हिंदी काव्य और प्रकृति पर निबंध | हिंदी काव्य में प्रकृति पर निबंध

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Contents

हिंदी काव्य और प्रकृति पर निबंध | हिंदी काव्य में प्रकृति पर निबंध

इस निबंध के अन्य शीर्षक / नाम

(1) काव्य और प्रकृति का सम्बंध पर निबंध
(2) हिंदी कविता में प्रकृति चित्रण पर निबंध
(3) हिंदी कविताओं में प्रकृति का दृश्य पर निबंध

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हिंदी काव्य और प्रकृति पर निबंध | हिंदी काव्य में प्रकृति पर निबंध

पहले जान लेते है हिंदी काव्य और प्रकृति पर निबंध | हिंदी काव्य में प्रकृति पर निबंध की रूपरेखा ।

निबंध की रूपरेखा

(1) प्रस्तावना
(2) हिन्दी के पूर्व प्रकृति-चित्रण
(3) हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण, 
(4) हिन्दी में उद्दीपन के रूप में प्रकृति-चित्रण
(5) हिन्दी में आलम्बन के रूप में प्रकृति-चित्रण
(6) सहानुभूतिपूर्ण चेतन सत्ता के रूप में प्रकृति-चित्रण
(7) मानवीकरण द्वारा प्रकृति-चित्रण
(8) उपसंहार

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हिंदी काव्य और प्रकृति पर निबंध | हिंदी काव्य में प्रकृति पर निबंध

प्रस्तावना

प्रकृति के साथ मनुष्य का अनादि सम्बन्ध है। वह जब से संसार में आया है तभी से प्रकृति के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित हो गया है।

अतः प्रकृति के साथ प्रेम होना मनुष्य के लिए कोई अीत
नहीं है। प्रकृति प्रेम उसकी नस-नस में समाया हुआ है।

साहित्य में भी मनुष्य के हृदय की भावनाएँ ही हुआ करती हैं; अतः सभी देशों और भाषाओं के साहित्य में प्रकृति वर्णन का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।

भारत-भूमि प्रकृति-नटी का क्रीड़ास्थल है।
प्रकृति-प्रेम से भरा यहाँ जन अन्तराल है॥
प्रकृति प्रेम भारत के कवियों का सम्बल है।
प्रकृति चित्र हिन्दी कविता में अत्युज्ज्वल है ॥




भारत और प्रकृति

भारत प्रकृति की रम्य क्रीड़ास्थली है। यहाँ के यमुना तट के कुंज, वसन्त की मादक समीर और पर्वतों के मखमली दृश्य शायद ही अन्यत्र कहीं मिलें।

अतः भारत के कोवियों का प्रकृति से विशेष अनुराग होना स्वाभाविक ही है। अनादि काल से यहाँ के साहित्य में प्रकृति-चित्रण का विशेष स्थान संस्कृत कवियों ने प्रकृति के जो सुन्दर चित्र खीचे, वे विश्व साहित्य में बेजोड़़ हैं।

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यहाँ तक कि संस्कृत के आचार्यों ने प्रकृति के विभिन्न दृश्यों का वर्णन महाकाव्य के लिए अनिवार्य रूप में स्वीकार कर लिया था।

संस्कृत की प्रकृति-चित्रण की यह परम्परा पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी निरन्तर चलती रही।





हिन्दी-कविता में प्रकृति

चित्रण-हिन्दी कवियों में प्रकृति के प्रति वह अनुराग दिखाई नहीं पडता जो संस्कृत के कवियों में था।

प्रकृति निरीक्षण की वह सूक्मता जो संस्कृत कवियों में थी, हिन्दी में उसकी झलक भी दिखाई न दी।

हिन्दी कवियों ने प्रकृति-चित्रण तो किया पर वह वैसा मनोरम न बन पड़ा जैसा संस्कृत कवियों का प्रकृति वर्णन था।






उडदीपन के रूप में प्रकृति

चित्रण-भक्तकाल, रीतिकाल तथा आधुनिक काल में भी कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण तथा गोपियों के संयोग तथा बियोग श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में प्रकृति का सुन्दर वर्णन किया है।

यमुना तट के कुंज, बसन्त, पावस आदि का रति भाव को उद्दीप्त करने में बड़ा सफल चित्रण हुआ है। रीतिकाल के कवियों ने प्रकृति का उद्दीपन के रूप में वर्णन अवश्य किया किन्तु उनके प्रकृति वर्णन में सजीवता नहीं आ पायी।

इन्होंने स्वयं प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने का कष्ट न करके पुराने चले आते हुए उपमानो को रखकर ही निर्वाह किया है। इन्होंने अधिकतर रूढ़िवादिता की लकीर को पीटा है।

केशव की कविता का एक उदाहरण देखिए-

“देखे मुख भावे, अन देखेई कमलचन्द,
ताते मुख यहै न कमल न चन्द री।”

मुख तो देखने में अच्छा लगता है और कमल तथा चन्द्रमा बिना देखे ही अच्छे लगते हैं; अत: यह मुख है-न कमल है, न चन्द्रमा।

इसका यह अर्थ नहीं है कि रीतिकाल में प्रकृति प्रेमी कवि हुए ही नहीं।

सेनापति और बिहारी की कविताओं में प्रकृति का बहुत सुन्दर और संश्लिष्ट चित्रण हुआ है जिसे देखकर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया था।

उद्दीपन विभाव के रूप में बिहारी का एक प्रकृति चित्र देखिए-

“सघन कुंज छाया सुखद, शीतल सुरभि समीर।
मन ह्वै जात अजी वहै, उहि जमुना के तीर ॥

उपाध्याय तथा गुप्त आधुनिक कवियों ने भी इसी प्रकार का प्रकृति-चित्रण किया है ।





आलम्बन रूप में प्रकृति-चित्रण

प्रकृति-चित्रण का एक दूसरा प्रकार आलम्बन विभाव के रूप में है।
कवि प्रकृति के रम्य रूपों को देखकर भावातुर हो उठता है और उसके वे ही भाव कविता में अभिव्यक्त होते हैं।

