हिंदी भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य | CTET HINDI PEDAGOGY

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हिंदी भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य | CTET HINDI PEDAGOGY

हिंदी भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य | CTET HINDI PEDAGOGY
हिंदी भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य | CTET HINDI PEDAGOGY

CTET HINDI PEDAGOGY

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भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य

भाषा की शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) विचार विनिमय की कुशलता के विकास का उद्देश्य,
(2) सर्वांगीण व्यक्तित्त्व के विकास का उद्देश्य,
(3) नागरिकता के गुणों के विकास का उद्देश्य,
(4) भावी जीवन के विकास का उद्देश्य,
(5) सांस्कृतिक चेतना के विकास का उद्देश्य,
(6) सौन्दर्यानुभूति एवं रसानुभूति की क्षमता के विकास का उद्देश्य,
(7) सृजनात्मक शक्ति के विकास का उद्देश्य

1. विचार विनिमय की कुशलता के विकास का उद्देश्य

परिवार में सीखी गयी मातृभाषा के माध्यम से बालक विचारों के आदान-प्रदान की प्रारम्भिक योग्यता अर्जित करता है। विद्यालय में प्राप्त औपचारिक शिक्षा के द्वारा उसकी इस कुशलता में निरन्तर विकास होता रहता है। वह वहाँ भाषा के मानक रूप को सुनना और बोलना सीखता है। परिवार में सामान्यतया भाषा का वह रूप प्रयुक्त नहीं होता जो शिष्ट समाज एवं पुस्तकों में उपलब्ध होता है।

अतः विविध भाषायी पृष्ठभूमि से आने वाले बालकों को भाषा के मानक उच्चारण, उसकी व्याकरण सम्मत वाक्य संरचना का वाचन तथा लेखन का पर्याप्त अभ्यास विद्यालय में कराया जाता है। बालक जितनी स्पष्टता, सहजता और प्रभावोत्पादकता से मातृभाषा के द्वारा अपने विचारों तथा भावों को प्रकट करता है उतनी सफलता सामान्यतया उसे किसी अन्य भाषा में प्राप्त नहीं होती। यह अभ्यास विद्यालय में ही विकसित होता है। अत: मानक भाषा के माध्यम से भाव ग्रहण तथा भाव प्रकाशन की क्षमता का पर्याप्त विकास करना मातृभाषा की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है।

2. सर्वांगीण (चहुँमुखी) व्यक्तित्व के विकास का उद्देश्य

व्यक्तित्व से अभिप्राय है-व्यक्तित्व की विशेषताएँ। ये विशेषताएँ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, संवेगात्मक, नैतिक, सामाजिक आदि पक्षों से सम्बन्धित होती हैं। व्यक्तित्त्व के गठन में वंशपरम्परा (जन्मजात विशेषताएँ) तथा पर्यावरण (परिवेश में अर्जित विशेषताएँ) का विशेष योगदान है। इस दृष्टि से प्रत्येक बालक का व्यक्तित्व दूसरे से भिन्न होता है। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में सीखी गयी। मातृभाषा का बालक के व्यक्तित्व के विकास में विशेष महत्त्व है। विकास की दशाएँ निम्न प्रकार हैं-

(क) मानसिक विकास-मातृभाषा के द्वारा बालक अपने विचारों को प्रकट करता है। विचार संकल्पनाओं पर आधारित होते हैं। ये संकल्पनाएँ तथा बिम्ब (Image) सर्वप्रथम मातृभाषा में ही गठित होते हैं। इनके आधार पर बालक की विचारशक्ति का विकास होता है। इस प्रकार बालक की समस्त मानसिक शक्तियाँ-चिन्तन, कल्पना, ध्यान तथा स्मृति आदि मातृभाषा के माध्यम से ही विकसित होती हैं। भाषा के अभाव में अन्य शारीरिक क्रियाएँ तो सम्भव हैं, परन्तु मानसिक विकास संदिग्ध है। मातृभाषा के द्वारा ही बालक का मस्तिष्क विशेष रूप से क्रियाशील होता है। इस प्रकार समस्त मानसिक विकास का आधार मातृभाषा ही है।

