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जैव विविधता एवं वर्गीकरण / जीवों का नामकरण : द्विनाम पद्धति
जीवों का नामकरण : द्विनाम पद्धति / जैव विविधता एवं वर्गीकरण
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जैव-विविधता Biodiversity
पृथ्वी पर अनेक प्रकार की जातियों के जीव उपस्थित हैं। अभी तक लगभग उन्नीस लाख (19,00,000) जन्तु प्रजातियों तथा लगभग तीन लाख पचास हजार (3,50,000) पादप प्रजातियों की खोज की जा चुकी है। किसी स्थान विशेष पर प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले जीव-जन्तु एवं पेड़-पौधों की भिन्न-भिन्न प्रजातियों में अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं, जैसे-स्वभाव, रंग, रूप, संख्या, आदि। जीवों की इन विभिन्नताओं को ही जैव-विविधता कहते हैं। ‘जैव-विविधता’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम रोजेन (Rosen; 1985) ने किया था। जीवों में मिलने वाली इस विविधता के कारण ही प्रकृति में सन्तुलन बना रहता है और सम्पूर्ण पारितन्त्र की खाद्य आपूर्ति होती रहती है।
विविधता में क्रमबद्धता Order in Diversity
पृथ्वी पर विषाणु, जीवाणु जैसे अति सूक्ष्मजीवों से लेकर रेडवुड जैसे विशालकाय वृक्ष और भीमकाय ब्लू व्हेल जैसे जीव पाए जाते हैं। इतने अधिक जीवों को पहचानने और कम समय में इनसे सम्बन्धित जानकारी प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों ने समानता व असमानता के आधार पर तुलनात्मक विभाजन करके जीवों को छोटे-छोटे समूहों एवं वर्गों में विभाजित किया है, जैसे-मछली, मेंढक, छिपकली, कबूतर, मनुष्य, आदि को ध्यानपूर्वक देखने पर इनकी संरचना में विभिन्नताओं के साथ-साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समानताएँ भी सम्मिलित होती हैं (इन सभी के शरीर में कशेरुकदण्ड पाया जाता है) ।
अतः इनको एक बड़े समूह-कशेरुकी (Vertebrata) में रखा गया है। इसी प्रकार मछलियाँ अनेक प्रकार की होती हैं, परन्तु इन सभी की संरचना एवं कार्यिकी में इतनी अधिक समानता होती है, कि इनको एक ही समूह-मत्स्य (Pisces) में रखा गया है।
जीवों का वर्गीकरण Classification of being
नए जीवों को पहचानना, इन्हें सही वैज्ञानिक नाम देना, समान तथा विषम लक्षणों के आधार पर जीवों को अलग-अलग समूहों अथवा वर्गों में रखना वर्गीकरण कहलाता है। जीव विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत वर्गीकरण एवं इसके मूल सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है, वर्गीकरण विज्ञान या वर्गिकी (Taxonomy) कहलाती है। टैक्सोनॉमी दो यूनानी शब्दों; टैक्सिस (Taxis) व्यवस्था अथवा क्रम में रखना एवं नोमोस (nomos) – नियम अथवा सिद्धान्त से मिलकर बना है।
जीवों को वर्गीकृत करने के लिए निम्न चार चरण होते हैं।
(i) पहचान ( Identification) – जीवों के नाम तथा स्थान की पहचान करना।
(ii) वर्गीकरण (Classification) – जीवों को विभिन्न वर्गों में बाँटना।
(iii) नामकरण (Nomenclature) – जीवों को सर्वमान्य वैज्ञानिक नाम देना।
(iv) वर्गिकी पदानुक्रम (Hierarchy Taxonomy) – वर्गीकरण की व्यवस्था तथा क्रम को बनाना।
आधुनिक वैज्ञानिक जगत में वर्गिकी वैज्ञानिक पहचान, वर्गीकरण व नामकरण को वर्गिकी का आधार मानते हैं।
