द्रव्य की अवस्थाएं : ठोस द्रव एवं गैस अवस्था / अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर ठोस,द्रव एवं गैस की व्याख्या

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द्रव्य की अवस्थाएं : ठोस द्रव एवं गैस अवस्था / अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर ठोस,द्रव एवं गैस की व्याख्या

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द्रव्य की अवस्थाएं : ठोस द्रव एवं गैस अवस्था / अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर ठोस,द्रव एवं गैस की व्याख्या

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर ठोस,द्रव एवं गैस की व्याख्या

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द्रव्य की प्रकृति / Nature of Matter

इस संसार में असंख्य वस्तुएँ हैं, जिनका अनुभव हमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है। आदिकाल से ही यह अवधारणा रही है कि ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुएँ द्रव्य हैं। इनमें से कुछ को हम देख सकते हैं, जबकि कुछ का केवल अनुभव कर सकते हैं। जैसे-पेड़ पौधे, धातु, जल आदि दृश्य (अर्थात् देखें जा सकने वाले) द्रव्य हैं, जबकि वायु आदि अदृश्य (अर्थात् केवल अनुभव किए जाने वाले) द्रव्य हैं।

द्रव्य की परिभाषा / definition of Matter in hindi

द्रव्य ब्रह्माण्ड का वह अवयव है, जिसमें द्रव्यमान होता है, जो आयतन घेरता है तथा जिसका अनुभव हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा कर सकते हैं। उदाहरण- जल, वायु, लकड़ी, हीरा, स्टील (इस्पात), काँच आदि सभी में द्रव्यमान होता है तथा सभी स्थान घेरते हैं। अत: ये द्रव्य है।

Properties of Matter / द्रव्य के गुणधर्म

(i) द्रव्य स्थान घेरता है।
(ii) द्रव्य में जड़त्व का गुण होता है।
(iii) द्रव्य के किन्हीं भी दो कणों के मध्य पारस्परिक आकर्षण बल कार्य करता है।
(iv) द्रव्य में आयतन, भार तथा द्रव्यमान होते हैं।
(v) द्रव्य के अणुओं के मध्य रिक्त स्थान होता है।

द्रव्य से सम्बन्धित कुछ पद Some Terms Related to Matter

(1) द्रव्यमान (Mass) – किसी वस्तु में उपस्थित द्रव्य की वास्तविक मात्रा को उसका द्रव्यमान कहते हैं। किसी वस्तु का द्रव्यमान सदैव निश्चित होता है अर्थात् स्थान परिवर्तन के साथ इसका मान परिवर्तित नहीं होता है। इसे m द्वारा निरूपित किया जाता है।

(2) भार (Weight) – पृथ्वी अपने केन्द्र की ओर वस्तुओं को जिस बल द्वारा आकर्षित करती है, उसे भार कहते हैं।  स्थान परिवर्तन के साथ इसका मान परिवर्तित होता जाता है। इसे g द्वारा प्रदर्शित करते हैं।

द्रव्यमान तथा भार में सम्बन्ध (Relation between Mass and Weight)

यदि द्रव्य का द्रव्यमान m एवं भार 20 हो, तो w=mg जहाँ,
g = गुरुत्व जनित त्वरण है। स्थान परिवर्तन के साथ 8 एवं w का मान परिवर्तित होता जाता है।
उदाहरण- अन्तरिक्ष में g का मान शून्य होने के कारण वस्तु का भार शून्य प्रतीत होता है। चन्द्रमा पर g का मान पृथ्वी पर g के मान का 1/6 है। अतः यदि किसी वस्तु का पृथ्वी पर भार 600 किग्रा पाया गया है तो चन्द्रमा पर यह 100 किग्रा प्रतीत होगा। यद्यपि दोनों स्थानों पर द्रव्यमान समान होगा।

(3) आयतन (Volume) – किसी वस्तु द्वारा घेरा (Occupied) गया स्थान, उस वस्तु का आयतन कहलाता है।

