दोस्तों अगर आप CTET परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो CTET में 50% प्रश्न तो सम्मिलित विषय के शिक्षणशास्त्र से ही पूछे जाते हैं। आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com आपके लिए विज्ञान विषय के शिक्षणशास्त्र से सम्बंधित प्रमुख टॉपिक की श्रृंखला लेकर आई है। हमारा आज का टॉपिक विज्ञान की प्रकृति,लाभ,उद्देश्य एवं आवश्यकता | CTET SCIENCE PEDAGOGY है।
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विज्ञान की प्रकृति,लाभ,उद्देश्य एवं आवश्यकता | CTET SCIENCE PEDAGOGY
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विज्ञान का अर्थ एवं प्रकृति
Science शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Scientia’ से हुई है जिसका अर्थ होता है ज्ञान। मनुष्य अपने आस-पास के जीव-जगत एवं भौतिक जगत को गौर से देखता है और उसी के अनुसार अर्थपूर्ण पैटर्न एवं सम्बन्धों को खोजने का प्रयास करता है। वह हमेशा प्रकृति से जूझने के लिए नए-नए औजारों का निर्माण करता है और इसे समझने के लिए सैद्धांतिक ढाँचे को विकसित करने की ओर अग्रसर होता है।
इस प्रयास में वह गौर से निरीक्षण करता है, नियमितताओं और खास पैटर्न की तलाश करता है, संकल्पनाओं को गढ़ता है, गणितीय ढाँचे तैयार करता है, निष्कर्ष निकालता है और नियंत्रित प्रयोग और निरीक्षण के द्वारा उन निष्कर्षों के सही या गलत होने की जाँच करता है। विज्ञान में अनुमान और अटकलों के लिए भी जगह होती है। अतः किसी वैज्ञानिक सिद्धांत के सर्वसम्मति से स्वीकार्य होने के लिए उसे उपयुक्त प्रयोगों अथवा निरीक्षणों की कसौटी पर खरा उतरना ही पड़ता है। विज्ञान के नियमों को कभी भी अंतिम सच के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि नए अनुभव, प्रयोग व विश्लेषण के मद्देनजर इन नियमों में बदलाव आता रहता है। अंततः हम यह कह सकते हैं कि विज्ञान एक जीवंत, नए से नए अनुभवों के अनुसार विस्तार पाता हुआ गतिमान ज्ञान हैं।
विज्ञान का महत्व
विवेक और जागरूकता के साथ वैज्ञानिक मनोभाव मानव कल्याण के लिए सबसे महत्वपूर्ण रास्ता है। विज्ञान की उपयोगिता को सर्वत्र स्वीकृत किया जाता है। विज्ञान के महत्व निम्नलिखित हैं –
(1) विज्ञान व्यावहारिक है, प्राचीन काल से यह मानव की आवश्यकता को पूर्ति हेतु कार्यरत है। कृषि के विकास से लेकर आवास के क्षेत्र में नई-नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग तक, विज्ञान का योगदान रहा है।
(2) विज्ञान ने सांस्कृतिक निर्माण एवं सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा में लगातार महत्वपूर्ण योगदान दिया है। चिन्तन और अनुभूतियों में विज्ञान के द्वारा क्रांतिकारी परिवर्तन लाए गए हैं। विभिन्न संचार एवं मनोरंजन के साधनों के द्वारा विभिन्न संस्कृतियों का आदान प्रदान हुआ है और सांस्कृतिक वैभवता में वृद्धि हुई है।
(3) विज्ञान प्रदत्त विधि के उपयोग से व्यक्तियों में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण विकसित करता है। यह प्रगति के पथ पर चल रहे किसी भी समाज में लोगों को गरीबी अज्ञानता और अर्थविश्वास के मकड़जाल से मुक्त कर विकास की दिशा की तरफ प्रेरित करता है।
(4) विज्ञान शिक्षार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर उन्हें पूर्वाग्रहित होने से बचा लेता है और उनके जीवन को वैज्ञानिक तरीके से व्यवस्थित कर देता है।
विज्ञान शिक्षण की आवश्यकता
वर्तमान परिस्थिति में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों का सर्वांगीण विकास करना है। किसी भी कार्य को करने से पूर्व कोई लक्ष्य या उद्देश्य निर्धारित करना पड़ता है। उद्देश्य के बिना उस कार्य की कोई दिशा नहीं मिलती। उद्देश्यों के अभाव में कार्य सुचारु रूप से संचालित नहीं किया जा सकता। मानव जीवन को विज्ञान ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर, उसके अधिकार भाव की तुष्टि के लिए राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने जैसे कार्यों में भी, विज्ञान एवं उसके उपकरणों का समान रूप से उपयोग किया जाता है।
खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में वैज्ञानिक खाद, ट्रेक्टर, पानी निकालने के विभिन्न उपकरण, वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में कृत्रिम रेशे से बनी टेरेलीन, टेरीकॉटन, टेरीवूल, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सामान्य शल्य चिकित्सा से लेकर हृदय स्थानान्तरण के प्रयासों तक,मनोरंजन और प्रसारण के क्षेत्र में टेलीविजन, यातायात के क्षेत्र में सामान्य रेलगाड़ी से लेकर सुपरसोनिक जेट विमानों तक उपयोग किया जाता है। इस स्थिति में विज्ञान की आवश्यकता का प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
यदि आज के जीवन का ज्ञान, उसके समझने की उपयुक्त दृष्टि विद्यार्थियों को देनी है, उसकी जटिलताओं का समाधान करने की क्षमता विद्यार्थियों में उपन्न करनी है तो विज्ञान शिक्षा आवश्यक है । सामाजिक और राजनैतिक गठन में प्रभावी और सफल जीवन व्यतीत करने के लिए विज्ञान की सामान्य शिक्षा विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है। आज विज्ञान का विकास ज्ञान के स्वतन्त्र और पूर्ण अनुशासन के रूप में हो गया है। आज विज्ञान की प्रकृति विज्ञान को अन्य सभी विषयों से स्पष्ट रूप से पृथक् अंकित करने में सक्षम है। विज्ञान की शिक्षा यदि उपयुक्त रूप से दी जावे तो विद्यार्थियों में जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का दृष्टिकोण, कार्य करने का ढंग और चिन्तन की पद्धति का विकास कर सकती है ।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
Science विज्ञान सार्वभौम है जब कि प्रौद्योगिकी लक्ष्य आधारित एवं स्थानीय होती है। विज्ञान में निष्कर्षा या परिणामों के बारे में पहले से कुछ तय नहीं होता परन्तु प्रौद्योगिकी में लक्ष्य पहले से निर्धारित होता है।
विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य
(1) सामान्य उद्देश्य
(2) विशिष्ट उद्देश्य
विज्ञान शिक्षण के सामान्य उद्देश्य
इसके उद्देश्य विभिन्न स्तरों पर भिन्न भिन्न होते हैं परन्तु विज्ञान शिक्षण के सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं।
(1) बौद्धिक उद्देश्य – विज्ञान शिक्षण सच्चाई में अनुपम प्रशिक्षण प्रदान करता है एवं जिज्ञासा की वृति पैदा करता है। यह अज्ञात को जानने की योग्यता प्रदान करता है एवं कठिनाइयों और असफलताओं का सामना करने की प्रेरणा देता है।
(2) व्यावहारिक उद्देश्य – विज्ञान हमारे दैनिक जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे कार्य करने तथा रहन सहन के ढंग सभी वैज्ञानिक साधनों पर आधारित है।
(3) सामाजिक उद्देश्य – विज्ञान के किसी भी सिद्धान्त का समाज के कल्याण में और सामाजिक रुचि में विशेष स्थान है। विज्ञान के सिद्धान्त मानव के जीवन को सफल बनाने में बहुत सहायक होते हैं। विज्ञान के सिद्धान्त मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं और पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और उनमें सम्बंध स्थापित करते हैं।
(4) सांस्कृतिक उद्देश्य – विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययन से जो निरीक्षण विधि तथा प्रयोगात्मक विधि का ज्ञान होता है उससे तर्कयुक्त मस्तिष्क का निर्माण होता है। इससे सही निर्णय करने एवं नियमित संगठन की शक्ति का विकास होता है।
(5) व्यावसायिक उद्देश्य – विज्ञान बहुत सारे व्यावसायिक विषयों का आधार है और यह शिक्षार्थियों को विविध व्यवसायों के लिए तैयार करता है।
विज्ञान शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य
