शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं | meaning and definition of teaching in hindi | शिक्षण की प्रक्रिया

शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं | meaning and definition of teaching in hindi | शिक्षण की प्रक्रिया – दोस्तों सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा में शिक्षण कौशल 10 अंक का पूछा जाता है। शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है।

यह विषय बीटीसी बीएड में भी शामिल है। आज हम इसी विषय के समस्त टॉपिक को पढ़ेगे।  बीटीसी, बीएड,यूपीटेट, सुपरटेट की परीक्षाओं में इस टॉपिक से जरूर प्रश्न आता है। जिसमें आज हम एक टॉपिक पढ़ेगे ।

अतः इसकी महत्ता को देखते हुए hindiamrit.com आपके लिए शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं | meaning and definition of teaching in hindi | शिक्षण की प्रक्रिया लेकर आया है।

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शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं | meaning and definition of teaching in hindi | शिक्षण की प्रक्रिया

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शिक्षण का अर्थ (Meaning of Teaching)

आइए शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं और शिक्षण की प्रक्रिया के अंतर्गत के जानते है शिक्षण का अर्थ क्या होता है ?

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है । इस पर प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली,सामाजिक दर्शन, सामाजिक परिस्थितियाँ तथा मूल्यों आदि का प्रभाव पड़ता । जिस देश में जैसी शासन-प्रणाली या सामाजिक तथा दार्शनिक परिस्थितियाँ होंगी वहाँ उसी प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया होगी।

शिक्षण शब्द अंग्रेजी के टीचिंग (Teaching) शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है शिक्षण से अभिप्राय सीखना है । शिक्षण-अधिगम, पृथक्-पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं । शिक्षण के अंगों में शिक्षक, शिक्षार्थी तथा पाठ्यक्रम है । व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक कुछ-न-कुछ सीखता रहता है ।

जब वह किसी भी उद्दीपक अर्थात् व्यक्ति, वस्तु, स्थान वातावरण आदि के सम्पर्क में आता है, उससे वह सीखता रहता। जिसके परिणामस्वरूप उसके व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है।और उसके व्यवहार में परिपक्वता आ जाती है । और उसका व्यवहार समाज द्वारा वांछनीय व्यवहार में बदल जाता हैं।

डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षा को मनुष्य और सम्पूर्ण समाज का निर्माण करना चाहिए । इस कार्य को किये बिना शिक्षा अनुवीक और अपूर्ण है।”

यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि शिक्षा तभी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। जब शिक्षक जिस प्रकार से निर्धारित पाठ्यक्रम को पढ़ाता है, वह प्रक्रिया शिक्षण कहलाती है । शिक्षण का अर्थ सीखना है । सिखाने में विधियाँ तथा पाठ्य-सामग्री, वांछित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग में लायी जाती है ।अतः अब यह स्पष्ट है कि शिक्षण में केवल सीखना ही नहीं, सिखाना भी निहित है । शिक्षण की प्रक्रिया शिक्षण-अधिगम (Teaching Learning) के द्वारा पूरी होती है।

जिस प्रकार शिक्षा के दो अर्थ—संकुचित एवं व्यापक होते हैं ठीक उसी प्रकार कि शिक्षण का क्या अर्थ है। शिक्षण अर्थ के भी दो आधार होते हैं जिनके आधार पर यह विवेचना की जा सकती है।

शिक्षण का संकुचित अर्थ (Narrow Meaning of Teaching)

टीचिंग या शिक्षण के संकुचित अर्थ का सम्बन्ध विद्यालयी शिक्षा से है। जिसमें शिक्षक द्वारा एक शिक्षार्थी को निश्चित स्थान पर एक विशिष्ट वातावरण में निश्चित अध्यापकों द्वारा उसके व्यवहार में पाठ्यक्रम के अनुसार परिवर्तन किया जाता है ।