(4) ऊर्जा (Energy) – किसी वस्तु के कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य में ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा होती है। ऊर्जा अपने विभिन्न रूपों, जैसे- प्रकाश ऊर्जा, ऊष्मीय ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, गतिज ऊर्जा आदि में से किसी भी रूप में उपस्थित हो सकती है। ऊर्जा में न तो द्रव्यमान होता है और न ही इसकी कोई भौतिक अवस्था होती है।

द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता नियम (Mass- Energy Equality Law)

यदि किसी वस्तु का द्रव्यमान m तथा ऊर्जा E हो, तो आइन्सटीन के अनुसार, E=mc²
जहाँ, c= प्रकाश का वेग = 3 x 1020 सेमी/सेकण्ड अतः उपरोक्त समीकरण के आधार पर यह स्पष्ट है, कि द्रव्यमान को ऊर्जा में तथा ऊर्जा को द्रव्यमान में सरलता से परिवर्तित किया जा सकता है।

नोट – नाभिकीय अभिक्रियाओं में द्रव्यमान क्षति अधिक होने के कारण अधिक ऊर्जा निर्मुक्त होती है, जबकि रासायनिक अभिक्रियाओं में द्रव्यमान क्षति काफी कम होने के कारण स्पीशीजों (अणुओं, परमाणुओं, गैसों आदि) का द्रव्यमान लगभग स्थिर रहता है।

भौतिक प्रकृति के आधार पर द्रव्य का वर्गीकरण

भौतिक प्रकृति के आधार पर द्रव्य को तीन अवस्थाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(i) ठोस (Solid) – द्रव्य की वह अवस्था, जिसका आकार एवं आयतन दोनों निश्चित होते हैं, ठोस कहलाती है। उदाहरण- पत्थर, लकड़ी, बर्फ (ठोस जल) आदि।
(ii) द्रव (Liquid) – द्रव्य की वह अवस्था, जिसका आयतन निश्चित होता है, परन्तु आकार नहीं, द्रव कहलाती है। उदाहरण- जल, तेल आदि।
(iii) गैस (Gas) – द्रव्य की वह अवस्था, जिसमें द्रव्य का न तो आकार निश्चित होता है और न ही आयतन, गैस कहलाती है। उदाहरण- हाइड्रोजन, हीलियम, ऑक्सीजन, जलवाष्प आदि।

ठोस, द्रव और गैस के अतिरिक्त द्रव्य की दो अन्य अवस्थाएँ भी होती हैं। ये अवस्थाएँ हैं

1. प्लाज्मा (Plasma) – द्रव्य की वह अवस्था, जिसमें उच्च ताप पर द्रव्य के परमाणु आयनित अवस्था में होते हैं, प्लाज्मा कहलाती है। यह अवस्था विद्युत की सुचालक होती है। फ्लोरसेन्ट ट्यूब एवं निऑन बल्ब में प्लाज्मा होता है।

2. बोस आइन्सटीन कन्डैनसेट (Bose-Einstein Condensate) – द्रव्य की वह अवस्था, जो अत्यधिक निम्न ताप पर प्राप्त होती है, बोस-आइन्सटीन कन्डैनसेट कहलाती है।

नोट – जल एक ऐसा द्रव्य है जो तीनों भौतिक अवस्थाओं ठोस (बर्फ के रूप में), द्रव (जल के रूप में) तथा गैस (जलवाष्प या भाप के रूप में) में पाया जाता है।

द्रव्य के कण Particles of Matter

द्रव्य में मुख्यतया दो प्रकार के कण होते हैं।

1. परमाणु (Atom) – ‘एटम’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ‘एटोमोस’ से हुई है, जिसका अर्थ होता है ‘अविभाज्य’। अतः तत्व का वह सूक्ष्मतम कण जो स्वतन्त्र अवस्था में रह भी सकता है और नहीं भी तथा जो उसके सभी रासायनिक गुणधर्मों को प्रदर्शित करता है, अर्थात् रासायनिक अभिक्रिया में भाग लेता है, परमाणु कहलाता है।

