सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के कारक एवं विशेषताएं

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के कारक एवं विशेषताएं आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के कारक एवं विशेषताएं

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के कारक एवं विशेषताएं
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के कारक एवं विशेषताएं


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सामाजिक परिवर्तन का अर्थ

मानव-जीवन की प्रमुख विशेषता है उसका सदा एक समान न रहना। अन्य शब्दों में,उसके जीवन में सदैव कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। मनुष्य समाज की इकाई है। अतःउसमें होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। अन्य शब्दों में, मानव जीवन में होने वाले परिवर्तन समाज में भी परिवर्तन लाते हैं । इसी कारण आज जो समाज का रूप है,युगा पूर्व उसका यह रूप नहीं था। कोई भी समाज जड़ या स्थिर नहीं कहा जा सकता।

किसी समाज में यह परिवर्तन बड़ी तीव्रता के साथ होते हैं तो किसी समाज में मन्द गति से। हम किसी भी ऐसे समाज की कल्पना नहीं कर सकते,जिसमें न तो कोई परिवर्तन होता हो और न ही उसमें कोई गतिशीलता हो । वास्तव में संसार की प्रकृति परिवर्तनशील है। समाज का जो ढाँचा सौ वर्ष पहले था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि परिवर्तन की प्रक्रिया संसार की समस्त वस्तुओं को निरन्तर प्रभावित करती रहती है और समाज भी इससे बच नहीं पाता।

अन्य शब्दों में, समाज की सभी संस्थाएँ, संस्कृति, सभ्यता, परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, समितियाँ आदि परिवर्तन की प्रक्रिया से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिये-भारत की वैदिक कालीन सामाजिक व्यवस्था और आज की व्यवस्था में पर्याप्त अन्तर मिलेगा। सर्वप्रथम हम परिवर्तन’ शब्द के अर्थ पर विचार करेंगे। फिक्टर ने परिवर्तन की परिभाषा इस प्रकार दी है, “संक्षेपत: पहले की अवस्था में अन्तर को परिवर्तन कहते हैं। इस अर्थ में समाज में पहले जो अवस्था या दशा थी, यदि उसमें कोई हेर-फेर या अन्तर आ जाता है तो उस सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज सम्बन्धी हेर-फेर अथवा समाज में होने वाले परिवर्तन से है। संक्षेप में सामाजिक संस्थाओं, नियमों, कार्य-विधियों, रूढ़ियों, मूल्यों और विचारों में होने वाले परिवर्तन का नाम ही सामाजिक परिवर्तन है।

सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएं

सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं-

(1)सरजोन्स (Sir Jones) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वहशब्द है,जो सामाजिकक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक परस्पर सम्बन्धी क्रियाओं या सामाजिक संगठन के किसी अंग में अन्तर या रूपान्तर को वर्णित करने के लिये प्रयोग किया जाता है।”

(2) गिलिन एवं गिलिन (Gillinand Cillin) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही यह परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन से हुए हो या सांस्कृतिक साधों पर जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से हुए हों या ये प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कार से हुए हों।”

(3)डासन एवंगेटिस (Dawsonand Gettys) की परिभाषानुसार अनुसार, सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि समस्त संस्कृति अपनी उत्पत्ति, अर्थ और प्रयोग में सामाजिक है।”

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(4) मेकाइवर तथा पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “उस परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन मानेंगे, जो कि इनमें (सामाजिक सम्बन्धों में) हो।”

(5) ब्राउन के शब्दों में, “सांस्कृतिक परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण रूप है। हमारी संस्कृति जिसमें कला, विज्ञान, नैतिकता, विश्वास तथा भाषा आते हैं, उनमें जो परिवर्तन होते हैं, वे भी सामाजिक परिवर्तन में निहित हैं।”

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ
Characteristics of Social Change