वर्गीकरण की आवश्यकता Need of Classification
मानव जाति के लिए विभिन्न जन्तुओं एवं पौधों की उपयोगिता जानने के लिए उनका वर्गीकरण अत्यन्त आवश्यक है। जीवधारियों का वर्गीकरण, इनके अध्ययन में निम्नलिखित रूप से सहायक होता है।
(i) अध्ययन की सुविधा (Convenience in Study) – किसी वर्ग के एक जीवधारी के लक्षणों का अध्ययन करने से इसके अन्तर्गत आने वाले सभी जन्तुओं अथवा पादपों के विषय में जानकारी मिल जाती है; जैसे-मेंढक का अध्ययन करने से एम्फीबिया (Amphibia) वर्ग के अन्य जन्तुओं के सामान्य लक्षणों का भी ज्ञान होता है।
(ii) विकास-क्रम का ज्ञान (Knowledge of Evolutionary Process ) – सभी समूहों के सामान्य लक्षणों का अध्ययन कर उन्हें जटिलता के आधार पर विकास के क्रम में रखा गया है; उदाहरण-प्रोटोजोआ, पोरीफेरा,सीलेन्ट्रेटा, ऐनेलिडा और आर्थ्रोपोडा को विकास के क्रम में नीचे से ऊपर की ओर रखा गया है तथा कॉर्डेटा (Chordata) संघ के अन्तर्गत मत्स्य,उभयचर, सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी समूहों का क्रम उनके गुणों की जटिलता के आधार पर निश्चित किया गया है। अतः वर्गीकरण से जीवों के विकास क्रम का ज्ञान होता है।
(iii) नए जीवों की खोज (Discovery of New Organisms) – जातिवृत्तीय तरीके से किए गए वर्गीकरण में कहीं-कहीं पर अज्ञात जीवों की कमी नजर आती है। अतः वर्गीकरण की सहायता से वैज्ञानिक आज भी नए जीवों की खोज में प्रयत्नशील रहते हैं।
(iv) संयोजक कड़ियों का ज्ञान (Knowledge of Connective Links) – विभिन्न प्रकार के जन्तुओं का अध्ययन करने पर कुछ जन्तु ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें दो अलग-अलग वर्गों के लक्षण उपस्थित होते हैं। ऐसे जन्तु इन दो वर्गों के मध्य संयोजक कड़ी कहलाते हैं; जैसे- आर्किओप्टेरिक्स (Archaeopteryx) के जीवाश्म में सरीसृप एवं पक्षी वर्ग के लक्षण पाए जाते हैं तथा पेरीपेटस (Peripatus) में ऐनेलिडा एवं आर्थ्रोपोडा संघों के लक्षण पाए जाते हैं। ये जन्तु इस बात को प्रमाणित करते हैं, कि सरीसृप वर्ग से पक्षियों का और ऐनेलिडा से आर्थ्रोपोडा संघ का विकास हुआ है।
(v) अनुकूलन का ज्ञान (Knowledge of Adaptation) – जीवों के वर्गीकरण से यह ज्ञात होता है, कि किस प्रकार सरल संरचना वाले एककोशिकीय (Unicellular) जलीय जीवों से विभिन्न वातावरणों में रहने वाले जटिल जीवों का विकास हुआ अर्थात् इन सरल जलीय जीवों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन होने पर कालान्तर में अधिक जटिल संरचना वाले जीवों का विकास हुआ। इस प्रकार के तथ्यपरक निष्कर्ष वर्गीकरण के अध्ययन से ही सम्भव हैं।
(vi) समानताओं एवं विभिन्नताओं के कारण (Reasons of
Similarities and Variations) – वर्गीकरण के अध्ययन से जीवों में पाई जाने वाली आकारिकीय समानताओं एवं विभिन्नताओं के कारणों का पता चलता है। किसी एक प्रकार के वातावरण में निवास करने वाले विभिन्न समुदायों के जीवों में आकारिकी समानता पाई जाती है। इसी प्रकार अलग पर्यावरण में रहने वाले एक ही समुदाय के जीव एक-दूसरे से पृथक नजर आते हैं, जैसे-व्हेल एक स्तनधारी जन्तु होते हुए भी जल में रहने के कारण मछलियों के समान दिखाई देती है तथा व्हेल, शेर तथा चमगादड़ एक ही संघ के प्राणी हैं, किन्तु अलग-अलग वातावरण में रहने के कारण ये एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नजर आते हैं।