शिक्षाविदों की मान्यता है कि उद्देश्य सार्थक और उपयोगी हों, व्यावहारिक हों, जो बालकों को आगामी जीवन में एक अच्छा नागरिक बनाने में सहायक हो सकें । उद्देश्य इस प्रकार के होने चाहिए जिनमें समय एवं परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तन भी किया जा सके और विद्यार्थी तथा शिक्षक दोनों के लिए हितकारी साबित हो सके । इन बातों को ध्यान में रखते हुए विज्ञान शिक्षण के निम्नलिखित विशिष्ट उद्देश्य होने चाहिए-
(1) ज्ञान (Knowledge) – विज्ञान शिक्षण का सबसे मुख्य उद्देश्य ज्ञान माना जाता है क्योंकि बिना ज्ञान के और दूसरे उद्देश्य निरर्थक हो जाते हैं। इसलिए विज्ञान के लिए ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य पर अत्यधिक बल दिया जाता है। अत: विज्ञान के विद्यार्थियों में निम्नलिखित प्रकार का ज्ञान अवश्य होना चाहिए –
(i) दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाले विज्ञान के मूलभूत सिद्धान्तों और विचारों का ज्ञान ।
(ii) विज्ञान के आधुनिक आविष्कार तथा वैज्ञानिक साहित्य को समझने का पूर्ण ज्ञान।
(iii) विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान ।
(iv) मनुष्य के लिए पशु विज्ञान तथा वनस्पति के महत्त्व का ज्ञान ।
(v) मानव शरीर की रचना व उसकी क्रियाओं तथा उसके वर्तमान वातावरण का ज्ञान ।
(vi) वैज्ञानिक तथ्यों, मान्यताओं, प्रतीकों, नामावली तथा सिद्धान्तों का सही ज्ञान ।
(vii) प्राकृतिक प्रक्रियाओं का ज्ञान ।
(2) समझ या सूझ (Understanding) – विज्ञान विषय को समझने के लिए विद्यार्थियों में इस प्रकार की समझ होनी चाहिए कि वे वैज्ञानिक तथ्यों, मान्यताओं,सिद्धान्तों और पदार्थों को स्पष्ट कर सकें, उनकी सही ढंग से व्याख्या कर सकें तथा एक-दूसरे से सम्बन्धित तथ्यों, प्रक्रियाओं तथा पदार्थों में भेद कर सकें। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों में इतनी सूझबूझ भी होनी चाहिए कि वे रेखाचित्रों, सूचियों, चार्टों, सूत्रों तथा प्रयोगों का सही विश्लेषण कर सकें, अशुद्ध कथनों, प्रक्रियाओं तथा मान्यताओं में अशुद्धियाँ निकाल सकें और सूचियों, प्रतीकों तथा सूत्रों को एक-दूसरे रूप में परिवर्तित कर सकें।
(3) योग्यताएँ (Abilitics) – विज्ञान का उद्देश्य विद्यार्थियों में कुछ योग्यताओं का विकास करना भी है। वैज्ञानिक योग्यताएँ-समस्या को खोजना, समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्रित करना, उनको संगठित करना, अभिव्यक्त करना, विश्लेषण करना,निष्कर्ष निकालना, प्राप्त प्रदत्तों से भविष्य की घोषणा करना, वैज्ञानिक मेले, प्रदर्शनियों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं आदि का आयोजन करना, विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करना, तर्क करना, विभिन्न प्रकार के यन्त्रों, उपकरणों आदि के उपयोग में लाने की क्षमता-ये सभी वैज्ञानिक योग्यताएँ हैं।
(4) कौशल (Skill) – विज्ञान शिक्षण से विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास की आशा की जाती है। विद्यार्थियों में उपकरण तथा मशीन को प्रयोग करने,उनको प्रयोग के लिए व्यवस्थित करने, विज्ञान के नमूने, रासायनिक पदार्थों को सुरक्षित रखने तथा नमूनों और उपकरणों आदि की उचित आकृतियाँ बनाने की योग्यता होनी चाहिए। इसके साथ उनमें मॉडलों तथा प्रयोगों को तुरन्त तैयार करने की जानकारी होनी चाहिए और प्रयोगात्मक ढाँचे (Experiemental Setup) तथा प्रक्रिया में अशुद्धियाँ तलाश करने की योग्यता होनी चाहिए।
(5) रुचि (Interest) – विज्ञान शिक्षक के द्वारा विद्यार्थियों में ऐसी प्रेरणा भरनी चाहिए कि वे विज्ञान के साहित्य को पढ़ें, वैज्ञानिकों के चित्र, सूचनाएँ आदि एकत्रित करें। विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य विद्यार्थियों में प्रकृति के प्रति, उपलब्धियों के प्रति अधिक ज्ञान प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक साहित्य के प्रति, नवीन अनुसंधानों और खोजों को जानने की रुचि उत्पन्न करता है ।