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2. अणु (Molecule) – साधारणतया अणु दो या दो से अधिक (समान या भिन्न) परमाणुओं के समूह होते हैं, जो परस्पर रासायनिक आबन्ध द्वारा जुड़े होते हैं। अतः अणु किसी तत्व अथवा यौगिक का वह सूक्ष्मतम कण है, जो सामान्य दशाओं में स्वतन्त्र रह सकता है। यह पदार्थ के सभी गुणधर्मों को प्रदर्शित करता है।

द्रव्य के कणों के अभिलाक्षणिक गुणधर्म

किसी द्रव्य के अधिकांश गुणधर्म उसके अणुओं में उपस्थित परमाणुओं एवं उनके पारस्परिक आबन्धन के प्रकार पर निर्भर करते हैं। उदाहरण- ग्रेफाइट तथा हीरा कार्बन के अपररूप (Allotropes) हैं। ये कार्बन परमाणुओं द्वारा निर्मित होते हैं, परन्तु इनकी परमाण्विक संरचना की भिन्नता के कारण इनके भौतिक गुणों में अन्तर पाया जाता है। जैसे- हीरा सर्वाधिक कठोर पदार्थ है, जबकि ग्रेफाइट मृदु होता है।

द्रव्य का अणुगतिज सिद्धान्त
Kinetic Molecular Theory of Matter

इस सिद्धान्त के अनुसार,

(i) द्रव्य अत्यधिक सूक्ष्म कणों द्वारा निर्मित होता हैं, जिन्हें अणु (Molecules) कहते हैं। किसी अणु में द्रव्य के सभी गुण विद्यमान होते हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न द्रव्यों के अणु एक-दूसरे से गुणों में भिन्न होते हैं।
(ii) द्रव्य के अणुओं के मध्य बहुत से रिक्त स्थान उपस्थित होते हैं, जिन्हें अन्तराण्विक अवकाश (Inter-molecular space) या अन्तराण्विक स्थान कहते हैं। ये स्थान नग्न आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। इस कारण द्रव्य सतत् दिखाई देता है। अणुओं के मध्य उपस्थित अन्तराण्विक स्थानों के कारण ही ऐल्कोहॉल तथा जल को 20-20 मिली मिलाने पर प्राप्त आयतन 40 मिली से कम होता है, क्योंकि कुछ अणु इन स्थानों को घेर लेते हैं।

(iii) द्रव्य के अणुओं के मध्य परस्पर आकर्षण बल पाया जाता है। अणुओं के मध्य लगने वाले इस आकर्षण बल को ससंजक बल (Cohesive force) अथवा अन्तराण्विक बल कहते हैं।
(iv) अणुओं के मध्य की दूरी घटने के साथ-साथ अणुओं के मध्य अन्तराण्विक आकर्षण बल बढ़ता जाता है।
(v) द्रव्यों के अणुओं में सतत् (Continuous) गति होती रहती है, जिससे इनमें गतिज ऊर्जा उत्पन्न होती है। द्रव्य की गतिज प्रवृत्ति के कारण ही इत्र की शीशी खोलने पर उसकी सुगन्ध पूरे कमरे में फैल जाती है। इसी प्रकार जल में पोटैशियम परमैंगनेट का क्रिस्टल डालने पर सम्पूर्ण जल गुलाबी हो जाता है। अणुओं की गतिज ऊर्जा, गैस के परमताप के समानुपाती होती है। अतः ताप बढ़ाने पर गतिज ऊर्जा बढ़ती है।

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर द्रव्य की तीनों अवस्थाओं (ठोस, द्रव एवं गैस) की व्याख्या

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर ठोस अवस्था की व्याख्या

इस सिद्धान्त के आधार पर ठोसों के गुणों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है।

