नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध

समय समय पर हमें छोटी कक्षाओं में या बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं में निबंध लिखने को दिए जाते हैं। निबंध हमारे जीवन के विचारों एवं क्रियाकलापों से जुड़े होते है। आज hindiamrit.com  आपको निबंध की श्रृंखला में  नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध प्रस्तुत करता है।

Contents

नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध

इस निबंध के अन्य शीर्षक / नाम

(1) मेरे जीवन के कुछ मधुर क्षण पर निबंध
(2) कश्मीर की शोभा पर निबंध
(3) मेरा इच्छा नौका विहार पर निबंध

नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध

पहले जान लेते है नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध की रूपरेखा ।

निबंध की रूपरेखा

(1) प्रस्तावना
(2) प्राकृतिक छटा
(3) डल झील की छटा
(4) नौकारोहण
(5) चाँदनी रात
(6) आनंदमयी अनुभूति
(7) समापन



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नौका विहार पर निबंध | कश्मीर शोभा पर निबंध | चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध

प्रस्तावना

गर्मी की छुट्टियों तो हर वर्ष आती है, गर्मियों में यात्राएँ भी अनेक की है, यात्राओं में अनेक सुन्दर दृश्यों तथा नगरों को देखने का भी सौभाग्य मिला किन्तु उनमे से कोई भी इतना सरस, इतना मनोरम और ऐसा आकर्षक नहीं जैसा कि गत वर्ष की छुट्टियों में कश्मीर यात्रा के समय डल झील में नौका- विहार था।

वास्तव में वह मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय घटना थी। मेरे जीबन के वे मधुर क्षण अब एक मधुरतम संस्मरण बन गये हैं।

“चाँदनी रात का प्रथम पहर,फैली चहुँ दिशि सुषमा अपार ।
थी धरा श्वेत चादर ओढ़े, नभ से बरसी नब सुधा धार॥
डल झील सुशोभित थी कैसी, कितनी मधुर स्मृतियाँ अपार।
हम घूम रहे थे जल-तल पर, आनन्दमग्न सुध-बुध बिसार।
था लीन गान में कर्ण धार , कितना मधुरिम नौका बिहार |”





प्राकृतिक-छटा

छुट्टियाँ आरम्भ होते ही हम लोग कश्मीर पहुँच गये । कश्मीर की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है।

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एक से एक सुन्दर पर्वतीय दृश्य, हिमाच्छादित गिरि शिखर, मनोहर वाटिकाएँ फूलों से लदी हुई लतिकाएँ, पानी पर तैरती हुई कुंकुम क्यारियाँ, सभी कुछ मनोरम और चित्ताकर्षक था ।

वास्तव में कश्मीर परियों का देश है। यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो कश्मीर है।



डल झील की छटा

कश्मीर की राजधानी ‘श्रीनगर’ में जिसके सामने इन्द्र की अमरावती भी शायद तुच्छ है, कई दिन रहने के बाद हम लोग डल झील देखने गये। सन्ध्या का समय था।

हजारों नर-नारी गिरि- शिखरों को देख मुग्ध हो रहे थे। कहीं-कहीं प्रेमी युगल कोमल घास पर बैठे प्रेमालाप कर रहे थे।

कहीं मित्रों का गुप्त संलाप हो रहा था, कहीं प्रैयसी और प्रियतम का मधुर आलाप था तो कहीं प्रेमीजनों का मिलाप था। मानो स्वर्ग में देवनदी के तट पर वह देवों तथा देवांगनाओं का विहार था।



नौकारोहण

सूर्यास्त हो चुका था। ज्येष्ठ की पूर्णिमा की चाँदनी रात थी सुधाकर अपनी किरणों से सुधा की वर्षा कर मानो नवजीवन प्रदान कर रहा था।

चन्द्रमा की सफेद चॉँदनी ने सब कुछ सफेद बना दिपा था। सुंखसागर में निमग्न युंवक और युवतियाँ नावों में बैठ-बैठ कर डल झील मे विहार कर रहे थे।