(ख) संवेगात्मक विकास – प्रत्येक बालक के मन में हर्ष, क्रोध, भय तथा घृणा आदि भाव होते हैं। मन के भावों तथा संवेगों  (Emotions) को व्यक्त करने का प्राथमिक एवं प्रमुख माध्यम मातृभाषा ही है। इसीलिए मातृभाषा को बालक के संवेगात्मक विकास का आधार माना जाता है। यदि बालक का संवेगात्मक विकास समुचित रूप से नहीं हो पाता है तो उसके व्यक्तित्व में कमी रह जाती है। अत: मातृभाषा के द्वारा बालक के संवेगों को न केवल समुचित अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है, बल्कि उनका उदात्तीकरण (Sublimation) भी होता है।

(ग) सामाजिक विकास – मानव सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही  झगड़ता है और फिर उन्हीं के साथ मिलकर रहना भी सीखता है। इन सभी का माध्यम उसकी मातृभाषा होती है। इस प्रकार बालक में सामाजिक गुणों का विकास,सामाजिक व्यवहार की कुशलता मातृभाषा के द्वारा ही विकसित होती है। स्पष्ट है कि उसके
व्यक्तित्व के विकास का सामाजिक पक्ष मातृभाषा के द्वारा ही सम्भव है।

(घ) नैतिक तथा चारित्रिक विकास-बालक परिवार में बड़ों तथा छोटों के प्रति आदर तथा स्नेह का व्यवहार, सच बोलने तथा अच्छे आचरण की शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रारम्भिक सदाचरण की शिक्षा का अभ्यास वह मातृभाषा में ही करता है। आगे चलकर बालक जीवन के आदर्शों तथा जीवन मूल्यों का पाठ भी परिवार तथा समुदाय में मातृभाषा के माध्यम से ही सीखता है। इस प्रकार मातृभाषा उसके नैतिक तथा चारित्रिक विकास का आधार बनती है।

3. नागरिकता के गुणों के विकास का उद्देश्य

नागरिक में जिन गुणों का होना आवश्यक है, उनका सहज और स्वाभाविक विकास मातृभाषा के द्वारा ही सम्भव है। कुशल नागरिक बनने के लिए स्पष्ट चिन्तन, विचारों की गम्भीरता, स्पष्ट एवं तर्कसंगत अभिव्यक्ति, कर्त्तव्य तथा अधिकारों के प्रति जागरूकता और मानसिक, संवेगात्मक तथा नैतिक विकास आवश्यक है। मातृभाषा की समुचित शिक्षा के द्वारा उपर्युक्त गुणों का विकास सहज रूप में सम्भव है। अत: मातृभाषा की शिक्षा का उद्देश्य बालक में नागरिकता के गुणों का विकास करना है।

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4. भावी जीवन के विकास का उद्देश्य

मातृभाषा की शिक्षा का उद्देश्य विभिन्न गुणों के विकास के द्वारा छात्र के भावी जीवन के विकास के लिए तैयार करना है। मातृभाषा की शिक्षा उसमें ऐसी व्यावहारिक कुशलता उत्पन्न करती है, जिससे वह जीविकोपार्जन कर सके,रोजी-रोटी कमा सके। समाज में जीवित रहने के लिए अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए यह एक अनिवार्य आवश्यकता है। इस कुशलता के बिना व्यक्ति समाज के लिए तथा स्वयं अपने लिए भारस्वरूप बन जाता है। अन्य भाषा के माध्यम से जीविकोपार्जन का अवसर लोगों को मिलता है, सामान्य जनता के लिए यह कठिन है। कृषि, व्यापार एवं छोटी नौकरियों  कुछ में मातृभाषा का ही प्रयोग होता है।

