निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा / निर्देशन के प्रकार,उद्देश्य,विधियां

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय समावेशी शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा / निर्देशन के प्रकार,उद्देश्य,विधियां आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा / निर्देशन के प्रकार,उद्देश्य,विधियां

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Concept of Guidance and Counselling / निर्देशन के प्रकार,उद्देश्य,विधियां

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निर्देशन एवं परामर्श की अवधारणा
Concept of Guidance and Counselling

निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया नवीन नहीं है वरन् इसका प्रचलन पुरातनकाल से समाज में चला आ रहा है। प्राचीनकाल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र पर दृष्टि डाली जाय तो प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से निर्देशन एवं परामर्श की भूमिका उपस्थित होती है। प्राचीनकाल में महाभारत के युद्ध के समय योगीराज कृष्ण ने अर्जुन को भ्रमित होते हुए देखकर तथा कर्तव्य मार्ग से विचलित पाकर उन्हें निर्देशन एवं परामर्श प्रदान किया। इस निर्देशन एवं परामर्श के आधार पर ही अर्जुन ने युद्ध का निर्णय लिया तथा अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया। इस प्रकार निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया के कारण ही गीता जैसे महान् ग्रन्थ का जन्म हुआ। निर्देशन एवं परामर्श के अनेक उदाहरण भारतीय वैदिक काल में देखे जा सकते हैं जो कि सामाजिक,राजनैतिक एवं आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्धित हैं।

रामायण जैसे महान् ग्रन्थ की रचना एवं रामचरितमानस की रचना निर्देशन एवं परामर्श का ही परिणाम है। वाल्मीक को लूटे जाने वाले साधुओं द्वारा उन्हें निर्देशन एवं परामर्श प्रदान किया गया, जिससे उन्हें जगत् की वास्तविकता का ज्ञान हुआ तथा उन्होंने रामायण जैसे महान ग्रन्थ की रचना की। गोस्वामी तुलसीदासजी की पत्नी रत्नावली ने अपने एक दोहे में ही उन्हें परामर्श देते हुए कहा कि ‘अस्थि चर्ममय देह मम् तामें ऐसी प्रीति जो होती रघुवीर पद तो न होय भयभीत ।’ तुलसीदासजी समझ गये कि उनके हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम होना चाहिये न कि मानवीय देह के प्रति । आगे चलकर उन्होंने निर्देशन एवं परामर्श प्रदान करने वाले महान् ग्रन्थ श्री रामचरितमानस की रचना की। इस प्रकार निर्देशन एवं परामर्श का सर्वोत्तम स्वरूप प्राचीनकाल में था।

निर्देशन का अर्थ / निर्देशन किसे कहते हैं

‘निर्देशन’ वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उसकी समस्याओं के समाधान के लिये विशेष प्रकार की सहायता प्रदान की जाती है। निर्देशन वह विधियाँ बताता है जिनका प्रयोग करके व्यक्ति समायोजन की समस्याओं को स्वयं सुलझा सकता है। यह तथ्य ध्यान में रखने योग्य है, कि निर्देशन में किसी प्रकार की बाध्यता नहीं है और न ही यह किसी प्रकार का आदेश है। इसमें किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण किसी अन्य व्यक्ति को प्राप्त होने वाली वह सहायता है, जो उसके जीवन को व्यवस्थित करने और उसके दृष्टिकोण को विकसित करने में सहायक होती है।

इस प्रकार निर्देशन में दो व्यक्ति होते हैं एक वह जो निर्देशन प्राप्त करता है और दूसरा वह जो निर्देशन देने वाला है। संक्षेप में निर्देशन वह क्रिया है, जो व्यक्ति को आत्म दर्शन करने तथा आत्मशक्ति का समुचित सहयोग करने में सहायता प्रदान करती है। इसके द्वारा व्यक्ति को अपनी प्रतिभा, बुद्धि, योग्यता तथा सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त होता है, जिनका वह परिस्थिति के अनुसार कुशलतापूर्वक प्रयोग करना सीखता है।

निर्देशन की परिभाषाएं

विभिन्न विद्वानों ने निर्देशन की परिभाषाएँ अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत की जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) एमरीस्टूप्स (Emerystoops) के अनुसार, “निर्देशन सहायता प्रदान करने की एक ऐसी प्रवाहित अनवरत प्रक्रिया (Continuous Process) है, जो व्यक्तिगत तथा सामाजिक दृष्टि से हितकारी क्षमताओं का विकास अधिकतम रूप से व्यक्ति में करती है।”