(i) ठोस में अणुओं की व्यवस्था (Arrangement of Molecules in Solid) – ठोस के अणु परस्पर निकट एवं निश्चित क्रम में त्रिविम जालक (Three dimensional lattice) के रूप में व्यवस्थित होते हैं, यही कारण है कि ठोस में अणुओं की स्थिति निश्चित होती है।
नोट – समान ज्यामिति वाले ठोसों को समाकृतिक (Isomorphous) कहा जाता है तथा उनका यह गुण समाकृतिकता (Isomorphism) कहलाता है।

(ii) ठोस का आयतन एवं आकार (Volume and Size of Solid) – ठोस के अणुओं के मध्य अन्तराण्विक बल अत्यधिक प्रबल होता हैं अर्थात् इनके मध्य अन्तराण्विक अवकाश (स्थान) बहुत कम होता है, जिसके फलस्वरूप अणुओं की स्वतन्त्र गति सम्भव नहीं हो पाती है तथा ये केवल एक निश्चित स्थान पर कम्पन्न ही कर सकते हैं। अतः ठोस का आकार व आयतन निश्चित होता है।

(iii) सम्पीड्यता (Compressibility) – अन्तराण्विक स्थान बहुत कम होने के कारण ठोस बहुत कम सम्पीड्य या लगभग असम्पीड्य होते हैं, (सम्पीड्य का तात्पर्य दाब लगाकर आयतन को कम करना है) ।
(iv) गर्म करने पर प्रसार (Expansion on Heating) – किसी पदार्थ को गर्म करने पर उसके अणु दूर-दूर हो जाते हैं। अतः प्रसार (फैलाव) होता है, परन्तु ठोस के अणुओं के मध्य अन्तराण्विक स्थान बहुत कम होता है, जिसके कारण इसे गर्म करने पर अणुओं का प्रसार बहुत कम होता है।
(v) घनत्व (Density) – अन्तराण्विक अवकाश बहुत कम होने के कारण इनके घनत्व उच्च होते हैं।

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर द्रव अवस्था की व्याख्या

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर द्रवों के गुणों की व्याख्या निम्न प्रकार से सकती है –

(i) द्रव में अणुओं की व्यवस्था (Arrangement of Molecules in Liquid) – ठोस की अपेक्षा द्रव में अणुओं के मध्य दूरी अधिक होती है, जिस कारण इसके अणु स्वतन्त्र रूप से गति करते हैं।

(ii) द्रव का आयतन एवं आकार (Volume and Size of Liquid) – ठोस की अपेक्षा द्रव के अणुओं के बीच अन्तराण्विक आकर्षण बल कम होता है तथा इसके अणुओं के बीच रिक्त स्थान ठोस की अपेक्षा अधिक होता है। अतः द्रव के अणुओं को गति करने की अधिक स्वतन्त्रता होती है, जिसके फलस्वरूप इनकी गतिज ऊर्जा अधिक हो जाती है।

उच्च गतिज ऊर्जा के कारण द्रव के अणु परस्पर संघात करते रहने के कारण एक-दूसरे पर फिसलते रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप द्रवों में बहने का गुण अर्थात् तरलता (Fluidity) पाया जाता है अर्थात् इनका आकार निश्चित नहीं रहता है तथा ये उसी पात्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं जिसमें उन्हें रखा जाता है। द्रव के अणुओं के मध्य उपस्थित अन्तराण्विक आकर्षण बल यद्यपि इतने प्रबल होते हैं, कि वे इन अणुओं को द्रव की सीमाओं के भीतर बाँधकर रख सकें। फलस्वरूप द्रव के अणु इसकी सीमाओं के भीतर ही अनियमित गति करते रहते हैं तथा इस कारण द्रव का आयतन निश्चित होता है।

(iii) सम्पीड्यता (Compressibility) – द्रव कम सम्पीड्य होते हैं, क्योंकि ठोस की अपेक्षा इनके अणुओं में अन्तराण्विक स्थान अधिक होता है।

