दोस्तों विज्ञान की श्रृंखला में आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल / परिस्थिति पिरामिड के प्रकार है। हम आशा करते हैं कि इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आपकी इस टॉपिक से जुड़ी सभी समस्याएं खत्म हो जाएगी ।
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खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल / परिस्थिति पिरामिड के प्रकार
खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल / परिस्थिति पिरामिड के प्रकार
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खाद्य श्रृंखला किसे कहते है : Food Chain
जब हम पारितन्त्र में ऊर्जा प्रवाह अथवा जैविक घटकों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हैं, तो दिखाई देता है कि इसमें सर्वप्रथम शाकाहारी जीव पादपों को खाते हैं। इन शाकाहारी जीवों को बाद में माँसाहारी जीव खाते हैं, जो स्वयं उच्च माँसाहारी जीवों का शिकार बनते हैं। इस प्रकार एक शृंखला के रूप में ऊर्जा का प्रवाह होता रहता है, इसी शृंखलित ऊर्जा प्रवाह को खाद्य या आहार श्रृंखला कहते हैं।
अतः खाद्य श्रृंखला को हम निम्न प्रकार परिभाषित कर सकते हैं “पारितन्त्र के जैविक घटकों (जीवों) का ऊर्जा या पोषण या भोजन के आधार पर बना एकदिशीय एवं सरल अन्तर्सम्बन्ध ही खाद्य शृंखला कहलाता है।” किसी भी खाद्य शृंखला में ऊर्जा का प्रवाह सदैव उत्पादकों से उपभोक्ताओं की ओर होता है तथा यह जीवों के मध्य के सम्बन्ध को प्रदर्शित करती है।
खाद्य श्रृंखला के उदाहरण निम्नलिखित हैं।
उदाहरण 1 तालाब के पारितन्त्र में खाद्य श्रृंखला निम्न प्रकार है।
उदाहरण 2 इसी प्रकार घास के पारितन्त्र में खाद्य शृंखला निम्न प्रकार है।
खाद्य श्रृंखला के प्रकार Types of Food Chain
खाद्य श्रृंखला निम्न प्रकार की होती है।
(i) परभक्षी (Predator) यह हरे पादपों से आरम्भ होकर फिर क्रमश: छोटे (अर्थात् प्राथमिक उपभोक्ता) व बड़े (अर्थात् तृतीयक उपभोक्ता) जीवों तक जाती है।
(ii) परजीवी (Parasitic) यह हरे पादपों या तृतीयक उपभोक्ता से प्रारम्भ होकर क्रमश: छोटे उपभोक्ताओं और फिर अपघटकों तक जाती है।
(iii) मृतोपजीवी (Saprophytic) मृत देह अथवा कार्बनिक पदार्थों से शुरू होती है।
खाद्य जाल Food Web
जब अनेक प्रकार की खाद्य शृंखलाएँ आपस में जुड़ जाती हैं, तो पारितन्त्र में अन्तर्सम्बन्धों का स्वरूप एक जाल की भाँति दिखाई देता है, इस जटिल अन्तर्सम्बन्धों के जाल को खाद्य जाल कहते हैं। यह जीवों के समुदायों के मध्य के सम्बन्धों को प्रदर्शित करता है। इस जाल में एक प्राणी को खाने वाले कई परभक्षी उत्पन्न हो जाते हैं अर्थात् यहाँ अनेक प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक उपभोक्ता होते हैं। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि जिस पारितन्त्र का खाद्य जाल जितना अधिक जटिल होगा, वह उतना ही अधिक स्थिर होगा, क्योंकि इस प्रकार के जाल से यदि कोई एक प्रजाति रोगग्रस्त या लुप्त हो जाती है, तो उस पर आश्रित परभक्षी का जीवन संकट में नहीं पड़ेगा अर्थात् उसके पास आहार के कई और विकल्प मौजूद होंगे, जो उसे जीवित रखेंगे। दूसरी तरफ यदि किसी अकेली खाद्य शृंखला में कोई भी कड़ी (प्रजाति) लुप्त हो जाए, तो उन प्रजातियों पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है, जोकि इस प्रजाति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं; उदाहरण- एक जंगल में शेर या बाघों के मर जाने पर शाकाहारी जीवों; जैसे-हिरन, नीलगाय, चीतलों की
संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाएगी तथा उस जंगल की वनस्पति के लिए एक संकट उत्पन्न हो जाएगा। अतः पारितन्त्र में प्रत्येक जीव का एक विशिष्ट स्थान है।
उदाहरण 1 घास के मैदान का खाद्य जाल निम्न प्रकार है।
दिए गए खाद्य जाल में यदि किसी कारणवश साँप लुप्त हो जाए, तो भी बाज चूहों का शिकार करेगा अर्थात् चूहों की संख्या में वृद्धि न के बराबर होगी, परन्तु यदि किसी और वजह से चूहों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है, तो यह सम्पूर्ण पारितन्त्र के लिए घातक होगा, क्योंकि अतिरिक्त चूहे मिलकर वनस्पति (उत्पादक) को काफी नष्ट कर सकते हैं, जिससे सम्पूर्ण पारितन्त्र का सन्तुलन बिगड़ सकता है।
उदाहरण 2 वन का खाद्य जाल निम्न प्रकार है
नोट – पारितन्त्र में पोषक तत्वों का प्रवाह ऊर्जा के समान ही होता है किन्तु अपघटन की क्रिया द्वारा यह पुनः ही वातावरण में आ जाते हैं, पोषक तत्वों या पदार्थों के इस चक्रण को जैव-भू-रासायनिक चक्र कहते हैं।
पारिस्थितिक कोण, स्तूप या पिरामिड
Ecological Pyramids
एक पारितन्त्र के विभिन्न जीवों को उनकी संख्या (Number), जीवभार (Biomass) तथा संचित ऊर्जा (Preserved energy) के आधार पर आरेखी चित्रों के रूप में प्रदर्शित करने को ही पारिस्थितिक पिरामिड कहते हैं। सर्वप्रथम चार्ल्स एल्टन (Charles Altan) ने पारिस्थितिक पिरामिडों का आरेखी निरूपण प्रदर्शित किया था। पिरामिड में आरेख के प्रत्येक स्तर को पोषी स्तरों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। किसी भी पिरामिड का आधार सदैव उत्पादक (स्वपोषी) अर्थात् हरे पादप, घास,क्षुप, शैवाल या पादप प्लवक होते हैं तथा उसका संकरा शीर्ष सर्वोच्च उपभोक्ता को प्रदर्शित करता है। ऊर्जा के पिरामिड को छोड़कर शेष पिरामिड उल्टे व सीधे हो सकते हैं। ऊर्जा का पिरामिड सदैव सीधा ही होता है।
पारिस्थितिकी पिरामिड के प्रकार
1. जीव संख्या का पिरामिड Pyramid of Bio-number
इस पिरामिड द्वारा प्रत्येक स्तर पर मौजूद प्रति इकाई क्षेत्रफल में सजीवों की संख्या को प्रदर्शित किया जाता है। पारितन्त्रों में प्रायः उत्पादकों की संख्या सर्वाधिक होती है व इसके बाद क्रमशः प्राथमिक उपभोक्ता, द्वितीयक उपभोक्ता व तृतीयक उपभोक्ताओं की संख्या में कमी आती जाती है। परन्तु स्थिति इसके विपरीत भी हो सकती है; जैसे-घास के मैदान, खेत तथा तालाब के पारितन्त्र में जीव संख्या के पिरामिड्स सीधे बनते हैं, क्योंकि दोनों ही पारितन्त्रों में उत्पादकों की