वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएं | गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य | उपनयन संस्कार

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वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएं | गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य | उपनयन संस्कार

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वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएं | गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य | उपनयन संस्कार


उपनयन संस्कार | वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएं | गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य

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प्राचीनकाल (वैदिक कालीन) या गुरुकुल शिक्षा / Ancient (Vedic Period) or Gurukul Education in hindi

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा और भारतीय सभ्यता एवं शिक्षा की पृष्ठभूमि में वेद ही हैं। वेदों द्वारा हमें भारतीय संस्कृति, सभ्यता, जीवन और दर्शन का ज्ञान होता है। वेद हमारी वह थाती हैं, जो मानव जीवन के लक्ष्य को अपने में संजोये हुए हैं। वैदिक काल का विस्तार ईसा पूर्व 2500 से लेकर 500 ई. पूर्व तक माना जाता है। इस काल में शिक्षा पर ब्राह्मणों का आधिपत्य था। अत: वैदिक कालीन शिक्षा को’ब्राह्मण शिक्षा एवं हिन्दू शिक्षा’ की संज्ञा भी दी जाती है। वैदिक साहित्य में शिक्षा शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। यथा-‘विद्या’,’ज्ञान’, ‘बोध’ तथा ‘विनय’।

आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों के समान प्राचीनकाल में भारतवासियों ने भी ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग व्यापक और सीमित दोनों अर्थों में किया है।भारतीय शिक्षा का आरम्भ प्रकृति की गोद में मानव की मूलभूत जिज्ञासा की शान्ति के लिये हुआ था। भारत में शिक्षा के तत्त्व, प्रणाली तथा संगठन का प्रारूप प्राय: वैदिक युग से माना जाता है।

डॉ. अल्टेकर के अनुसार-वैदिक युग से लेकर अब तक शिक्षा का अभिप्राय प्रकाश के स्रोत से रहा है और वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा मार्ग आलोकित एवं प्रकाशित करता रहा है।” भारत की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक परम्परा विश्व के इतिहास में प्राचीनतम है।

आज का भारत जो कुल है, वह अपनी गत 5000 वर्ष की सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत की देन है। प्राचीन भारत की शिक्षा एवं समाज की जानकारी देने वाले ग्रन्थों में वेदों का पहला स्थान है। डॉ.राधाकुमुद मुखर्जी ने कहा है-“प्राचीनतम वैदिक काल के जन्म से ही हम भारतीय साहित्य को पूर्णरूपेण धर्म से प्रभावित देखते हैं।” प्राचीनकाल में शिक्षा का आधार धर्म तथा धार्मिक क्रियाएँ थीं। वैदिक क्रियाएँ ही शिक्षा का प्रमुख आधार थीं। मानव जीवन धर्म से अनुप्राणित होता था।

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श

वेदों के युग में शिक्षा का स्वरूप आदर्शवादी था। ईश्वर भक्ति, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व के विकास, संस्कृति, राष्ट्र तथा समाज के विकास के प्रति अभिवृत्ति विकसित करने पर आचार्यजन बल देते थे।

डॉ. अल्टेकर ने इसी सन्दर्भ में कहा है-“ईश्वर भक्ति, धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की अभिवृद्धि, राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य थे।” वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श में मानव को उसके आत्मिक विकास की ओर ले जाते थे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में ऐसी क्षमता और योग्यता का सृजन करना था, जिसके माध्यम से वह सत्य का ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर सके।

अत: वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श निम्नलिखित थे-

1. व्यक्तित्व का समन्वित विकास

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के अनुसार मानव का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान अथवा ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होना चाहिये। इसके लिये धार्मिक भावना का विकास किया जाना आवश्यक है। अतः प्रारम्भिक शिक्षा में विभिन्न संस्कारों की व्यवस्था, नियमित सध्या एवं धार्मिक उत्सव आदि को विशेष महत्त्व दिया जाता था। छात्र के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता था, जिससे उसके व्यक्तित्व का समन्वित विकास हो सके। इन तीनों दृष्टिकोण में आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर अधिक बल दिया जाता था। मानसिक विकास के लिये प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ का प्रावधान था, जिससे विद्यार्थियों में चिन्तन, मनन तथा व्यक्तित्व का विकास आदि मानसिक शक्तियों को विकसित किया जा सके।