(iv) प्रसरण (Expansion) – द्रव ठोसों की तुलना में अधिक प्रसार दर्शाते हैं, क्योंकि द्रव के अणुओं में अन्तराण्विक स्थान ठोसों की तुलना में अधिक होता है।

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर गैस अवस्था की व्याख्या

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर गैसों के गुणों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है

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(i) गैस में अणुओं की व्यवस्था (Arrangement of Molecules in Gas) – गैसों के अणुओं के मध्य अन्तराण्विक बल लगभग नगण्य तथा अन्तराण्विक स्थान बहुत अधिक होने के कारण ये अनियमित रूप से सभी दिशाओं में अति तीव्र वेग से गतिशील होते हैं।

(ii) गैस का आयतन एवं आकार (Volume and Size of Gas) – गैस के अणुओं के सभी दिशाओं में गतिशील होने के कारण इसका आकार एवं आयतन निश्चित नहीं होता है। ये उसी पात्र का आयतन व आकार ग्रहण कर लेते हैं, जिसमें इन्हें रखा जाता है। गैसों में संवेग स्थानान्तरित होते रहते हैं एवं ये स्थानान्तरण दाब उत्पन्न करते हैं।

(iii) सम्पीड्यता (Compressibility) – गैस के अणुओं के मध्य अन्तराण्विक स्थान अधिक होता है। अतः दाब में वृद्धि करके गैस के अणुओं को समीप लाया जा सकता है, इस कारण गैस अत्यधिक सम्पीड्य होती है।

(iv) गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy) – द्रव्य की इस अवस्था में स्थितिज ऊर्जा (Potential energy) पूर्ण रूप से गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है, अतः गैस की गतिज ऊर्जा अधिक होती है।

(v) घनत्व (Density) – अन्तराण्विक स्थान अत्यधिक होने के कारण गैसों का घनत्व बहुत कम होता है।

(vi) प्रसरण (Expansion) – दुर्बल (या नगण्य) अन्तराण्विक आकर्षण बलों की उपस्थिति के कारण गैसें गर्म करने पर अत्यधिक प्रसारित होती हैं। अणुगतिज सिद्धान्त के अध्ययन के पश्चात् द्रव्य की तीनों अवस्थाओं का निष्कर्ष निम्नलिखित है

अन्तराण्विक अवकाश (स्थान) का बढ़ता हुआ क्रम
ठोस < द्रव < गैस
अन्तराण्विक बल का बढ़ता हुआ क्रम
गैस < द्रव < ठोस
अन्तराण्विक (स्थितिज ऊर्जा) का बढ़ता हुआ क्रम
गैस < द्रव < ठोस
अन्तराण्विक (गतिज ऊर्जा) का बढ़ता हुआ क्रम
ठोस < द्रव < गैस

द्रव्य का अवस्था परिवर्तन / Change in States of Matter

ताप या दाब के प्रभाव के कारण द्रव्य के एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया को द्रव्य का अवस्था परिवर्तन कहते हैं। द्रव्य के अवस्था परिवर्तन को निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है। उपयुक्त परिस्थितियों के अन्तर्गत कोई भी द्रव्य किसी भी प्रावस्था (Phase) में परिवर्तित हो सकता है। उदाहरण- बर्फ को गर्म करने पर यह जल में एवं जल को ठण्डा करने पर यह बर्फ में परिवर्तित हो जाता है। किसी द्रव्य की भौतिक प्रावस्था को प्रभावित करने वाला एक मुख्य घटक ताप होता है। ताप परिवर्तन करने पर द्रव्य की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा प्रभावित होती है, फलतः द्रव्य की भौतिक अवस्था परिवर्तित हो जाती है। ताप परिवर्तन द्वारा द्रव्य की अवस्था परिवर्तन के दौरान निम्नलिखित प्रक्रम घटित होते हैं।