विज्ञान से सम्बन्धित स्थानों का भ्रमण, विज्ञान क्लबों,प्रदर्शनियों, विज्ञान योजनाओं पर कार्य करने, विवादपूर्ण पहलुओं पर आलोचनाएँ करना,प्रतियोगिताएँ आयोजित करना, वैज्ञानिक तथ्यों, चित्रों, सूचनाओं आदि का संग्रह करना सभी कार्य वैज्ञानिक रुचियाँ ही हैं जिनको विकसित करना विज्ञान शिक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इस प्रकार की रुचियाँ ही हैं जिनको विकसित करना विज्ञान शिक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इस प्रकार की रुचियों से विद्यार्थियों में अच्छी आदतों का विकास होता है। वे सत्य में विश्वास, ईमानदारी, आत्मविश्वास, सहनशीलता, धैर्य, सहयोग आदि सामाजिक रूप से स्वीकृत नैतिक मूल्यों को स्वतः ही सीख जाते हैं।
(6) अभिवृत्तियाँ (Attitudes) – विद्यार्थियों में वैज्ञानिक अभिवृत्तियों का विकास विज्ञान शिक्षण की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। अतः विज्ञान शिक्षण प्रत्यक्ष तथा व्यवस्थित होना चाहिए। वैज्ञानिक अभिवृत्तियों के अन्तर्गत व्यवहार के वे गुण आते हैं, जिनसे व्यक्ति अलग ही पहचाना जा सकता है। वैज्ञानिक अभिवृत्ति से सम्पन्न व्यक्ति के लक्षण निम्नलिखित हैं–
(i) उसको अपने ऊपर विश्वास होता है तथा वह संकीर्णता से दूर होता है।
(ii) अपने निर्णयों को अन्ध-विश्वासों पर नहीं बल्कि प्रमाणित तथ्यों पर आधारित करता है। (iii) दूसरे के विचारों को सम्मान देता है तथा अपने विचारों को साक्ष्यों के आधार पर बदलने के लिए तैयार रहता है।
(iv) अपने चारों ओर की वस्तुओं के सम्बन्ध में क्यों ? क्या ? प्रश्नों के उत्तरों को जानने के लिए उत्सुक रहता है।
(v) वह निष्पक्ष तथा सत्य पर आधारित निर्णय लेता है।
(vi) समस्या समाधान के लिए सुनिश्चित प्रक्रिया को अपनाता है
(vii) किसी भी परिणाम को अन्तिम नहीं समझता है।
(viii) आडम्बरों में विश्वास नहीं करता है बल्कि तथ्यों में विश्वास रखता है।
(ix) नवीनतम तथा प्रमाणित तथ्यों के आधार पर विविध प्रक्रियाओं को अपनाता है।
(x) मानव कल्याण के लिए विज्ञान का समर्थन करता है।
(7) वैज्ञानिक विधि में प्रशिक्षण (Training in Scientific Method) – वह विधि जिसे वैज्ञानिक अपनाते हैं, वैज्ञानिक विधि कहलाती है। वैज्ञानिक किसी भी समस्या के हल के लिए एक सुनिश्चि: प्रक्रिया का उपयोग करते हैं जिससे उस समस्या का सही हल निकल सके तथा परिणामों को जीवन की अन्य परिस्थितियों के उपयोग में लाया जा सके । वैज्ञानिक विधि का प्रशिक्षण विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है ताकि वे समस्या के खोजने, उसे परिभाषित करने, सम्बन्धित प्रदत्तों व तथ्यों का संग्रह कर उन्हें नियोजित करना, अभिव्यक्त करना, परिकल्पनाओं को निर्मित कर उनका सत्यापन करना और अन्त में निष्कर्षों पर पहुँच सकें। ये सभी पदे वैज्ञानिक अभिवृत्ति, वैज्ञानिक आदतों व कौशलों को विकसित कर बहुआयामी चिन्तन को जन्म देते हैं।
8. व्यवसाय तथा विशिष्ट क्षेत्र के लिए आधार प्रदान करना (To form basis vocation and Specilization) – विज्ञान के महत्त्व को स्वीकारते हुए इसे विद्यालयी कार्यक्रम का अभिन्न अंग माना गया है। अतः विज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है कि माध्यमिक स्तर पर विद्यार्थियों के विशिष्ट क्षेत्र व व्यवसाय का आधार प्रदान कर दें। क्षेत्र विशेष की उच्च शिक्षा का मार्ग माध्यमिक स्तर की शिक्षा ही निर्धारित करती है। अतः विज्ञान के विविध विषयों तथा अनुभव प्रशिक्षणों का ज्ञान आवश्यक है जिससे विद्यार्थी अपने व्यवसाय का चयन कर सकें तथा भावी उच्च शिक्षा की दिशा निश्चित कर सकें ।
9. प्रशंसात्मक क्षमताएँ (Appreciation) – विज्ञान शिक्षण बालकों में विज्ञान की खोजें, वैज्ञानिकों की मार्मिक घटनाएँ, उनके साहसिक कार्य, रोमांस की कहानियाँ,वैज्ञानिकों की जीवन-कथाएँ, मानव जाति की प्रगति की कहानी तथा वैज्ञानिक विकास का इतिहास आदि को बताकर शिक्षा के द्वारा प्रशंसात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करता है । इससे बालक विज्ञान के महत्त्व को समझते हैं। उन्हें आधुनिक संसार में विज्ञान के रोचक इतिहास को पढ़कर वैज्ञानिक तथा तकनीक की प्रगति के ज्ञान से आनन्द की अनुभूति होती है। उनमें वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा अनुसन्धानों को समझने और जानने की लालसा उत्पन्न होती है।
