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Contents
रस – परिभाषा,अंग,भेद,उदाहरण | ras in hindi | हिंदी में रस
हमने इस टॉपिक में क्या क्या पढ़ाया है?
(1) रस की परिभाषा
(2) रस के अंग
(3) विभाव
(4) अनुभाव
(5) संचारी भाव
(6) स्थायी भाव
(7) रस के भेद
(8) रस के प्रकार एवं उदाहरण
(9) रस सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
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रस की परिभाषा | रस किसे कहते हैं
काव्य को पढ़ने, सुनने या नाटक को देखने में जो आनन्द आता है, उसे ‘रस’ कहते हैं । यह आनन्द अलौकिक तथा अवर्णनीय होता है।
रस-निष्पत्ति
रस की अनुभूति कैसे होती है? इस सम्वन्ध में भरत मुनि ने नांट्यशास्त्र में लिखा है- विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रस-निष्पत्तिः ।
“विभाव, अनुभाव और व्यभिचारियों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।’‘
रस के अंग
(1) विभाव
(2) अनुभाव
(3) व्यभिचारी अथवा संचारी भाव
(4) स्थायी भाव
(1) विभाव
जिस सामग्री द्वारा स्थाथी भाव जागृत तथा तीव्र होता है, उसे विभाव कहते हैं।
विभाव के भेद | विभाव के प्रकार
इसके दो भेद होते हैं-
(i) आलम्बन-विभाव
(ii) उद्दीपन-विभाव।
(i) आलम्बन-विभाव
जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई स्थायी भाव जागृत होता है.
आलम्बन विभाव कहते हैं।
इसके दो अंग होते हैं-
(क) आश्रय-जिस व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव जागृत होता है, उसे आश्रय कहा जाता है।
(ख) विषय-जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण आश्रय के हृदय में रति आदि स्थायी भाव जागृत होते हैं, उसे ‘विषय’ कहते हैं।
जैसे –
लक्ष्मण-परशुराम-संवाद’ में लक्ष्मण के प्रति परशुराम जी के हृदय में क्रोध नाम का स्थायी भावे जागृत होता है। अतः लक्ष्मण आलम्बन विभाव है। इनमें ‘परशुराम’ आश्रय है और ‘लक्ष्मण’ विषय है।
(ii) उद्दीपन-विभाव
जिस व्यक्ति, दृश्य अथवा आलम्बन की चेष्टा से पूर्व जागृत स्थायी भाव और उद्दीप्त (तीव्र) हो, उसे उद्दीपन-विभाव कहते हैं।
जैसे– पुष्प वाटिका में सीता को देखकर राम के रति भाव का वर्णन ।
राम आश्रय, सीता ‘आलम्बन, रति ‘स्थायीं भाव तथा चारों और खिले फूल,सुगंधित वायु, चाँदनी आदि उद़दीपन विभाव होंगे।
(2) अनुभाव
आलम्बन तथा उद्दीपत के द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव के जागृत तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय में जो चेष्टाये होती है, उन्हें अनुभाव कहते हैं।
जैसे –
उत्साह में शत्रु को ललकारना, क्रोध में ऑखे लाल होना आदि।
अनुभाव के प्रकार | अनुभाव के भेद
ये चार प्रकार के होते हैं-
(i) सात्विक अनुभाव
(ii) कायिक अनुभाव
(iii) मानसिक अनुभाव
(iv) आहार्य अनुभाव
(i) सात्विक-अनुभाव
जो अनुभाव बिना आश्रय के प्रयास के आप से आप होते हैं, वे सात्विक अनुभाव कहलाते हैं।
ये आठ होते हैं-
(1)स्तम्भ (अंगरों की गति रुक जाना)
(2) स्वेद ( पसीना आ जाना)
(3) रोमांच (रॉंगटे खड़े हो जाना)
(4) स्वर भंग
(5) कम्प
(6) वैवंर्य (रग फीका पड़ जाना)
(7) अश्रु
(8) प्रलय (सुध-बुध खो जाना)
(ii) कायिक अनुभाव
अनुभाव-इनका सम्बन्ध शरीर से होता है। शरीर जो चेष्टाएँ आश्रय की इच्छानुसार जान-बूझ कर प्रयत्नपूर्वक करता है, उन्हें कायिक अनुभाव कहते हैं।
जैसे –
क्रोध में कठोर शब्द कहना, उत्साह में पैर पटकना आदि।
(iii) मानसिक अनुभाव
मन में हर्ष,विषाद आदि भावों के उद्वेलन से जो भाव प्रदर्शित होते किये जाते हैं,मानसिक अनुभाव कहते हैं।
(iv) आहार्य अनुभाव
मन के भावों के अनुसार अलग अलग प्रकार की कृत्रिम वेश रचना को आहार्य अनुभाव कहते हैं।
(3) व्यभिचारी अथवा संचारी भाव
आश्रय के हृदय में स्थायी भाव जागृृत होने पर कुछ क्षणिक भाव
बीच-बीच में उठते तथा विलीन होते रहते हैं। इनके द्वारा स्थायी भाव और भी तीव्र तथा संचरणशील हो जाता है। इन्हें संचारी अथवा व्यभिचारी भाव कहते हैं।
संचारी भेद की संख्या कितनी हैं ?