1. गलन तथा गलनांक Melting and Melting Point

किसी ठोस को ऊष्मा देते रहने पर एक ऐसी स्थिति आती है, जब ऊष्मा में वृद्धि करने पर भी तापमान अपरिवर्तित रहता है तथा ठोस द्रव अवस्था में परिवर्तित होने लगता है। ठोस के द्रव में परिवर्तित होने की यह क्रिया गलन कहलाती है। वह न्यूनतम ताप, जिस पर कोई ठोस, 1 वायुमण्डलीय दाब पर द्रव में परिवर्तित हो जाता है, उस ठोस का गलनांक कहलाता है। प्रत्येक क्रिस्टलीय ठोस (Crystalline solid) के लिए इसका मान निश्चित होता है।

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर गलन की व्याख्या

ठोस को गर्म करने पर, अर्थात् उसका ताप बढ़ाने पर उसके अणुओं की गतिज ऊर्जा में वृद्धि होती है और अणुओं के मध्य की दूरी बढ़ने लगती है, जिससे उनके मध्य अन्तराण्विक आकर्षण बल कम होने लगता है। गर्म करते रहने पर एक ऐसी स्थिति आती है, जब ठोस के अणु स्वतन्त्रतापूर्वक गति करने लगते हैं तथा क्रिस्टल जालक टूट जाता है और ठोस द्रव में परिवर्तित होने लगता है, यह क्रिया गलन कहलाती है। वह ताप जिस पर गलन क्रिया सम्पन्न होती है, गलनांक कहलाता है।

गलन की गुप्त ऊष्मा (Latent Heat of Melting)

गलनांक पर ठोस को पुनः गर्म करने पर ताप में वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि दी गई ऊष्मा ठोस को पिघलाने में अर्थात् अन्तराण्विक आकर्षण बलों को क्षीण करने में व्यय होती है। जब सम्पूर्ण ठोस पिघलकर द्रव बन जाता है, तो ताप पुनः बढ़ने लगता है। “किसी ठोस के 1 ग्राम को उसके गलनांक पर द्रव में परिवर्तित करने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा उस ठोस की गलन की गुप्त ऊष्मा कहलाती है।” किसी ठोस में अपद्रव्य मिलाने पर उसका गलनांक कम हो जाता है।

2. हिमीकरण तथा हिमांक Freezing and Freezing Point

जब किसी द्रव का ताप घटाया जाता है, तो उसके कणों की गतिज ऊर्जा घटने लगती है तथा एक निश्चित ताप पर या उससे नीचे इन कणों के मध्य अन्तराण्विक आकर्षण बल प्रबल होने लगते हैं। अन्ततः द्रव, ठोस में परिवर्तित होने लगता है। द्रव के ठोस में परिवर्तित होने की प्रक्रिया को हिमीकरण कहते हैं। वह निश्चित ताप जिस पर यह क्रिया होती है, हिमांक कहलाता है।
नोट – सैद्धान्तिक रूप से ठोस का गलनांक तथा द्रव का हिमांक समान होता है, परन्तु हिमांक को द्रव का लाक्षणिक गुण (Characteristic property) नहीं माना जाता है।

3. क्वथन तथा क्वथनांक Boiling and Boiling Points

द्रव को गर्म करने पर उसका ताप बढ़ने लगता है। निरन्तर गर्म करते रहने पर एक ऐसी स्थिति आती है, जहाँ द्रव का ताप स्थिर हो जाता है। इस स्थिर ताप पर द्रव के भीतर वाष्प के बुलबुले उठने लगते हैं, इस क्रिया को क्वथन कहते हैं। वह निश्चित ताप जिस पर यह क्रिया होती है, क्वथनांक कहलाता है। इस ताप पर द्रव का वाष्पदाब (Vapour pressure) वायुमण्डलीय दाब के समान हो जाता है। अतः वह ताप जिस पर किसी द्रव का वाष्प दाब 1 वायुमण्डलीय दाब के बराबर हो जाता है, उस द्रव का क्वथनांक कहलाता है। प्रत्येक शुद्ध द्रव के लिए इसका मान निश्चित होता है।

