निर्देशन की आवश्यकता / निर्देशन का क्षेत्र

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Need of Guidance in hindi / निर्देशन की आवश्यकता / निर्देशन का क्षेत्र

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निर्देशन की आवश्यकता ( Need of Guidance in hindi )

निर्देशन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) ने लिखा है, “निर्देशन की आवश्यकता सभी युगों में रही है, पर आज इस देश (भारत) में जो दशाएँ उत्पन्न हो रही हैं, उन्होंने इस आवश्यकता को पर्याप्त रूप से बलवती बना दिया है।”
हम निर्देशन की आवश्यकता पर चार दृष्टिकोण से विचार कर सकते हैं-
(1) व्यक्ति के दृष्टिकोण से, (2) शिक्षा के दृष्टिकोण से, (3) समाज के दृष्टिकोण से और (4) मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से।

1. व्यक्तिगत दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता

उत्तरी अमेरिका में वर्जीनिया (Virginia) राज्य के कुछ चुने हुए शिक्षकों ने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को सामने रखकर एक वक्तव्य प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि निर्देशन व्यक्ति की निम्नांकित आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये अनिवार्य है-

(1) व्यक्ति के रूप में सम्मान तथा मान्यता प्राप्त करने के लिये। (2) अनुभवों और योग्यताओं का विकास और प्रयोग करने का अवसर प्राप्त के लिये। (3) सद्भावना, प्रेम तथा समझ प्राप्त करने के लिये। (4) यह अनुभव कराने के लिये कि वह जिस समूह का सदस्य है, उसे योगदान दे रहा है। (5) समाज में ऐसा स्थान प्राप्त करने के लिये, जिसमें वह व्यक्तिगत आनन्द का उपयोग करता है। (6) समाज के परिवर्तनों से सामंजस्य करने हेतु साधन सम्पन्नता (Resourcefullness) और आत्म-निर्देशन का विकास करने के लिये। (7) नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों एवं भावुकता का विकास करने के लिये। (8) स्वयं की, योग्यताओं, निर्बलताओं और समर्थताओं की जानकारी प्राप्त करने के लिये। उक्त वक्तव्य दो विश्वासों पर आधारित हैं। पहला, निर्देशन पर व्यक्ति की उपर्युक्त आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने का दायित्व है। दूसरा, प्रत्येक व्यक्ति में विकास, परिवर्तन और उचित चुनाव करने की क्षमता है।

2.शैक्षिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता

शैक्षिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता के आधारभूत कारण निम्नलिखित हैं–
1. अपव्यय और अवरोधन (Wastage and Stagnation) भारतीय शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर अपव्यय और अवरोधन की समस्याएँ अत्यन्त जटिल हैं। यदि छात्रों को निर्देशन मिल जाय तो यह समस्या कम की जा सकती है। कोठारी शिक्षा आयोग ने इसकी आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है, “निर्देशन प्राथमिक विद्यालय की निम्नतम कक्षा से आरम्भ होना चाहिये। इसे उन छात्रों को सहायता देने के लिये प्रयोग किया जा सकता है, जिनको विद्यालय को छोड़ने की सम्भावना है।”

2. छात्र संख्या में वृद्धि (Increase in number of students) छात्र संख्याओं में शिक्षा के सभी स्तरों पर पर्याप्त वृद्धि हुई है। इस वृद्धि के परिणामस्वरूप उनकी क्षमताओं,योग्यताओं,रुचियों तथा विभिन्नताओं में भी वृद्धि हुई है। यदि निर्देशन द्वारा उन्हें उपयुक्त शिक्षा प्रदान कर दी जाये तो ये छात्र देश के श्रेष्ठ नागरिक बनाये जा सकते हैं।