(vii) संग्रहालयों में जीवों के रख-रखाव में सुविधा (Helpful in Preservation of Organisms in Museum) – वर्गीकरण के आधार पर ही विभिन्न प्रकार के जन्तु तथा वनस्पतिक संग्रहालयों में दुर्लभ जन्तुओं अथवा पादपों के प्रारूप (Specimens) सुव्यवस्थित तरीके से रखे जाते हैं, जिससे उनके अध्ययन में कोई कठिनाई नहीं होती।
जीवों का नामकरण
Nomenclature of Organisms
सामान्यतया यह देखा जाता है, कि एक ही जीव का साधारण नाम अलग- अलग देशों में यहाँ तक कि देश के अनेक राज्यों में अलग-अलग पाया जाता है; जैसे-गौरेया नाम का एक छोटा पक्षी, इसे उत्तर भारत में गौरेया, दक्षिण भारत में पिच्चुका, इंग्लैण्ड में हाउस स्पैरो (House sparrow) तथा जापान में सुजून (Suzune) कहा जाता है। इसी असुविधा को ध्यान में रखते हुए कैरोलस लिनियस (Carolus Linnaeus) ने द्विनाम या द्विपदनाम नामकरण पद्धति की खोज की, जिसके अनुसार, किसी जीव की खोज के पश्चात् जीवों के वर्गीकरण में उसका उपयुक्त स्थान निर्धारित करके उसे एक निश्चित वैज्ञानिक नाम देना ही, जीव का नामकरण कहते हैं।
द्विनाम (द्विपदनाम) पद्धति Binomial Nomenclature
लिनियस ने अपनी पुस्तक सिस्टेमा नेचुरी (Systema Naturae) के दसवें संस्करण (1758) में इसका वर्णन किया था। अपने महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण इन्हें वर्गीकरण विज्ञान का जनक (Father of Taxonomy) भी कहा जाता है।
इस पद्धति के अनुसार, प्रत्येक जीव के नाम के दो भाग होते हैं। पहला भाग जीव के श्रेणी या वंश (Genus) को प्रदर्शित करता है। इसे जेनेरिक नाम ( Generic name) कहते हैं तथा दूसरा भाग जीव की जाति (Species) को प्रकट करता है, इसे स्पेसिफिक नाम (Specific name) कहते हैं, जैसे-घरेलू चिड़िया का वैज्ञानिक नाम पैसर डोमेस्टिकस (Passer domesticus) है, जहाँ पैसर वंश को तथा डोमेस्टिकस जाति को निरूपित करता है। इसी प्रकार सरसों (Mustard) का इस पद्धति में वैज्ञानिक नाम ब्रेसिका कैम्पेस्ट्रिस (Brassica campestris) है, जिसमें ब्रूसिका वंश को तथा कैम्पेस्ट्रिस जाति को दर्शाता है।
नामकरण के अन्तर्राष्ट्रीय नियम
International Rules of Nomenclature
जीव-जातियों के नामकरण हेतु, लिनियस की द्विपदनाम पद्धति के अनुसार, कुछ अन्तर्राष्ट्रीय नियमों को मान्यता दी गई, जिससे प्रत्येक जाति का विश्वभर में एक ही नाम हो। इसके अनुसार, प्राणियों के नामकरण के कुछ सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –
(i) किसी भी प्राणी अथवा पादप का वैज्ञानिक नाम लैटिन भाषा से व्युत्पन्न होना चाहिए।
(ii) वंश का नाम पहले तथा जाति का नाम बाद में आना चाहिए।
(iii) जीवों के वैज्ञानिक नाम को सदैव तिरछे (Italic) अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। हस्तलिपि में इन नामों के नीचे लाइन खींची जानी चाहिए।
(iv) अंग्रेजी में वंश के नाम का पहला अक्षर बड़ा (Capital) और जाति के नाम का पहला अक्षर छोटा (Small) होना चाहिए।
(v) दो अलग-अलग प्राणियों के जातीय नाम समान हो सकते हैं, किन्तु इनके वंश के नाम समान नहीं होने चाहिए।