उदाहरण– जल का क्वथनांक 100°C होता है अर्थात् 100°C पर जल का वाष्पदाब = वायुमण्डलीय दाब
अतः स्पष्ट है, कि वायुमण्डलीय दाब में परिवर्तन होने पर क्वथनांक भी परिवर्तित हो जाएगा। उदाहरण- पहाड़ों पर वायुमण्डलीय दाब कम होने के कारण जल का क्वथनांक कम हो जाता है, अत: खाद्य पदार्थों के पकने में अधिक समय लगता है। इसी प्रकार, प्रेशर कुकर में भोजन जल्दी पक जाता है, क्योंकि प्रेशर कुकर में दाब बहुत अधिक होता है। दाब बढ़ने के कारण क्वथनांक भी बढ़ जाता है। फलत: ऊष्मा जल के वाष्पन में अधिक व्यय होने की अपेक्षा भोजन को पकाने में व्यय होती है, जिससे भोजन जल्दी पक जाता है।

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अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर क्वथन की व्याख्या

द्रव में अणु परस्पर टकराते हुए अनियमित गति करते रहते हैं, जिस कारण इनमें गतिज ऊर्जा होती है। ताप में वृद्धि करने पर एक समय पश्चात् सतह के अणुओं की गतिज ऊर्जा, औसत गतिज ऊर्जा से इतनी अधिक हो जाती है कि द्रव के भीतर स्थित अणु स्वतन्त्र होकर बुलबुलों के रूप में सतह पर आकर फटने लगते हैं तथा वायु में मिलने लगते हैं। यह क्रिया ही क्वथन कहलाती है तथा वह ताप जिस पर यह क्रिया घटित होती है, क्वथनांक कहलाता है।

नोट –  अधिक वाष्पदाब वाले द्रव का क्वथनांक कम होता है तथा कम वाष्पदाब वाले द्रव का क्वथनांक अधिक होता है। चूँकि अवाष्पशील अशुद्धि की उपस्थिति में वाष्प दाब कम हो जाता है, अतः क्वथनांक बढ़ जाता है।

वाष्पन की गुप्त ऊष्मा Latent Heat of Vaporisation
क्वथनांक पर गर्म करने पर द्रव के ताप में वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि सम्पूर्ण ऊष्मा द्रव को वाष्प में परिवर्तित करने में व्यय हो जाती है। सम्पूर्ण द्रव के वाष्प में परिवर्तित होने पर ताप पुन: बढ़ने लगता है। अतः 1 ग्राम द्रव को उसके क्वथनांक पर वाष्प में परिवर्तित करने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा उस द्रव की वाष्पन की गुप्त ऊष्मा कहलाती है।

4. द्रव का वाष्पनः वाष्पीकरण Evaporation of Liquid: Vaporisation

क्वथनांक से नीचे किसी भी ताप पर द्रव की सतह से द्रव के कणों के वाष्प में परिवर्तन की क्रिया वाष्पन कहलाती है। वाष्पन या वाष्पीकरण की दर निम्न कारकों पर निर्भर करती है।
(i) द्रव में कार्यरत् अन्तराकणीय बलों की प्रबलता बढ़ने पर वाष्पीकरण की दर कम हो जाती है।
(ii) द्रव का पृष्ठीय क्षेत्रफल बढ़ने पर वाष्पीकरण की दर भी बढ़ जाती है।
(iii) तापमान या वायु की गति में वृद्धि होने पर वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है।
(iv) वायुमण्डल में आर्द्रता में वृद्धि होने पर वाष्पीकरण की दर कम हो जाती है।

