकें स्वाध्याय का मुख्य आधार हैं।

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4. ज्ञान के स्थायित्व का सशक्त साधन-मानव ने जो ज्ञान आज तक अनुभूत किया है, वह पुस्तकों के रूप में ही संग्रहीत किया गया है। बालक को कक्षा में जो कुछ पढ़ाया जाता है तो वह पाठ्य-पुस्तकों का अध्ययन करके ही उस ज्ञान को स्थायी करता है। इस प्रकार पाठ्य-पुस्तकें ज्ञान के स्थायित्व का सशक्त साधन हैं।

5. सूचनाओं का संग्रह-पाठ्य-पुस्तकें सूचनाओं का केन्द्र होती हैं। हम एक प्रकृति की सूचनाओं को एक पाठ्य-पुस्तक में प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न प्रकार के कोश इसका प्रमाण हैं। ज्ञान की विभित्र सूचनाओं का संग्रह हमें सबसे अधिक पुस्तकों के रूप में मिलता है।

6. शिक्षक और उसके मूल्यांकन का आधार-भाषा पाठ्यक्रम का बहुत कुछ मूर्त रूप पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से उभरता है। पुस्तकें शिक्षण का आधार होती हैं। विभिन्न विषयों की पाठ्य-पुस्तकों के शिक्षण तन्त्र के आधार पर ही शिक्षण कार्य आगे बढ़ता है और उनके आधार पर ही विद्यार्थियों का मूल्यांकन किया जाता है। विद्यार्थी भी अपने होने वाले मूल्यांकन की पूर्व तैयारी पुस्तकों का अध्ययन करके ही करते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा की पाठ्य-पुस्तकों का अनेक दृष्टियों से महत्त्व है, लेकिन हमें यह बात सदैव ध्यान रखनी चाहिये कि पुस्तकें साधन हैं,साध्य नहीं। पाठ्य-पुस्तकों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् ने लिखा है-“निस्सन्देह पाठ्य-पुस्तके वालों की शिक्षा की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपयोगी साधन हैं। विशेषत: भारत के लिये जहाँ अनेक माता-पिता अपने बच्चों के लिये पाठ्य-पुस्तक के अतिरिक्त एक भी दूसरी पुस्तक खरीदने में असमर्थ हैं, यह बात और भी सत्य है। यद्यपि पाठ्य- पुस्तक कोवल साधन है, साध्य गली, तथापि तसका महत्व कम नहीं है।

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कार्य पुस्तिकाएँ किन्हें कहते हैं

कार्य पुस्तिकाएँ कार्य के विवरण को प्रस्तुत करती हैं। इनमें निर्धारित कार्यों का उल्लेख रहता है साथ ही उन कार्यों को मूल्यांकन को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है जो कि हो चुके हैं। इस प्रकार कार्य पुस्तिकाएँ शिक्षकों के कार्यों का विवरण प्रस्तुत करती है। कार्य पुस्तिकाओं के आधार पर यह निर्धारित किया जाता है कि कौन सा व्यक्ति, किस कार्य को, किस प्रकार करता है? साथ ही कार्य पुस्तिकाएँ यह भी प्रदर्शित करती है कि कार्य किस प्रकार किया गया है?

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