बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

Contents

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार


उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार | बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष

Tags  –  बौद्ध कालीन शिक्षा की विशेषताएं,बौद्ध कालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषता बताएं,Properties of Buddhist Education in hindi,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण,बौद्ध कालीन शिक्षा का उद्देश्य,उपसम्पदा संस्कार क्या है,upsampada sanskar,बौद्ध कालीन शिक्षा क्या है,बौद्ध कालीन शिक्षा का अर्थ,बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली,Buddhist Education in hindi,
बौद्ध कालीन शिक्षा के दोष,बौद्ध काल में शिक्षा के उद्देश्य,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण,बौद्ध कालीन शिक्षा के दोष,Buddhist Education in hindi,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण एवं दोष,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण और दोष,बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा संस्कार,उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार,

बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली / Buddhist Education system


उत्तर वैदिक काल में धर्म में अनेक दोष आ गये थे। कर्मकाण्डों की प्रधानता हो गयी थी। स्त्रियाँ तथा शूद्र हेय दृष्टि से देखे जाने लगे थे और उनकी शिक्षा की उपेक्षा हो रही थी। ऐसे समय में भगवान बुद्ध का अवतार हुआ। उन्होंने जो धार्मिक क्रान्ति उपस्थित की, उसका प्रभाव तत्कालीन शिक्षा प्रणाली पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप एक नयी शिक्षा प्रणाली सामने आयी, जिसे बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली कहा जाता है। आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध (563-483 बी. सी.) ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। बौद्ध धर्म को व्यापक हिन्दू धर्म का ही एक विकसित रूप माना जा सकता है।

बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिये बौद्ध मठों तथा विहारों की स्थापना की गयी थी। प्रारम्भ में इन मठों तथा विहारों का एकमात्र उद्देश्य बौद्धों को धर्म की शिक्षा प्रदान करना था परन्तु कालान्तर में सभी धर्मों के छात्रों को इन मठों तथा विहारों में शिक्षा दी जाने लगी। बौद्ध धर्म ने निर्वाण-प्राप्ति पर अधिक बल दिया। निर्वाण से अभिप्राय उस स्थिति से था, जिसमें सभी लालसाएँ समाप्त हो जाती हैं।

बुद्धकाल की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों को ऐसा आचरण सिखाना था, जिससे मस्तिष्क को स्थिरता एवं शान्ति प्राप्त हो सके। बौद्धकालीन शिक्षा तथा वेदकालीन शिक्षा में एक अन्तर यह था कि बौद्धकाल में वेदकाल की तरह पाठ्यक्रम में वेदों का ज्ञान ही नहीं था तथा शिक्षक के लिये ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं था। बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव ने समाज के एक विशेष वर्ग का शिक्षण एवं ज्ञान प्राप्ति पर चले आ रहे वंशानुगत एकाधिकार को समाप्त कर दिया तथा जनमानस में शिक्षा के महत्त्व एवं माँग को बढ़ा दिया। नालन्दा बिहार (425 ई. से 1205 ई. तक) बौद्धकालीन शिक्षा का गौरव था।

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ
Characteristics of Buddhist Education

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था को उसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है-

1.शिक्षा के उद्देश्य

बौद्धकाल में मानव जीवन का लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति माना गया। इसकी प्राप्ति के लिये शिक्षण में धार्मिक साहित्य को अधिक महत्त्व मिला, परन्तु जीवनोपयोगी एवं औद्योगिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की गयी। शिक्षा का उद्देश्य था-जीवन के लिये तैयारी,चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व विकास एवं धार्मिक शिक्षा का प्रसार । लौकिक पाठ्यक्रम का उद्देश्य था-स्त्रियों एवं पुरुषों को उचित नागरिक बनाना तथा उन्हें सामाजिक-आर्थिक जीवन के लिये उपयुक्त बनाना।

2.प्रवज्या संस्कार

शिक्षा प्राप्त करने के लिये बालकों का संस्कार होता था। प्रव्रज्या का शाब्दिक अर्थ है-बाहर जाना। अतः प्रव्रज्या संस्कार से तात्पर्य है-शिक्षा के लिये घर से बाहर जाना। मठ का सबसे बड़ा भिक्षु ही सामान्यतः इस संस्कार को सम्पन्न कराता था। प्रव्रज्या के इच्छुक बालक सिर के बाल मुड़वाकर तथा पीले वस्त्र पहनकर भिक्षु के चरणों में माथा टेक कर ‘शरण-त्रयी’ लेता था अर्थात् बालक बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मं शरणम गच्छामि, संघं शरणम् गच्छामि का उच्चारण करता था। प्रव्रज्या आठ वर्ष के बालक को दी जाती थी तथा प्रव्रज्या के बाद विद्यार्थी सामनेर’ कहलाता था और उसे मठ में ही रहना होता था।