2. स्वस्थ चरित्र का निर्माण

वैदिक कालीन शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में राष्ट्रीय आदर्शों के अनुरूप चरित्र का निर्माण करना था। अत: सरल जीवन, सदाचार,सत्याचरण एवं अहिंसात्मक व्यवहार और ब्रह्मचर्य उनके दैनिक जीवन के अंग थे। इसके लिये वर्णाश्रम धर्म का पालन करना समाज के प्रत्येक सदस्य के लिये आवश्यक था।

3.सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण

वैदिक काल में विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जाती थी, जिससे वे अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का संरक्षण करें तथा उनका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित कर सकें। यह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। वैदिक काल में व्यक्ति के व्यवसाय एवं कार्यों का आधार वर्ग व्यवस्था थी। पिता जो व्यवसाय करता था, उसकी शिक्षा पुत्र को देता था। पुत्र भी पारिवारिक संस्कृति तथा परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने में विश्वास करते थे।

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4. व्यावसायिक कुशलता का विकास

वैदिक कालौन जीवन संघर्षमय था। इस संपर्षय स्थिति में यह आवश्यक था कि शिक्षा की ऐसी व्यवस्था हो जिससे व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप व्यवसाय का चयन कर सके तथा व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि कर स्वयं को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बना सके। इसलिये विभिन्न व्यवसायों, उद्योगों तथा जीविकोपार्जन से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अत: शिक्षा का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति करना ही नहीं रहा वरन् भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी हो गया था।

5.दायित्वों के निर्वाह की क्षमता

गुरुकुल शिक्षा व्यक्ति को उसके स्वयं के प्रति कर्तव्यों का बोध तो कराती ही थी, साथ ही साथ सामाजिक दायित्वों का भी बोध कराती थी। यथा- परोपकार, अतिथि सत्कार, दीन-दुःखियों की सेवा, गुरु तथा वृद्धजनों का सम्मान एवं सेवा आदि प्रकार के कार्य। अत: शिक्षा का दायित्व था कि वह व्यक्ति में नागरिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने की क्षमता का विकास करे।

6. ज्ञान एवं अनुभव पर बल

गुरुकुलों में विद्यार्थियों को ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त करने पर बल दिया जाता था। उस समय उपाधि वितरण जैसी प्रथा न थी। छात्र अर्जित योग्यता का प्रश्न विद्वानों की सभा में शास्त्रार्थ द्वारा किया करते थे। गुरुकुल शिक्षा का उद्देश्य अथवा आदर्श केवल पढ़ना नहीं था वरन् मनन, स्मरण और स्वाध्याय द्वारा ज्ञान को आत्मसात् करना भी था।

डॉ. आर. के. मुकर्जी के शब्दों में, “वैदिक युग में शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था, अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात् करना था।”

7.चित्तवृत्तियों का निरोध

चित्तवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करना, मन को भौतिक ज्ञान से हटाकर आध्यात्मिक जगत् में लगाना तथा आसुरी वृत्तियों पर नियन्त्रण करना वैदिक शिक्षा का उद्देश्य था। उस समय शरीर की अपेक्षा आत्मा को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता था क्योंकि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अनश्वर अमर है। अत: आत्मिक उत्थान के लिये जप, तप एवं योग पर विशेष बल दिया जाता था। यह कार्य चित्तवृत्तियों का निरोध करके अर्थात्मन पर नियन्त्रण करके ही सम्भव थे। इसलिये छात्रों को विभिन्न प्रकार के अभ्यासों द्वारा अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध करने का प्रशिक्षण दिया जाता था।
डॉ. आर. के. मुकर्जी के शब्दों में-“वैदिक शिक्षा का उद्देश्य चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् मन में उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता है।”

8. ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता

प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में ईश्वर-भक्ति और धार्मिकता की भावना का समावेश करना था। उस समय उसी शिक्षा को सार्थक माना जाता था, जो इस संसार से व्यक्ति की मुक्ति को सम्भव बनाये-“सा विद्या या विमुक्तये” (व्यक्ति को मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती थी, जब वह ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना से सराबोर हो) छात्रों में इस भावना को व्रत, यज्ञ, उपासना तथा धार्मिक उत्सवों आदि के द्वारा विकसित किया जाता था।

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएं

वैदिक कालीन शिक्षा को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पथ-प्रदर्शन करने वाला प्रकाश का प्रोत माना जाता था जिसके द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव था। वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार से हैं-

1. उपनयन संस्कार क्या है / उपनयन संस्कार की आयु

यह वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा का प्रमुख संस्कार था। यह संस्कार प्रत्येक वर्ग के छात्र के लिये अनिवार्य था परन्तु शूद्रों का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। यह संस्कार उस समय होता था, जब छात्र गुरु के संरक्षण में वैदिक शिक्षा आरम्भ करता था। उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ है-“पास ले जाना”। बालक गुरु से प्रार्थना करता है, “मैं ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने आपके पास आया हूँ, मुझे ब्रह्मचारी बनने दो,” गुरु जी पूछते हैं “तुम किसके ब्रह्मचारी हो ? बालक उत्तर देता, आपका’।
अभिभावक छात्र को गुरु को समर्पित कर देता था। उपनयन संस्कार से पहले छात्र शूद्र कहलाता था तथा इस संस्कार के बाद द्विज। गुरु छात्र को पहले गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था और इसके बाद उसे शिक्षा का ज्ञान देना प्रारम्भ करता था।

उपनयन संस्कार की आयु ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिये 8, 11 तथा 12 वर्ष थी। अध्ययन काल की साधारण अवधि 12 वर्ष थी। 24-25 वर्ष की आयु तक अध्ययन पूरा करके ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने योग्य हो जाता था।

2. शिक्षण का समय

शिक्षण के समय के विषय में ‘स्मृतियों’ में कोई लेख नहीं है। प्राचीन समय में मुद्रित पुस्तकें नहीं थीं। अत: पठन-पाठन का सभी कार्य गुरु की उपस्थिति में होता था। हम शिक्षण के समय के विषय में कुछ अनुमान लगा सकते हैं। शिक्षण का कार्य प्रात:काल से दोपहर तक और फिर भोजन तथा विश्राम के पश्चात् सायंकाल तक होता होगा।

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3. शिक्षा की अवधि

गुरु-गृह में शिक्षा की अवधि 24 वर्ष की आयु तक होती थी। 25वें वर्ष में शिष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना पड़ता था। वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में समय की छात्रों की तीन श्रेणियाँ थीं

(अ) 24 वर्ष तक अध्ययन करने वालेवमु,

(ब) 36 वर्ष तक अध्ययन करने वाले रुद्र,

(स) 48 वर्ष तक अध्ययन करने वालेआदित्य।

4.पाठ्यक्रम

पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों प्रकार के विषयों का समावेश था। यह सभी विषय छात्रों को पढ़ना अनिवार्य नहीं था क्योंकि वर्ण व्यवस्था के कठोर होने से विषयों का विभाजन भी वर्ग के आधार पर हो गया था। यद्यपि इस काल में वैदिक साहित्य का अध्ययन ही प्रमुख था परन्तु ऐतिहासिक कथाएँ, पौराणिक आख्यान एवं वीर गाथाएँ भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं। छात्रों को छन्द-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। गणित में रेखागणित का अध्ययन कराया जाता था। ‘ब्राह्मण’ साहित्य का निर्माण भी इसी युग में हुआ।

