भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग / कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय प्रारंभिक शिक्षा के नवीन प्रयास में सम्मिलित चैप्टर भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग / कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग / कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन

भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग / कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन
भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग / कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन

कोठारी आयोग की रिपोर्ट,सुझाव,मूल्यांकन / भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग

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भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग (1964-66)
Education Commission or Kothari Commission, (1964-66)

14 जुलाई, 1964 को अपने प्रस्ताव में भारत सरकार ने शिक्षा के उन्नयन के सन्दर्भ में एक आयोग की नियुक्ति की। इसे शिक्षा आयोग कहते हैं। इस आयोग के अध्यक्ष प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो. डी. एस. कोठारी थे। उनके नाम पर इस आयोग को कोठारी कमीशन भी
कहा जाता है।

भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति के कारण एवं उद्देश्य

इस आयोग की नियुक्ति के कारण एवं उद्देश्य निम्नलिखित थे-

(1) स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने देश की परम्पराओं एवं मान्यताओं के अनुरूप आधुनिक समाज की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करने का प्रयास किया है। इस दिशा में अनेक कदम उठाये गये
हैं, लेकिन शिक्षा प्रणाली का विकास समय की आवश्यकताओं के अनुसार नहीं हुआ है।

(2) स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से भारत ने राष्ट्रीय विकास के एक नवीन युग में प्रवेश किया है। इस युग में उसके लक्ष्य हैं-शासन एवं जीवन के ढंग के रूप में धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र (Secular democracy) की स्थापना, जनता की निर्धनता का अन्त, सभी के लिए रहन-सहन का उचित स्तर, कृषि का आधुनिकीकरण, उद्योगों का तीव्र विकास, आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का प्रयोग तथा पारम्परिक आध्यात्मिक मूल्यों के साथ सामंजस्य। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पारम्परिक शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

(3) अभी तक 14 वर्ष की आयु के बालकों हेतु निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती है। शिक्षा की अनेक गुणात्मक उन्नति के लिए राष्ट्रीय नीतियों एवं कार्यक्रमों को
लागू नहीं किया जा सका है।

(4) भारत सरकार इस बात से पूर्ण सहमत है कि शिक्षा राष्ट्रीय समृद्धि एवं कल्याण का आधार है। देश का हित जितना शिक्षा से सम्भव है।उतना किसी अन्य वस्तु से नहीं। अतः सरकार शिक्षा एवं वैज्ञानिक अनुसन्धान पर अधिकाधिक धन व्यय करने को कटिबद्ध है।

(5) शैक्षिक विकास की सम्पूर्ण जाँच करना अनिवार्य है, क्योंकि शिक्षा प्रणाली के विभिन्न अंग एक-दूसरे पर प्रबल प्रतिक्रिया करते हैं तथा प्रभाव डालते हैं। पूर्व में अनेक आयोगों एवं समितियों ने शिक्षा के विशेष अंगों एवं क्षेत्रों का अध्ययन किया है।


कोठारी आयोग या भारतीय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट / कोठारी आयोग या भारतीय शिक्षा आयोग के सुझाव

आयोग ने अपने व्यापक कार्य-क्षेत्र को 13 कार्य दलों (Task Forces) में विभाजित किया। इसके लिए उन्होंने 7 कार्य समितियाँ (Working Groups) का निर्माण किया। निरन्तर 21 माह तक इस आयोग ने भारतीय शिक्षा के विभिन्न अंगों का अध्ययन किया।

आयोग ने 29 जून, 1966 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन शिक्षामन्त्री एवं श्री एम. सी. छागला के समक्ष प्रस्तुत की। इस प्रतिवेदन को शिक्षा एवं राष्ट्रीय लक्ष्य (Education and National Development) कहा जाता है। शिक्षा आयोग ने अग्रलिखित क्षेत्रों से सम्बन्धित विचार एवं सुझाव व्यक्त किये है-

1. शिक्षा एवं राष्ट्रीय लक्ष्य (Education and national objectives)

आयोग ने कहा है कि शिक्षा को लोगों के जीवन, आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए जिससे उनका आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक विकास करके राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आयोग ने पाँच सूत्रीय सुझाव दिये-

(1) शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि,

(2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास,

(3) प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता,

(4) आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता,

(5) सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं का विकास एवं चरित्र-निर्माण।
इस पाँच सूत्रीय कार्यक्रम को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए शिक्षा आयोग ने व्यापक सिफारिशें प्रस्तुत की हैं।