ये भी पढ़ें-  शिक्षण के प्रकार | types of teaching in hindi | प्रभावशाली शिक्षण की विशेषताएं

3. छात्रों की दिनचर्या

बौद्धकाल में छात्रों की दिनचर्या अत्यधिक कठिन थी। छात्र भिक्षाटन करते थे तथा कड़े अनुशासन में रहते थे। प्रात:काल गुरु के दन्तधावन, स्नान आदि नित्य कर्मों की व्यवस्था करने के पश्चात् छात्रगण भोजन की व्यवस्था करते थे। गुरु छात्रों को शिक्षा-प्राप्ति के लिये प्रेरित करता था। वह एक प्रकार का प्रेरणादायक वातावरण तैयार करता था, जिससे छात्र अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर सकें। छात्रगण जिज्ञासावश प्रश्न करते थे तथा गुरु उनका उत्तर उपदेश के रूप में देता था।

‘सामनेर’ को दस आदेशों का पालन करना आवश्यक था। इन आदेशों को दस सिक्खा पदानि कहते थे। ये दस आदेश थे-

(1) अहिंसा का पालन करना, (2) शुद्ध आचरण करना, (3) सत्य बोलना, (4) सत् आहार करना, (5) मादक पदार्थों से दूर रहना, (6) निन्दान करना,(7) सरल जीवन व्यतीत करना, (8) नृत्यादि तमाशे न देखना, (9) बिना दिवे किसी वस्तु को न लेना, (10) सोना, चाँदी, हीरे जैसी बहुमूल्य वस्तुओं का दान न लेना।

4.बौद्धकालीन शिक्षा की संस्थाएँ

बौद्ध काल में शिक्षा गुरुओं का व्यक्तिगत उद्यम न होकर संस्थागत हो गयी थी। बौद्ध युग में व्यक्तिगत अध्यापक तथा उनके आश्रम वृहत्तर इकाइयों में संघबद्ध हो गये थे जिन्हें बौद्धसंघ अथवा बौद्ध मठ अथवा बौद्ध विहार अथवा बौद्ध संघाराम कहते थे। बौद्ध-धर्म के प्रचार के साथ उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में स्थान-स्थान पर बौद्ध मठ स्थापित हो गये थे। इन बौद्ध मठों में धार्मिक, विद्यालयी तथा व्यावहारिक शिक्षा दी जाती थी। छात्र तथा अध्यापक एक ही प्रांगण में रहते थे। इन बौद्ध मठों का वातावरण वैदिक काल के आश्रमों की अपेक्षा सामाजिक था जिससे शिक्षा में शैक्षिक स्वाभाविकता न होकर एक प्रकार की कृत्रिमता आ गयी थी।

छात्रगण बौद्ध मठ में 12 वर्ष तक रहकर अध्ययन करते थे। तक्षशिला, नालन्दा, जलभी, विक्रमाशिला, आदन्तपुरी, नदिया, मिथिला तथा जगद्दला बौद्ध काल की प्रमुख शिक्षा संस्थाएँ थीं।

5. बौद्धकालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम

बौद्ध शिक्षा निवृत्ति प्रधान थी। इसका प्रमुख उद्देश्य जीवन में निर्वाण’ की प्राप्ति था। अत: शिक्षा में बौद्ध धर्म के ज्ञान का बोलबाला था। अधिकांश सामनेर’ बौद्ध धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते थे, परन्तु यह अर्थ नहीं था कि उस समय जीवनोपयोगी शिक्षा का अभाव था। वास्तव में बौद्धकाल में शिक्षा दो भागों में विभाजित थी-प्रारम्भिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा । प्रारम्भिक शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना तथा गणित सिखाया जाता था। उच्च शिक्षा के अन्तर्गत धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, शिल्पकला तथा सैनिक शिक्षा आदि का अध्ययन कराया जाता था।