अर्थात् यह परिवर्तन एक सुनियोजित ढंग से बालक को ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया है। प्राचीन समय में शिक्षक-केन्द्रित शिक्षा थी। शिक्षक अपने ढंग से बालक को ढालने का प्रयास करते थे । तथा उनकी रुचियों एवं अभिरुचियों को ध्यान में नहीं रखा जाता था । अर्थात् फलन का वास्तविक विकास न होकर कृत्रिम विकास देखने को मिलता था । वर्तमान में प्राचीन समय के शिक्षण में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है ।

वर्तमान शिक्षण प्रणाली बाल-केन्द्रित शिक्षण प्रणाली है। वर्तमान शिक्षण प्रणाली में बालक की रुचियों को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य किया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप बालक का विकास उसकी अन्तनिहित शक्तियों एवं रुचियों के आधार पर होता है । अतः शिक्षक आधुनिक शिक्षा प्रणाली में एक सहायक के रूप में कार्य करता है।

शिक्षण का व्यापक अर्थ (Wider Meaning of Teaching)

शिक्षण के व्यापक अर्थ में वह सब सम्मिलित किया जाता है, जो मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन में सीखता है । मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कुछ-न-कुछ सीखता रहता है । सिखाने का काम व्यक्ति व वस्तुओं द्वारा किया जाता है ।

मनुष्य सबसे पहले समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार से सीखता है। विद्यालय में जाकर शिक्षक, विद्यार्थी एवं वातावरण से सीखता है। इसके उपरान्त समाज में पायी जाने वाली विभिन्न एजेन्सियों मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर आदि से सीखता है।

तथा इसके अतिरिक्त समाचार- पत्र, नाटक, सिनेमा, विचारगोष्ठी, प्रदर्शनी, रोडियो, टेलीविजन, नौटंकी, सम्मेलन तथा विभिन्न प्रकार के संस्कारों से सम्बन्धित कार्यक्रमों से सीखता है । अत: उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षण का व्यापक अर्थ वह है । जिसमें व्यक्ति औपचारिक (Formal), अनौपचारिक (Informal), निरौपचारिक (Non-Formal) साधनों के माध्यम से सीखता है ।


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शिक्षण की परिभाषाएँ (Definitions of Teaching)

अब हम शिक्षण का अर्थ जानने के बाद शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएं में शिक्षण की परिभाषाये जान लेते है जो महान शिक्षाविदों द्वारा दी गयी है।

विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण की परिभाषाएँ निम्न प्रकार दी हैं-

(1) रायबर्न (Rayburm) के अनुसार,

“शिक्षण के तीन बिन्दु हैं-शिक्षक, विद्यार्थी एवं पाठ्यवस्तु । इन तीनों के बीच सम्बन्ध स्थापित करना ही शिक्षण है । यह सम्बन्ध बालक की शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है।”

(2) थॉमस एम. रिस्क के अनुसार,

“सीखने के लिए दिये जाने वाले निर्देशन के रूप में शिक्षण को परिभाषित किया जा सकता है।

(3) ह्यूजेज तथा ह्यूजेज (Hughes and Hughes) के अनुसार,

“शिक्षण का अर्थ है सीखने में सहायता करना । तब तक कुछ नहीं दिया गया जब तक वह ग्रहण नहीं किया गया तब तक कुछ नहीं पढ़ाया गया जब तक सीखा नहीं गया।”

(4) एन, एल, गेज (N. L. Gage) के अनुसार,

“गेज ने शिक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है, “शिक्षण पारस्परिक प्रभावों का वह रूप है जिसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की व्यवहार क्षमताओं में परिवर्तन लाना है।”

(5) बी. एफ. स्किनर (B.F. Skiner) के अनुसार,

“शिक्षण पुनर्वलन की आकस्मिकताओं का क्रम है।”

“The teaching is the arrangement of Cotienggencies of rainforcement.”