2. शिक्षा की संरचना एवं स्तर (Educational structure and standards)

शिक्षा आयोग ने विद्यालयीय शिक्षा की नवीन संरचना इस प्रकार प्रस्तुत की है-(1) 1 से 3 वर्ष तक पूर्व विद्यालय शिक्षा,(2) 4 से 5 वर्ष तक निम्न प्राथमिक शिक्षा, (3) 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा, (4) 2 या 3 वर्ष की निम्न माध्यमिक शिक्षा, (5) 2 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा। आयोग के विद्यालयीय शिक्षा की संरचना सम्बन्धी सुझाव निम्नलिखित हैं-

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(1) सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की रखी जाय,

(2) प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व 3 वर्ष तक पूर्व विद्यालय तथा पूर्व प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाय,

(3) प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष रखी जाय तथा इसे दो वर्गों में बाँटा जाय-(अ)4 से 5 वर्ष का निम्न प्राथमिक स्तर, (ब) 3 वर्ष का उच्च प्राथमिक स्तर,

(4) निम्न माध्यमिक शिक्षा की अवधि 3 या 2 वर्ष की जाय,

(5) निम्न माध्यमिक स्तर पर सामान्य माध्यमिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा का भी आयोजन किया जाय।

(6) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अवधि 2 वर्ष की जाय।

(7) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 2 वर्ष की सामान्य शिक्षा तथा । से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाय,

(8) प्रथम सार्वजनिक परीक्षा 10 वर्ष की विद्यालय शिक्षा के बाद ली जाय,

(9) दसवीं कक्षा तथा विशिष्ट पाठ्यक्रमों की व्यवस्था समाप्त की जाय, (10) माध्यमिक स्कूलों में हाईस्कूल एवं हायर सैकेण्डरी स्कूलों को सम्मिलित किया जाय।

3. शिक्षक की स्थिति (Teacher’s status)

शिक्षण व्यवसाय में प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए शिक्षकों की आर्थिक, सामाजिक और व्यावसायिक
स्थिति को उन्नत करना आवश्यक है। इस तथ्य के सन्दर्भ में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(1)  भारत सरकार द्वारा शिक्षकों का न्यूनतम वेतन निर्धारित किया जाय, सरकारी एवं गैर-सरकारी सभी विद्यालयों में एक समान वेतन क्रम लागू किया जाय।

(2) प्रत्येक संस्था में शिक्षकों को कार्य सम्पादन सम्बन्धी न्यूनतम सुविधाएँ प्रदान की जायें।

(3) सम शिक्षकों को व्यावसायिक उन्नति करने के लिये उपयुक्त सुविधाएँ प्रदान की जायें।

(4) शिक्षकों के कार्य-भार का निर्धारण उनके द्वारा किये जाने वाले सम्पूर्ण कार्य-भार के सन्दर्भ में आँका जाय। शिक्षकों को पाँच वर्षों में एक बार उनके वेतन-क्रम के अनुसार भारत भ्रमण के लिए रियायती रेलवे टिकट उपलब्ध कराये जायें।

(5) व्यक्तिगत विद्यालयों में शिक्षकों की सेवा दशाएँ, सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की सेवा दशाओं के समान लागू की जायें।

(6) शिक्षकों के लिए सरकारी गृह-निर्माण योजनाओं को प्रोत्साहन दिया जाये।

(7) शिक्षकों पर चुनावों में भाग लेने पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न लगाया जाय।

4. अध्यापक शिक्षा (Teacher Education)

आयोग ने शिक्षक-प्रशिक्षण व्यवसाय को समुन्नत करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(1) शिक्षा (Education) को एक विषय के रूप में स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाय।

(2) प्रत्येक प्रशिक्षण संस्था में प्रसार सेवा विभाग (Extension department) की स्थापना की जाय।

(3) सभी शिक्षण संस्थाओं को ट्रेनिंग कॉलेज (Training colleges) के नाम से पुकारा जाय।

(4) प्रत्येक राज्य में कॉम्प्रीहेन्सिव कॉलेजों (Comprehensive colleges) की स्थापना की जाय।

(5) प्रशिक्षण विद्यालयों के पाठ्यक्रम तथा विषय-सामग्री को संशोभित किया जाय।

(6) ट्रेनिंग कॉलेज के शिक्षकों के पास दो स्नातकोत्तर (Two post graduate degree) तथा शिक्षा की उपाधि का होना अनिवार्य किया जाय।

