बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर शिक्षा और समाज का सम्बंध | शिक्षा के प्रभावी कारक | relation between education and society in hindi आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
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शिक्षा और समाज का सम्बंध | शिक्षा के प्रभावी कारक | relation between education and society in hindi
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समाज की अवधारणा तथा अर्थ
Concept and Meaning of Society
जिस प्रकार बालू के एक-एक कण से मिलकर विशाल रेगिस्तान बनता है और पानी की एक-एक बूँद से महासागर बन जाता है, उसी प्रकार एक-एक व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं । व्यक्तियों से समाज बनता है और समाज से एक सीमा तक व्यक्ति की पहचान भी बनती है। मनुष्य के समस्त हितों की पूर्ति हेतु समाज की आवश्यकता होती है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
अत: यह कहना सर्वथा उचित ही है कि समाज के अभाव में मनुष्य का स्वयं अपना कोई भी अस्तित्व नहीं रह जाता। मुख्य बात यह है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक समस्त सामाजिक क्रियाकलापों में बना रहता है। अत: मनुष्य की शिक्षा भी सामाजिक हितों को लेकर पूर्ण होती है। व्यक्ति रूपी पत्तों को सिंचित करने के लिये समाज रूपी वृक्ष को पोषण प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि वह सभी का पोषक है। व्यक्ति समाज से सम्पूर्ण हितों की प्राप्ति करता है। व्यक्ति की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास का आधार समाज ही होता है।
समाज की परिभाषाएं
समाजशास्त्रियों एवं चिन्तों ने समाज को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है-
(1) ओटावे (Ottaway) के अनुसार, “समाज एक प्रकार का समुदाय अथवा समुदाय का एक अंग है, जिसके सदस्यों में सामाजिक चेतना के साथ-साथ, सामान्य उद्देश्य तथा मूल्यों के कारण एकत्ता होती है।
(2) कालिंगवुड (Kalingwood) का मानना है कि, “समाज एक प्रकार का ऐसा समुदाय है, जिसके सदस्य अपनी सामाजिक जीवनचर्या के प्रति जागरूक तथा समान उद्देश्यों एवं जीवन-मूल्यों द्वारा सम्बद्ध हों।”
(3) जॉन डीवी (John Dewev) के शब्दों में ” अपने समग्र रूप में शिक्षा प्रजाति की सामाजिक चेतना में व्यक्ति की सम्भागिता से (आरम्भ होकर) आगे बढ़ती है इसका आशय है कि बालक को असली शिक्षा अपने समाज से ही प्राप्त होती है।”
(4) चैम्पमन एवं काउण्ट्स (hampman and Counts) के अनुसार, “सामाजिक प्रक्रिया के रूप में विश्व में बढ़ती हुई जटिलताओं के मध्य असहाय व्यक्ति की सहायता करना ही समाज का कार्य हैं।”
(5) हॉर्न (Horn) की मान्यता है कि, “जिस प्रकार जैविकीय जीवन स्वयं को पोषण एवं प्रजनन के माध्यम से बनाये रखता और आगे बढ़ाता है, ठीक उसी प्रकार सामाजिक जीवन समाज के माध्यम से आगे बढ़ता हैं।”
शिक्षा और समाज का सम्बंध | relation between education and society in hindi
समाज और शिक्षा का अटूट सम्बन्ध है। समाज शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था का दायित्व लेता है। समाज के बिना जीवन का कोई भी कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो सकता। एक अच्छे राष्ट्र के निर्माण में समाज की भूमिका का अंश छिपा रहता है। शिक्षा समाज को एक व्यवस्थित तथा सन्तुलित दिशा प्रदान कर उसे, सभी प्रकार से सम्पन्नता प्रदान करती है। अतः शिक्षा और समाज का यह अटूट सम्बन्ध कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला है। इन अभिन्न सम्बन्धों के परिणामस्वरूप एक सशक्त लोकतान्त्रिक राष्ट्र का निर्माण होता है तथा राष्ट्र की छवि का सुन्दर स्वरूप सामने आता है।
समाज और शिक्षा का सम्बन्ध प्राचीनकाल से ही- घनिष्ठ रूप में रहा है। शिक्षा का स्वरूप समाज की आकांक्षा के अनुरूप ही निर्धारित होता है।