(2) आर्थर जे. जोन्स (Arther J. Jones) ने कहा है, “व्यक्तियों को बुद्धिमतापूर्वक चुनाव का समायोजन करने में दी जाने वाली सहायता निर्देशन है।”

(3) माध्यमिक शिक्षाआयोग(Secondary Education Commission) के अनुसार, “निर्देशन में बालक और बालिकाओं की सहायता करने की वह कठिन कला सम्मिलित है, जिसके द्वारा वे अपने भविष्य को बुद्धिमतापूर्वक, सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए अपनी योजना बनाते हैं, जिनके मध्य रहकर उन्हें संसार में काम करना होगा।”

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(4) स्किनर (Skinner) के कथन में, “निर्देशन युवकों को स्वयं से, अन्य से और परिस्थितियों से सामंजस्य करना एवं सीखने के लिये सहायता देने की प्रक्रिया है।”

(5) सी. वी. गुड (C.V. Good) के शब्दों में, “निर्देशन मानव के दृष्टिकोण एवं उसके बाद के व्यवहार को प्रभावित करने के उद्देश्य से स्थापित, गतिशील आपसी सम्बन्धों का एक प्रक्रम है।”

(6) लीफिवर, टसेल और विजिल (Lefever, Tussel and Weitzil) के अनुसार, “निर्देशन एक शैक्षिक सेवा है, जो विद्यालय में प्राप्त दीक्षा का अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाला उपयोग करने में विद्यार्थियों की सहायता प्रदान करने के लिये आयोजित की जाती है।”

(7) जे. एम. ब्रिवर (J. M. Briver) ने कहा है, “निर्देशन एक ऐसा प्रक्रम है, जो व्यक्ति में अपनी समस्याओं को हल करने में स्वयं निर्देशन की क्षमता का विकास करता है।”

(8) जी. ई. स्मिथ (G.E. Smith) के शब्दों में, “निर्देशन प्रक्रिया सेवाओं के उस समूह से सम्बद्ध हैं, जो व्यक्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में सन्तोषजनक व्यवस्थापन के लिये आवश्यक पर्याप्त चुनाव, योजना एवं व्याख्या के लिये अपेक्षित अवस्थाओं एवं ज्ञान को प्राप्त करने में योग प्रदान करती हैं।”

(9) आर. एच. मैथ्यूसन (R. H. Mathewson) के अनुसार, “निर्देशन शैक्षिक और विकासात्मक पक्षों पर बल देते हुए अधिगम की प्रक्रिया के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।”

(10) डेविड वी. टिडमैन (Devid V. Tidman) के शब्दों में, “निर्देशन का उद्देश्य व्यक्तियों को उद्देश्यपूर्ण बनाना है न कि केवल उद्देश्यपूर्ण क्रिया में, सहायता देना है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि निर्देशन प्रत्येक छात्र को इस प्रकार सहायता देता है कि वह अपनी योग्यता तथा शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर सके तथा इन योग्यताओं और शक्तियों का विकास करते हुए उनका सम्बन्ध जीवन-मूल्यों से स्थापित कर सके और अन्त में वह इस योग्य बन सके कि अपना पथ-प्रदर्शन स्वयं कर सके।

निर्देशन के उद्देश्य ( Aims of Guidance in hindi )

प्राथमिक तथा जूनियर स्तर पर शैक्षिक निर्देशन के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) छात्रों को उचित विषयों के चुनाव करने में सहायता देना। (2) उन्हें विद्यालय जीवन से सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देना। (3) रूथ स्टैंग (Ruth Strang) के “व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने का मुख्य उद्देश्य होता है, छात्र को उपयोगी कार्यक्रम को चुनने तथा उसमें प्रगति करने में सहायता देना।” (4) छात्रों को सद्गुणों, श्रेष्ठ आदतों तथा उत्तम रुचियों का विकास करने में सफलता देना।