5. सांस्कृतिक चेतना के विकास का उद्देश्य

मातृभाषा की शिक्षा का उद्देश्य समाज विशेष की सांस्कृतिक विचारधारा तथा जीवन मूल्यों से छात्रों को परिचित करना है। मातृभाषा में बालक शब्दों का अर्थ, उनके प्रयोग, विविध सन्दर्भ तथा उनमें निहित अन्तर को पहचानना सीख जाता मातृभाषा के माध्यम से ही वह सांस्कृतिक मान्यता और परम्पराओं से परिचित होता है। उसमें अपनी (भाषायी) संस्कृति के प्रति आस्था का भाव जाग्रत होता है।

6. सौन्दर्यानुभूति एवं रसानुभूति की क्षमता के विकास का उद्देश्य

सौन्दर्य के प्रति आकर्षण तथा रस की अनुभूति मानव का सहज स्वभाव है। किसी सुन्दर दृश्य को देखकर हम सहज ही आनन्दित हो उठते हैं, उसी प्रकार किसी भावपूर्ण कविता को पढ़कर भाव-विभोर होना भी स्वाभाविक है। इस सौन्दर्यानुभूति तथा रसानुभूति का माध्यम क्या है ? सर्वधारण को यह रसानुभूति मातृभाषा के माध्यम से ही होती है। बालक अपने मनोवेगों की अभिव्यक्ति मातृभाषा के द्वारा ही करता है। अतः मातृभाषा की शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में अनुभूति कुशलता का विकास करना है।

मातृभाषा पर सहज अधिकार होने के कारण छात्र विविध प्रकार की वाचक (Recding) सामग्री से परिचित होता है। भाषायी कौशलों पर पर्याप्त अधिकार होने के फलस्वरूप वह साहित्य की विविध विधाओं तथा उनमें निहित भाव-सौन्दर्य को पहचानने में भी समर्थ होता है। इतना ही नहीं भाषा की बोधगम्यता के कारण जीवन के धार्मिक सन्दर्भों की भी उसे सहज अनुभूति हो जाती है। वह उनसे तादाम्य स्थापित करने में समर्थ होता है। मातृभाषा के माध्यम से ही वह उसकी विशिष्टता तथा भावों की गहरायी को समझने में समर्थ होता है। इस प्रकार मातृभाषा की शिक्षा का उद्देश्य सौन्दर्य की अनुभूति तथा साहित्य के रसास्वादन की क्षमता को विकसित करना है।

7. सर्जनात्मक प्रतिभा के विकास का उद्देश्य

मातृभाषा की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों की रचनात्मक प्रतिभा को विकसित करना है। मातृभाषा के माध्यम से ही छात्र अपने विचारों एवं मनोभावों को स्पष्टता तथा प्रभावोत्पादकता से व्यक्त करता है। भाषा का यह सबल आधार उसे मौलिक सर्जनात्मक अभिव्यक्ति की कुशलता प्रदान करता है। इस प्रकार मातृभाषा उसकी रचनात्मक वृत्ति को जाग्रत एवं विकसित करने में समर्थ होती है। यह अभिव्यक्ति जितनी मौलिक और स्वाभाविक रूप से मातृभाषा के माध्यम से होती है, उतनी अन्य भाषा द्वारा नहीं। स्पष्ट है कि मातृभाषा की सुनियोजित शिक्षा छात्रों की रचनात्मक प्रतिभा को विकसित करने का पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।

उच्च प्राथमिक स्तर पर हिन्दी शिक्षण के उद्देश्य एवं अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन

मातृभाषा शिक्षण के प्राप्य उद्देश्य प्रत्येक स्तर पर अलग-अलग होते हैं, क्योंकि जैसे-जैसे छात्र की आयु में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे उसका भाषायी विकास बढ़ता जाता है। अत: जिन उद्देश्यों की प्राप्ति पर निम्न प्राथमिक स्तर कक्षा 1-5 तक कम जोर देते हैं, उनमें से कुछ उद्देश्यों पर अधिक जोर देने लगते हैं। विकास का क्रम निरन्तर शनैः-शनैः चलता रहता है। दोनों स्तरों के मध्य कोई आकस्मिक परिवर्तन उपस्थित नहीं होता।
उच्च प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा शिक्षण क्यों किया जाता है ? हम सामान्यतया चाहते हैं कि इस स्तर तक आते-आते छात्र अनलिखित विषयों में भाषायी अधिकार प्राप्त कर ले-