अणुगतिज सिद्धान्त के आधार पर वाष्पीकरण की व्याख्या

द्रव्य के अणुगतिज सिद्धान्त के अनुसार, द्रव के अणु विभिन्न वेग से अनियमित गति करते हुए एक-दूसरे से टकराते रहते हैं, जिससे उनकी गतिज ऊर्जा परिवर्तित होती रहती है। इस प्रकार कुछ अणुओं की गतिज ऊर्जा इतनी अधिक हो जाती है, कि वे पृष्ठ पर आकर धीरे-धीरे पृष्ठ को छोड़कर वायुमण्डल में जाने लगते हैं। यह प्रक्रिया वाष्पन (Evaporation) कहलाती है। अधिक ऊर्जा वाले अणुओं के द्रव की सतह से बाहर निकल जाने के कारण द्रव का तापमान कम हो जाता है, अर्थात् शीतलता (Cooling) उत्पन्न होती है।

वाष्पीकरण के प्रभाव Effects of Vaporisation

(i) गीली चादर का धूप में जल्दी सूखना गीली चादर को धूप में फैलाने पर, ताप एवं पृष्ठीय क्षेत्रफल बढ़ने के कारण वाष्पीकरण की दर भी बढ़ जाती है। अतः गीली चादर शीघ्रता से सूख जाती है।

(ii) पानी से भरे मिट्टी के घड़े की बाहरी सतह पर जल के अणुओं का प्रकट होना पानी से भरे मिट्टी के घड़े से जल के अणुओं के बाष्पीकृत हो जाने के कारण शेष बचे जल का तापमान कम हो जाता है। अतः वायुमण्डल में उपस्थित नमी इसके सम्पर्क में आकर वहीं संघनित हो जाती है तथा हमें घड़े के बाहर जल की बूँदों के रूप में दिखाई देती है।

(iii) स्पिरिट को हथेली पर रखने पर ठण्डा महसूस होना स्पिरिट अत्यधिक वाष्पशील द्रव है। इसे हथेली पर रखने पर इसके कण शीघ्रता से हमारी हथेली से ऊष्मा ग्रहण करके वाष्पीकृत हो जाते हैं और हमें शीतलता का अनुभव होता है।
नोट –  ऐसीटोन, पेट्रोल आदि का हाथ या त्वचा आदि पर गिरने पर भी हमें इसी कारण शीतलता का अनुभव होता है।

(iv) गर्मी में सूती कपड़े पहनने से वाष्पीकरण के कारण शीतलता का अहसास होना गर्मियों में सूती कपड़ों को वरीयता दी जाती है, क्योंकि इनकी पसीने को अवशोषित करने की क्षमता उच्च होती है। गर्मी के कारण पसीना वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा के बराबर ऊष्मा हमारे शरीर से लेकर वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में चला जाता है, अत: हमें शीतलता का अनुभव होता है। तेज धूप वाले दिन छतों व खुले स्थानों पर, जल का छिड़काव तेज धूप वाले गर्म दिनों में लोग सामान्यतया छतों तथा खुले स्थानों पर जल का छिड़काव करते हैं, जिससे जल के वाष्पीकरण के कारण वह सतह शीतल हो जाये।

5. ऊर्ध्वपातन Sublimation

कुछ ठोस ऐसे भी होते हैं, जो गर्म करने पर बिना द्रव अवस्था में परिवर्तित हुए, सीधे ही वाष्प में परिवर्तित हो जाते हैं तथा ठण्डा करने पर पुन: ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जाते हैं, ऐसे पदार्थ ऊर्ध्वपातज (Sublimate) कहलाते हैं तथा (NH,CI), ठोस आयोडीन (I2), नेफ्थैलीन आदि। यह प्रक्रिया ऊर्ध्वपातन कहलाती है। उदाहरण- कपूर, अमोनियम क्लोराइड

उपयोग – इस प्रक्रम का प्रयोग ऊर्ध्वपातजों को ऊर्ध्वपातित न होने वाले पदार्थों से पृथक् करने हेतु किया जाता है।

                             ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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