पाठ्यक्रम में विषय इस प्रकार थे-

भौतिक विषय (अपरा) विद्या       आध्यात्मिक विषय (परा) विद्या

इतिहास, औषधिशास्त्र, अर्थशास्त्र,         वेद, वेदांग, उपनिषद्,

ज्योतिषशास्त्र, भौतिकशास्त्र, प्राणिशास्त्र,      पुराण, दर्शन एवं

भूगर्भ विद्या, रसायनशास्त्र, धनुर्विद्या एवं।       नीतिशास्त्र।
शल्य विद्या।  

ब्राह्मण छात्रों के लिये धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन तथा क्षत्रियों के लिये सैन्य शिक्षा एवं राजनीति का अध्ययन आवश्यक था।

5.शिक्षण विधि

मौखिक विधि का प्रयोग करके मनोरंजक विधि से शिक्षा दी जाती थी। उसके बाद चिन्तन-मनन के लिये कहा जाता था। गुरुजन प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ विधि का भी प्रयोग करते थे। इसके माध्यम से चिन्तन-मनन, निर्णय तथा व्यक्तित्व आदि गुणों का विकास किया जाता था। इस काल में मॉनिटोरियल व्यवस्था भी प्रचलित थी।
उच्च कक्षा के छात्र निम्न कक्षा के छात्रों को पढ़ाते थे। इस काल में सरल से कठिन की ओर, जात से अज्ञात की ओर तथा आगमन एवं निगमन विधियों का भी प्रयोग किया जाता था।

6. गुरु-शिष्य सम्बन्ध

डॉ. अल्टेकर के अनुसार-“वैदिक युग में छात्र तथा अध्यापक के मध्य सम्बन्ध किसी संस्था के माध्यम से नहीं, अपितु सीधे उन्हीं के बीच था। छात्र विद्याध्ययन के लिये उन्हीं लब्ध प्रतिष्ठित गुरुओं के पास जाते थे, विद्वता के कारण जिनकी ख्याति थी।” इस युग में शिष्य गुरु की तन-मन और धन से सेवा करते थे। उनके कर्त्तव्य इस प्रकार थे-

(1) शिष्य के कर्त्तव्य-भिक्षा माँगना, लकड़ी काटकर लाना, पशु चराना, पानी भरना, अध्ययन करना तथा आज्ञा पालन करना।

(2) गुरु के कर्त्तव्य-अध्यापक द्वारा छात्रों के वस्त्र, भोजन की व्यवस्था करना, चिकित्सा तथा सेवा-सुश्रुषा करना। गुरु योग्य छात्र को उत्साहित करते थे।
गुरु-शिष्य के सम्बन्धों का प्रमुख आधार उनकी योग्यता तथा उनकी व्यवहार कुशलता थी। पूर्णता की आकांक्षा एवं पूर्णता के ज्ञान की खोज में रत करने वाला ही वास्तविक गुरु होता था। आचार्य मनु ने कहा है-अध्यापक का अनिवार्य कर्तव्य है कि वह विद्यार्थी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे। वह केवल उन्हें अपने बालक की तरह ही न रखे, अपितु उन्हें पवित्र विद्या को पढ़ाये और कोई भी विद्या उनसे न छिपाये।”

7.अनुशासन और दण्ड

विद्यार्थी का जीवन पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन थाजिसमें ब्रह्मचारी को रहन-सहन, खान-पान एवं वेश-भूषा सम्बन्धी नियमों का पालन जागरूक होकर करना पड़ता था। सभी छात्र अनुशासित जीवन व्यतीत करते थे। गुरुकुल के सभी छात्रों की जीवन शैली एक-सीहोती थी। प्राचीन भारत में छात्रों कोदण्ड देने की प्रथा थी।दण्ड के रूप-समझाना, बुझाना, उपदेश तथा उपवास आदि थे। शारीरिक दण्ड के विषय में शास्त्रकारों में मतभेद था।
आचार्य मनु का मत था कि गुरु, रज्जु अथवा पतली छड़ी से छात्र को शारीरिक दण्ड दे सकता है। सामान्य रूप से छात्रों को शारीरिक दण्ड दिया जाता था, पर वह कठोर नहीं होता था।