(1) छात्र भाषा की सभी ध्वनियों एवं समूहों का समुचित उच्चारण कर सके।
(2) स्तर के अनुकूल जो शब्दावली निश्चित की गयी है, उससे निर्मित वाक्यों को बिना
किसी हिचक के छात्र शुद्धतापूर्वक वाचन तथा मौन वाचन कर सके।
(3) छात्र सुलेख लिख सके।
(4) छात्र लेखों में पूर्ण विराम, अर्द्धविराम, प्रश्नवाचक, आश्चर्य बोधक, उद्धरण सूचक आदि चिह्नों का प्रयोग कर सके।
(5) निर्धारित पाठ्य पुस्तकों में आये हुए शब्दों का छात्र अर्थ कर सके और कविता का भाव समझा सके।
(6) छात्र स्तर के उपयुक्त कविताओं का पाठ कर सके, छोटे-छोटे संवादों में भाग ले सके तथा किसी वस्तु अथवा चित्र का वर्णन कर सके।
(7) छात्र छोटी-छोटी कहानियाँ, घरेलू पत्र, विद्यालय सम्बन्धी आवेदन-पत्र लिख सके।

इस सामान्य भाषायी अधिकार को ध्यान में रखते हुए इस स्तर पर निम्नांकित प्राप्य उद्देश्यों तथा अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तनों का निश्चय किया गया है-

1. ज्ञानात्मक उद्देश्य

(1) भाषा सम्बन्धी निम्नलिखित जानकारियाँ देना- ध्वनि, वर्ण, शब्द, पद, पदबन्ध,वाक्य, आशय, भाव, बोध, वैचारिक सुबोध।
(2) पत्र, कहानी, निबन्ध एवं आत्मकथा आदि रूपों की जानकारी देना।
(3) औपचारिक व्याकरण का ज्ञान देना और व्यावहारिक व्याकरण के तत्त्वों से छात्रों को परिचित कराना।

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अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन-

(1) छात्र व्याकरण में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण के कार्य समझता है।
(2) छात्र संज्ञा, सर्वनाम के वचन, लिंग में अन्तर बता सकता है।
(3) छात्र वाक्य विन्यास कर सकता है।
(4) छात्र कारकों और भाषा के अंगों को पहचान सकता है।
(5) छात्र तत्सम, तद्भव शब्दों में विभेद कर सकता है; जैसे- राजस्थानी भाषाएँ सुकन, सींह, हरख, दुद्ध का प्रयोग हिन्दी भाषा के तत्सम शब्दों के लिए हुआ है, छात्र उन्हें बता सकता है।

2. अर्थ ग्रहण का उद्देश्य

अर्थ ग्रहण का अर्थ है उच्चारित एवं लिखित भाषा के भाव को पूरी तरह से समझने कीबशक्ति। इस प्राप्य उद्देश्य के दो पक्ष हैं-
(1) अन्य पुरुषों द्वारा बोली हुई स्वभाषा में श्रुत-सामग्री को समझने का पूर्ण विकास।
(2) हिन्दी के लेखकों द्वारा लिखी हुई भाषा को पूरी तहर से समझने की शक्ति का विकास।
ध्यान रहे कि कक्षा में हिन्दी शिक्षण करते समय अध्यापक दूसरे पक्ष को ही अधिक महत्त्व देता है। श्रुत सामग्री को समझने की क्षमता का विकास बहुत कम किया जाता है।

अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन-

(1) छात्र ध्वनियों एवं ध्वनि समूहों को सुनकर उन्हें, समझ लेता है।
(2) छात्र ध्वनियों के अन्तर को स्पष्ट कर सकता है; जैसे-ग्रह-गृह, कक्षा-कक्षा
(3) छात्र शब्द भण्डार में वृद्धि कर सकता है; जैसे-राजस्थानी भाषा तथा हिन्दी भाषा शब्दों में विभेद कर लेता है।
(4) छात्र लोकोक्तियों एवं मुहावरों का अर्थ समझता है और प्रसंग के अनुसार उनका अर्थ निकाल सकता है।
(5) छात्र समानार्थी पदों और शब्दों के अर्थ में भिन्नता बता सकता है।
(6) छात्र शब्दों के पर्यायवाची शब्द बता सकता है।
(7) पाठ में किसी शब्द अथवा पद का किसी व्यक्ति के लिए उपयोग हुआ है, उस व्यक्ति का नाम पाठ में से चुनकर छात्र बता सकता है।

(8) वाक्य एवं वाक्यांश का आशय अथवा अभिप्राय स्पष्ट कर सकता है, जैसे उसी पाठ में आये हुए वाक्यों का अर्थ बता सकता है।
(9) एक जैसे लगने वाले शब्दों का अन्तर स्पष्ट कर सकता है, जैसे कुण्डली, दोहे-पानी बाढ़ नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
नाव में पानी भर जाने पर और घर में रुपये-पैसे आ जाने पर चतुर मनुष्य का एक ही कार्य बताया है कि दोनों हाथों से उसे उलीचना चाहिए। कक्षा 8 का छात्र उक्त लाइनों को पढ़कर बता सकता है कि पानी और धन को दोनों हाथों से कैसे उलीचा जाता है ?
(10) छात्र पाठ का मौन वाचन कर अर्थ ग्रहण कर सकता है।
(11) छात्र पठित अंश के भाव का विश्लेषण कर सकता है।
(12) छात्र पठित अंश के महत्त्वपूर्ण तथ्यों, विचारों और भावों को चुन सकता है।

3. अभिव्यक्ति का उद्देश्य

अभिव्यक्ति का अर्थ है अपने द्वारा श्रुत अथवा पठित सामग्री अथवा किसी के द्वारा लिखित सामग्री के भावों, तथ्यों तथा विचारों को अपनी भाषा में प्रकट करना। अपने विचारों, भावों और स्वानुभूतियों को प्रकट करना भी क्रिया में समाविष्ट कार्य है, किन्तु उस क्षमता का विकास शिक्षा के उच्चतर स्तरों पर ही अधिक किया गया है। अभिव्यक्ति के दो तरीके हैं- मौखिक एवं लिखित। अन्य व्यक्ति के अथवा अपने विचारों, भावों, अनुभूतियों को स्पष्ट और प्रभावशाली ढंग से लिखकर व्यक्त करने की क्षमता का विकास।

अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन-

चूँकि इस प्राप्य उद्देश्य के दो मान्य पक्ष हैं, इसलिए दोनों के अनुकूल पवहारगत परिवर्तनों की सूचियाँ नीचे दी जाती हैं। अध्यापक प्रशिक्षुओं (Tea : her trainees) को इन दोनों में स्पष्ट अन्तर समझ लेना चाहिए। लिखित अभिव्यक्ति के व्यवहारगत परिवर्तन निम्नांकित हैं- (1) छात्र कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भावों, विचारों एवं तथ्यों को लिखकर व्यक्त कर सकता है, जैसे-कक्षा 6 के पाठ ‘सन् सत्तावन’ में झाँसी वाली रानी ‘दिखा गयी पथ’ में कौन सा पथ दिखा गयी थी, इसको व्यक्त कर सकता है।
(2) छात्र विषय-सामग्री के उचित अनुच्छेद को विभक्त कर लिख सकता है।