10. अवकाश का सदुपयोग (Use of Leisure) – विज्ञान के बालकों में प्रयोगात्मक कौशल को विकसित करने के लिए अवकाश के समय उनके अध्यापक साधारण वस्तुओं का उनकी रुचि के अनुसार निर्माण करना सिखाते हैं। अपने रोचक कार्य के रूप में साबुन, मोमबत्ती, स्याही, पॉलिश, सौन्दर्य प्रशाधन आदि वस्तुएँ बनाते हैं। यह उनकी रुचि के अनुसार होता है और अवकाश के समय इन वस्तुओं का निर्माण करते हैं। इसके अलावा वे कई रचनात्मक तथा आविष्कारक काम भी करने लगते हैं । इस प्रकार वे अवकाश के समय का सदुपयोग करते हैं। घर में काम आने वाली छोटी-छोटी वस्तुओं का निर्माण ऐसे समय में हँसते-हँसते करते रहते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ उनमें व्यावहारिकता और ज्ञान का विकास करती हैं।
11. व्यावहारिक प्रयोग (Application) — आधुनिक युग में विज्ञान शिक्षण द्वारा बालकों में प्रयोगात्मक योग्यताओं का विकास करना चाहिए ताकि वे विज्ञान से बनी वस्तुओं का उपयोग अपने व्यावहारिक जीवन में कर सकें। इसके लिए विद्यार्थियों को विभिन्न तथ्यों, प्रक्रियाओं, सिद्धान्तों तथा वस्तुओं के प्रयोग के बारे में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। जैसे-बिजली का समुचित प्रयोग, उसके उपकरणों की जानकारी, उनका घर में प्रयोग, फ्यूज आदि को ठीक करना आदि, जीवन में काम आने वाले यन्त्रों को प्रयोग करने की पूरी विधि से अवगत होना चाहिए।
12. अच्छे जीवन-यापन के लिए (For Better Living) – विज्ञान बालकों को नये-नये वैज्ञानिक आविष्कार, स्वस्थ रहने के नये तौर-तरीके, साफ रहने की विधि,शरीर को वातावरण के अनुकूल हृष्ट-पुष्ट कैसे रख सकते हैं आदि सभी बातों से परिचित कराता है। प्रदूषण को कैसे रोका जाये, जीवन को इससे कैसे सुरक्षित रखा जाये आदि जीवन सम्बन्धी सभी बातें बतायी जाती हैं। इन बातों की पूर्ण जानकारी होने से मनुष्य तरह तरह की बीमारियों से अपने जीवन को बचा सकता है और जीवनभर आराम और सुख से रह सकता है।
विज्ञान शिक्षणशास्त्र के अनुसार उसकी पाठ्यचर्या/विषयवस्तु
हम जानते है कि विज्ञान ज्ञान है और ज्ञान, शक्ति है। शक्ति से ही बुद्धि और आजादी मिलती है। अतः विज्ञान की अच्छी शिक्षा वही है जो विद्यार्थी के प्रति, जीवन के प्रति और विज्ञान के प्रति ईमानदार हो।
विज्ञान पाठ्यचर्या के मूलभूत मापदंड
(1) संज्ञानात्मक वैधता – पाठ्यचर्या को विषय-वस्तु, प्रक्रिया, भाषा और शिक्षण सम्बंधी कार्यकलाप बच्चे की उम्र के उपयुक्त हो और उनकी समझ से बाहर की वस्तु न हो।
(2) विषय वस्तु वैधता – पाठ्यचर्या उपयुक्त और वैज्ञानिक स्तर पर सही विषय वस्तु को प्रस्तुत करे। विषय वस्तु सहज और सरल होनी चाहिए। ऐसा न हो कि जो चीज समझाने की कोशिश की जा रही है अर्थहीन रह जाए।
(3) प्रक्रिया वैधता – यह एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है क्योंकि यह यह सीखाती है कि विज्ञान कैसे सीखा जाए। इसलिए पाठ्यचर्या ऐसी हो जो विद्यार्थी को वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के तरीकों और उन तक पहुँचने की प्रक्रिया को सिखाए एवं उसकी जिज्ञासा और रचनात्मकता को पोषित करे।
(4) ऐतिहासिक वैधता – पाठ्यचर्या ऐसी हो जो विद्यार्थी को यह समझाए कि विज्ञान की धारणाएं समय के साथ कैसे विकसित हुई और इसका विकास सामाजिक कारकों से कैसे प्रभावित होता है।
(5) परिवेशीय वैधता – पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जो विज्ञान को बच्चे के परिवेश स्थानीय और ग्लोबल के संदर्भ में रखकर सिखाये ताकि बच्चा विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाज के बीच के सम्बंधों को समझ सके और रोजगार हेतु आवश्यक ज्ञान और कौशल प्राप्त कर सके।