(7) अप्रशिक्षित शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन संस्थाओं (Summer institutes) की व्यवस्था की जाय।

(8) प्रत्येक विश्वविद्यालय एवं कॉलेज में नये शिक्षकों के लिए नियमित रूप से अनुस्थापन (ओरिएनटेशन) पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाय।

5. छात्र-संख्या एवं जन-बल (Enrolment and man-power)

आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में इस बिन्दु के अन्तर्गत निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(1) उत्तर प्राथमिक शिक्षा (Post-primaryeducation) में छात्र संख्या सम्बन्धी नीति निर्देशक बिन्दु इस प्रकार होने चाहिए-माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की माँग एवं आवश्यकता; छात्रों के जन्मजात गुणों का विकास; माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा सुविधाएँ प्रदान करने के लिए समाज की क्षमता तथा जनबल की आवश्यकताएँ।

(2) प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं में माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की तीव्र गति से माँग में वृद्धि हुई है तथा भविष्य में भी इसकी सम्भावना की जाती है। इस माँग की पूर्ति के लिए शिक्षकों, धन एवं शिक्षण सामग्री को जुटाना कठिन कार्य है। अतः हायर सैकेण्डरी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में केवल चुने हुए छात्रों के प्रवेश की व्यवस्था लागू की जाय।

(3) केवल प्रतिभाशाली छात्रों को ही उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाय। (4) शिक्षा सुविधाओं का विस्तार रोजगार प्राप्त करने के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाय।


6. शैक्षिक अवसरों की समानता (Equalization of educational opportuni- ties)

आयोग ने भारतीय शिक्षा में व्याप्त दो असमानताओं के संकेत दिये हैं-(क) शिक्षा के सभी पक्षों एवं स्तरों पर बालक-बालिकाओं की शिक्षा में असमानता, (ब) उन्नत वर्गों, पिछड़े लोगों, अछूतों तथा आदिवासियों और पहाड़ी जनजातियों की शिक्षा में असमानताएँ। इस सन्दर्भ में आयोग के निम्नांकित सुझाव हैं-

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(1) चतुर्थ पंचवर्षीय योजना तक समस्त सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं में प्राथमिक शिक्षा को शिक्षण-शुल्क से मुक्त कर दिया जाय।

(2) निम्न माध्यमिक शिक्षा को भी इसी प्रकार निःशुल्क बनाने के प्रयास किए जायें।

(3) आगे के 10 वर्षों में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (हायर सैकेण्डरी) तथा विश्वविद्यालय-शिक्षा को शुल्क मुक्त कर दिया
जाय (केवल आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग के बालकों के लिए)।

(4) प्राथमिक स्तर पर बालकों को पाठ्य-पुस्तकें तथा लेखन सामग्री बिना किसी शुल्क के वितरित की जायें।

(5) माध्यमिक स्कूलों तथा कॉलेजों में पुस्तक-गृहों (Book-Banks) की व्यवस्था की जाय।

(6) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा सम्बन्धी पुस्तकालयों में छात्रों के लिए
पाठ्य-पुस्तकों को पर्याप्त मात्रा में मँगाया जाय।

(7) शिक्षा के सभी स्तरों पर प्रतिभावान निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाय। राष्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना को व्यापक बनाया जाय।

7. विद्यालय शिक्षा का स्तर (Expansion of school education)

आयोग ने विद्यालय स्तर के परिणाम में वृद्धि करने का सुझाव दिया है। ये सुझाव हैं-

(1) प्रत्येक राज्य के राजकीय शिक्षा संस्थान (State institute of education) में पूर्व प्राथ शिक्षा के लिए राज्य स्तर का एक केन्द्र स्थापित किया जाय।

(2) प्रत्येक जिले में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए केन्द्र स्थापित किया जाय।

(3) व्यक्तिगत संस्थाओं को इस शिक्षा में सहयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाय।

(4) पूर्व-प्राथमिक विद्यालयों के कार्यक्रमों को पर्याप्त मनोरंजक एवं लचीला बनाया जाय।

(5) संविधान के लक्ष्य की पूर्ति के लिए देश के
सभी भागों में 7 वर्ष की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाय तथा इसे कठोर रूप से लागू किया जाय।

(6) अपव्यय एवं अवरोधन जैसी समस्याओं के निराकरण हेतु कारगर उपाय किये जायें।

(7) माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायोन्मुखी बनाया जाय। कम से कम 50 प्रतिशत छात्रों को व्यवसायों की ओर प्रेरित किया जाय।