इसमें प्रकृति का स्थान गौण नहीं होता है। इस प्रकार का प्रकृति चित्रण हिन्दी में हुआ तो अवश्य किन्तु बहुत कम हुआ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, सेनापति, बिहारी, सुमित्रानन्दन पन्त, श्रीधर पाठक तथा जयशंकर प्रसाद आदि कवियों की कविताओं में इस प्रकार का आलम्बनात्मक चित्रण पर्याप्त रूप से हुआ है।

सेनापति द्वारा चित्रित ग्रीष्म ऋतु का सुन्दर संश्लिष्ट चित्रण देखिए

“वृष कौ तरनि तेज सहसौ किरन करि,
ज्वालन के जाल विकराल बरसत हैं।
तपति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी,
छाँह को पकरि पंथ पंछी विरमत हैं।।
‘सेनापति नेक दुपहरी के ढरत होत,
धमका विषम, ज्यों न पात खरकत
मेरे जान पौनौ सीरी ठोर को पकरि कोनौ,
धरी एक बैठी कहूँ घामे बितवत हैं।”

परन्तु साधारणतया हिन्दी में आलम्बन रूप में प्रकृति-चित्रण बहुत कम ही हुआ है।

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सहानुभूतिपूर्ण चेतन सत्ता के रूप में प्रकृति-चित्रण- प्रकृति-चित्रण का एक तीसरा प्रकार वह है।

जिसमें कवि प्रकृति का एक सहानुभूतिपूर्ण चेतन सत्ता के रूप में चित्रण करता है। इस प्रकार का प्रकृति-चित्रण करने में कविवर जायसी को अद्भुत सफलता मिली है। उनके पदमावत में प्रकृति का बड़ा हो सरस और आकर्षक वर्णन हुआ है।

यद्यपि इस काव्य में उद्दीपन के रूप में भी प्रकृति का सुन्दर चित्रण हुआ है किन्तु सहानुभूतिपूर्ण चेतन सत्ता के रूप में प्रकृति वर्णन में तो यह काव्य बेजोड़ है।

नागमती के विरह में सारी प्रकृति रोती है। उसका रोना सुनकर पशु-पक्षियों की नींद समाप्त हो जाती है। रहस्यपूर्ण आध्यात्मिक संकेतों ने तो उसे और भी हृदयस्पर्शी बना दिया है।






मानवीकरण द्वारा प्रकृति-चित्रण

प्रकृति -चित्रण का एक चौथा भी प्रकार है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण कर लिया जाता है अर्थात प्रकृति के तत्त्वों को मानव ही मान लिया जाता है।

प्रकृति में मानवीय क्रियाओं का आरोपण किया जाता है। हिन्दी में इस प्रकार प्रकृति-चित्रण छायावादी कवियों में पाया जाता है। इस प्रकार के प्रकृति-चित्रण में प्रकृति सर्वथा गौण हो जाती है।

इसमें प्राकृतिक वस्तुओं के नाम तो रहते हैं पर चित्रण मानवीय भावनाओं का ही होता है। कवि लता और तितली का चित्रण न कर यूवती तथा कुमारी का चित्रण करने लगता है। यही कारण है कि इस प्रकार के प्रकृति-चित्रण में प्रकृति का अनुरागमय रूप बहुत कुछ छिप जाता है।

सुमित्रा नन्दन पन्त, निराला तथा महादेवी वर्मा आदि छायावादी कवियों की कोमल रचनाओं में इसी प्रकार का प्रकृति-चित्रण है। ‘छाया’ और ‘ज्योत्स्ना’ इसके उत्तम नमुने है। कविवर प्रसाद का मानवीकरण के रूप में उषा का वर्णन देखिए-

“बीती विभावरी जाग री।
अम्बर पनघट में डुबा रही तारा घट उपा मागरी।

खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा, किरालय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी।

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महादेवी वर्मा और पन्त जी के मानवीकरण के रूप में प्राकृतिक चित्रण अत्यन्त मनोरम हैं।

पन्त जी ने शरद् ज्योत्सना को सोती हुई नायिका का रूप दिया है-

“नीले नभ के शत दल पर बैठी शारद हासिनि ।
मृदु करतल पर शशि मुख धर नीरब अनिमिष एकाकिनि।”

छायावादी काव्य में इस प्रकार का प्रकृति-चित्रण अधिक मिलता है ।

सन्त काव्यों में प्रकृति-चित्रण का एक और भी रूप देखने को मिलता है। उन्होंने कमल, सूर्य तथा चन्द्रमा आदि प्राकृतिक वस्तुओं के अध्यात्म तथा साधना सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों के रूपक बना डाले हैं।

इन रचनाओं मे प्रतीकों के रूप में प्रकृति के रूपों के नाममात्र आ पाये हैं। इस प्रकार के वर्णनों को प्रकृति- चित्रण न ही माना जाये तो उचित है। कवि का उद्देश्य प्रकृति-चित्रण करना नहीं है अपितु आध्यात्मिक विषयों की ओर संकेत करना है।


उपसंहार

हिन्दी के प्रकृति-चित्रण में जो सबसे अधिक खटकनें वाली बात है, वह यह है कि हिन्दी कवियों ने प्रकृति के सौम्य तथा सुन्दर रूप का चित्रण तो किया है किन्तु प्रकृति के विकराल और भयंकर रूप पर इन्होंने बहुत कम दृष्टिपात किया है।

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