(6) नैतिक वैधता – पाठ्यचर्या ईमानदारी वस्तुनिष्ठता, सहयोग आदि मूल्यों को बढ़ावा दे। यह जीवन और पर्यावरण की रक्षा के लिए चेतना पैदा करे यह भय, पूर्वाग्रहों और अधविश्वास से मुक्त समाज बनाने में सहायक हो। समाज द्वारा उठाये गए कई सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मुद्दे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। इसलिए दसवीं तक की विज्ञान की पाठ्यचर्या को मुख्यतः विद्यार्थियों में विज्ञान,तकनीकी और समाज के अंतसंबंधों के प्रति जागरूकता लाने की ओर उन्मुख होना चाहिए। पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के प्रति उनमें चेतना जागते हुए उनमें व्यावहारिक कुशलता भी विकसित करनी चाहिए। दसवीं तक विज्ञान को एक ही संयुक्त विषय के रूप में पढ़ाना चाहिए।
प्राथमिक स्तर पर विषय वस्तु का सबसे अच्छा मापदंड खुद बच्चा ही होता है इसलिए इस स्तर पर विषय वस्तु अर्थपूर्ण एवं बच्चे के अभिरूचित के अनुरूप होनी चाहिए। उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चे का विज्ञान से पहली बार परिचय होता है। इस स्तर पर वैज्ञानिक अवधारणाएँ बच्चों के अनुभव जगत से सम्बंधित होनी चाहिए। इस स्तर पर पाठ्यचर्या प्रयोग/ क्रियाकलाप आधारित होनी चाहिए। माध्यमिक स्तर पर विज्ञान को एक संकाय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए और पाठ्यचर्या सिद्धांत, नियम और अवधारणाएँ आधारित होना चाहिए। प्रयोगों को पाठ्यचर्या का हिस्सा होना चाहिए। सह पाठ्यचर्यात्मक कार्यकलापों में भागीदारी को महत्त्वपूर्ण और एक समान अनिवार्यता मिलनी चाहिए। उच्च प्राथमिक स्तर और माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्याओं में क्षैतिज एकता और उर्ध्वाधर निरंतरता होनी चाहिए।
उच्च माध्यमिक स्तर पर पाठ्यचर्या को संकायपरक बनाया जा सकता है लेकिन यह बोझिल नहीं होना चाहिए। विषय वस्तु को सूचनाओं से भरा नहीं होना चाहिए और न ही उक्त विषय के सभी पक्षों को समाविष्ट करने के उद्देश्य से उसे तैयार किया जाना चाहिए। इस स्तर पर पाठ्यचर्या समस्या समाधान, धारणापरक कमियों के प्रति जागरूकता और विभिन्न विषयों की आलोचनात्मक पड़ताल करने की ओर उन्मुख करने वाला होना चाहिए। विषय वस्तु महज सूचना प्रदान करने वाली न हो और बच्चों को ऐसे मौके दिए जाएँ जिससे वे विज्ञान का मतलब ‘विज्ञान को करना’ समझें। पाठ्यचर्या में किसी भी स्तर पर परिचित कराई जाने वाली वैज्ञानिक धारणाएँ, उस स्तर के बच्चों की समझ के अनुरूप होनी चाहिए। शिक्षण और विषय वस्तु दोनों का साथ-साथ विकास होना चाहिये।
विज्ञान की पाठ्यपुस्तक
पाठ्यपुस्तकें पाठ्यचर्या के कार्यान्वयन के लिए जरूरी कई संसाधनों में से एक होती हैं। भारत में पाठ्यपुस्तकें एकमात्र उपलब्ध व कम खर्चीले संसाधन हैं। पाठ्यपुस्तकें ऐसी हों जो पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की प्राप्ति में मदद करें। पाठ्यपुस्तकें अभिरूचि जगाने वाली और समस्या समाधान व कार्यकलापोन्मुख हों। पाठ्यपस्तुकें ऐसी हों जो दैनंदिन जीवन के अनुभवों को शामिल करें। विविध पाठ्यचर्या क्षेत्रों के बीच और विद्यालयी अवस्था के तमाम वर्षों के साथ, पाठ्यपुस्तकें संगत संबंध बना सकती हैं। ऐसे संबंध, सीखने के लिए जोरदार प्रोत्साहन का काम करेंगे।
पाठ्यपुस्तक लेखन के साथ-साथ पाठ्यक्रम का विकास किया जाना चाहिए, जिसमें पाठ्यचर्या द्वारा तय किए गए उद्देश्यों का ख्याल रखना जरूरी है। पाठ्यपुस्तक लेखन में शिक्षकों को शामिल करना चाहिए। सभी स्तर के शिक्षकों के साथ मिलकर पाठ्यपुस्तकों की जाँच-पड़ताल करनी चाहिए। पाठ्यपुस्तकों में प्रयोगों/कार्यकलापों के संतुलित समायोजन के लिए ‘फील्ड टेस्टिंग’ करनी चाहिए। पाठ्यपुस्तक लेखन में विविधता और वैकल्पिक उपागमों का समावेश होना चाहिए। राज्यों को स्थानीय जरूरतों के अनुसार विविध पाठ्यपुस्तकें विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। विविध स्तरों पर पाठ्यपुस्तकों को उपयुक्त छोटे-छोटे भागों में बाँट कर तैयार करना चाहिए ताकि बस्ते का बोझ कम हो सके।