(5) उन्हें उत्तम सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता प्रदान करना। (6) भावी व्यवसाय का चयन करने में सहायता प्रदान करना। (7) इस प्रकार की सहायता पदान करना कि छात्र अपने अध्ययन में सन्तोषजनक सफलता प्राप्त कर सकें। (8) शैक्षिक निर्देशन का अन्य उद्देश्य है, छात्रों को अपनी आगामी शिक्षा की सूचना प्राप्त करने में सहायता देना। (9) छानों को शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक दोषों को जानने तथा उन्हें दूर करने में सहायता देना। (10) अनुकूल पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भाग लेने के लिए छात्रों को उत्साहित अनुसार, करना।

निर्देशन के प्रकार ( Types of Guidance in hindi )

निर्देशन के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-(1) व्यक्तिगत निर्देशन, (2) शैक्षिक निर्देशन, (3) स्वास्थ्य निर्देशन, (4) सामाजिक निर्देशन, (5) व्यावसायिक निर्देशन।

1. व्यक्तिगत निर्देशन (Personal guidance) यह निर्देशन व्यक्तिगत कठिनाइयों में सम्बन्धित होता है। इसमें निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है- (1) छात्रों को अलग से निर्देशन देना। (2) छात्रों को उनकी समस्याओं का ज्ञान कराना और उन्हें समुचित सलाह देना। (3) छात्रों के सन्तुलित विकास में सहायता करना। (4) छात्रों को अध्ययन के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना। (5) छात्रों के वातावरण से सामजस्य स्थापित करने में व्यक्तिगत रूप में सहायता देना।

2. शैक्षिक निर्देशन (Educational guidance)-जोन्स (Jones) ने शैक्षिक निर्देशन की परिभाषा इस प्रकार दी है-“शैक्षिक निर्देशन का अर्थ उस व्यक्तिगत सहायता से है, जो छात्रों को इस कारण प्रदान की जाती है कि वे अपने लिये उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य-विषय एवं विद्यालयी जीवन का चयन कर सकें और उनसे समायोजन कर सकें।” संक्षेप में,शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध शिक्षा और अध्ययन से होता है। इसमें निम्नलिखित बातें सम्मिलित होती हैं- (1) सीखने की समस्याओं का निदान तथा उपचार करना। (2) पाठ्य-विषयों का चयन करते समय छात्रों का मार्गदर्शन करना। (3) विद्यालय में प्रवेश के समय छात्रों को आवश्यक एवं उचित निर्देशन देना। (4) छात्रों को भावी योजना बनाने में सहायता देना और अन्य उच्च शिक्षा संस्थाओं के सम्बन्ध में सूचना देना। (5) छात्रों को ज्ञानार्जन तथा अध्ययन की श्रेष्ठ विधियाँ बताना। (6) बालकों की पारिवारिक पृष्ठभूमि, शैक्षिक उपलब्धि तथा सहायता या मार्गदर्शन देना।

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3. स्वास्थ्य निर्देशन (Health guidance) स्वास्थ्य निर्देशन का सम्बन्ध विशेष रूप से छात्र की स्वास्थ्य सुरक्षा से है। स्वास्थ्य निर्देशन के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
(1) छात्रों को स्वस्थ जीवन के महत्त्व के विषय में बताना । (2) छात्रों को उत्तम स्वस्थ आदतों के विषय में बताना । (3) अस्वस्थकारी आदतें छोड़ने के विषय में उचित परामर्श देना। (4) छात्रों को प्राथमिक उपचार (First aid) के विषय में जानकारी कराना और उसका प्रशिक्षण देना। (5) निर्बल तथा अपंग बालकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करना। (6) छात्रों को यौन शिक्षा (Sex-education) की वांछित जानकारी देना।

4. सामाजिक निर्देशन (Social guidance) इसमें छात्रों को सामाजिक सम्बन्धों का निर्देशन दिया जाता है। इस निर्देशन में निम्नलिखित बातें होती हैं-
(1) छात्रों को सामाजिक समायोजन के विषय में आवश्यक परामर्श देना। (2) छात्रों  को सामाजिक व्यवहारों के विषय में विभिन्न सूचनाएँ प्रदान करना। (3) छात्रों को विद्यालय के सामाजिक जीवन का ज्ञान कराना। (4) विद्यालय में सामाजिक कार्यक्रम के आयोजनों को संगठित करने में छात्रों की सहायता करना।