(6) योकम तथा सिम्सन (Yoacum and Simson) के अनुसार,

“शिक्षण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा समूह के लोग अपने अपरिपक्वं सदस्यों को जीवन से सामंजस्य स्थापित करना बताते हैं।”

शिक्षण की परिभाषाएँ ( कुछ अन्य )

(7) क्लार्क (Clarke) के अनुसार,

“क्लार्क ने शिक्षण की परिभाषा देते हुए कहा है-“शिक्षण वह क्रिया है जो शिक्षार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए नियोजित तथा संचालित की जाती है।”

उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट हो रहा है कि शिक्षण के माध्यम से शिक्षार्थी के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है अवगुणों के स्थान पर गुणों का विकास किया जाता है तथा सुप्तावस्था में पड़ी सद्-प्रवृत्तियों का उदय किया जाता है।

(8) बर्टन (Burton) के अनुसार,

शिक्षण सीखने के लिए दी जाने वाली प्रेरणा, निर्देशन, व प्रोत्साहन है।”

“Teaching is the stimulation guidance and encouragement of learning.

बर्टन के अनुसार शिक्षण के निम्न बिन्दुओं को सम्मिलित किया है-


(1) शिक्षण सीखने के लिए दी जाने वाली प्रेरणा है।
(2) शिक्षण सीखने के लिए दिये जाने वाला निर्देशन है।
(3) शिक्षण सीखने के लिए दिये जाने वाला प्रोत्साहन है।


(9) जॉन बूबेकर शिक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है,

“शिक्षण उन अन्तर और बाधायुक्त परिस्थितियों की व्यवस्था एवं पुनःनिर्माण है जिन्हें कि एक व्यक्ति पर पार करने का प्रयास करेगा और जिसके करने से वह सीखेगा।”

(10) के. पी. पाण्डेय के अनुसार,

“शिक्षण एक प्रभाव निर्देशित क्रिया है यह एक विशिष्ट विषय-वस्तु के संरचना सहित सीखने वाले पर प्रभाव डालता है।”

(11) रायन्स (Ryans) के अनुसार,

“दूसरों को सीखने के लिये दिशा निर्देश देने तथा अन्य प्रकार से उन्हें निर्देशित करने की प्रक्रिया को शिक्षण कहा जाता है।”

शिक्षण की परिभाषाएँ ( कुछ अन्य )


(12) स्मिथ (Smith) के अनुसार,

“शिक्षण का उद्देश्य निर्देशित क्रिया है।”

Teaching is a goal directed activity.

(13) जेम्म एम. थाइन (James M. Thyne) के अनुसार,

“समस्त शिक्षण का अर्थ है – सीखना में वृद्धि करना।”

“All teaching is the promotion of learning.”

(14) एडमण्ड एमीडन (Edmond Amidon) के अनुसार,

“शिक्षण एक अन्त:प्रक्रिया जिसमें मुख्यतः कक्षा वार्ता होती है, जो शिक्षक व छात्रों के मध्य कुछ परिभाषित की जा सकने वाली क्रियाओं के माध्यम से घटित होती है।”

इस प्रकार उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षण वह प्रक्रिया है जो किसी-न-किसी प्रकार से बालक के व्यवहार पर प्रकाश डालती है। क्योंकि शिक्षण में शिक्षक द्वारा की गयी प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य छात्रों को सिखाने से सम्बन्धित होता है।जिससे परिणामस्वरूप उस बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होता है।

शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक छात्र तथा पाठ्यक्रम तीनों बिन्दुओं का समयोजन है । शिक्षक के द्वारा ही शिक्षार्थी को विभिन्न परिस्थितियों और वातावरण में समझकर उसकी तथा समाज (पाठ्यवस्तु) के अनुसार उसका विकास करता है । लेकिन आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि बालक में अनेक कार्य करने की क्षमता अर्न्तनिहित है वह स्वयं सीखने का प्रयास करता है ।

अत: शिक्षक जो सहायता करता है वह बालक की सीखने वाली प्रवृत्तियों में सहायक होता है अर्थात् बालक के विकास में सहायता प्रदान करता है।



शिक्षण की विशेषतायें

(1) शिक्षण, शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने का साधन है

मानव जीवन को सुखमय बनाना यदि साध्य है तो शिक्षा उसका साधन। ठीक इसी प्रकार शिक्षा को यदि साध्य माना जाय तो शिक्षण एक साधन मात्र होगा । जिसके द्वारा हम शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