वैदिक कालीन समाज में शिक्षा का स्वरूप नैतिकता एवं आध्यात्मिकता से सम्पन्न था। उस काल में प्रारम्भिक शिक्षा का स्वरूप भी नैतिकता एवं आध्यात्मिकता से युक्त था। शिक्षा धर्म की सहगामिनी थी। धार्मिक मूल्यों का प्रारम्भिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान था। छात्रों को प्रारम्भ से
ही श्रद्धा एवं विश्वास का पाठ पढ़ाया जाता था। गुरु के वचनों को सत्य मानकर पालन करना, चाहिये।
इस सन्दर्भ में तत्कालीन कवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है
“मात-पिता अरु गुरु की बानी, बिनु विचारि करिउ सुभ जानी।”
अर्थात् शिक्षा धार्मिक, आध्यात्मिक, आदर्शवादी एवं नैतिक सिद्धान्तों पर आधारित समाज की संरचना में योग प्रदान करती थी। वैदिक कालीन समाज पूर्णत: आदर्शवादी एवं धर्मनिष्ठ समाज था। शिक्षा का मूलरूप आदर्शों के रूप में माना जाता था। वर्तमान समय में समाज का जो स्वरूपदृष्टिगोचर होता है उसके विकास एवं में भी शिक्षा को महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान समय में वैश्वीकरण की प्रवृत्ति के कारण शिक्षा एव समाज में परिवर्तन आये हैं। आज एक ही विद्यालय में भेदभाव रहित शिक्षण व्यवस्था सम्पन्न होती है। किसी भी जाति का बालक विद्यालय में प्रवेश पाने का अधिकार रखता है। समाज द्वारा इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है।
प्रारम्भिक शिक्षा द्वारा समाज में होने वाले अनेक परिवर्तनों को दिशा प्रदान की गयी है। वर्तमान समय में समाज प्रायोगिक व्यवस्था एवं उपयोगी शिक्षा को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। शिक्षा ने समाज की इस संरचना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वर्तमान में शिक्षा का पाठ्यक्रम वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करने वाला है। अत: कहा जा सकता है कि शिक्षा एवं समाज एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं। दोनों के संयुक्त रूप में ही एक अस्तित्वपूर्ण व्यवस्था का जन्म होता है । प्रारम्भिक शिक्षा एवं समाज एक-दूसरे को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं।
शिक्षा के प्रभावी कारक /Affecting Factors of Education in hindi
शिक्षा को अनेक प्रकार के औपचारिक तथा अनौपचारिक कारक प्रभावित करते हैं। इन कारकों द्वारा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा प्रदान करने में योगदान दिया जाता है। बालक अपने समाज परिवार एवं परिवेश में अनेक प्रकार के विषयों के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार बालक को शिक्षा प्रदान करने में औपचारिक एवं अनौपचारिक साधनों का उपयोग होता है। शिक्षा के प्रमुख कारक या अभिकरण जो कि बालक की शिक्षा को प्रभावित करते हैं, निम्नलिखित हैं-(1) घर या परिवार। (2) समाज । (3) विद्यालय। (4) राज्य। (5) जनसंचार साधन
1. परिवार शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज की प्रथम इकाई परिवार है। समाज के अभाव में मानव का क्रमबद्ध सर्वांगीण विकास असम्भव है। चूँकि विकास की प्रथम अवस्था घर से प्रारम्भ होती है, इसलिये हमें परिवार का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है। संसार में लगभग समस्त समाजों में विभिन्न प्रकार के परिवार पाये जाते हैं। इन परिवारों के कार्य लगभग समान ही होते हैं परन्तु संस्कृति एवं देश के आधार पर कार्यों में विभिन्नता पायी जाती है। एक समाज में जो प्रधान । कार्य हैं, वह दूसरे समाज में गौण हो सकते हैं। सामान्य रूप से परिवार का अर्थ पति पली, माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं भाई तथा बहन आदि से होता है। परिवारों की भिन्नताओं के आधार पर ये अनेक प्रकार के होते हैं।
परिवार का महत्त्व (Importance of family)
(1) परिवार बालक का पालन-पोषण करता है। (2) वह उसको प्रारम्भिक आश्रय देता है। (3) बालक की प्रारम्भिक पाठशाला घर है। (4) परिवार उसको स्वाभाविक वातावरण, प्रेम तथा सहानुभूति प्रदान करता है। बिना परिवार के मानव का कोई अस्तित्व नहीं है। (5) यह शिक्षा का सबसे प्राचीन साधन है।