हम लोग भी उस अभिलाषा को न समेट सके और चट से एक नाव पर चढ़ गये। मल्लाह ने पतवार सम्हाली और नाव उस स्वच्छ निर्मल जल समूह की छाती पर खिसकने लगी ।

सहसा मन में कविवर पन्त की नौका-विहार नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ उठ-उठकर हृदय में हिलोरें लेने लगीं जो इस प्रकार हैं-

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर।
हम चले नाव लेकर सत्वर ॥
सिकता की सस्मित सीपी पर, मोती सी ज्योत्सना रही बिखर
लो पालें उठीं गिरा लंगर।
मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर लघु-तरणि- हंसिनी सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर।
निश्चल जल के एुचि दर्पण पर, बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण-भर।
कालाकाकर का राज भवन, सोया जल में निश्चिन्त, प्रमन.
पलकों पर बैभव-स्वप्न सघन!



चांदनी-रात

आह! वह कितना सन्दर मनोरम दश्य था! चाँदनी की धवल चादर ओढ़े अनेको नाव शील के विशाल जल-तल पर बिखरी पड़ी थी।

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प्रकृति की मनोहर छटा थी, चारो ओर हरी-भरी पर्वतमाला
भी, बर्फ से ढकी हुई पर्वतमाला का प्रतिबिम्ब निर्मल जल में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे चाँदी की सीढ़ियां वनी हो।

तट पर खड़े हुए लतिकाओं से आलिंगित वृक्ष हवा के तनिक से झोंके से कम्पित होकर फूलों की वर्धा करते थे मानों वे जलरूपी दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख प्रसन्नता से फूलों का उपहार समर्पित कर रह चन्द्रमा मानो उस दृश्य को देखकर मोहित था, और उस सौन्दर्य को देखने के लिए लालायित होकर और भी अधिक चाँदनी छिटका रहा था, मानो वह अपना सारा प्रकाश पुंज आज ही बिखेर देगा।




आनन्दमयी-अनुभूति

सब आतन्दमग्न थे, आनन्द लूटने में संलग्न थे सब मुग्ध थे, सबके नेत्र लुब्ध थे। हृदय में अनुपम उल्लास था, मानो वह इन्द्रलोक का विलास था या राधिकारमण का रास था अथवा प्रकृति सुन्दरी का विलास था ।

हमारी नाव आगे बढ़ी। सामने कुमुद वन था। कुमुद के अनगिनत फूल मानो मुँह बाए सुधाकर की करणों से सुधापान कर रहे थे। कुमुदिनी आकाश में कान्तिमान प्रियतम के मुख को देख फूली नहीं समा रही,।

कभी ऐसा लगता था कि जैसे अपने हजारों नेत्रों को उघाड़ कर स्वयं डल झील भी उस मनोरम छटा को एक टक से निहार रही हो।

चन्द्रमा आकाश में था और रूपसियों के जल में दिखाई देने वाले अनेक प्रतिबिम्ब उससे होड़ लगा रहे थे।

चन्द्रमा मानो अपने हिमकरों से उनके केशपाश को स्पर्श कर पुलकित हो रहा था, कपोल का स्पर्श कर में कामुक हो रहा था। कहीं इसीलिए तो वह कलंकित नहीं हो गया ?


समापन

नौका विहार के इन क्षणों में मैं सुध-बुध खो बैठा। जल-तल पर नौका विहार करते भावनाओं – की तरंगों के झूलों में झूलते समय मैं न जाने किस कल्पना लोक में विचर रहा था।

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तीन घण्टे बीत गये जैसे एक क्षण हुआ हो। नाव किनारे पर जा ठहरी जैसे कोई मधुमय स्वप्न समाप्त हुआ। हम लोग नाव से उतरे और उसी प्रसंग में बात करते अपने निवास की ओर चल दिये।

लगभग एक वर्ष बीत गया। आज भी नौका विहार का वह दृश्य मेरे हृदयपटल पर अंकित है। स्मरण पाते ही और सब कुछ भूल जाता धूरे स्मृति मेरे हृदयपटल पर अंकित रहेगी।


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