बाल विकास के सिद्धान्त Principles of child development

बाल विकास के सिद्धान्त, Principles of child development,मनोविज्ञान के सिद्धान्त-दोस्तों बाल मनोविज्ञान की शुरुआत बाल विकास के सिद्धान्तों से ही होती है।

हमे शुरुआत में ही इस टॉपिक को पढ़ना होता है। इसीलिए आज हम आपको हमारी वेबसाइट hindiamrit.com के माध्यम से इस टॉपिक की विधिवत जानकारी देगें।

Contents

बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक


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(1) वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धांत -(principle of individual differences)

इस सिद्धांत के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता के अनुसार होती है।

वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं।
इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं।

कोई भी बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।

विकास की इसी सिद्धांत के कारण कोई बालक अत्यंत मेधावी तो कोई बालक सामान्य तथा कोई बालक पिछड़ा होता है।

स्किनर के अनुसार

“विकास के स्वरूपों में व्यापक वैयक्तिकभिन्नताएं होती है।”




(2) निरंतर विकास का सिद्धांत- (principle of continuous growth)

विकास एक ना रुकने वाली प्रक्रिया है।
मां के गर्भ से ही यह प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है और  मृत्यु पर्यंत चलती रहती है।

एक छोटे से नगण्य आकार से अपना जीवन प्रारंभ करके हम सब के व्यक्तित्व के सभी पक्षों शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक आदि का संपूर्ण विकास इसी निरंतरता के गुण के कारण भली-भांति संपन्न हो पाता है।

स्किनर के अनुसार

“विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत केवल इस तथ्य पर बल देता है कि कोई भी परिवर्तन आकस्मिक नहीं होता”





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(3) विकास क्रम का सिद्धांत (principle of development sequence)

यह सिद्धांत बताता है कि विकास की गति एक जैसी ना होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अंतर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं।

इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएं देखने को मिलती हैं।

जैसे मनुष्य जाति के सभी बालकों की वृद्धि सिर की ओर प्रारंभ होती है। इसी तरह बालकों के गत्यात्मक और भाषा विकास में भी एक निश्चित प्रतिमान और क्रम के दर्शन किए जा सकते हैं।



(4) सामान्य और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of general and specific response)

विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है।

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विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते हैं।

जैसे अपने हाथों से कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर से उधर यूं ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है।

इसी तरह शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग प्रत्येक भाग लेते हैं।

परंतु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप या क्रियाएं उसकी आंखों और वाकतंत्र तक सीमित हो जाती हैं।

भाषा विकास में भी बालक विशेष शब्दों से पहले सामान्य शब्द ही सीखता है।

पहले वह सभी व्यक्तियों को पापा कहकर ही संबोधित करता है।

इसके बाद ही वह केवल अपने पिता को पापा कह कर संबोधित करना सीखता है


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(5)  विकास के विभिन्न गति का सिद्धांत(principle of different rate of growth)

विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती तो है किन्तु इस प्रक्रिया में विकास की गति हमेशा एक जैसी नहीं होती।

शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में या गति कुछ तीव्र होती है परंतु बाद के वर्षों में यह मंद पड़ जाती है।

पुनः किशोरावस्था के प्रारंभ में इस गति में तेजी से वृद्धि होती है परंतु या अधिक समय तक नहीं बनी रहती।

इस प्रकार वृद्धि और विकास की गति में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं किसी भी अवस्था में या एक जैसी नहीं रह पाती।

डगलस और हालैंड के अनुसार-

“विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता पाई जाती है।”




(6) परस्पर संबंध का सिद्धांत(Principle of interrelation)

विकास के सभी आयाम जैसे शारीरिक,मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि एक दूसरे से परस्पर संबंधित है।

इनमें से किसी भी एक आयाम में होने वाला विकास अन्य सभी आयामों में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

उदाहरण के लिए जिन बच्चों में औसत से अधिक वृद्धि होती है

वे शारीरिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से ही भी काफी आगे बढ़े हुए पाए जाते हैं।

दूसरी ओर एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र में हो रही प्रगति में बाधक सिद्ध होती है।

यही कारण है कि शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़े बालक संवेगात्मक,सामाजिक एवं बौद्धिक विकास में भी उतने पीछे रह जाते हैं।


★★★★ इन्हें भी पढ़िये-

    ◆ बालक पर वंशानुक्रम तथा वातावरण का प्रभाव

     ● अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त

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(7) एकीकरण का सिद्धान्त (principle of integration)

विकास की प्रक्रिया एकीकरण के सिद्धांत का पालन करती है।

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इसके अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है।