(8) माध्यमिक शिक्षा के अवसरों की समानता पर बल दिया जाय।

(9) बालिकाओं, अछूतों, जनजातियों में माध्यमिक शिक्षा
विस्तार के लिए विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जाय।

8. विद्यालय पाठ्यक्रम (School Curriculum)

आयोग ने विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की है-

(1) निम्न प्राथमिक शिक्षा (Lower Primary Education)-

मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा या प्रादेशिक भाषा में से कोई एक भाषा, गणित, पर्यावरण अध्ययन, विज्ञान, सामाजिक
विज्ञान अध्ययन, सृजनात्मक क्रियाएँ, कार्य अनुभव एवं स्वास्थ्य शिक्षा।

(2) उच्चतर प्राथमिक शिक्षा (Higher Primary Education)-

दो भाषाएँ- मातृभाषा एवं प्रादेशिक भाषा, हिन्दी या अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, कला, कार्य अनुभव, समाज सेवा, शारीरिक शिक्षा, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा।

(3) निम्न माध्यमिक शिक्षा (Lower Secondary Education)-

तीन भाषाएँ- मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा, अंग्रेजी या हिन्दी, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, कला, कार्य अनुभव, समाज सेवा, शारीरिक शिक्षा, नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा।

(4) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (Higher Secondary Education)-

कोई दो भाषाएँ तथा तीन वैकल्पिक विषय (इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, कला, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान, गृह विज्ञान, कार्य अनुभव,
समाज सेवा, शारीरिक शिक्षा, कला या शिल्प, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा)।

9. विद्यालय प्रशासन एवं निरीक्षण (School Administration and Super- vision)

भारत में विद्यालय प्रशासन एवं निरीक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम अप्रभावी तथा असहानुभूतिपूर्ण हैं। इनके प्रभावी संगठन के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-

(1) प्रबन्ध-समिति एवं शिक्षक समूहों के मध्य विद्वेषों एवं वैमनस्यपूर्ण सम्बन्धों को समाप्त करने के लिए प्रभावी कदम उठाये जायें।

(2) यदि कोई विद्यालय उपयुक्त ढंग से संचालित नहीं किया जा रहा है तो राज्य सरकार को उसका संचालन स्वयं अपने हाथों में ले लेना चाहिए।

(3) व्यक्तिगत विद्यालयों की प्रबन्ध समितियों में शिक्षा विभाग के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया जाय।

(4) प्रशासन एवं निरीक्षण दोनों को एक-दूसरे से अलग किया जाय। जिला स्तर पर प्रशासन कार्य जिला विद्यालय परिषद को सौंपा जाय तथा निरीक्षण कार्य जिला विद्यालय अधिकारी को दिया जाय। ये दोनों परस्पर सहयोग करें।

(5) प्रत्येक विद्यालय में दो प्रकार से निरीक्षण किया जाय-(अ) प्राथमिक विद्यालयों में वर्ष में एक बार जिला परिषद द्वारा, (ब) माध्यमिक स्कूलों में शिक्षा विभाग द्वारा।

(6) प्रत्येक राज्य में राज्य विद्यालय शिक्षा परिषद (State board of school education) की स्थापना की जाये।

(7) शिक्षा मन्त्रालय में एक राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा परिषद (National board of school education) का स्थापना की जाया यह भारत सरकार की परामर्शदात्री समिति के रूप में कार्य करे।

10. शिक्षण विधियाँ, निर्देशन तथा मूल्यांकन (Teaching methods, guidance and evaluation)

इस सन्दर्भ में आयोग की सिफारिशें निम्नलिखित हैं-

(1) विद्यालयों में प्रयुक्त शिक्षण विधियों को और अधिक लचीला एवं गत्यात्मक (Dynamic) बनाया जाय।

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(2) शिक्षा में गतिशीलता लाने के लिए शिक्षकों में पहलकदमी (Initiation), परीक्षण एवं सृजनात्मक गणों का विकास किया जाय।

(3) नवीन शिक्षण विधियों के लिए अभिनव पाठ्यक्रमों वर्कशॉपों, प्रदर्शनों तथा परीक्षणों के लिए विचार सम्मेलनों आदि का आयोजन किया जाय।

(4) पाठ्य-पुस्तकों के लेखन एवं निर्माण में राष्ट्र के प्रतिभाशाली शिक्षकों को प्रोत्साहित किया जाय।