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक परिवर्तन से सम्बन्धित होता है-सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष के जीवन में होने वाले परिवर्तनों से नहीं है, वरन् सम्पूर्ण समुदाय के जीवन में होने वाले परिवर्तनों से है। अन्य शब्दों में,जब किसी समुदाय के अधिकांश सदस्यों के सम्बन्धों, रीति-रिवाजों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है तो उसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

2. सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक तथ्य है-सामाजिक परिवर्तन बिना किसी अपवाद के संसार के सभी समाजों में होता है, अर्थात् आदिम से आदिम समाजों से लेकर आधुनिकतम् सभी समाजों में सामाजिक परिवर्तन होते हैं।

3.सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती-सामाजिक परिवर्तन के विषय में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, अर्थात् सामाजिक परिवर्तन अनिश्चित होता है। कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि किसी समाज में कौन-कौन से परिवर्तन निश्चित रूप से अवश्य होंगे? परिवर्तन के सम्बन्ध में सम्भावना व्यक्त की जा सकती है, निश्चित रूप से भविष्यवाणी नहीं।

4.सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है-सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य और आवश्यक घटना है। विभिन्न समाजों में परिवर्तन की मात्रा में अन्तर हो सकता है, लेकिन इसके बिल्कुल न होने की सम्भावना व्यक्त नहीं की जा सकती।

5.सामाजिक परिवर्तन की गति असमान होती है-प्रत्येक समाज में परिवर्तन अनिवार्य रूप से होता है परन्तु यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि परिवर्तन की गति प्रत्येक समाज में अलग अलग होती है।

6.सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है-सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति अत्यधिक जटिल होती है क्योंकि उसकी माप नहीं की जा सकती।

सामाजिक परिवर्तन के प्रभावकारी तत्त्व या कारक

सामाजिक परिवर्तन क्यों होता है? अथवा सामाजिक परिवर्तन के क्या कारण हैं? इन या एक ही समाज के विभिन्न पक्षों में समान नहीं होती। के कारण इनकी जटिलता भी बहुत अधिक बढ़ जाती है।”
प्रश्नों के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन किसी एक कारक या कारण से नहीं होता। समाजशास्त्रियों के मत में सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारक हो सकते जिनमें प्रमुख अग्रलिखित प्रकार हैं-

1. प्रौद्योगिक कारक (Technical factors)

आधुनिक युगको प्रौद्योगिक युग कहा- जाता है। अत: प्रौद्योगिकीय कारक वर्तमान काल में सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। कोई भी नवीन आविष्कार या यन्त्र आविष्कृत होता है तो वह हमारे सामाजिक जीवन को अवश्य प्रभावित करता है। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप विशाल नगरों का विकास होता है तथा नगरों की जनसंख्या जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे व्यक्तिगत सम्बन्धों में शिथिलता आती जाती है।

परिणामस्वरूप सामुदायिक जीवन का ह्रास होता जाता है। बड़े नगरों में अपराध तथा व्यभिचार बड़ी तीव्रता से फैलते हैं। उद्योग-धन्धों के विकास के कारण गाँवों से लोग नगरों में आकर बसने लग जाते हैं, इससे एक ओर तो नगरों में मकानों की समस्या उत्पन्न होती है तो दूसरी ओर नगरों में स्त्री और पुरुषों के अनुपात में भेद हो जाता है। प्रौद्योगिकी विकास के कारण स्त्रियों को भी काम करने के अवसर मिलते हैं। इससे उनकी आर्थिक दशा में सुधार होता है।

2. सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Social and cultural factors)

वास्तव में संस्कृति सामाजिक संगठन को सुसंगठित बनाये रखने वाली शक्ति है। सोरोकिन ने संस्कृति की विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण माना है। यथार्थ में हमारा सामाजिक जीवम हमारे विश्वास, धर्म, प्रथा,संस्थाओं, रूढ़ियों आदि पर निर्भर है। अतः इनमें कोई भी परिवर्तन होता है तो वह सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन लाता है।