8.शिक्षालय भवन

जो छात्र विहारों तथा देवालय में पढ़ते थे, उनके लिये भवन बने हुए थे। सामान्यतः शिक्षण कार्य वृक्षों की शीतल छाया के नीचे हुआ करता था, किन्तु वर्षा के में समय गुरुगृह में जिनमें आच्छादन की अच्छी व्यवस्था होती थी, अध्यापन किया जाता था।

9. प्रकृति से सम्पर्क

उस समय में शिक्षा के अनेक विख्यात केन्द्र तपोवनों में थे, जहाँ ऋषियों और मुनियों के चरणों में बैठकर छात्र ज्ञान का संचय करते थे। सुरम्य दृश्यों से आवृत्त इन शिक्षा केन्द्रों में छात्र अपने जीवन के अनेक वर्ष व्यतीत करते थे। अत: उनका प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्पर्क रहता था, जिसका उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर अत्यन्त स्वस्थ प्रभाव पड़ता था। रबीन्द्र नाथ टैगोर के अनुसार-“भारत के वनों में सभ्यता की जो धारा प्रवाहित हुई, उसने सम्पूर्ण भारत को आप्लावित कर दिया।”

10. गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की संस्थाएं

वैदिक काल में गुरुकुल प्रणाली थी। छात्र, माता-पिता से अलग गुरु के घर पर ही शिक्षा प्राप्त करता था। यह गुरुकुल पद्धति कहलाती थी। छात्र गुरु-गृह में ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ शिक्षा प्राप्त करता था। श्रवण, मनन, निधि ध्यासन शिक्षण की प्रक्रिया थी। गुरुकुल शिक्षा के केन्द्र थे। गुरुकुलों में योग्य तथा चरित्रवान् व्यक्ति ही शिक्षा देते थे। इन गुरुकुलों में छात्र 12 वर्ष तक विद्याभ्यास करता था। ज्ञान क्षुधा के सम्मेलन भी होते रहते थे। समय-समय पर विद्वानों के सम्मेलन भी होते रहते थे। गुरुकुल के अतिरिक्त अन्य शिक्षा संस्थाओं का प्रचलन भी था।

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ये संस्थाएँ इस प्रकार र्थी- (1) चरण-इनमें एक शिक्षक एक वेद की शिक्षा देता था। (2)घटिका-धर्म तथा दर्शन की उच्च शिक्षा अनेक शिक्षक देते थे। (3) टोल-एक ही शिक्षक केवल संस्कृत भाषा की शिक्षा देता था। (4) परिषद्-लगभग 10 शिक्षकों की एक परिषद् विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करती थी। (5) चतुष्पथी-इसे ब्राह्मणीय विद्यालय भी कहा जाता था। एक ही शिक्षक  दर्शन, पुराण, विधि तथा व्याकरण की शिक्षा देता था। (6) विशेष विद्यालय-विषय विशेष चिकित्सा, विज्ञान, कृषि, वाणिज्य तथा सैन्य- शिक्षा की व्यवस्था हेतु विशेष विद्यालय होते थे।

11. गुरु सेवा

प्रत्येक छात्र को गुरुकुल में रहते हुए गुरु-सेवा अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थी। गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करना पाप था। इसके लिये कठोर दण्ड दिया जाता था। आचार्य को दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराना; जैसे-दातून, स्नान के लिये जल को व्यवस्था करना, छात्र का प्रमुख कर्त्तव्य था। गुरु भी छात्रों से ऐसे कार्य नहीं लेते थे, जिनसे उनके अध्ययन में बाधा पहुँचे। समापवर्तन के मध्य किसी प्रकार की सेवा छात्रों से नहीं ली जाती थी।