(5) राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा आदर्श पाठ्यक्रम निर्माण की तरह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा कार्य किया
जाय।

(6) प्रत्येक राज्य में पाठ्यक्रम निर्माण समिति का संयोजन किया जाय।

(7) मार्ग-निर्देशन की प्रक्रिया का प्रारम्भ प्राथमिक कक्षा के बालकों से करना चाहिए।

(8) प्राथमिक शिक्षकों को निर्देशन कार्यक्रम, संचालन हेतु प्रशिक्षित किया जाय।

(9) माध्यमिक स्तर की संस्थाओं के लिए न्यूनतम निर्देशन कार्यक्रम लागू किया जाये । माध्यमिक विद्यालयों के लिए एक परामर्शदाता की नियुक्ति की जाय।

(10) जिला स्तर पर ‘निर्देशन ब्यूरो’ (Guidance Bureau) की स्थापना की जाय।

(11) बाह्य परीक्षाएँ वस्तुनिष्ठ प्रश्नपत्रों के माध्यम से आयोजित की जायें, आन्तरिक परीक्षा (Internal Examination) व्यापक हो।

कोठारी आयोग या भारतीय शिक्षा आयोग का मूल्यांकन

शिक्षा आयोग के मूल्यांकन की दो कसौटियाँ हो सकती हैं-(1) आयोग के गुणों को परखना, (2) आयोग के दोषों का विश्लेषण करना।

1. भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग के गुण

शिक्षा आयोग को भारतीय ऐलिहासिक शिक्षा परिदृश्य पर सर्वश्रेष्ठ आयोग कहा गया है। इस आयोग ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की मार्मिक व्याख्या तथा सन्तुलित एवं व्यावहारिक सुझाव प्रस्तुत
किये हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा आयोग ने अपने प्रस्तावित निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति यथार्थ रूप में की है-“आयोग भारत सरकार को शिक्षा के राष्ट्रीय स्वरूप और उसके सभी स्तरों एवं पक्षों पर शिक्षा के विकास के लिए सामान्य सिद्धान्तों तथा
नीतियों के विषय में परामर्श देगा।” शिक्षा आयोग के उल्लेखनीय गुण निम्नांकित हैं-

(1) जन-शिक्षा प्रचार एवं प्रसार के लिए व्यावहारिक शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत करना।

(2) वैज्ञानिक प्रयोगों एवं अनुसन्धानों को शिक्षा के क्षेत्र में उपयुक्त स्थान प्रदान करना।

(3) शिक्षा के सर्वांगीण पक्षों में सन्तुलित विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करना तथा उसके पुनर्संगठन सम्बन्धी ठोस सुझाव प्रस्तुत करना।

(4) शिक्षा पर और अधिक धन व्यय करने की सिफारिश करना।

(5) सभी छात्रों को प्रजातान्त्रिक समानता के अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक सहायता प्रदान करना।

(6) संवैधानिक शिक्षा लक्ष्यों की पूर्ति हेतु ठोस कदम उठाना।

(7) माध्यमिक शिक्षा को पूर्ण व्यावसायोन्मुखी बनाकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि करना।

(8) शिक्षा के सभी स्तरों के लिए अनुकूल, सन्तुलित पाठ्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत करना।


2. भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी के दोष

समकालीन विद्वानों ने शिक्षा आयोग में निम्नलिखित दोष बताये हैं-

(1) शिक्षा आयोग के प्रयासों के फलस्वरूप बेसिक शिक्षा का स्वरूप समाप्त हो गया।

(2) अंग्रेजी भाषा पर अतिरिक्त बल देने से भारतीय भाषाओं का विकास अवरुद्ध हो गया।

(3) संस्कृति अध्ययन की पूर्ण उपेक्षा की गयी।

(4) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा पर अनावश्यक बल देने से बालकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो गया।

(5) प्रारम्भिक शिक्षा के आधार को मजबूत बनाने का साथ प्रयास नहीं किया गया।

(6) शिक्षकों को अपेक्षित सुरक्षा प्रदान करने में शिक्षा आयोग पूर्ण असफल रहा।

(7) अनेक महत्त्वपूर्ण सुझावों को धन के अभाव में क्रियान्वित नहीं किया जा सका, अतः शिक्षा की यथास्थिति बनी रही।

(8) इस आयोग के अनेक विदेशी एवं देशी सदस्यों ने आयोग के कार्य में उपेक्षा भाव का प्रदर्शन किया था।




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