यद्यपि ये अनेक हो सकते हैं तथापि इनकी संख्या 33 मानी गयी है।
संचारी भाव के भेद | संचारी भाव के प्रकार
ये निम्नलिखित हैं-
(1) निर्वेद (2) ग्लानि (3) आवेग (4) दैन्य (5) श्रम
(6) जड़ता (7) उग्रता (8) मोह (9) मद (10) संका
(11) चिन्ता (12) विधाद (13) व्याधि (14) आलस्य
(15) अमर्ष (16) हर्ष (17) असूया (18) गव
(19) धृति (20) मति (21) चापल्य (22) ब्रीड़ा
(23) अवहित्था (24) निद्रा (25) स्वना (26) विवोध
(27) उन्माद (28) अपरस्मार (29) स्मृति
(30) औत्सुक्य (31) त्रास (32) वितर्क (33) मरण
(4) स्थायी भाव
रस रूप में परिणत होने वाले तथा मनुष्य के हृदय में स्थायी रूप से रहने वाले भावो को स्थायी भाव कहते हैं।
मनुष्य के हृदय में रति, शोक आदि कुछ भाव हर समय सुप्तावस्था में रहते हैं, जिन्हें स्थायी भाव कहते हैं।
स्थायी भाव के प्रकार | स्थायी भाव के भेद
स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गयी है। ये निम्नलिखित हैं-
(1) रति (दाम्पत्य प्रेम), (2) उत्साह, (3) शोक, (4) क्रोध, (5) हास, (6) भय, (7) जुगुत्सा, (8) विस्मय, तथा (9) निर्वेद
कुछ विद्वान वात्सल्य (सन्तान प्रेम) को दसवाँ स्थायी भाव मानते हैं।
प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-
(1) रति – स्त्री-पुरुष के मन में एक दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम- भाव को रति कहते हैं।
(2) हास – किसी के अंगों, वेश-भूषा, वाणी आदि के विकारों के ज्ञान से मन में उत्पन्न प्रफुल्लता को हास कहते हैं।
(3) शोक – प्रियवस्तु (इष्ट जन, वैभव आदि) के नाश अथवा अनिष्ट-आगम के कारण मन में उत्पन्न होने वाली व्याकुलता शोक है।
(4) क्रोध – अपना काम बिगाड़ने वाले अपराधी को दण्ड देने के लिए उत्तेजित करने वाली मनोवृत्ति क्रोध कहलाती है। यह असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि के कारण भी उत्पन्न हो सकती है।
(5) उत्साह – दान, दया, वीरता आदि के प्रसंग से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होने वाली मनोवृत्ति को उत्साह कहते हैं।
(6) भय – प्रबल अनिष्ट करने में समर्थ विषयों को देखकर मन में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, उसे भय कहते हैं।
(7) जुगुप्सा – घृणा उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को देखकर उनसे सम्बन्ध न रखने के लिए बाध्य करने वाली मनोवृत्ति को जुगुत्सा
कहते हैं।
(8) विस्मय – किसी असाधारण अथवा अलौकिक वस्तु को देखकर, सुनकर या स्मरण करने से जो आश्चर्य होता है, उसे विस्मय कहते हैं।
(9) निर्वेद – सांसारिक विषयों के प्रति त्याग अर्थात् वैराग्य की उत्पत्ति को निर्वेद कहते हैं।
आप अन्य रस भी पढ़िये
(A) श्रृंगार रस (B) शांत रस ( c) हास्य रस (D) करुण रस (E) रौद्र रस (F) भयानक रस (G) वीभत्स रस (H) वीर रस (i) अद्भुत रस ( J) भक्त्ति रस
रस के भेद | रस के प्रकार
रस के 9 भेद हैं –
(1) श्रृंगार रस (2) वीर रस (3) करुण रस
(4) रौद्र रस (5) हास्य रस (6) वीभत्स रस
(7) भयानक रस (8) अद्भुत रस (9) शांत रस (10) भक्ति रस (11) वात्सल्य रस
नोट – भक्ति रस और वात्सल्य रस श्रृंगार रस के विस्तृत क्षेत्र में आते हैं। भरत मुनि ने इनको रस नही माना । इसीलिए मूल रस 9 ही माने गए हैं।
रस एवं उनके स्थायी भाव
क्र० सं० | रस | स्थायी भाव |
1 | श्रृंगार रस | रति |
2 | वीर रस | उत्साह |
3 | हास्य रस | हास |
4 | करुण रस | शोक |
5 | शांत रस | निर्वेद |
6 | रौद्र रस | क्रोध |
7 | वीभत्स रस | जुगुत्सा |
8 | भयानक रस | भय |
9 | अद्भुत रस | आश्चर्य,विस्मय |
10 | भक्ति रस | भक्ति विषयक |
11 | वात्सल्य रस | वात्सल्य विषयक |
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