(vi) किसी वैज्ञानिक द्वारा ज्ञात नए प्राणी का नाम तभी स्वीकार किया जाता है, जब वह अन्तर्राष्ट्रीय संहिता का पालन करता है।
वर्गीकरण की इकाइयाँ
Units of Classification
लिनियस ने सर्वप्रथम लगभग एकसमान जन्तु जातियों के लिए श्रेणियाँ (Genera) बनाकर सभी श्रेणियों को संरचनात्मक लक्षणों के आधार पर निम्न छ: वर्गों (Classes) में वर्गीकृत किया
1. मैमेलिया (Mammalia)
2. एवीज (Aves)
3. एम्फीबिया (Amphibia)
4. पिसीज (Pisces)
5. वर्मीस (Vermes)
6. इन्सेक्टा (Insecta)
परन्तु सन् 1758 में लिनियस ने अपनी ही वर्गीकरण प्रणाली में सुधार के फलस्वरूप जन्तुओं के वर्गीकरण के लिए सात प्रमुख क्रमबद्ध समूह नामों या श्रेणी (Rank) को अपनाया, जो निम्नलिखित हैं –
(i) जाति अथवा प्रजाति (Species)
(ii) वंश अथवा श्रेणी (Genus)
(iii) कुल अथवा कुटुम्ब (Family)
(iv) गण (Order)
(v) वर्ग (Class)
(vi) समुदाय अथवा संघ (Phylum)
(vii) जगत (Kingdom)
इसके अनुसार, लिनियस ने पूर्णरूप से समान दिखने वाले जन्तुओं को एक जाति में रखा अर्थात् जाति जीवों के उस समूह को कहते हैं, जिनकी रचना,स्वभाव, व्यवहार, आदि आपस में समान हों एवं समान गुणों वाली सभी जातियों को वंश में रखा । मिलते-जुलते वंश को मिलाकर एक कुल में,समानता प्रदर्शित करने वाले सभी कुलों को एक गण में, मिलते-जुलते गणों को एक वर्ग में और कुछ मूल लक्षणों में समानता वाले वर्गों को संघ में रखा। उन्होंने जाति को वर्गीकरण की सबसे छोटी इकाई बनाया।
वर्गिकीय पदानुक्रम Taxonomic Hierarchy
वर्गीकरण की सभी श्रेणियों को बड़ी से छोटी श्रेणियों के एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित करना वर्गिकीय पदानुक्रम कहलाता है। सभी सात श्रेणियों का पदानुक्रम निम्नलिखित प्रकार से है।
जगत (Kingdom)
संघ (Phylum) (जन्तुओं में) / विभाग (पादपों में)
वर्ग (Class)
गण ( Order)
कुल ( Family)
वंश (Genus)
जाति (Species)
वर्गिकीय पदानुक्रम के द्वारा मनुष्य का वर्गीकरण निम्न प्रकार से समझा जा सकता है –
जगत (Kingdom) – जन्तु (Animalia)
संघ (Phylum) – कॉडेंटा (Chordata)
उपसंघ (Sub-phylum) – वर्टिब्रेटा (Vertebrata)
वर्ग (Class) – स्तनधारी (Mammalia)
उपवर्ग (Sub-class ) – यूथीरिया (Eutheria)
गण ( Order) – प्राइमेट्स (Primates)
कुल ( Family) – होमोनिडी (Homonidae)
वंश (Genus) – होमो (Homo)
जाति (Species) – सैपियन्स (sapiens)
वर्गीकरण की पद्धतियाँ
Systems of Classification
समय-समय पर अनेक वैज्ञानिकों द्वारा वर्गीकरण की अलग-अलग पद्धतियाँ प्रतिपादित की। ये पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं।
(i) कृत्रिम पद्धति ( Artificial System) – यह वर्गीकरण की सबसे सरलतम पद्धति है। इसके अनुसार, जन्तुओं को उनके रंग-रूप, आकार, आकृति, वासस्थान, आदि के आधार पर स्थलीय (Terrestrial), जलीय (Aquatic) तथा वायवीय (Aerial) में वर्गीकृत किया गया। इसी प्रकार पादपों को आयु के आधार पर एकवर्षीय, द्विवर्षीय तथा। बहुवर्षीय समूहों में वर्गीकृत किया गया।
(ii) प्राकृतिक पद्धति (Natural System) – इस प्रकार के वर्गीकरण में एक समूह के जीव, संरचना और प्राकृतिक विकास की दृष्टि से सम्बन्धित होते हैं। आजकल इसी प्रकार की पद्धति का उपयोग किया जा रहा है।