5. व्यावसायिक निर्देशन (Vocational guidance) व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत बालकों को वे सुझाव दिये जाते हैं, जिन्हें ग्रहण करके वे अपने भविष्य के लिये व्यवसाय का चुनाव करते हैं। इस विषय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है-

(1) किसी छात्र या व्यक्ति विशेष को इस बात के लिये सहायता देना कि वह अपने लिये उचित व्यवसाय का चुनाव ठीक प्रकार से कर सके। (2)छात्रों को विभिन्न व्यवसायों के विषय में जानकारी कराना। (3) विभिन्न व्यवसायों के गुण एवं दोषों की सूचना प्रदान कराना। (4) छात्रों की रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं से सम्बन्धित व्यवसायों की जानकारी प्राप्त कराना और उसके आधार पर छात्रों को निर्देशन देना। (5) छात्रों को इस प्रकार की सहायता प्रदान करना, जिससे वे अपनी योग्यताओं और कुशलताओं का ठीक प्रकार से मूल्यांकन कर सकें और इस मूल्यांकन के आधार पर अपने योग्य व्यवसाय का चुनाव कर सकें। (6) छात्रों को विभिन्न व्यवसायों वाले प्रशिक्षण केन्द्रों की सूचना या जानकारी देना। (7) विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित विषयों के बारे में छात्रों को बताना।

निर्देशन की विधियाँ / Methods of Guidance in hindi

छात्रों को निर्देशन प्रदान करने के लिए प्राय:दो विधियाँ प्रयोग की जाती हैं–
1. वैयक्तिक सम्पर्क विधियाँ-

इन विधियों में निर्देशक छात्रों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करता है- (1) प्रत्येक निर्देशन प्रार्थी अपने में विचार किये हुए व्यवसाय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। निर्देशक उसकी रुचि को बनाये रखने के लिए उसे उसके विचार किये व्यवसाय के सम्बन्ध में सूचना तो देता ही है, परन्तु साथ ही प्रार्थी को अपनी क्षमता एवं सम्भावनाओं का उचित मूल्यांकन करने के लिए भी प्रेरित करता है। (2) कोई छात्र विभिन्न व्यवसायों के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहे तो उसे सहायता देना। (3) व्यावसायिक सूचना सामग्री के अध्ययन में यथासम्भव प्रार्थी को आवश्यकतानुसार सहायता देना। (4) प्रार्थी के लिए कौन-सी व्यावसायिक सूचना सामग्री उपयुक्त है, इसका निश्चय करना।

2. व्यावसायिक सूचना प्रदान करने की सामूहिक विधियाँ-

यह सत्य है कि वैयक्तिक सम्पर्क एवं साक्षात्कार व्यावसायिक जानकारी प्रदान करने का एक प्रभावशाली साधन है, परन्तु निर्देशनकर्ताओं का अल्प संख्या में होना, प्रार्थियों का अधिक संख्या में होना तथा समय एवं धन की कमी आदि ऐसे कारण हैं, जिसके कारण प्रत्येक स्थिति में वैयक्तिक सम्पर्क स्थापित करना जटिल कार्य हो जाता है। वैयक्तिक सम्पर्क की जटिलता को ध्यान में रखते व्यावसायिक सूचनाएँ प्रस्तुत करने की सामूहिक विधियाँ विकसित की गयी हैं, जिनमें से प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) सिनेमा या चित्रपट माध्यम से व्यावसायिक सूचनाएँ प्रदान करना। (2) विभिन्न व्यावसायिक सूचनाओं को पाठ्यक्रम में स्थान देना। (3) व्यावसायिक सूचना सम्मेलनों का आयोजन करना। (4) विभिन्न उद्योगों, पदों एवं क्षेत्रों में कार्य करने वाले अनुभवी व्यक्तियों को भाषण के लिए आमन्त्रित करना। (5) प्रमुख स्थलों पर पोस्टरों एवं विज्ञापन की कतरनों द्वारा व्यावसायिक सूचनाओं का प्रदर्शन करना । (6) कक्षा एवं विद्यालय हाल में व्यावसायिक सूचना सम्बन्धित चार्ट, आँकड़ों, ग्राफिक विश्लेषण तथा पैम्पलेटों का प्रदर्शन करना। (7) रेडियो और टेलीविजन के द्वारा व्यावसायिक सूचनाएँ प्रदान करना।