परिवार में शिक्षा / Education in Family
फैमिली या परिवार बालक के लिये प्रथम पाठशाला के रूप में माना जाता है। बालक जब पैदा होता है तब उसको पूर्ण संरक्षण देने का दायित्व परिवार के अन्य बड़े सदस्यों का होता है। परिवार में रहकर बालक शारीरिक रूप से विकास करता है और मानवोचित गुणों को अपनाने की क्रिया को सीखता है। बालक का स्थायी विकास भी परिवार में ही रहकर होता है। परिवार में बालक को निम्नलिखित प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है
1.आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा-समाज का प्रारम्भिक रूप परिवार को माना जाता है। परिवार के सदस्य जीवनोपयोगी सभी गुणों का स्वयं में समावेश करते हैं। ये सभी गुण नैतिक और आध्यात्मिक गुणों पर आधारित होते हैं। इस प्रकार परिवार के सदस्यों का सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक गुणों का विकास परिवार में रहकर होता है।
2. जीवन को समायोजित करने की शिक्षा-डार्विन का कथन है कि “शक्तिशाली व्यक्ति ही पारिवारिक जीवन के संघर्ष में जीवित रह पाता है।” बड़ी शक्ति के पनपने से छोटी शक्ति स्वत: ही समाप्त हो जाती है। केवल जो व्यक्ति समायोजन की प्रवृत्ति रखता है, वही बच पाता है? बालक परिवार में रहकर समायोजन करना सीख पाता है।
3. जीवन व्यवहार की शिक्षा-भावी जीवन निर्धारण की शिक्षा बालक को परिवार से ही प्राप्त होती है। प्रत्येक परिवार के व्यवहार निश्चित होते हैं। प्राय: देखने को मिलता है कि ‘जो बालक सुसंस्कृत परिवार में जन्म लेते हैं, वे आगे चलकर परिष्कृत व्यवहारों को अपनाते हैं। इसके विपरीत निर्धन परिवारों के बालक असंस्कृत व्यवहारों में पलते हैं।
4. स्थायी जीवन मूल्यों का विकास-परिवार के स्थायी जीवन मूल्य प्रेम, दया,सहयोग, ममता, सहनशीलता और सहायता पर आधारित होते हैं। परिवार के सदस्यों के व्यवहारों के प्रति होने वाली प्रक्रिया ही इन स्थायी मूल्यों के विकास में योगदान करती है। इन्हीं गुणों के आधार पर बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है।
5. बालक की आदत एवं उत्तम चरित्र निर्माण की शिक्षा-परिवार में बालक जन्म लेता है। बड़ा होकर उसके चरित्र निर्माण की क्रियान्विति परिवार में स्थायी निवास करके होती है। बालक की आदत का निर्माण भी परिवार की परम्पराओं पर निर्भर करता है। परिवार में यदि प्रेम, सद्भावना और सहयोग का वातावरण होता है तो बालक में बड़े होने पर उत्तम गुण एव अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण होता है। परिवार का कलह युक्त होना, बालक की मानसिक दशा को विकृत करता है और उसमें अपराधजन्य प्रवृत्तियों का निर्माण होना स्वाभाविक है।
6. पारस्परिक सहयोग की शिक्षा-परिवार के सभी सदस्य यदि परस्पर सहयोग करते हैं और आदर्श वातावरण में जीवन जीते हैं तो बालक के मन पर इसकी अमिट छाप पड़ती है। बाँसी (Bansi) के अनुसार, “परिवार वह स्थल है, जहाँ प्रत्येक नयी पीढ़ी नागरिकता का नया पाठ पढ़ती है क्योंकि कोई व्यक्ति समाज में रहकर सहयोग के बिना जीवित नहीं रह सकता।”
7. परमार्थ की शिक्षा-परिवार एक ऐसा समूह है, जो सामाजिक बीमे (Social Insurance) का प्रमुख साधन माना जाता है। अतः परिवार छोटे तथा बड़े-बूढ़े दोनों को ही सामाजिक न्याय प्रदान करते हुए परमार्थ तथा परोपकार की शिक्षा प्रदान करता है। बर्नाड शॉ (Bernard Show) ने लिखा है, “परिवार ही वह साधन है, जिसके अनुसार नयी-नयी पीढ़ियाँ पारिवारिकता के साथ-साथ रोगी-सेवा, बड़ों और छोटों की सहायता केवल देखते ही नहीं हैं, अपितु उसे करते भी हैं।
8. आज्ञा पालन एवं अनुशासन की शिक्षा-परिवार का स्वामी परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है, उसी की आज्ञा एवं निर्देश के अनुसार परिवार के सभी कार्य होते हैं। परिवार के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं। यह बात परिवार के सदस्यों से बालक भी सीखते हैं। कॉम्टे (Contey) के शब्दों में,”आज्ञा पालन और अनुशासन दोनों रूपों में परिवार पारिवारिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन का अनन्त विद्यालय बना रहेगा।”