6.बौद्धकालीन शिक्षा की शिक्षण विधि

बौद्ध काल में शिक्षा विधि वेदकालीन शिक्षा की शिक्षण विधि के लगभग समान ही थी। शिष्य गुरु से पाठ सुनता था तथा याद करता था। यद्यपि वेदोच्चारण जैसी उच्चारण शुद्धता पर बल नहीं दिया जाता था फिर भी उच्चारण की शुद्धता पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। शिक्षण कार्य प्राय: मौखिक होता था। प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद, देशाटन आदि के द्वारा छात्र ज्ञान ग्रहण करते थे। प्राकृत अथवा पाली भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। शिल्पकला, चिकित्साशास्त्र, सैनिक शिक्षा जैसे व्यावहारिक विषयों के शिक्षण कार्य हेतु प्रयोगात्मक विधि का भी उपयोग किया जाता था।

7. छात्र-अध्यापक सम्बन्ध

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत छात्र तथा अध्यापकों के सम्बन्ध अत्यन्त मधुर, पवित्र तथा स्नेहपूर्ण होते थे। छात्रों के स्वास्थ्य, शिक्षा, आचरण, नैतिक व्यवहार तथा आध्यात्मिक विकास पर अध्यापकगण व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते थे। इस प्रकार से अध्यापकों का मुख्य दायित्व छात्रों के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करना था। छात्रों का मुख्य कर्त्तव्य अपने आचार्यों की सेवा करना होता था। इसलिये छात्र-अध्यापक सम्बन्धों का आधार परस्पर मधुर, पवित्र, स्नेहपूर्ण, व्यवहार तथा श्रद्धा एवं विश्वास था।

शिक्षक अपने विशाल व्यक्तित्व, विद्वता, उच्च चरित्र, तपस्या, साधना, संयम, अनुशासन तथा गरिमापूर्ण व्यवहार से छात्रों पर अमिट प्रभाव छोड़ता था। छात्र भी अपनी आस्था, श्रद्धा, विनय, विश्वास,आदर तथा सेवायुक्त व्यवहार से अध्यापकोंको श्रद्धासुमन अर्पित करते थे। शिष्योतथा अध्यापकों के परस्पर सहयोग से शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था तथा संचालन में सहायता मिलती थी तथा सभी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करने में मनोयोग से लगे रहते थे।

ये भी पढ़ें-  लेखन का अर्थ एवं उद्देश्य / लेखन का महत्व एवं उपयोगिता

8. दण्ड व्यवस्था एवं अनुशासन

बौद्ध मठ के नियमों एवं अनुशासन का पालन छात्रों के लिये आवश्यक था। यदि कोई छात्र बौद्ध मठ के नियमों का उल्लंघन करता पाया जाता था तो उसे मठ से निष्कासित कर दिया जाता था। बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म को स्वीकार करने, गृहस्थ बन जाने,संघ की मर्यादा को भंग करने अथवा अध्यापक के प्रति श्रद्धा, भक्ति का सम्मान न रखने पर छात्रों को बौद्ध मठ से पृथक् कर देने का प्रावधान था।

9. नारी शिक्षा

बौद्धकालीन शिक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में नारी शिक्षा लगभग उपेक्षित ही रही। बाद में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों को भी भिक्षुणी के रूप में मठों में प्रवेश की अनुमति दे दी थी। भिक्षुणी मठों में रहकर पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन करती थीं। वे अकेले आचार्य के साथ नहीं रह सकती थीं तथा विशिष्ट रूप से निर्धारित भिक्षुक अन्य भिक्षुओं की उपस्थिति में ही उन्हें शिक्षा प्रदान कर सकता था। वह पुरुष भिक्षुकों से अलग रहती थीं। कहीं-कहीं स्त्रियों के लिये भी मठों का निर्माण हुआ। बौद्धकाल में स्त्री शिक्षा केवल उच्च वर्ग की महिलाओं को ही उपलब्ध हो पाती थी। सामान्य एवं निम्न स्तरीय परिवारों की महिलाओं में शिक्षा का प्रचार लगभग शून्य के बराबर ही था।