3. व्यावसायीकरण पर बल (Stress on vocationalization) स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् औद्योगिक और व्यावसायिक प्रगति में सहायता देने के उद्देश्य से शिक्षा के व्यावसायीकरण पर बल दिया गया है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने बहु-उद्देशीय विद्यालयों का और शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के व्यवसायीकरण का सुझाव देकर इस दिशा में प्रशंसनीय कदम उठाये हैं। छात्रों को अपनी समर्थताओं के अनुसार उचित व्यवसाय का चुनाव करने के लिये उनको निर्देशन दिया जाना अनिवार्य है। इस पर बल देते हुए शिक्षा आयोग ने लिखा है, “निर्देशन छात्रों को वास्तविक शैक्षिक और व्यावसायिक चुनावों को करने और योजनाओं को बनाने में सहायता देता है।”

4. अनुशासनहीनता (Indiscipline) स्वतन्त्र भारत में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है, इस समस्या का प्रमुख कारण यह है कि छात्रों को अपनी शक्तियों को उचित कार्यों में लगाने और अपने अवकाश का सदुपयोग करने के लिये किसी प्रकार का निर्देशन उपलब्ध नहीं है। शिक्षकों की निर्देशन के कार्य में भागीदारी बताते हुए स्व. प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने कहा था, “शिक्षक ही तरुण व्यक्तियों को प्रेरित और निर्देशित कर सकता है।”

5. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर बल (Stress on science and technology)-आधुनिकीकरण के मुख्य आधार हैं विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी। इनके कारण ही आज रूस तथा अमेरिका विकसित देशों की श्रेणी में हैं। कोठारी शिक्षा आयोग ने कहा है कि भारत का आधुनिकीकरण करने के लिये इनकी शिक्षा को प्राथमिकता दी जाय। सरकार ने इस सुझाव को मान्यता प्रदान की है और माध्यमिक एवं उच्च स्तरों पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा अनवरत रूप से विस्तार कर रही है। यदि छात्रों को इस दिशा में ठोस निर्देशन दिया जाय तो वे अपने स्वाभाविक रुझानों के अनुकूल विज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्रों में और विशिष्टता अर्जित कर सकते हैं।

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3. सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता

समाज के दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित प्रकार है-

1. सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन (Change in social values) स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से अब तक भारतीय समाज में नवीन विचारों, जैविकीय कारकों एवं जनसंख्या की वृद्धि आदि के कारण अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। प्राचीन मूल्यों का हास हो चुका है और उनके स्थान पर नये मूल्य स्वीकार कर लिये गये हैं। भारत आध्यात्मिकता से भौतिकवाद की ओर अग्रसर है। सामाजिक परिवर्तन की भूमिका में छात्रों हेतु उचित निर्देशन आवश्यक है।

2. जनसंख्या में परिवर्तन (Change in population)-भारत की जनसंख्या वर्ष 1961 में 43.92 करोड़ थी। वर्ष 1991 में यह 85 करोड़ के लगभग हो गयी। सन् 2011 में सवा अरब को पार कर चुकी है। जनसंख्या की इस वृद्धि ने सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होकर व्यक्तियों की प्रकृति में परिवर्तन ला दिया है। इस परिवर्तन के अनुसार शिक्षा देने के लिये निर्देशन का आयोजन अपेक्षित है।

3. उचित स्थिति हेतु इच्छा (Desire for proper status)—प्रत्येक व्यक्ति में अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुकूल जीविकोपार्जन का कार्य प्राप्त करने की स्वाभाविक  इच्छा होती है। यदि निर्देशन के माध्यम से उसे मानसिक सन्तोष का कार्य मिल जाय तो वह अधिक राष्ट्रोपयोगी उत्पादक हो सकता है।

4. पारिवारिक दशाओं में परिवर्तन (Change in the home conditions) व्यक्तिवाद तथा आधुनिकता के प्रभाव ने सामाजिक विघटन कर दिया है, परिवार टूट चुके हैं। वैयक्तिक परिवार को जन्म मिला है। अब माता-पिता स्वयं अपनी सन्तान की शिक्षा का भी उचित ध्यान नहीं रख पाते और विद्यालय को अपने बालक-बालिकाओं को सौंप देते हैं। बालक विभिन्न सामाजिक वर्गों तथा स्थितियों से सम्बन्धित होते हैं। यदि पूर्व में निर्देशन द्वारा उनकी क्षमताएँ तथा रुचियाँ देख ली जायें, तो शिक्षा लाभप्रद हो सकती है।