9. जीविकोपार्जन की शिक्षा-परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बँटाता है। बालक अपने बड़ों को देखता है और परिवार में रहकर सफलतापूर्वक घरेलू व्यवसाय को बिना किसी आधार के सीख लेता है। अत: पारिवारिक व्यवसाय सीखने के लिये उसे अन्यत्र प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता। इस प्रकार परिवार अपने नव सदस्य बालक को भावो जीवन निर्वाह के योग्य बना देता है।
2. समाज शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में
शिक्षा के प्रभावी कारकों के रूप में परिवार के बाद समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सामान्यत: जिस समाज में व्यक्तियों द्वारा शिक्षा को महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक माना जाता है उस समाज में शिक्षा को प्राप्त करने के उपाय किये जाते हैं। वर्तमान समय में शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षुओं को सामाजिक सहयोग प्राप्त करने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है। उनको यह सिखाया जाता है कि वह प्रत्येक क्षेत्र एवं स्थिति में शिक्षा के महत्त्व को स्थानीय, राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर प्रचारित करे। इससे समाज का स्वरूप शिक्षित रूप में विकसित होता है।
समाज द्वारा शिक्षा के महत्त्व एवं उपयोगिता स्वीकार करने के पश्चात् समाज के सदस्यों के लिये शिक्षा व्यवस्था के लिये उचित एवं सार्थक प्रयास किये जाते है, जिससे बालक में समाज के सदस्य बनने की योग्यता विकसित हो सके। समाज के स्वरूप के आधार पर बालकों में सामाजिक गुणों का विकास होता है। जैसे-भारतीय समाज का स्वरूप आदर्शवादी एवं नैतिकता से ओत-प्रोत है। इसलिये भारतीय समाज की शिक्षा व्यवस्था में भी के आधार पर ही शिक्षाव्यवस्थाका स्वरूप निर्धारित होता है। वर्तमान भारतीय समाज लोकतान्त्रिक नैतिकता एवं आदर्शवादिता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है। समाज के स्वरूप मूल्यों का पोषक है।
इसलिये शिक्षा व्यवस्था में भी समानता एवं स्वतन्त्रता आदि के मूल्यों का पोषण करनेवाली व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। समाज के अनुरूप ही छात्रों में सामाजिक गुणों का विकास सम्भव होता है। वर्तमान समाज में प्रेम, सहयोग एवं सहिष्णुता का स्वरूप जिस रूप में दृष्टिगोचर होता है ठीक उसी रूप को शिक्षा द्वारा विकसित करने का प्रयास किया जाता है। बालक समाज में रहकर अनेक प्रकार के रीति-रिवाज एवं परम्पराओं को सीखता है जो कि उसके जीवन निर्माण की आधारशिला होती हैं।
जैसे– भारतीय समाज का बालक नैतिकता एवं मानवता से सम्बन्धित क्रियाकलापों को सरल एवं स्वाभाविक रूप से सीखने का प्रयास करता है। भारतीय समाज के विकास एवं शिक्षा की समाज में उपयोगिता के आधार पर निःशुल्क शिक्षा एवं शिक्षा के अधिकार के प्रावधानों का उदय हुआ, जिसके आधार पर भारतीय समाज का प्रत्येक बालक एवं बालिका नि:शुल्क शिक्षा का लाभ उठा सकता है तथा शिक्षा की मुख्य धारा से सम्बद्ध हो सकता है। भारतीय समाज के नियम एवं परम्पराओं के आधार पर ही बालक अपने व्यवहार को परिमार्जित करता है- जैसे- भारतीय समाज में वर्तमान समय में महिलाओं को सम्मान देने की प्रथा के कारण उनके साथ सम्माननीय व्यवहार किया जाता है।
3.विद्यालय शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में
विद्यालय की परिभाषाएँ शिक्षाविदों द्वारा निम्नलिखित प्रकार दी गयी हैं-
(1) टी.पी. नन् (T.P. Nunn) के शब्दों में, “विद्यालय को प्रमुख रूप से ऐसा स्थल नहीं समझना चाहिये, जहाँ कुछ निश्चित ज्ञान सीखा जाता है बल्कि वह बालकों को निश्चित क्रियाओं तथा अनुशासन का ज्ञान प्रदान करने का स्थल है, जिसका इस विस्तृत विश्व तथा महानता में स्थायी महत्त्व है।”