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(8) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं को माध्यम बनाकर व्यावसायिक सूचनाएँ प्रदान करना। (9) व्यावसायिक सूचनाएँ प्रदान करने के लिए पृथक् कक्षाओं का आयोजन करना। (10) औद्योगिक एवं व्यापारिक सस्थानों का भ्रमण करा कर। (11) व्यावसायिक सूचना सम्बन्धी प्रदर्शनियाँ का आयोजन परक। (12) पुस्तकालय को व्यावसायिक सूचना सेवा का आधार बनाना। इसके लिए पुस्तकालय में एक अलग से कक्ष बनाया जा सकता हैए जिसमें विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित पुस्तकों, पुस्तिकाओं तथा समाचार-पत्रों आदि की व्यवस्था की जा सकती है। उपर्युक्त दोनों विधियों में प्राय: एक-से ही सोपानों का प्रयोग किया जाता है। प्रमुख सोपान निम्नलिखित हैं-

1. अनुस्थापन वार्तालाप (Orientation Talks)-निर्देशक छात्रों से विभिन्न प्रकार के वार्तालाप करता है। वार्तालाप के मध्य छात्रों की रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त कर तथ्यों का संकलन करता है। इसके साथ-साथ वह उनको निर्देशन की आवश्यकता तथा महत्त्व के विषय में भी बताता है, जिससे वे निर्देशन के लिये उत्साहित हो सकें।

2. साक्षात्कार (Interview) साक्षात्कार द्वारा छात्रों की योग्यताओं, रुचियों तथा समस्याओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है और उसके आधार पर निर्देशन दिया जाता है।

3. मनोवैज्ञानिक परीक्षण (Psychological Test)–निर्देशनकर्ता मानसिक योग्यताओं और पाठ्य-विषयों में उपलब्धियों का मूल्यांकन करने के लिए बुद्धि एवं रुचि सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक परीक्षण करता है।

4. प्रश्नावली (Questionnaire)–विभिन्न तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने के लिए निर्देशनकर्ता उनसे सम्बन्धित अनेक प्रश्नावलियाँ तैयार करता है। किये गये प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर वह छात्रों की विचारधाराओं तथा आवश्यकताओं से परिचित होता है।

5.विद्यालय से तथ्यों का संकलन (Data Collection from School) छात्रों की रुचियों, आदतों तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं की जानकारी करने के लिए निर्देशनकर्ता विद्यालय में संग्रहीत संचित अभिलेखों (Cummulative Records) का अध्ययन करता है।

6.पारिवारिक स्थितियों का अध्ययन (Study of Family Conditions) – माता-पिता अपने बालकों की रुचियों, रुझानों तथा आवश्यकताओं के विषय में पर्याप्त जानकारी रखते हैं। अत: निर्देशनकर्ता उनसे विभिन्न जानकारी प्राप्त कर उनके विषय में तथ्यों का संकलन करता है। इसके अतिरिक्त वह परिवारों की आर्थिक और सामाजिक दशाओं के विषय में जानकारी प्राप्त करता है।

7. पार्श्वचित्र (Profiles) विभिन्न स्रोतों द्वारा बालकों के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ एकत्र कर ली जाती हैं, उन्हें एक पार्श्वचित्र (Profile) में व्यक्त किया जाता है। पार्श्वचित्र को देखकर एक साथ ही बालक के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ ज्ञात की जाती हैं। इन सूचनाओं के आधार पर बालक को सरलता से शैक्षिक या व्यावसायिक निर्देशन दिया जा सकता है।

8. अनुवर्ती कार्यक्रम (Follow-up Programmes) निर्देशन प्रदान करने के पश्चात् भी यह देखना आवश्यक हो जाता है कि बालकों को जिस क्षेत्र में निर्देशन प्रदान किये गये हैं, उनमें उन्होंने सन्तोषजनक प्रगति की है अथवा नहीं? यदि प्रगति असन्तोषजनक रहती है, तो पुन: उपर्युक्त सोपानों का प्रयोग करके संशोधित निर्देशन देना आवश्यक हो जाता है।

निर्देशन के विषय में सम्पूर्ण अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक बनाने के लिए निर्देशन पर विशेष रूप से बल देना आवश्यक है। इस उद्देश्य से ही माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा कोठारी आयोग ने निर्देशन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। परन्तु यह खेद का विषय है कि अभी तक इस दिशा में कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया गया है।

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