कोई भी पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक पूरे देश के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते। इसलिए पाठ्यचर्या नवीकरण के व्यापक निर्देशों के तहत विकसित पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में स्थानीय जरूरत के अनुसार संदर्भीकरण और विविधता को सभी स्कूली अवस्थाओं के लिए स्थान देना चाहिए। विज्ञान सीखने के लिए भाषा में दक्षता जरूरी है। द्वितीय भाषा में विज्ञान पढ़ना बोझ बन जाता है। खासतौर पर प्राथमिक स्तर पर। पाठ्यपुस्तकों की भाषा में भी बोझिलता पाई जाती है। अतः पाठ्यपस्तकों की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिससे विद्यार्थी और शिक्षक के बीच बेहतर संवाद स्थापित हो सके। अन्तत: बदलती हुई सामाजिक जरूरतों और वैश्विक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों के मद्देनजर विज्ञान पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन अनिवार्य है।
विज्ञान शिक्षण की समस्याएँ एवं समाधान
भारत में विज्ञान शिक्षण के समक्ष निम्नलिखित समस्याएँ हैं :-
(1) हमारे संविधान में वर्णित समता की बात को प्राप्त करने में विज्ञान शिक्षा अभी तक बहुत दूर है।
(2) यह खोजी प्रवृत्ति और रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं दे पाती।
(3) परीक्षा पद्धति तनाव उत्पन्न करती है।
उपरोक्त समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित बातों की अनुशंसा की गई है :-
(1) पाठ्यपुस्तकें समता की सूचक होनी चाहिए।
(2) वैकल्पिक पाठ्यपुस्तक लेखन को बढ़ावा देना चाहिए।
(3) सूचना एवं संचार तकनीकी का उपयोग करना चाहिए क्योंकि यह सामाजिक विषमता को कम करने में सहायक होती है।
(4) रटकर सीखने की प्रवृत्ति को खत्म किया जाना चाहिए।
(5) खोजी अंतर्दृष्टि को भाषा, डिजाइन व मात्रात्मक कौशलों द्वारा मजबूत करना चाहिए।
(6) सह-पाठ्यचर्या व पाठ्यचर्येतर तत्वों को जगह देनी चाहिए।
(7) वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी मेलों का आयोजन करना चाहिए।
(8) परीक्षा के नये तरीकों को लागू करना चाहिए जिससे तनाव खत्म हो। शिक्षकों का सशक्तीकरण करना चाहिए।
भारत में विज्ञान शिक्षा का विकास
भारत में विज्ञान शिक्षण का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारत में प्राचीन काल से ही विज्ञान की शिक्षा का वर्णन मिलता है। ब्रिटिश काल में विज्ञान की शिक्षा पर जोर दिया गया। भारतीय विश्वविद्यालय आयोग (1902) ने विज्ञान और तकनीकी शिक्षा सुधारने पर बल दिया। सेडलर आयोग (1917-19) ने सुझाव दिये कि इन्टर कॉलेज स्थापित किए जाएँ, जहाँ विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि की शिक्षा का विशेष प्रबन्ध हो।
सार्जेण्ट रिपोर्ट (1940) ने यह सुझाव दिया कि तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की जाए। स्वतंत्रता पश्चात्, डॉ. एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने यह सुझाव दिया कि स्नातक पाठ्यक्रम में जो विद्यार्थी विज्ञान शिक्षण का चयन करें, उन्हें भौतिक, गणित, रासायनिक, वनस्पति विज्ञान और प्राणी विज्ञान में से कम से कम दो विषय अवश्य लेने चाहिए। 1952-53 में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग (अध्यक्ष डॉ. ए. एल. मुदालियर) ने यह सुझाव दिया कि विज्ञान को माध्यमिक स्कूलों में एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाए। 1959 में तारा देवी (शिमला) में माध्यमिक विद्यालयों में विज्ञान शिक्षण से सम्बंधित एक अखिल भारतीय स्तर पर सेमिनार का आयोजन किया गया। कोठारी आयोग (1964-66) यह अनुशंसा की कि विद्यालयी शिक्षा के पहले 10 वर्षों में विज्ञान और गणित का शिक्षण अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए।