(iii) जातिवृत्तीय पद्धति (Phylogenetic System) – वर्गीकरण की इस पद्धति में जीवों को उनके और आनुवंशिक लक्षणों के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
वर्गीकरण की विभिन्न जगत प्रणालियाँ
Different Kingdom Systems of Classification
वर्गीकरण की विभिन्न प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं
(i) द्विजगत प्रणाली (Two Kingdom System ) – यह पद्धति लिनियस द्वारा सन् 1758 में दी गई। इस पद्धति में उन्होंने सभी जीवों को दो भागों अर्थात् जन्तु एवं पादप जगत में विभाजित किया, उन्होंने जन्तु जगत में सभी जन्तुओं तथा पादप जगत में सभी पादपों को रखा।
(ii) तीन जगत प्रणाली (Three Kingdom System) – यह वर्गीकरण हेकल (Haeckel; 1860) ने दिया था, जिसमें जन्तु व पादप के साथ प्रोटिस्टा को भी रखा गया।
(iii) चार जगत प्रणाली (Four Kingdom System) – यह वर्गीकरण कोपलैण्ड (Copeland; 1938) ने दिया था, जिसमें मोनेरा को भी जोड़ा गया।
(iv) पाँच जगत प्रणाली (Five Kingdom System) – यह वर्गीकरण अमेरिका के वैज्ञानिक आर एच व्हिटेकर (RH Whittaker) ने सन् 1969 में दिया।
वर्गीकरण का यह आधार व्हिटेकर ने निम्नलिखित लक्षणों पर निर्भर रखा है –
(a) कोशिका की संरचना (Cell Structure) – पूर्वकेन्द्रीय (Prokaryotic) अथवा सुकेन्द्रकीय (Eukaryotic)।
(b) शरीर की संरचना (Body Structure)– एककोशिकीय (Unicellular) अथवा बहुकोशिकीय (Multicellular)
(c) जीवों के जीवन की दिशा (Lifestyle of Organisms ) – उत्पादक, उपभोक्ता अथवा अपघटक।
(d) जातिवृत्तीय सम्बन्ध (Phylogenetic Relationship) – जीवों में जातिवृत्तीय सम्बन्ध
(e) पोषण का प्रकार (Mode of Nutrition) – स्वपोषी (Autotrophic) अथवा परपोषी (Heterotrophic)।
उपरोक्त आधार पर व्हिटेकर ने जीवधारियों को निम्नलिखित पाँच जगतों में विभाजित किया –
(i) जगत-मोनेरा (Kingdom – Monera) – इस जगत के जीवधारियों में एककोशिकीय पूर्वकेन्द्रकीय कोशिकाएँ होती हैं। इनमें आरम्भी केन्द्रक (Incipient nucleus) पाया जाता है; जैसे- सायनोबैक्टीरिया, जीवाणु,आदि।
(ii) जगत-प्रोटिस्टा (Kingdom-Protista) – इस जगत में अधिकांश जीव एककोशिकीय सुकेन्द्रकीय होते हैं। इनमें वास्तविक केन्द्रक पाया जाता है; जैसे-अमीबा, यूग्लीना, आदि।
(iii) जगत-कवक (Kingdom Fungi)– इस जगत के जीव बहुकोशिकीय सुकेन्द्रकीय, परपोषी होते हैं। इनमें कवकजाल (Mycelium) होता है। इनमें काइटिन द्वारा निर्मित कोशिका भित्ति पाई जाती है; जैसे- राइजोपस, पेनिसिलियम, आदि।
(iv) जगत-पादप (Kingdom-Plantae) – ये बहुकोशिकीय पादप होते हैं। इनकी कोशिकाओं के चारों ओर सेलुलोस की कोशिका भित्ति पाई जाती है। ये प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने लिए भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं अर्थात् स्वपोषी होते हैं; जैसे-फर्न, मॉस, शैवाल, बीज वाले पादप, आदि।
(v) जगत-जन्तु (Kingdom-Animalia)– ये बहुकोशिकीय सुकेन्द्रकीय, परपोषी जन्तु होते हैं। इनमें प्रकाश-संश्लेषण नहीं होता है तथा कोशिका भित्ति अनुपस्थित होती है; जैसे- मनुष्य, आदि।
◆◆◆ निवेदन ◆◆◆
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