12.भिक्षावृत्ति

उस समय भिक्षावृत्ति को बुरा नहीं समझा जाता था। भिक्षावृत्ति के माध्यम से निर्वाह किया जाता था। प्रत्येक गृहस्थ, छात्र को भिक्षा अवश्य देता था क्योंकि वह जानता था कि उसका पुत्र भी कहीं भिक्षा माँग रहा होगा। भिक्षा का नियम छात्रों के लिये बनाने का कारण यह था कि भिक्षा से जीवन में विनय आती थी। छात्र को यह अनुभूति होती थी कि समाज की सेवा तथा सहानुभूति से ही ज्ञान प्राप्ति एवं जीविकोपार्जन आ सकता है। छात्र जीवन की समाप्ति के पश्चात् भिक्षावृत्ति निषिद्ध थी।

13. शिक्षा-सत्र एवं छुट्टियाँ

शिक्षा-सत्र, श्रावण मास की पूर्णिमा को ‘उपाकर्म’ ‘श्रावणी’ समारोह से आरम्भ होता था और पौष मास की पूर्णिमा को ‘उत्सर्जन’समारोह के साथ समाप्त होता था। इस प्रकार शिक्षा-सत्र की अवधि पाँच माह की थी। आधुनिक समय के समान प्राचीन समय में भी शिक्षा-संस्थाओं में अवकाश होते थे। प्रत्येक मास में एक-एक सप्ताह के अन्तर से चार अवकाश मिलते थे।

14. निःशुल्क एवं सार्वभौमिक शिक्षा

प्राचीन भारत में शिक्षा निःशुल्क थी। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् प्रत्येक छात्र अपने गुरु को दक्षिणा अवश्य देता था। वह दक्षिणा के रूप में धन, भूमि, पशु तथा अन्न कुछ भी दे सकता था। गुरु दक्षिणा इतनी कभी नहीं होती थी, जो शिक्षक का पर्याप्त पारिश्रमिक कहा जा सके। शिक्षा निःशुल्क होने के कारण सार्वभौमिक और सभी के लिये थी, किन्तु कुछ लेखकों का विचार है कि शिक्षा अनिवार्य थी।

15. अग्र शिष्य प्रणाली

प्राचीनकाल में अग्र शिष्य अर्थात् कक्षा-नायकीय प्रणाली प्रचलित थी। उच्च कक्षा के बुद्धिमान छात्र निम्न कक्षाओं के छात्रों को शिक्षा देते थे। इस प्रकार गुरु के शिक्षण कार्य में सहायता करते थे। उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों के सहयोग से वैयक्तिक पर्यवेक्षण को प्रभावी बनाया जाता था। इन विद्यार्थियों का सम्मान शिक्षकों की तरह किया जाता था। इस पद्धति के दोलाभ थे-पहला, शिक्षक की अनुपस्थिति में शिक्षण का कार्य अधिकांश हो जाते थे। कक्षाओं में चलता रहता था। दूसरा, कक्षानायक कुछ समय के बाद शिक्षण कार्य में प्रशिक्षित हो जाता था।

16. परीक्षा-प्रणाली

प्राचीनकाल की शिक्षा प्रणाली परीक्षाविहीन थी। गुरु नया पाठ तब पढ़ाता था जब छात्र पहले पढ़ाये गये पाठ को पूरी तरह से कण्ठस्थ कर लेते थे। जब छात्र । प्रतिदिन के पाठ को अगले दिन सुनाते थे तब वे अपनी कमियों/त्रुटियों को दूर कर लेते थे। उस समय आश्रमों में शास्त्रार्थ की प्रथा प्रचलित थी। आचार्य अपने आश्रम के विद्यार्थियों को दो समूहों में बाँटकर उनके बीच शास्त्रार्थ कराते थे। शिक्षा समाप्ति पर विद्यार्थी को स्थानीय विद्वानों की सभा में उपस्थित किया जाता था जहाँ वह विद्वानों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देता था। यह समापवर्तन संस्कार के बाद होता था ।


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