5. नैतिक तथा धार्मिक मूल्यों में परिवर्तन (Change in moral and religious values)-पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होकर भारतीयों के नैतिक और धार्मिक मूल्यों में विलक्षण परिवर्तन देखने में आया है। नवयुवक तथा नवयुवतियों पर कुछ सीमा तक इस सभ्यता तथा संस्कृति का शौक-सा चढ़ा हुआ है, फलस्वरूप नैतिक तथा धार्मिक मूल्य आस्थाहीन हो चुके हैं। छात्र-छात्राओं को सचरित्र बनाने तथा उनका आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान करने के लिये निर्देशन का प्रतिरक्षण आवश्यक है।

6. औद्योगिक मूल्यों में परिवर्तन (Change in industrial values) आधुनिक भारत में यन्त्रीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया अविराम गति से आगे बढ़ रही है। परिणामस्वरूप नये उद्योग सृजित हो रहे हैं। अब तक हजारों व्यवसाय प्रारम्भ हो चुके हैं और चल रही पंचवर्षीय योजना में और नये उद्योग लगाने का प्रस्ताव है। इसमें वृद्धि हो रही है। इन उद्योगों के संचालन हेतु विशिष्ट प्रकार के प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों की आवश्यकता होगी जो कि उचित निर्देशन प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव है।

4. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित प्रकार है-
1. श्रेष्ठ समायोजन (Better adjustment)—प्रत्येक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ समायोजन होना आवश्यक होता है। श्रेष्ठ समायोजन में भय, असुरक्षा एवं उदासीनता आदि द्वारा मुक्ति निहित होती है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता पर विचार व्यक्त करते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है “यदि हम अपने स्वयं के निकटवर्ती वातावरण के कुसमायोजित व्यक्तियों की संख्या पर विचार करते हैं तो भी हम व्यवहार और मनोभाव अधिक उपयुक्त निर्देशन की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।”

2. व्यक्तित्व का विकास (Development of personality) बालक को दी गयी । शिक्षा तथा मानसिक विकास द्वारा उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। इस प्रकार वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्य एवं कार्यों के अनुरूप उसमें वांछित परिवर्तन एवं विकास होता है। शिक्षा द्वारा उसके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास की कल्पना की गयी है। यह कार्य उचित निर्देशन-सेवा द्वारा सम्भव है। कुप्पूस्वामी के कथनानुसार, “केवल निर्देशन सेवा का आयोजन ही व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिये, जो आधुनिक शिक्षा का लक्ष्य है, आवश्यक दशाओं की व्यवस्था कर सकता है।”

3. संवेगात्मक समस्याओं का समाधान (Solution of emotional problems)- प्रत्येक बालक के जीवन में अपने साथियों, परिवार एवं व्यवसाय आदि से भावात्मक समायोजन न कर सकने के कारण अपने आपको संवेगात्मक समस्याओं के परिवेश में पाने के अवसर आले हैं। इन समस्याओं द्वारा उसका व्यवहार तथा मानसिक शान्ति विकृत एवं नष्ट हो जाती है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि उसमें संवेगात्मक स्थिरता का गुण उत्पन्न हो ताकि इस समस्या का समाधान किया जा सके। यह कार्य सतत् निर्देशन-सेवा द्वारा ही सम्भव है।

4. वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुरूप शिक्षा (Education according to individual differences) शिक्षा का स्वरूप अब बदल चुका है। अब शिक्षा प्रत्येक बालक को उसकी रुचि, रुझान, योग्यताओं तथा आकांक्षाओं की विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए दी जा रही है, ताकि उसे अपेक्षित दिशा में आगे विकसित किया जा सके। कुप्पूस्वामी के अनुसार,”हमारे विद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रम का विभिन्नताओं की इस विस्तृत सीमा से समायोजन करने के लिये प्रत्येक छात्र की विभिन्न आवश्यकताओं और योग्यताओं की अधिकाधिक जानकारी आवश्यक है। यह विद्यालय में केवल विशिष्ट निर्देशन-सेवा का आरम्भ करके ही सम्भव है।”