(2) शिक्षण एक कला है

शिक्षण एक कला है क्योंकि कला का रूप कभी भी स्थिर नहीं होता। कलाएँ सदैव देश, काल, परिस्थिति और मानव की विचारधाराओं के साथ-साथ परिवर्तित होती रहती हैं। शिक्षण भी एक ऐसी कला है जिसका स्वरूप तो शिक्षा के उद्देश्यों के साथ-साथ बदल जाता है । किन्तु इसके आधारभूत सिद्धान्त सामान्यतया वही रहते हैं।

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(3) शिक्षण एक विज्ञान है

कोई भी कला या बात जिसके सिद्धान्तों में चिरन्तनता है,
वह विज्ञान है। वैज्ञानिक नियम शाश्वत होते हैं, “दो और दो चार होते हैं वे सदैव रहते आये हैं और रहेंगे भी। यहीं नहीं सभी देशों में यही नियम है। ठीक इसी प्रकार बालकों को हम अपना बना सकते हैं, उन्हें बहुत कुछ सिखा सकते हैं-“मार से नहीं प्यार से”। यह भी एक शाश्वत नियम है, जो सभी देशों में समान रूप से प्रतिफलित होता है।

इसी प्रकार शिक्षण के कई नियम ऐसे होते हैं, जो सभी परिस्थितियों में समान रूप से प्रभावकारी सिद्ध होते हैं। इन बातों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण एक विज्ञान भी है।

(4) शिक्षण प्रयोगात्मक मनोविज्ञान है

मनोविज्ञान वह विज्ञान है जिसके अन्तर्गत मानव-मन की विशेष परिस्थितियों और उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।बालक के जिन विचारों का प्रभाव उसकी शिक्षा पर पड़ता है अथवा बालक की जो शिक्षा उसके व्यवहार में परिवर्तन ला देती है उसका अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत आता है।

शिक्षा-मनोविज्ञान के दो पक्ष हैं-सैद्धान्तिक और व्यावहारिक।

बालकों के व्यवहार से सम्बन्धित सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देना या कक्षा में प्रयोग करके देखना ही उसका प्रयोगात्मक पक्ष है। शिक्षण में भी हम इन सिद्धान्तों को प्रयोग करके देखते हैं। अत: शिक्षण शिक्षा मनोविज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष है।


(5)  शिक्षण शिक्षक का स्वमूल्यांकन है

शिक्षक का कार्य है बालकों को कोई नयी बात सिखाना और बालकों का कर्त्तव्य है उस नयी बात को सीखना। जो शिक्षक बालकों को नयी बातें जितने प्रभावकारी ढंग से बता सकता है वह उतना ही अच्छा होता है। प्रत्येक शिक्षक यही सोचता है कि उसने जो बात बतायी उसे बालक पूरी तरह समझ गये हैं जबकि ऐसा होता नहीं।

ऐसी परिस्थिति में शिक्षक को स्व-मूल्यांकन के आधार पर यह देखने का प्रयत्न करना चाहिये । कि उसका शिक्षण कितना प्रभावकारी रहा? शिक्षण के पश्चात् बालकों का मूल्यांकन ही उसका स्व-मूल्यांकन है। यदि बालक पाठ को भली-भाँति समझ गये हैं तब तो शिक्षण सफल है अन्यथा नहीं। अत: शिक्षण शिक्षक के मूल्यांकन का भी एक साधन है।


(6) शिक्षण शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच की कड़ी है

सामान्यतया लोग शिक्षण का अर्थ केवल शिक्षा देने तक ही सीमित समझते हैं परन्तु यह संकुचित अर्थ है। शिक्षण का अर्थ शिक्षक द्वारा कोई बात सिखाने तक ही सीमित नहीं अपितु बालकों के सीखने से भी सम्बन्धित है अर्थात् सीखना और सिखाना शिक्षण के दो पहलू हैं। सिखाने और सीखने का कार्य अनवरत रूप से चलता रहता है। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों का कार्य अलग-अलग होते हुए भी उनके अलग-अलग होने में एक-दूसरे का कार्य पूर्ण होना सम्भव नहीं।