संख्या सर्वाधिक होती है, जबकि प्रथम, द्वितीय तथा उच्च श्रेणियों के उपभोक्ता की संख्या क्रमशः कम होती चली जाती है। इसके विपरीत वृक्ष के पारितन्त्र में जीव संख्या का पिरामिड उल्टा बनता है, क्योंकि यहाँ उत्पादक बड़े आकार के वृक्ष होते हैं, जिनकी संख्या अत्यधिक कम (अधिकतर 1) होती है, जबकि इन वृक्षों पर रहने वाले प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक उपभोक्ताओं की संख्या क्रमशः बढ़ती चली जाती है।
सर्वोच्च उपभोक्ता (माँसाहारी)
द्वितीयक उपभोक्ता (माँसाहारी)
प्राथमिक उपभोक्ता (शाकाहारी)
उत्पादक (हरे पादप)
माँसाहारी मछलियाँ सर्वोच्च उपभोक्ता
शाकाहारी मछलियाँ (प्राथमिक उपभोक्ता)
शैवाल व पादप प्लवक (उत्पादक)
2. जीवभार का पिरामिड Pyramid of Bio-mass
किसी पारितन्त्र के प्रति इकाई क्षेत्रफल में रहने वाले सजीवों का कुल शुष्क भार ही उस पारितन्त्र का जीव भार कहलाता है। स्थलीय पारितन्त्र में उत्पादक का जीवभार ज्यादा होने के कारण पिरामिड सीधा बनता है किन्तु इसके विपरीत समुद्री पारितन्त्र में उत्पादक (पादप प्लवक व शैवाल) का जीवं भार उपभोक्ताओं से कम होता है। अतः यहाँ जीवभार का पिरामिड उल्टा बनता है।
सर्वोच्च उपभोक्ता
द्वितीयक उपभोक्ता
प्राथमिक उपभोक्ता
उत्पादक
3. ऊर्जा का पिरामिड Pyramid of Energy
हमने पहले भी पढ़ा है, कि किसी भी पारितन्त्र में ऊर्जा का पिरामिड सदैव सीधा होता है, क्योंकि उत्पादकों से प्रत्येक कृमिक उपभोक्ता स्तर पर ऊर्जा की कुल मात्रा धीरे-धीरे कम होती जाती है। किसी सामान्य ऊर्जा के पिरामिड को नीचे दिखाए।
तृतीयक उपभोक्ता
द्वितीयक उपभोक्ता
प्राथमिक उपभोक्ता
स्वपोषी (हरे पादप) उत्पादक
पर्यावरण के साथ मानव का समन्वयन
यह अटल सत्य है, कि पर्यावरण के साथ मानव का समन्वयन अति आवश्यक है, क्योंकि जिस प्रकार पर्यावरण किसी स्थान में रहने वाले जीवों को प्रभावित करता ठीक उसी प्रकार जीव भी अपने आस-पास के पर्यावरण को प्रभावित करते हैं, परन्तु अन्य जीवों की तुलना में मानव ने ही पर्यावरण पर नियन्त्रण बनाकर उसे अपने अनुकूल परिवर्तित करने में सर्वाधिक सफलता प्राप्त की है, उदाहरण के लिए मनुष्य ने सिंचाई करने और बिजली बनाने के लिए नदी पर बाँध बनाए हैं, यातायात को सुगम बनाने के लिए सड़कों और पुलों का निर्माण किया है और जंगलों को काटकर आबादी के लिए आवास तथा खेती योग्य भूमि का क्षेत्र बढ़ाया है। इस प्रकार मानव ने विकास के लोभ में पर्यावरण का उचित या अनुचित एवं विवेकपूर्ण या अविवेकपूर्ण दोहन किया है, जिसके कारण प्रदूषण (Pollution), वैश्विक ऊष्णता (Global warming), ओजोन परत का क्षरण (Depletion of ozone layer), आदि गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। अतः वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण के प्रयास भी किए जा रहे हैं, जिनका अध्ययन हम अगले अध्याय में विस्तृत रूप में करेंगे।
◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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