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5. बाल अपराध का निदान एवं उपचार (Diagonosis and remedy of delin- quency)-आजकल आनुवांशिक तथा वातावरण के दुष्प्रभाव के कारण बाल-अपराध बढ़ रहे हैं। एक शिक्षक इनका निदान कर निर्देशन के माध्यम से उचित उपचार कर सकता है। फलस्वरूप उनमें अपेक्षित सुधार किया जा सकता है।

भारतीय विद्यालयों में निर्देशन की आवश्यकता

आधुनिक भारत में निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है-

1. व्यक्तिगत भेद के कारणों के लिये-प्रत्येक कक्षा में विभिन्न वातावरण के छात्र आते हैं, जिनमें व्यक्तिगत भेद पाये जाते हैं। इन व्यक्तिगत भेदों के कारण ही उनकी बौद्धिक और मानसिक क्षमताओं में अन्तर होता है। इस अन्तर या व्यक्तिगत भेदों के कारण छात्रों को निर्देशन की परम आवश्यकता है, व्यापक व्यक्तिगत भेदों के होते हुए शिक्षा को प्रभावशाली तथा व्यावहारिक केवल निर्देशन के द्वारा ही बनाया जा सकता है।

2. शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन-शिक्षा का उद्देश्य बालक के मस्तिष्क में केवल ज्ञान भरना मात्र नहीं है, वरन् बालक का बहुमुखी विकास करना है। बालक का बहुमुखी विकास उसी दशा में हो सकता है, जबकि उनके विभिन्न पहलुओं का ठीक प्रकार से अध्ययन करके उसे उचित परामर्श दिया जाय। यह कार्य केवल निर्देशन के द्वारा ही हो सकता है।

3. पाठ्यक्रम का नवीन स्वरूप-माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझावों के कारण विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गयी है। छात्रों को सात समूहों में से किसी एक समूह को चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। ऐसी दशा में उन्हें निर्देशन प्रदान करना परम आवश्यक हो जाता है क्योंकि वे सात समूहों में से गलत समूह का चुनाव भी कर सकते हैं। अतः सही समूह का चुनाव निर्देशन के अभाव में नहीं हो सकता।

4. विद्यालय का नवीन स्वरूप-स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में अनेक प्रकार के विद्यालयों की स्थापना हो चुकी है। इन समस्त नवीन विद्यालयों और उनमें पढ़ाये जाने वाले विषयों की जानकारी के लिये निर्देशन का आयोजन आवश्यक है।

5. औद्योगिक विकास में सहायक-स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में विभिन्न उद्योगों का विकास तीव्रता से हुआ है। अनेक नवीन उद्योगों की स्थापना हो चुकी है। इन उद्योगों में काम करने के लिये अलग-अलग क्षमताओं और कुशलताओं वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। ऐसी दशा में निर्देशन का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है। विभिन्न उद्योगों की जानकारी,उनमें प्रवेश प्राप्त कराने की विधि एवं वांछित योग्यताओं आदि की सूचना तथा परामर्श देने के लिये निर्देशन आवश्यक है। निर्देशन द्वारा श्रमिकों तथा तकनीशियनों की कार्यकुशलता में भी वृद्धि की जा सकती है तथा छात्रों को उचित व्यवसाय चुनने में सहायता प्रदान की जा सकती है।

6. सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के कारण-स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय सामाजिक जीवन में द्रुत गति से परिवर्तन आये हैं। ग्रामीण जनता गाँव छोड़कर नगरों की ओर आ रही है। नगरों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ग्रामीण छात्र अपने को नगर के सामाजिक जीवन से समायोजित नहीं कर पाते और व्यर्थ की चमक-दमक में उलझ जाते हैं। संयुक्त परिवार प्रथा प्रायः दम तोड़ चुकी है और जाति-पाँति के बन्धन भी ढीले पड़ने लगे हैं। भौतिकता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है तथा आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा की जा रही है। इस प्रकार के परिवर्तनों के कारण व्यक्ति अपने को किंकर्तव्यविमूढ़ पाता है। इस असामंजस्य की दशा में उचित मार्ग दिखाने के लिये निर्देशन का आयोजन करना आवश्यक है।

7.बेकारी,निर्धनता तथा निम्नजीवन-स्तर के सुधार हेतु-तीव्र महँगाई तथा बेरोजगारी के कारण देश की जनता का जीवन स्तर गिर गया है। औद्योगिक नगरों में मध्यम वर्गीय परिवारों तथा श्रमिकों का जीवन और भी अधिक नारकीय हो गया है। इस प्रकार के दूषित वातावरण ने बाल-अपराध, कुसमायोजन तथा अनेक जटिलताओं को जन्म दिया है। इन सबके निदान के लिये उपयुक्त निर्देशन की आवश्यकता है।

8. रूढ़िवादी दृष्टिकोण के विनाश के लिये-स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत की अधिकांश जनता का दृष्टिकोण अत्यन्त रूढ़िवादी और परम्परागत है। देश के अधिकांश राजनीतिज्ञ सस्ते प्रचार द्वारा छात्रों और जनता को गुमराह करते हैं। धर्म के नाम पर अनेक कुरीतियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। इस प्रकार के सस्ते प्रचार एवं प्रसार को नियन्त्रित करने के लिये व्यवस्थित निर्देशन की आवश्यकता है।

निर्देशन का क्षेत्र / Scope of Guidance in hindi

आज के वैश्वीकरण के युग में मनुष्य का जीवन पर्याप्त चुनौतीपूर्ण है। उसकी आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ असीमित हैं। इन असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रत्येक व्यक्ति सतत् प्रयत्नशील दिखायी देता है किन्तु सभी आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की तृप्ति अनुभव नहीं कर पाता क्योंकि सभी मनुष्य परस्पर बौद्धिक स्तर पर भिन्नता रखते हैं। इस भिन्नता की व्यापकता के कारण उनकी योग्यताएँ तथा समस्याएँ भी अलग-अलग होती हैं। इस प्रकार भी कह सकते हैं कि व्यक्ति की वैयक्तिक भिन्नता के साथ उसकी समस्याएँ भी भिन्न प्रकार से दिखायी देती हैं।

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आप सभी जानते हैं कि इन भिन्नताओं तथा समस्याओं के समाधान का मार्ग निर्देशन एवं परामर्श द्वारा सम्भव किया जाता है। उदाहरण के लिये एक छात्र अपने विषय चयन को लेकर चिन्तित सेवाओं द्वारा पूरा किया जाता है। व्यक्ति की अनेक समस्याओं के समाधान को निर्देशन विषय है या अध्ययनोपरान्त व्यवसाय के चयन के लिये सोच रहा है तो उसके समाधान में निर्देशन के विषय-क्षेत्र की उपयोगिता तथा आवश्यकता का अनुभव किया जा सकता है अर्थात् छात्र को इस समय इस समस्या के लिये उचित दिशा निर्देशन की आवश्यकता है।

इस प्रकार प्रगति के लिये उसे उचित निर्देशन तथा परामर्श की आवश्यकता होती है। इस स्थिति में हम अनुभव करते हैं कि निर्देशन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि निर्देशन एक ऐसी प्रक्रिया है जो सभी समस्याओं का समाधान करने की योग्यता का विकास करती है, साथ ही समाधान का मार्ग ढूँढ़ती है। जब लक्ष्य मानकर हम निर्देशन के क्षेत्र के बारे में विचार करते हैं तो इस चर्चा के आधार पर कि जीवन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक तब निर्देशन का क्षेत्र भी विस्तृत रूप से फैला दिखायी देता है। अत: निर्देशन के क्षेत्र को हम निम्नलिखित शीर्षकों के द्वारा समझ सकते हैं