(3) छात्र अपनी लिखित भाषा में प्रसंगानुकूल शब्द और सूक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
(4) छात्र तार्किक ढंग से विचारों को लिखित रूप में व्यक्त कर सकता है।
(5) छात्र मुहावरों, लोकोक्तियों का भी अपने वाक्यों में प्रयोग कर सकता है; जैसे-दाँत पीसना, नीचा दिखाना, आग भड़क उठना आदि।
(6) छात्र किसी सामान्य विषय पर निर्दिष्ट बिन्दुओं में लिख सकता है, जैसे कक्षा 6 का छात्र निम्नांकित बिन्दुओं पर निबन्ध लिख सकता है-
(i) उसके गाँव में गायें औसतन कितना दूध देती हैं ?
(ii) उसके गाँव में पशुओं में कौन-कौन सी बीमारियाँ फैला करती हैं ?
(iii) उसके गाँव में गायों, बैलों तथा बकरियों आदि के स्वास्थ्य की क्या दशा है और उनको कितना चारा दिया जाता है ?

मौखिक अभिव्यक्ति के व्यवहारगत परिवर्तन निम्नांकित हैं-
(1) छात्र अपनी बात को अथवा दूसरे की कही हुई बात को अपनी भाषा में प्रभावशाली ढंग से मौखिक रूप में व्यक्त कर सकता है।
(2) छात्र अपनी बात को उचित हाव-भाव के साथ (उचित उतार-चढ़ाव के साथ) कहकर श्रोताओं को प्रभावित कर सकता है।
(3) छात्र अपनी बात को अथवा श्रुत कथन को आत्म विश्वास के साथ दूसरों को कहकर समझा सकता है। जैसे कक्षा 8 के पाठ ‘मित्रता’ में लेखक कहता है ‘कुसंग’ का ज्वर सबसे भयानक होता है। उससे छात्र कहाँ तक सहमत है, बता सकता है।
(4) छात्र दूसरों के साथ शिष्टतापूर्वक वार्तालाप कर सकता है।
(5) छात्र सूक्ष्म भाषण दे सकता है और सभा में किसी प्रकार की
हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करता।

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4. अभिरुचि का उद्देश्य

रुचि और अभिरुचि मन की वह भावना है, जिसके कारण हम किसी वस्तु में दिलचस्पी लेने लगते हैं। अभिरुचि का अर्थ है-विशेष रुचि। अतः भाषा और साहित्य में जो रुचि होती है, उसे विशेष रुचि कहेंगे। भाषा और साहित्य में विशेष रुचि के विकास का अर्थ है, छात्रों में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकों के पढ़ने में दिलचस्पी पैदा करना, अच्छी-अच्छी कविताएँ कण्ठस्थ करना, कक्षा और विद्यालय की पत्रिका में योगदान देना, विद्यालय में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेना, साहित्यकारों, कवियों के चित्र इकट्ठे करना आदि रुचियों को भाषायी और साहित्यिक रुचियाँ माना जाता है।

अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन-

(1) छात्र अपने सहपाठियों की सहायता से निर्धन छात्रों की सहायतार्थ किसी एकांकी का सार्वजनिक अभिनय कर सकता है।
(2) अपने विद्यालय में किसी महत्त्वपूर्ण उत्सव की समाप्ति पर सहायक के रूप में शान्ति पाठ करने की दृष्टि से शान्ति सूक्त को कण्ठस्थ कर सकता है।
(3) अपनी पाठ्य-पुस्तक की जो पंक्तियाँ सबसे अधिक पसन्द हैं, उनको कण्ठस्थ कर सुना सकता है।
(4) अशोक आदि पात्रों की वेषभूषा में अशोक के जीवन से सम्बन्धित किसी घटना पर आधारित किसी नाटक का अभिनय करने में हाथ बँटा सकता है।
(5) अपनी पाठशाला में एक लेखनी मित्र-गोष्ठी बना सकता है और विभिन्न राज्यों तथा देशों के विद्यार्थियों से आपसी परिचय की एक योजना तैयार कर सकता है।
(6) अपनी पाठशाला में कृष्ण जन्माष्टमी अथवा अन्य किसी उपयुक्त अवसर पर सुन्दर साहित्यिक कार्यक्रम के आयोजन में सहपाठियों से सहयोग ले सकता है तथा उनमें कविता पाठ का कार्यक्रम रख सकता है।