10. उपसम्पदा संस्कार / उपसम्पदा संस्कार की आयु

बौद्ध मठ में 12 वर्ष की शिक्षा समाप्त करने पर उपसम्पदा संस्कार होता था। यह बौद्ध पद्धति का द्वितीय तथा अन्तिम संस्कार था। बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति में उपसम्पदा संस्कार के बाद ‘सामनेर’ पक्का भिक्षुक बन जाता था। उसका गृहस्थ जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता था। बौद्ध शिक्षा में 12 वर्ष की शिक्षा के बाद छात्रों के लिये दो मार्ग होते थे-प्रथम, गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना तथा द्वितीय, आजन्म भिक्षुक रहकर बौद्ध धर्म का प्रचार करना। दूसरे मार्ग को अपनाने वाले छात्रों का ही उपसम्पदा संस्कार होता था।

‘उपसम्पदा संस्कार’ मठ के समस्त भिक्षुओं के समक्ष एक उत्सव के रूप में होता था। ‘सामनेर’ भिक्षुओं का वेश धारण करके, हाथ में कमण्डल तथा कन्धे पर चीवर लेकर अन्य भिक्षुकों को प्रणाम करके बैठ जाता था। सभी भिक्षुक जनतान्त्रिक विधि से बहुमत के आधार पर निर्णय लेते थे कि वह उपसम्पदा का अधिकारी है अथवा नहीं। उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुक बौद्ध मठ का स्थायी सदस्य बन जाता था।

11. भिवित्त व्यवस्था

बौद्ध काल में शिक्षा संस्थागत रूप ले चुकी थी। इसलिये
शिक्षा के लिये अच्छी तरह से संगठित एवं सुदृढ़ आर्थिक-व्यवस्था आवश्यक थी। बुद्धकालीन शिक्षा में शिक्षा का वित्तीय प्रबन्धन व्यवस्थित तथा स्थायी हो गया था। शिक्षा संस्थाओं अर्थात् बौद्ध मठों को निरन्तर वित्तीय सहायता मिलती रहे। इसलिये कुछ साधन दृढ़ एवं स्थायी बन गये थे। राजकीय सहायता अत्यधिक बढ़ा दी गयी थी। बौद्ध मठों को पूर्णरूपेण शासन का संरक्षण प्राप्त होता था। राजस्व, धर्मस्व, उपहार, दान, समाज द्वारा सहायता, भिक्षा तथा शुल्क इत्यादि बौद्ध विद्यापीठों की आय के प्रमुख साधन थे। छात्रों के भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, अध्यापकों के वेतन, उपकरणों एवं भवनों का निर्माण एवं देखभाल तथा साहित्य सृजन बौद्धकालीन शिक्षा के व्यय की प्रमुख मदें थीं।

12. सर्वसाधारण की शिक्षा

बौद्ध शिक्षा के केन्द्र बौद्ध विहार अथवा बौद्ध संघ में भिक्षुओं की ही शिक्षा-व्यवस्था थी। संघों में जनसामान्य की शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। बौद्ध भिक्षु भिक्षाटन अथवा भ्रमण करते समय जनसामान्य की धार्मिक शंकाओं का निवारण करते थे। उन्हें धार्मिक एवं नैतिक उपदेश देते थे। धार्मिक सिद्धान्तों और आचार संहिता के विषय में शिक्षित करते थे। जनसामान्य में धर्म के प्रति विश्वास और आस्था को जागृत करते थे। इस प्रकार वे संघों से बाहर जाकर जनसामान्य को शिक्षित करते थे।

ये भी पढ़ें-  रुचि या अभिरुचि का अर्थ और परिभाषा,रुचि के प्रकार,विशेषतायें,रुचि परीक्षण एवं मापन

बौद्धकालीन शिक्षा के गुण / Merits of Buddhist Education

बौद्धकालीन शिक्षा में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं-


(1) बौद्धकाल में प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। शिक्षा के द्वार महिलाओं के लिये भी खुले थे। किसी भी जाति एवं वर्ण का व्यक्ति शिक्षक हो सकता था तथा वह सदा आदरणीय होता था।

(2) असामाजिक एवं आपराधिक कार्य करने वालों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं था। प्रव्रज्य होने के बाद नव भिक्षु अपने आध्यात्मिक गुरु का चयन करता था। उनके निर्देशन मैं वह पूर्ण भिक्षु पद प्राप्त कर सकता था।

(3) सिद्ध विहारिका में ब्रह्मचर्य पर सर्वाधिक बल दिया जाता था। उसे गुरु के लिये अनेक सेवाकार्य भी करने पड़ते थे अपराध होने की दशा में विद्यार्थी अपराध बोध करते थे एवंदण्ड के लिये निवेदन करते थे।