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सांस्कृतिक कारक सामाजिक परिवर्तन के लिये अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं क्योंकि प्रौद्योगिकी का रूप स्वयं समाज की संस्कृति के द्वारा निर्धारित होता है। उदाहरण के लिये-धर्म संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसके द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि समाज का ढाँचा किस प्रकार का होगा तथा कौन व्यक्ति उत्पादन का कार्य करेंगे और कौन रक्षा का? बेवर का मत है कि, “जब धार्मिक आदर्शों में परिवर्तन होता है तो व्यक्तियों के विचारों, विश्वासों, उत्पादन की प्रविधियों और आचरण करने के ढंग में भी परिवर्तन आ जाता है।”

3. भौगोलिक कारक (Geographical factors)

आज के युग में मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति कर ली है, इस पर भी वह प्रकृति या भौगोलिक दशाओं पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। इस कारण ही भौगोलिक दशाएँ अपने ढंग से सामाजिक परिवर्तन का एक कारक बन जाती हैं। अन्य शब्दों में, गर्मी, ठण्डक, वर्षा, आर्द्रता, तापक्रम,प्रकाश, मिट्टी की विशेषता, भूमि की बनावट, प्राकृतिक आपदा, भूकम्प आदि विभिन्न भौगोलिक तथा प्राकृतिक शक्तियाँ व्यक्तियों के विचारों और क्रियाओं को प्रभावित करती हैं, उन्हें उत्साहित या निरुत्साहित करती हैं। इन्हीं के अनुसार सामाजिक जीवन संगठित होता है और इसमें परिवर्तन होते हैं।

4. जनसंख्यात्मक कारक (Population factors)

जब किसी देश की जनसंख्या अत्यधिक हो जाती है तो वहाँ के समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन जन्म लेते हैं। अति-जनसंख्या से तातार्य है-देश में पोषण के लिये । सान्न की कमी होना और जनसंख्या का द्रुत गति से बढ़ना। इस प्रकार की अवस्था में समाज में भुखमरी, महामारी, निर्धनता तथा बेकारी आदि का बोलबाला हो जाता है और जनसाधारण का स्वास्थ्य तथा रहन-सहन का स्तर गिर जाता है, परिणामस्वरूप व्यक्तिगत विघटन और पारिवारिक विघटन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन मिलता है।

5.मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological factors)

यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो हमें ज्ञात होगा कि समाज में परिवर्तन इस कारण भी हो रहा है कि सभ्यता की प्रगति और दिखावटी सम्बन्धों के मध्य व्यक्ति के मस्तिष्क में अनेक संघर्ष जन्म लेने लग जाते हैं।
उदाहरण के लिये-पुरातनपन्थी वृद्ध व्यक्ति प्राचीन परम्पराओं की रक्षा का प्रयास करते हैं जबकि युवक नवीन सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रति अपना उत्साह प्रकट करते हैं। इस प्रकार की अवस्था में दोनों वर्गों में मानसिक तनाव बढ़ जाता है तथा नवीन सामाजिक मूल्यों का जन्म होता है।

6. आर्थिक कारक (Economical factors)

आर्थिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन का एक प्रभावशाली कारक है। सम्पत्ति का रूप, व्यवसाय की प्रकृति, व्यक्तियों का जीवन-स्तर, सम्पत्ति का वितरण, वर्ग संघर्ष तथा उत्पादन का स्वरूप आदि ऐसे कुछ प्रमुख आर्थिक कारक हैं, जो पर्याप्त सीमा तक सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं। इनमें किसी भी स्थिति में होने वाला परिवर्तन सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन ला देता है। जिन देशों में सम्पत्ति का रूप पूँजीवादी होता है, वहाँ समाज में निर्धन तथा धनी का भेद या आर्थिक विषमता पायी जाती है तथा शोषण और उत्पीड़न का बोलबाला रहता है। इसके विपरीत जब सम्पत्ति का रूप समाजवादी हो जाता है तो समाज का सम्पूर्ण ढाँचा ही बदल जाता है।

7. राजनैतिक कारक (Political factors)