(7) महापुरुषों की जयन्तियों पर जैसे प्रताप जयन्ती, गाँधी जयन्ती आदि अवसरों पर अपनी छात्र सभा में उन महापुरुषों से सम्बन्धित कविता पाठों का सस्वर वाचन कर सकता है।
(8) मौलिक प्रहसन, नाटक, लेख तथा निबन्ध लिख सकता है।
(9) छात्र वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी, कवि-गोष्ठी, कवि दरबार तथा कवि सम्मेलन का आयोजन करने में हाथ बँटाकर रंगमंच पर आ सकता है।

(10) छात्र मीरा और सूर की जयन्ती के अवसर पर पठित पाठों के आधार पर इनके पदों को रंगमंच पर गायन कर सकता है।
(11) छात्र अपने स्तर के अनुकूल रोचक कहानियाँ, नाटक, कविता की पुस्तकों को पढ़ने में रुचि ले सकता है।
(12) वह पुस्तकालय में जाकर पत्र-पत्रिकाओं से अपने संकलन कर सकता है, जिनमें चुनिन्दा – चुनिन्दा कविताओं, कहानियों, चुटकुलों एवं उक्तियों का संकलन हो।
(13) अपनी कक्षा अथवा अपने विद्यालय की साहित्य गोष्ठी के अवसर पर चारणों की शैली में श्री नारायणसिंह भाटी के दुर्गादास काव्य से अनुवाचन कर सकता है।

5. अभिवृत्ति का उद्देश्य

भाषा-शिक्षण का बहुत ही महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, छात्रों में सद्वृत्तियों का विकास। मुख्य सद्वृत्तियाँ हैं- आस्था, श्रद्धा, साहित्य-प्रेम, मानव-प्रेम, सहृदयता एवं संवेदनशीलता। भाषा- शिक्षण द्वारा शिक्षक चाहता है कि उसके छात्र अपने देश की संस्कृति में आस्था रखें। भारतीय आदर्शों के प्रति श्रद्धावान हों, सामाजिक मान्यताओं में आस्था रखकर उनका पालन करें, देश- प्रेम और मानव-प्रेम की ओर अग्रसर हों, अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हों। सद्वृत्तियों के प्रति सम्पन्न विचार रखें और उन्हीं के अनुकूल कार्य करें।

अभिवृत्ति के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छात्रों में निम्नलिखित योग्यताओं का विकास आवश्यक है-
(1) छात्रों में अच्छी-अच्छी कविताओं को कण्ठस्थ करने की योग्यता पैदा करना।
(2) उनकी साहित्यिक ग्रन्थों के अध्ययन तथा अवलोकन में रुचि उत्पन्न करना।
(3) उनमें साहित्यिक महत्त्व की पत्रिकाएँ, चित्र आदि संकलन करने की प्रेरणा उत्पन्न करना।
(4) छात्रों में विद्यालय के साहित्यिक कार्यक्रमों में भाग लेने की भावना उत्पन्न करना तथा सक्रिय भाग लेने की रुचि उत्पन्न करना।
(5) साहित्यकारों के चित्र आदि संकलन करना।

इस उद्देश्य से पाठ्य-वस्तु में शिक्षाप्रद कहानियाँ, लेख, कविताएँ तथा जीवन गाथाएँ संकलित की जाती हैं। उदाहरण के लिए कक्षा 6, 7, तथा 8 की पुस्तकों के विशिष्ट पाठों को उपयोग में लाया जा सकता है। इन कहानियों, एकांकियों, लेखों, कविताओं तथा जीवन गाथाओं को केवल माध्यम के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। सद्वृत्तियों का विकास अप्रत्यक्ष रूप से धीरे-धीरे ही होता है। हिन्दी शिक्षक इस कार्य में अप्रत्यक्ष निर्देश (Indirect Suggestion) का प्रयोग करता है।


                         ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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