(2) रॉस (Ross) के अनुसार, “विद्यालय वे संस्थाएँ हैं, जिनको सभ्य मनुष्य के द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित और योग्य सदस्यता के लिये बालकों की तैयारी में सहायता मिले।
विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and importance of school)
संस्थागत औपचारिक शिक्षा का केन्द्र विद्यालय होता है। विद्यालय औपचारिक शिक्षाके लिये विविध प्रयल करता है। समाज में विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्व निम्नलिखित प्रकार हैं–(1)व्यक्तित्व का विकास करने में विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ( 2) संस्कृति का विकास तथा हस्तान्तरण विद्यालयद्वारा होता है। (3) सामाजिक वातावरण की व्यवस्था विद्यालय द्वारा सम्भव है। (4) मानवीय गुणों का विकास विद्यालय द्वारा होता है। (5) वसुधैव कुटुम्बकम्की भावना का विकास करने में विद्यालय की भूमिका महत्वपूर्ण है। (6) नागरिकता की शिक्षा प्रदान करने में विद्यालय की भूमिका महत्वपूर्ण है। (7) सांस्कृतिक चेतना का विकास विद्यालय द्वारा होता है। (8) जटिल समस्याओं का समाधान विद्यालय द्वारा ही सम्भव है। (9) विशिष्ट वातावरण विद्यालय द्वारा उत्पन्न होता है। (10) आदर्श समाज का निर्माण विद्यालय द्वारा होता है।
4. राज्य शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में
विद्यालय, परिवार तथा समाज के समान राज्य भी एक महत्त्वपूर्ण अभिकरण है जो शिक्षा के विकास में सहायक है। यह एक निश्चित समुदाय है जिसके कुछ निश्चित कार्य एवं उद्देश्य होते हैं। यह व्यक्तियों के सेवक तथा प्रबन्धक के रूप में कार्य करता है। इसके अन्तर्गत एक मानव समूह जो सरकार के रूप में होता है उसे कुछ विशेष अधिक प्राप्त होते हैं। यह सर्वोच्च तथा स्वतन्त्र होता है। वह नागरिकों के विकास एवं शासन की सुचारुता के लिये शिक्षा की व्यवस्था करता है।
राज्य का महत्त्व (Importance of State)
राज्य का शिक्षा की दृष्टि से निम्नलिखित महत्त्व है- (1) राज्य बालक के लिये सुरक्षा प्रदान करता है। (2) बालक के लिये उचितः- शिक्षा का प्रबन्ध करता है। (3) बालक को शान्तिपूर्ण वातावरण प्रदान करता है। (4) बालक को आदर्श नागरिक बनने के अवसर प्रदान करता है। (5) राज्य भावात्मक एकता तथा संगठन का पाठ पढ़ाता है। (6) बालक में नेतृत्व की भावना का विकास करता है। (7) बालक से सम्बन्धित माता-पिता, परिवार एवं समाज के हित की रक्षा करता है। (8) समाज के भ्रष्टाचारों पर रोक लगाता है (9) शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम तथा विधियाँ निर्धारित करके शिक्षा पर नियन्त्रण रखता है। (10) बालकों के लिये निःशुल्क पुस्तकों तथा पौष्टिक आहार की व्यवस्था करता है।
5.शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में जनसंचार साधन
प्रभावशाली शिक्षा एवं शिक्षण के लिये माध्यम की आवश्यकता होती है। सामान्यतः शैक्षिक सम्प्रेषण के भौतिक साधनों को जनसंचार कहा जाता है; जैसे-पुस्तकें, छपी हुई सामग्री, कम्प्यूटर, स्लाइड, टेप, फिल्म एवं रेडियो आदि । जनसंचार साधनों के द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान करता है तथा नवीन ज्ञान को जनसाधारण तक पहुँचाता है। जब सम्प्रेषण व्यक्तियों में आमने-सामने होता है तो हम इन्द्रियों का प्रयोग करते हैं तथा सम्प्रेषणकर्ता को तुरन्त पृष्ठपोषण मिल जाता है। दृश्य-श्रव्य शिक्षण साधन व्यक्ति के सम्प्रेषण का आधार हैं ।
जब सम्प्रेषण किसी जनसंचार माध्यम और व्यक्ति के बीच होता है तो हम उसे मास मीडिया (Mass Media) कहते हैं अर्थात् वह सम्प्रेषण साधन,जिसमें व्यक्ति की अनुपस्थिति में छपी हुई सामग्री, रेडियो अथवा दृश्य-श्रव्य सामग्री (दूरदर्शन) द्वारा सम्प्रेषण होता है जनसंचार कहलाते हैं। इन साधनों के माध्यम से एक समय में अनगिनत (Uncounted) व्यक्तियों के साथ एकतरफा सम्प्रेषण होता है अर्थात् सम्प्रेषणकर्ता को पृष्ठ-पोषण प्राप्त नहीं होता।
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