(4) शिष्य गुरु के दोष बता सकते थे। योग्यता-प्रदर्शन के अनुसार भिक्षुओं हेतु भिन्न-भिन्न स्तर की शिक्षा दी जाती थी एवं कक्षा स्तरीकृत थी। विद्यार्थी समूह में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे।

बौद्धकालीन शिक्षा के दोष / Demerits of Buddhist Education

बौद्धकालीन शिक्षा में निम्नलिखित दोष भी दृष्टिगोचर होते हैं.-

(1) बौद्ध धर्म के अनुयायियों एवं बौद्ध धर्म के समर्थकों, परन्तु संघ में सम्मिलित न होने वाले सामान्य लोगों हेतु शिक्षा की समान व्यवस्था नहीं थी।

(2) बौद्ध संघ में सामनेर को जीवनपर्यन्त उसी समुदाय में रहना होता था। वह शिक्षा काल पूरा होने के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश नहीं करता था।

(3) विद्यार्थी शिक्षकों के दोष बताते थे एवं उनके विरुद्ध संघ की कार्यवाही प्रभावी कर सकते थे।

(4) मेठों में शिक्षकों के दो स्तर थे एवं उनका निर्धारण सेवाकाल की वरिष्ठता का निर्धारण-दस वर्ष अथवा छ: वर्ष के आधार पर होता था।  विद्यार्थी सदैव के लिये गृह त्याग करते थे।

(5) शिक्षा समाप्ति की आयु बीस वर्ष थी। मठ एवं विहार केन्द्रीय बौद्ध संघ के नियन्त्रण में कार्य करते थे।

(6) बौद्ध शिक्षा के धर्म पर आधारित होने के कारण इसमें केवल आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता था। संसार को क्षणभंगुर मानने तथा दूसरे संसार के लिये तैयार करने के कारण बौद्ध शिक्षा ने लौकिक जीवन की उपेक्षा की।

(7) बौद्ध शिक्षा से केवल धनी, सम्पन्न एवं कुलीन वर्ग की स्त्रियाँ ही लाभान्वित रहीं। सामान्य वर्ग की स्त्रियों के लिये शिक्षा प्राप्त करने के अवसर लगभग नहीं के बराबर थे।

(8) बौद्ध भिक्षुणियों ने स्त्रियों एवं बालिकाओं की शिक्षा के उत्तरदायित्व का निर्वाह उचित ढंग से नहीं किया। कालान्तर में बौद्ध मठों के संगठन में शिथिलता आने लगी। भिक्षुक तथा भिक्षुणियों के परस्पर सम्पर्क से व्यभिचार आरम्भ हो गया, जो बौद्ध धर्म के पतन का प्रमुख कारण था।

(9) अहिंसा में विश्वास रखने के कारण बौद्धकाल में अस्त्र-शस्त्र निर्माण तथा सैनिक प्रशिक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि देश सैन्य दृष्टि से निर्बल हो गया।

आपके लिए महत्वपूर्ण लिंक

टेट / सुपरटेट सम्पूर्ण हिंदी कोर्स

टेट / सुपरटेट सम्पूर्ण बाल मनोविज्ञान कोर्स

50 मुख्य टॉपिक पर  निबंध पढ़िए

Final word

आपको यह टॉपिक कैसा लगा हमे कॉमेंट करके जरूर बताइए । और इस टॉपिक बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार को अपने मित्रों के साथ शेयर भी कीजिये ।

Tags – बौद्ध कालीन शिक्षा की विशेषताएं,बौद्ध कालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषता बताएं,Properties of Buddhist Education in hindi,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण,बौद्ध कालीन शिक्षा का उद्देश्य,उपसम्पदा संस्कार क्या है,upsampada sanskar,बौद्ध कालीन शिक्षा क्या है,बौद्ध कालीन शिक्षा का अर्थ,बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली,Buddhist Education in hindi,
बौद्ध कालीन शिक्षा के दोष,बौद्ध काल में शिक्षा के उद्देश्य,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण,बौद्ध कालीन शिक्षा के दोष,Buddhist Education in hindi,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण एवं दोष,बौद्ध कालीन शिक्षा के गुण और दोष,बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | बौद्धकालीन शिक्षा के गुण एवं दोष | उपसम्पदा संस्कार,उपसम्पदा एवं प्रवज्या संस्कार

Leave a Comment