इसके बाद वह उन  भागों में एकीकरण करना सीखता है।

सामान्य से विशेष की ओर बढ़ते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा चिंताओं को इकट्ठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है।

उदाहरण के लिए एक बालक पहले पूरे हाथ को फिर उंगलियों को फिर हाथ एवं उंगुलियों को एक साथ चलाना सीखता है।



(8) विकास के भविष्य का सिद्धान्त (principle of future of growth)

इस सिद्धांत के अनुसार विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है।

एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रखकर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है।

जैसे एक बालक की कलाई की हड्डियों का एक एक्स किरणों से लिया जाने वाला चित्र बता सकता है।कि उसका आकार प्रकार आगे जाकर किस प्रकार का होगा?

इस प्रकार इस तरह बालक की इस समय की मानसिक योग्यताओं के ज्ञान के सहारे उसके आगे के मानसिक विकास के बारे में पूर्व अनुमान लगाया जा सकता है।

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(9) विकास की दिशा का सिद्धांत(principle of development direction)

विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशा में आगे बढ़ती हैं।

विकास की प्रक्रिया की यह दिशा  व्यक्ति के वंशानुगत एवं वातावरण अन्य कारकों से प्रभावित होती है।

इसके अनुसार बालक सबसे पहले अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियंत्रण करना सीखता है।

और उसके बाद फिर टांगों को इसके बाद ही वह अच्छी तरह बिना सहारे के खड़ा होना और चलना सीखता है।

बालक का विकास लंबवत ना होकर वर्तुलाकार होता है।

वह एक ही गति से सीधा चलकर विकास को प्राप्त नहीं होता ।

बल्कि बढ़ते हुए पीछे हट कर अपने विकास को परिपक्व और स्थाई बनाते हुए वर्तुल आकार आकृति की तरह आगे बढ़ता है।




(10) समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of uniform pattern)

सिद्धांत के अनुसार चाहे को बालक हो या कोई भी वस्तु जाति का हो उसके विकास में एक समान प्रतिमान देखने को मिलता है ।

अर्थात वे अपनी ही जाति के प्रतिमान (सिद्धांत ) का अनुसरण करते हैं।

हरलॉक के अनुसार

“प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाती हो या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान सिद्धांत का अनुसरण करती है।”




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(11)  वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धांत(Principles of interaction of heredity and environment)

बालक की वृद्धि और विकास को किसी स्तर पर वंशानुक्रम और वातावरण की संयुक्त देन माना जाता है।

दूसरे शब्दों में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में वंशानुक्रम जहां आधार का कार्य करता है।

वह वातावरण इस आधार पर बनाए जाने वाले व्यक्तित्व संबंधी भवन के लिए आवश्यक सामग्री एवं वातावरण जुटाने में सहयोग देता है।

अतः वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में इन दोनों को समान महत्व दिया जाना आवश्यक हो जाता है।

इस प्रकार बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का परिणाम है।

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विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व

(1) बाल विकास के सिद्धांतों के ज्ञान के फलस्वरूप शिक्षकों को बालकों की स्वभाव गत विशेषताओं सूचियों एवं क्षमताओं के अनुरूप सफलतापूर्वक अध्यापन में सहायता मिलती है।

(2) निचली कक्षाओं में शिक्षण की खेल पद्धति मूल रूप से वृद्धि और विकास के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है।

(3) सिद्धांत के द्वारा शिक्षक बालक की योग्यत क्षमता,रुचि ,अभिवृत्ति, ज्ञान आदि को जान सकता है।

(4) इस सिद्धांत के द्वारा बालकों के भविष्य में होने वाली प्रगति का अनुमान लगाना काफी हद तक संभव हो जाता है।

जिसके द्वारा उनको उचित परामर्श, मार्गदर्शन ,निर्देशन आदि दिया जा सके।

(5) बाल विकास के सिद्धांतों के ज्ञान से बालक की रुचियां ,अभिवृत्तियों,क्षमताओं इत्यादि के अनुरूप उचित पाठ्यक्रम के निर्धारण एवं समय सारणी के निर्माण में सहायता मिलती है।

(6) बालक के व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास के लिए आवश्यक है कि उसके व्यवहार की जानकारी शिक्षक की हो।

(7) बालक के व्यवहार के बारे में जानने के बाद उसकी समस्याओं का समाधान करना आसान हो जाता है।

(8) सिद्धांत के द्वारा शिक्षक बालक की योग्यत क्षमता,रुचि ,अभिवृत्ति, ज्ञान आदि को जान सकता है।

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