देश का जनसमूह किसी न किसी राजनैतिक दल अथवा सदस्यों से जुड़ा होता है जो उस देश के रहने वालों को अपनी विचारधारा से जोड़ते तथा मोड़ते हैं। राजनैतिक लोग अपने भाषणों तथा व्याख्यानों से वहाँ के निवासियों का मानसिक परिवर्तन कर देते हैं। इसी प्रकार जाति-पाँति, धर्म तथा प्रान्तीयता से ऊपर उठकर त्यागी लोग जब परम्परागत रूढ़ियों का परित्याग कर सामाजिक चेतना लाते हैं तब भी समाज में सामाजिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है।

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सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा तथा विद्यालयों पर प्रभाव

भारतीय समाज में जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनका प्रभाव भारतीय शिक्षा तथा विद्यालयों पर निम्नलिखित प्रकार से पड़ा है-

1. शिक्षा पर प्रभाव (Effect on education)

भारतीय समाज में घटित परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय शिक्षा पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े हैं-
(1) शिक्षा का प्रसार तीव्र गति से हुआ है। (2) शिक्षा के अवसरों की समानता के लिये प्रयास किये गये हैं। (3) शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ है। (4) प्रजातान्त्रिक मूल्यों के विकास हेतु शिक्षा के स्वरूप को परिवर्तित किया गया है। (5) शिक्षा के अनौपचारिक स्वरूप का भी प्रयास किया जाने लगा है। (6) शिक्षा व्यवस्था धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्तों को दृष्टिगत रखते हुए की गयी है।

(7) शिक्षा के व्यवसायीकरण हेतु नवीन शिक्षण पतियों का प्रचलन किया जाने लगा है। (8) शिक्षा को उत्पादकता से जोड़ते हुए जीवनोपयोगी बनाया गया है। (9) समाज को आर्थिक प्रगति के फलस्वरूप शिक्षा के नये एवं मूल्यवान साधन जुटाये गये हैं। (10) शिक्षा के नये-नये पाठ्यक्रम लागू कर शिक्षा में नवीनता तथा विविधता लाने का प्रयास किया गया है। (11) शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का प्रयास किया गया है। (12) निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की दशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।

2. विद्यालयों पर प्रभाव (Effecton schools)

भारतीय समाज में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव विद्यालयों पर भी पड़ा है। ये प्रभाव निम्नलिखित हैं-

(1) शिक्षालयों में नये-नये पाठ्यक्रम जुड़े हैं तथा इनके लिये नवीन शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग किया जा रहा है। (2) नये-नये पाठ्यक्रमों की शिक्षा प्रदान करने के लिये नये-नये प्रकार के शिक्षालयों को प्रारम्भ किया गया है। (3) शिक्षालयों में सन्तुलित जीवन का अनुभव कराने के लिये प्रयास किये गये हैं। (4) सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप शिक्षा के प्रति जनता में चैतन्यता आयी है एवं शिक्षा की आवश्यकता बढ़ी है। परिणामस्वरूप समाज मे शिक्षालयों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। (5) शिक्षालयों तथा सुसमृद्ध समुदायों में निकटता आयी है एवं ये एक-दूसरे के प्रति उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

(6) शिक्षालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं तथा समाजोपयोगी उत्पादक कार्यों की व्यवस्था की जाने लगी है। (7) शिक्षालयों के भौतिक संसाधनों में पर्याप्त वृद्धि हुई है। पर्याप्त भवन, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, वाचनालय तथा खेल के मैदानों की सुविधा उपलब्ध है। (8) शिक्षालयों के वातावरण में परिवर्तन हुआ है, वातावरण दूषित बन गया है और छात्रों में आपसी वैमनस्य के फलस्वरूप अनुशासनहीनता में वृद्धि हुई है। (9) अशिक्षालय के कर्मचारियों के वेतनमानों में पर्याप्त वृद्धि हुई है। इस वृद्धि से उन्हें आशातीत सन्तुष्टि मिली है।

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