माध्यमिक विद्यालयों में प्रयोगशाला और भाषण कक्ष अवश्य होने चाहिए और विज्ञान को सामान्य विज्ञान समझकर पढ़ाने की अपेक्षा अलग-अलग विद्याओं के रूप में पढ़ाना अधिक प्रभावी होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) ने इस बात पर बल दिया कि विज्ञान शिक्षा को सुदृढ़ किया जाए । ताकि बच्चों में जिज्ञासा की भावना, सृजनात्मकता, वस्तुगत प्रश्न करने का साहस और सौन्दर्य बोध जैसी योग्यताएँ और मूल्य विकसित हो सकें और साथ में ही वे स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग और जीवन में अन्य पहलुओं के साथ विज्ञान के संबंध को समझ सकें। राममूर्ति कमेटी (1991) ने इस बात पर जोर दिया कि वैज्ञानिक ज्ञान की प्राप्ति मात्र पर बल नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि वैज्ञानिक विधि को ज्ञान प्राप्ति में साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
शिक्षा नीति पर रेड्डी कमेटी (1992) के सुझाव निम्नलिखित हैं:-
(1) विज्ञान पर कई पुस्तकें छापना, आसान प्रयोगों को खोजना और विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करना
( 2) विज्ञान प्रोत्साहन के लिए सेवाकालीन शिक्षकों के कोर्स आयोजित करना।
(3) विज्ञान शिक्षण के लिए खोजपूर्ण विधियों का उपयोग करना।
(4) विज्ञान शिक्षण विद्यार्थियों के सामान्य ज्ञान और उनके वातावरण से सम्बंधित हो।
(5) विज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं आधुनिक विज्ञान का समन्वय करना।
अभ्यास प्रश्न ( परीक्षा उपयोगी प्रश्न )
1. विज्ञान (Science) शब्द की उत्पत्ति किस भाष से हुई है ?
(a) अंग्रेजी
(b) फ्रेंच
(c) लैटिन
(d) ग्रीक
उत्तर – (c)
2. निम्न में से कौन सा कथन असल्य है ?
(क) विज्ञान में अनुमान और अटकलों के लिए भी जगह होती है।
(ख) विज्ञान के नियमों को कभी भी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है ।
(a) केवल क
(b) केवल ख
(c) क एवं ख दोनों
(d) दोनों में से कोई नहीं
उत्तर – (d)
3. विज्ञान के सिद्धान्त मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं और पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और उनमें सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
उपरोक्त कथन विज्ञान शिक्षण के किस उद्देश्य से सम्बंधित हैं?
(a) सामाजिक
(b) सांस्कृतिक
(c) व्यावसायिक
(d) व्यावहारिक
उत्तर – (a)
4. निम्न में से कौन सा मापदंड यह सिखाता है कि विज्ञान कैसे सीखा जाए?
(a) विषय वस्तु वैधता
(b) परिवेशीय वैधता
(c) संज्ञानात्मक वैधता
(d) प्रक्रिया वैधता
उत्तर – (d)
5. प्राथमिक स्तर पर विषय वस्तु का सबसे अच्छा मापदंड है
(a) बच्चा
(b) शिक्षक
(c) परिवार
(d) स्कूल
उत्तर – (a)
6.उच्च माध्यमिक स्तर पर पाठ्यचर्या होनी चाहिए।
(a) समस्या समाधान परक
(b) जागरूकता परक
(c) आलोचनात्मक परक
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर – (d)
7. ‘वैज्ञानिक साक्षरता’ सम्प्रत्यय रचा गया
(a) 1950 के दशक में
(b) 1955 के दशक में
(c) 1945 के दशक में
(d) 1960 के दशक में
उत्तर – (a)
8. विज्ञान के अध्ययन से दूर किया जा सकता है?
(a) आपसी मन-मुटाव
(b) अंधविश्वास
(c) इनमें से कोई नही
(d) पुरानी मान्यताएँ
उत्तर – (b)
9. विज्ञान के अध्ययन से किया जा सकता है?
(a) छात्रों की कार्यक्षमता में वृद्धि
(b) प्रजातान्त्रिक नागरिकता का विकास
(c) सार्वभौमिक दृष्टिकोण का विकास
(d) ये सभी ।
उत्तर – (d)
10. पर्यावरण के लिए आवश्यक है?
(a) वनों की सुरक्षा
(b) पर्यावरण सन्तुलन
(c) वनीकरण
(d) ये सभी ।
उत्तर – (d)
11. यह विधि जिसे वैज्ञानिक अपनाते हैं, कहलाती हैं?
(a) मनावैज्ञानिक विधि
(b) वैज्ञानिक विधि
(c) गणितीय विधि
(d) ये सभी ।
उत्तर – (b)
◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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