शिक्षक को सिखाने का कार्य करने के लिये शिक्षार्थी चाहिये और उसी प्रकार शिक्षार्थी को सीखने के लिये शिक्षक। एक-दूसरे की कार्य पूर्ति परस्पर सहयोग और एक-दूसरे के निकट आने पर ही सम्भव है। इन दोनों को परस्पर मिलाने का कार्य शिक्षण द्वारा किया जाता है। अर्थात् शिक्षण का कार्य सीखने और सिखाने वाले को परस्पर निकट लाना है।शिक्षण के सम्बन्ध में जो बातें कही गयी हैं, उन्हीं के आधार पर हम सरलता से शिक्षण के महत्त्व को समझ सकते हैं।

(7) शिक्षण बालक के व्यवहार में परिवर्तन करने की प्रक्रिया है।

(8) शिक्षण एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।

(9) शिक्षण सामाजिक एवं व्यावसायिक प्रक्रिया है।

(10) शिक्षण विकासात्मक प्रक्रिया है।

(11) शिक्षण एक तार्किक क्रिया है।

(12) शिक्षण आमने-सामने (Face to Face) प्रक्रिया है।

(13) शिक्षण त्रिमुखी (Tri Polar Process) प्रक्रिया है ।

(14) शिक्षण प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।

(15) शिक्षण एक कुशल निर्देशन है।

(16) शिक्षण औपचारिक, अनौपचारिक प्रक्रिया है।


शिक्षण का महत्त्व (Importance of teaching)

जो वस्तु या बात मानव के जीवन को जितना अधिक सुखमय बना सकती है वह उतनी ही अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।शिक्षा का उद्देश्य भी मानव जीवन को अधिक-से-अधिक सुखमय बनाना है। किन्तु शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति शिक्षण द्वारा ही सम्भव है। शिक्षण के द्वारा हम बालकों को नवीन ज्ञान देते हैं, अपने पूर्वजों के अनुभवों से अवगत कराते हैं।

क्या उचित है और क्या अनुचित, क्या करणीय है और क्या त्याज्य, क्या स्वार्थ है और क्या परमार्थ आदि बातों की जानकारी हम बालकों को शिक्षण द्वारा ही देते हैं। बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें बालक स्वयं पढ़कर नहीं सीख पाते। उन्हें भी कुशल शिक्षक बालकों को सरलता से बता सकता है। यह सत्य है कि बालक कुछ बातें स्वयं पुस्तकों से पढ़कर सीख लेते हैं । परन्तु बहुत-सी बातें जो समझ में नहीं आतीं वे शिक्षक द्वारा ही बालकों को सिखायी जाती हैं। दोनों ही शिक्षण के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।

शिक्षण के अन्तर्गत किसी बात का ज्ञान देना या ग्रहण करना ही नहीं आता अपितु उसका वास्तविक जीवन में किस प्रकार प्रयोग किया जाय ? यह भी शिक्षण के अन्तर्गत आता है। इन सभी दृष्टियों से शिक्षण का शिक्षा में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।


शिक्षण के उद्देश्य (Aims of teaching)

Teaching शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करते समय हम कह सकते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य यदि मानव को सुख से रहना सिखाना है तो शिक्षण का उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ण करना है।

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टीचिंग का उद्देश्य बालकों को किसी बात का ज्ञान देना ही नहीं अपितु अर्जित ज्ञान का प्रयोग करना भी सिखाना है। शिक्षण का उद्देश्य बालकों को नयी बातें प्रभावकारी ढंग से बताना है। शिक्षण का उद्देश्य बालकों को जीवन जीने की कला और विधियों से परिचित कराना है।

इसका उद्देश्य है कि बालकों को इस योग्य बनाये कि वे उचित और अनुचित का निर्णय ले सकें। अतः शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को जानवर से मनुष्य बनाना है और शिक्षण का उद्देश्य इसे प्रभावकारी ढंग से पूरा करना। उनका शिक्षण के जिन उद्देश्यों का ऊपर उल्लेख किया गया वे सामान्य हैं अर्थात् उनका सम्बन्ध सीधा शिक्षा से है, विषयों से नहीं।