1.शैक्षिक क्षेत्र (Educational field)-शैक्षिक क्षेत्र में निर्देशन प्रक्रिया का उपयोग सभी बिन्दुओं पर किया जाता है; जैसे-विषय चयन करने में, पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संचालन तथा चयन में, नवीन पाठ्यक्रम की समस्याओं के चयन तथा समाधान के सन्दर्भ में,अधिगम प्रक्रिया की समस्याओं के सरलीकरण में, मूल्यांकन-मापन के समाधानार्थ तथा अन्य शैक्षिक समस्याओं के समाधान में।

2. व्यावसायिक क्षेत्र (Vocational field)-व्यावसायिक या सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करते समय प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमताओं तथा रुचियों का आकलन करता है या उसके संरक्षक उसका आकलन करते हैं। शिक्षा प्राप्ति के समय या शिक्षावधि के उपरान्त प्रत्येक व्यक्ति व्यवसाय या रोजगार की चिन्ता करता है। यह उसका मुख्य चिन्तन होता है कि वह अपना जीवन निर्वाह या भरण-पोषण किस कार्य से करेगा? अंत: यह क्षेत्र उसकी व्यवसाय चयन में, व्यवसाय परिवर्तन में, व्यावसायिक विविधताओं के ज्ञान में तथा अन्य व्यावसायिक समस्याओं के समाधान में सहायक होता है।

3.वैयक्तिक क्षेत्र (Individual field)-वैयक्तिक शब्द व्यक्ति की प्रथम तथा प्रारम्भिक इकाई है। व्यक्ति के जीवन का विकास उसके स्वयं के प्रयत्नों का परिणाम है। अतः प्रत्येक व्यक्ति की निर्देशनात्मक रूप में विविध समस्याएँ होती है, वह उनके समाधान का मार्ग खोज कर प्रगति का मार्ग तय करता है। किसी जटिल तथा संघर्ष की स्थिति में, किसी व्यवस्था के समायोजन करने में,स्वास्थ्य रक्षा में, विकास के सन्दर्भ में तथा अपनी अन्य वैयक्तिक समस्याओं का समाधान निर्देशन के माध्यम से पूरा करता है।

4. राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र (Political, economical and social field)-राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में भी निर्देशन की महत्त्वपूर्ण भूमिका का योगदान रहता है। चूँकि सम्बन्धित तीनों क्षेत्र औसतन व्यक्ति से सम्बन्धित हैं। सभी व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न रहता चाहते हैं। राजनीति में प्रवेश की इच्छा रखते ही हैं, सफल न होने पर राजनैतिक व्यक्तियों से सम्बन्ध रखना चाहते हैं, सामाजिकता की दृष्टि से भी कोई व्यक्ति विपत्र नहीं रहना चाहता। लगभग सभी मनुष्य समाज में अपना प्रभुत्व या पहचान बनाये रखने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए प्रयास जारी रखते हैं। इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति मार्ग निर्देशन प्राप्त करने के लिये भी प्रयत्नशील रहता है। इन तीनों मार्गों में आने वाली समस्याओं
से परिचित होकर निर्देशन के साधनों द्वारा समाधान करने का प्रयल करता है।

उपरोक्त सभी सामग्री का अध्ययन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्देशन का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक तथा विस्तृत है। इसकी व्यापक के स्वरूप को समझने के लिये एक निर्देशनकर्ता तथ प्राप्तकर्ता को सभी समाजशास्त्रीय, मनोविज्ञान सम्बन्ध, दर्शन सम्बन्धी, आर्थिक विषय सम्बन्धी तथा अन्य उपयोगी विषयों का सम्यक् अध्ययन करना चाहिये। इन विषयों से सहसम्बन्ध स्थापित कर तत्सम्बन्धित समस्या का समाधान समझने में सहायता प्राप्त होती है। इसलिये एक कुशल अध्यापक को इन सभी विषयों पर आधिपत्य रखना चाहिये।

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