उदाहरणार्थ-

भाषाओं के शिक्षण में मुख्य उद्देश्य बालकों को-अर्थग्रहण, अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता की सफल शिक्षा देना है । तो अन्य सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों के शिक्षण के उद्देश्य उन्हें उस विषय का ज्ञान देना ।और उसका वास्तविक जीवन में प्रयोग करना सिखाना है। विषयानुसार नागरिकशास्त्र में शिक्षण का उद्देश्य यदि बालकों को नागरिकता के सम्बन्ध में विभिन्न बातें बताकर अच्छे नागरिक बनाने की शिक्षा देना है।

तो इतिहास में अतीत की विभिन्न राजनीतिक परिस्थितियों और उनके परिणामों से अवगत कराके वर्तमान समय में उनसे लाभ उठाने की शिक्षा देना है।

शिक्षण की प्रक्रिया (Process of teaching)

शिक्षण प्रक्रिया में तीन स्तम्भों के मध्यम क्रिया-कलाप होता है जिसके माध्यम से एक निश्चित परिणाम निकलकर आता है ।

इसमें प्रथम स्तम्भ (Pole) शिक्षक (Teacher) होता है । जिसके पास अपनी योग्यता, अनुभव, गुण, उपलब्धियाँ एवं अपना दार्शनिक दृष्टिकोण होता है ।

द्वितीय स्तम्भ (Pole) शिक्षार्थी (Student) होता है। इसका कार्य सीखना होता है, जिसके व्यवहार में परिवर्तन होता है.। इसके भी अपने आदर्श, मूल्य, योग्यता आदि होती है ।

तृतीय स्तम्भ (Pole) पाठ्यक्रम (Teaching Subject) जिसके अनुसार शिक्षक द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है ।

इन तीनों स्तम्भों के मध्य कक्षा-कक्ष में होने वाली पारस्परिक विचारों के आदान-प्रदान को ही शिक्षण कहा जाता है ।

शिक्षण प्रक्रिया बालकेन्द्रित है

जॉन एडम्स (John Adams) ने शिक्षा को एक द्विमुखी प्रक्रिया (Bipolar process) माना है। शिक्षक का कार्य सिखाने का और शिक्षार्थी का सीखने का है। बालक द्वारा कोई भी नयी बात सीखने का कार्य तभी सम्भव है।

जब सिखाने वाला और सीखने वाला दोनों ही अपने-अपने कार्य को पूर्ण करने के लिये उद्यत हों ।अर्थात् सिखाने वाला सिखाना चाहे और सीखने वाला नहीं या फिर सीखने वाला तो कुछ सीखना चाहे किन्तु सिखाने वालों में सिखाने की क्षमता का अभाव हो । अथवा वह सिखाना न चाहे तो दोनों ही परिस्थितियों में न तो सीखने वाला कुछ सीख पाता है और न सिखाने वाला कुछ सिखा ही पाता है। अतः विद्यार्थी को समझना आवश्यक है। वह समय अब पूरी तरह या तो जा चुका है या जाने वाला है, जिसमें शिक्षक ही सब कुछ था। प्राचीन शिक्षा की रीति, नीति और परम्पराओं में शिक्षक का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान था, आज शिक्षार्थी का उतना ही महत्त्वपूर्ण
स्थान बनता जा रहा है।

आजकल शिक्षण की जितनी भी नवीन विधियाँ, पद्धतियाँ और विचारधाराएँ प्रचलित हैं । वे सभी बालक की स्वतन्त्रता और उसकी शारीरिक, मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं और योग्यताओं के अनुसार कार्य करने पर बल देती हैं। इसीलिये आज बाल-केन्द्रित शिक्षा को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। निर्देशन के सिद्धान्त को भी यदि ध्यान में रखें तो शिक्षक को दो बातों की जानकारी विशेष रूप से आवश्यक है-विद्यार्थी और वातावरण। यह इसलिये कि सम्पूर्ण शिक्षा जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करने के लिये दी जाती है। और यह उसी समय सम्भव है, जब बालक अपने वातावरण में सुसमायोजित होकर रह सके। इस दृष्टि से भी शिक्षार्थी को समझना आवश्यक है।

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